अंधे और लंगड़े की नई कहानी / प्रमोद यादव अगर आपकी पैदाईश चार-पांच दशक पहले की है तो निश्चित ही आप अंधे और लंगड़े की कहानी से अवगत होंगे. नए ...
अंधे और लंगड़े की नई कहानी / प्रमोद यादव
अगर आपकी पैदाईश चार-पांच दशक पहले की है तो निश्चित ही आप अंधे और लंगड़े की कहानी से अवगत होंगे. नए दौर के बच्चे... या कहिये दो दशक पहले पैदा लिए बच्चे शायद ही इस कहानी से वाकिफ हों..शायद ही इसे पढ़े या सुने हों. किसी के दादा-दादी या नाना-नानी ने सुनाये भी होंगे तो भी उन्हें याद नहीं होगा... मल्टी-स्टारर कहानी के ज़माने में एक अंधे और एक लंगड़े की कहानी को भला कौन याद रखेगा ? क्या मालूम यह कहानी अभी प्रायमरी स्कूल के हिंदी कोर्स में, “बाल-भारती” में है भी या नहीं ? वैसे भी आजकल के बच्चे तो जनमते ही “ कान्वेंट “ की राह पकड़ते हैं..हिंदी से इनका कोई नाता नहीं होता.. हिंदी पढना भी इनके शान के खिलाफ होता है..
वक्त के साथ बदलाव जरुर आता है..यह हकीकत है.. पर पिछले तीस सालों में बच्चों की जो मानसिकता बदली है तो उसमें उनका दोष नहीं..दोषी लाखों-करोड़ों पालक हैं जो इस देश को इंगलिस्तान बनाने तुले हैं..ठीक है..अंग्रेजी की अहमियत विश्व-पटल पर है पर इतना भी क्या कि अंगेजी पढ़ते बच्चों की मानसिकता के साथ संवेदना भी बदल जाए...आज के बच्चों की अगर भूले से भी किसी अंधे या लंगड़े से पाला पड़ जाए तो तुरंत वे कन्नी काट लेंगे ..बड़े ही संवेदनहीन हो गए हैं नए जनरेशन के बच्चे.. पुराने जमाने में तो आदमी के भीतर संवेदनाओं का सैलाब फूटा पड़ता था..जहां किसी अंधे को देखे कि तुरंत सड़क पार करा देते..ये अलग बात है कि इस सैलाब के चलते बेचारा अँधा कई बार दिगभ्रमित हो जाता कि एक्चुअल में उसे जाना किधर है...क्योंकि जैसे ही कोई उसे सड़क पार कराता, उधर से कोई अति संवेदनशील व्यक्ति फिर उसे वापस पार करा देता..और यह क्रम कई बार चल जाता तब अँधा सड़क छोड़ एक किनारे बैठ जाता.. और सड़क के सुनसान होने का इंतज़ार करता.. यही हाल लंगड़ों का था..सीढ़ी के नीचे है तो कोई ऊपर चढ़ा देता..और सीढ़ी से ऊपर है तो कोई बिना पूछे नीचे उतार देता..अंधे-लंगड़े को दिक्कत हो जाती पर उस जमाने के आदमी को ऐसा करने में कोई दिक्कत नहीं होती ..इतने संवेदनशील होते थे तब के आदमी ..अब तो कोई अँधा चीखता भी रहे कि सड़क पार करा दे..पर लोग हैं कि सुन के भी अनसुना कर निकल जाते हैं..
खैर छोडिये..तो हम अंधे और लंगड़े की दोस्ती की बातें कर रहे थे...बचपन में जब पढ़ा तो मन ने मान लिया कि ऐसा हुआ होगा..लेकिन आज पचास साल बाद न मालूम क्यों इस कहानी के पात्रों पर, स्क्रिप्ट पर.. घटना पर मुझे संदेह हो रहा है...समझ नहीं आता कि लेखक ने अंधे और लंगड़े की ही दोस्ती क्यों दिखाई ? जबकि अमूमन होता ऐसा है कि अंधे की दोस्ती अंधे से होती है..लंगड़े की दोस्ती लंगड़े से..गूंगे-बहरे की गूंगे-बहरे से..कई बार ऐसा मैंने खुद देखा-पाया है..गूंगे-बहरों की दोस्ती तो शायद कभी न भूल पाऊं...मेरे ही मोहल्ले में तीन कमाल के गूंगे-बहरे दोस्त हुआ करते थे..र्तीनों हमउम्र थे बीस-बाईस साल के...तीनों बड़े ही परिश्रमी.. पूरे दिन हाड-तोड़ मेहनत करते..और रात दस बजे तीनों खा-पीकर एक चौक में बने चबूतरे में बैठते...रोज मैं भी अपने एक अभिन्न मित्र के साथ वहां बैठ गप्पबाजी करता..तब तीनों को इशारों- इशारों से गप्पे मारते देखता..वे रोज दो-तीन घंटे वहां बैठते.. परिचित थे ..मिलते ही नमस्ते करते..उन तीनों के वार्तालाप देख हम चकित रह जाते..कभी-कभी तो एकाध गूंगा किसी देखे हुए पिक्चर की स्टोरी भी डायलाग सहित सुना देता..बाकी के दो आराम से समझ जाते..उन तीनों की दोस्ती देख मैं निहाल हो जाता..आज की तारीख में वे कहाँ है,पता नहीं..पिछले बीस-पच्चीस सालों से उन्हें नहीं देखा..
तो लेखक ने ये बेमेल दोस्ती क्यों कहानी में पिरोई - समझ नहीं आया..शायद इसलिए कि इन्हें मेला देखने जाना था और एक दूजे का पूरक दिखाना था इसलिए या फिर अंधे की दोस्ती के जज्बे को दिखाना था इसलिए.. अब एक अँधा भला क्या मेला देखता ? लेखक ने यह कहानी उस दौर में लिखी होगी जब आवागमन का कोई साधन न था..ना तांगा-रिक्शा ना टेम्पो-बस ..बस “खुदा के पास जाना है “ की तरह कुछ था तो पैदल ही था....बस-ऑटो होता तो अँधा या लंगड़ा दो रूपये दे अकेले ही मेला नहीं सटक लेता ? एक दूजे को ताकते ही क्यों ? तब न फोर लेन या सिक्स लेन सड़कें थी..पगडण्डी भी मुश्किल से मिल पाते थे ..वो भी उबड़-खाबड़..ऐसी स्थिति में बेचारा अँधा साठ किलो के लंगड़े को कंधे में बिठा कैसे मेला ले गया होगा..भगवान् ही जाने..और लेखक ने बताया भी नहीं कि मेला आठ किलोमीटर दूर था कि दस किलोमीटर.. कुछ भी हो यह दोस्ती की नहीं बल्कि अत्याचार की कहानी है..अंधे के कंधे में बैठ कोई उसे गधे की तरह हांकें तो इसे अत्याचार नहीं तो और क्या कहेंगे ? मुझे नहीं मालूम कि ये कहानी पंचतंत्र से है या जातक से अथवा किसी लेखक की मौलिक कहानी है..पर जो हो किसी न किसी ने तो इसे लिखा है ..उनसे क्षमा चाहता हूँ कि बैठे-ठाले मैं उनकी कहानी का कचूमर निकाल रहा हूँ..पर कहानी है मजेदार क्योकि जिस क्लास के बच्चो को यह पढाया जाता था , वे तो उस उम्र में दोस्ती का अर्थ भी नहीं जानते थे.. इसी कहानी के चलते आगे हिंदी में अंधे और लंगड़े की दोस्ती पर एक फिल्म बनी- “ दोस्ती “ जो सुपर-डूपर हिट हुई..लेकिन उसके बाद ऐसी कोई फिल्म नहीं आई..आई भी तो “ गाय और गौरी “.. ´हाथी मेरे साथी “.. “ धरम-वीर “.. और “ तोता = मैना की कहानी “ जैसे आई..पर अंधे-लंगड़े की नहीं आई..
एक दिन यूं ही अपने तेरह वर्षीय नाती को यह कहानी सुनाया तो वह हंसते हुए बोला- ‘ ये भी कोई कहानी है नाना ? इससे अच्छा तो मैं लिख दूँ ‘
मैंने कहा- ‘ अच्छा चलो ...इसी कहानी को अगर आप लिखते तो कैसा लिखते ? लिखकर बताईये ..’
‘ हाँ..लिख दूंगा..पर दोस्ती पर नहीं..दुश्मनी पर लिखूँगा..’ नाती ने शर्त रखते कहा.
‘ ठीक है..लिखो तो सही..देखूँ क्या लिखते हो आप ? ’
तब आधे घंटे में उसने कहानी लिखकर फेंक दी. कहानी पढ़ मेरे तो होश उड़ गए..अब आपके भी उडाऊं....कहानी यूं है---
“कई साल पहले मुंबई में दो डान हुआ करते थे-एक का नाम मोगेम्बो था..वह अँधा था..दूसरे का नाम डाबर -वो लंगड़ था..दोनों में पारंपरिक दुश्मनी थी..दोनों हत्या, डकैती, अपहरण और स्मगलिंग का धंधा करते..अक्सर एक-दूजे का ही माल लूट दुश्मनी को और मजबूत करते थे..अंधे के गिरोह में जितने भी थे सारे के सारे लंगड़ थे और लंगड़े के साथ जितने भी थे-सभी अंधे....दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने ऐसा किये थे..एक बार दोनों गिरोह की जमकर लड़ाई हुई..खूब गोलियां चली, हथियार चले पर अचानक पुलिस आ गई और दोनों गिरफ्तार हो गए..उन पर मुक़दमा चला और दोनों को फांसी की सजा हो गई..दोनों को एक साथ फांसी लगनी थी..नियत तारीख पर जब फांसी के पहले उनसे आखिरी इच्छा पूछी गई तो लंगड़े ने कहा कि मैं अंधे का पैर तोडना चाहता हूँ तो अंधे ने आखिरी इच्छा जताई कि लंगड़े की दोनों आँखें फोड़ना चाहता है ..
फाँसीघर में तैनात अफसर ने जल्लाद को इशारे किया कि लीवर खींच दो.. और धीरे से बुदबुदाया - “साले दोनों पागल हैं..“ और जल्लाद ने झटके से लीवर खींच दिया..दोनों लटककर तहखाने में चले गए..इसके साथ ही दोनों की दुश्मनी भी हमेशा-हमेशा के लिए दफ्न हो गई..”
अंधे और लंगड़े की नई कहानी गढ़ने की तत्परता के लिए मैंने उसकी पीठ ठोंकी और कहा- ‘ पर बेटा मुझे ये समझ नहीं आया कि तुमने दोस्ती की कहानी की जगह दुश्मनी की क्यों लिखी ? ‘
उसने जवाब दिया- ‘ नाना..” मेरी दोस्ती मेरा प्यार “ अब गुजरे जमाने की बातें हैं..आज “ मेरे दुश्मन..तू मेरी दोस्ती को तरसे “ जैसे ज़माना है..सब यहाँ एक दूसरे की जान के दुश्मन हैं..कोई पीठ पीछे छुरा भोंक रहा है तो कोई सीधे सामने से..आप काउंट करके देख लीजिये ..जिंदगी में दोस्त ज्यादा हैं या दुश्मन ? इसलिए कहानी भी इसी तरह की बनेगी .. ‘
मैं निरूत्तर हो सोचने लगा- सचमुच आज के बच्चों में कैसा अनोखा बदलाव आ गया...मैंने तो इसकी उम्र में अंधे और लंगड़े की कहानी को एक्सेप्ट कर लिया था..उस पर कुछ टीका-टिपण्णी करने में पचास साल लग गए.. पर इसने तो सुनते ही रिएक्ट कर दिया...मैं “ मारल आफ द स्टोरी “ बदल रहा था..इसने तो स्टोरी ही बदल दी.. आज तक बच्चों के बारे में जो अनेक नीति वचन सुनता आया “ बच्चे मन के सच्चे “..बच्चे देश का भविष्य “.. बच्चे कल का भविष्य..,बच्चे भगवान का रूप “ अब इन सब पर संदेह होने लगा है...आनेवाले दिनों में ये कब क्या कर गुजरेंगे ? भगवान ही जाने...
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प्रमोद यादव
गयानगर , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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