लघुकथा अनवर चाचू काम का जैसे जुनून सवार रहता अनवर पर, बस आप काम बोलिए, वह करने को तत्पर। आलस तो उससे कोसों दूर भागती। अनवर गरीब जरूर थ...
लघुकथा
अनवर चाचू
काम का जैसे जुनून सवार रहता अनवर पर, बस आप काम बोलिए, वह करने को तत्पर। आलस तो उससे कोसों दूर भागती। अनवर गरीब जरूर था लेकिन उसे रूपए-पैसे से मोह नहीं था। वह रईस दिलजान अहमद के किराना स्टोर में काम करता था। मालिक जब उसे तनख्वाह देता तो देने के पहले कई बार थूक लगा-लगा कर गिनता पर अनवर के हाथ में आते ही वह बिना गिने रूपए रख लेता और या तो काम में लग जाता या घर जाने के लिए निकल पड़ता।
दिलजान अहमद जब अकेले होते तो सोचते कि जितनी तनख्वाह वह अनवर को देते, उससे दुगनी रकम के वे अनवर के कर्जदार हो जाते। जितना काम अनवर करता है उसे तय तनख्वाह से अधिक मिलना ही चाहिए लेकिन यह दिलजान अहमद के सोच तक ही रही कभी हकीकत न बन पायी।
अनवर न सिर्फ दुकान का काम करता बल्कि फल-सब्जी वगैरह भी ला देता, बच्चों को स्कूल भी ले जाता और ले आता। दिलजान का दिल होता था कि वह अनवर से उसके बाल-बच्चों के बारे में भी पूछे लेकिन दिलजान की दिल की बात दिल में ही रह जाती। दुकान चलाने में इतनी व्यस्तता होती कि वह अनवर से कभी यह नहीं पूछ पाया कि उसके बाल-बच्चे स्कूल भी जाते है या नहीं ?
अनवर जब मालिक के बच्चों को स्कूल पहुंचाने और स्कूल से लाने जाता तो बच्चे कभी चॉकलेट, कभी मिठाई, कभी कोई खिलौना लेने की जिद करते, उसे अनवर खरीद देता था। कभी जब बच्चे अपने अब्बू दिलजान से कोई चीज लाने की जिद करते और दिलजान उसे टाल देता तो बच्चे अपने अब्बू को कह देते कि अनवर चाचू से बोलकर मंगवा लेगा। दिलजान मन ही मन सोचता कि अनवर इतना कुछ मेरे बच्चो, परिवार के लिए करता है, इस बार ईद में अगर नयी नहीं तो पुरानी कमीज, पजामा, पतलून उसे जरूर देगा। हालांकि ईद के कुछ दिन पहले से ही अपने कीमती मोबाइल फोन पर एलर्ट सूचना में अनवर को पुराने कपड़े दिए जाने की बात दिलजान ने डाल दिया था लेकिन इस बार भी ईद में अपनी बीवी, दो बेटों और दो बेटियों और हां खुद के नये कपड़े खरीदने में इतना व्यस्त रहा कि पुराने कपड़े अनवर को देने भी है, उसके दिमाग से उतर गया।
चाँद रात को दिलजान को बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई जब उसने देखा कि अनवर दिलजान के बच्चों के लिए उनके फरमाइश के नये-नये जीन्स और झालर वाला लंहगा लाकर बच्चेां को देकर उनके साथ खेल रहा है और खुश भी हो रहा है।
दिलजान ने झेंपते हुए कहा कि इसकी क्या जरूरत थी अनवर, मैंने तो बच्चों के लिए नये कपड़े खरीद दिये थे। खैर तुम्हें कितने रूपए दूं बच्चों के नये कपड़े लाने के लिए। अनवर मुस्करा दिया, छोड़िए न मालिक आपके बच्चे मुझे चाचू कहते है तो ईद में उन्हें नये कपड़े देने का मुझे भी तो हक है और ईद की बेइंतहा खुशी को समेटे अनवर अपने बच्चों के साथ ईद मनाने घर की ओर चल पड़ा था।
दिलजान के बच्चे अपने अनवर चाचू को अलविदा कहते हुए हाथ हिला रहे थे।
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लघुकथा
मातमी कौन ?
शर्मा जी लंबी बीमारी के बाद आज नहीं रहे․ पत्नी पहले ही उन्हें छोड़ गयी थी․ तीन बेटों में से एक विदेश जा कर बस गया था, दो बेटों और उनका परिवार शर्माजी के साथ ही रहता था लेकिन न तो बहुओं को और नहीं बेटों को फुर्सत थी शर्माजी की तीमारदारी की․ दो बेटियाँ अपने-अपने ससुराल से फोन पर बीमार पिता का हाल-चाल पूछती रहती थी․ छोटे बेटे के ससुर फोन पर अपनी बेटी से पूछते रहते थे कि ‘‘कब तक शर्माजी बिस्तर पर पड़े रहेंगे ?'' जवाब में छोटी बहु बताया करती कि ‘‘अब सिकुड़ कर शर्माजी छोटे हो गये है, दवाई पर और कुछ दिन !''
चौदह वर्ष का कार्तिक ही था जो शर्माजी की सेवा-टहल किया करता था․ शुरू से अनुशासन में रहने की वजह से बीमारी में भी अनुशासित ही रहे शर्माजी․ कार्तिक समय का पाबंद था, शेविंग से लेकर नाश्ता, खाना, हार्लिक्स, लीकर चाय सब टे्र नेपकीन के साथ कार्तिक समय-समय पर शर्माजी को देता रहता․ समय कार्तिक रट गया था․ आठ बजे नाश्ता, दस बजे लीकर चाय, डेढ़ बजे सूप, दो बजे खाना, चार बजे लीकर चाय, सात बजे शाम हार्लिक्स, जरूरत पड़ने पर दौड़कर नाक में श्वास यंत्र लगाना, पैरों में दर्द होने पर हल्का मालिश․ शर्माजी के अपने बेटों को उन्हें देखने की भी फुर्सत नहीं थी लेकिन कार्तिक बड़े उत्साह और मुस्तैदी से शर्माजी की देखभाल करता․ शर्माजी ने उसे पढ़ना भी सीखा दिया था, अब कार्तिक सूबह का अखबार, शाम में साहित्यिक पत्रिका पढ़-पढ़ कर शर्माजी को घंटों सुनाया भी करता था․
शर्माजी के मरते ही मातम मनाने वालों का तांता लग गया था․ पास-पड़ोस के औरत-मर्द आते और शर्माजी के शव को दूर से ही पाँव छूने का दिखावा करते जाते․ कोई कहता, ‘जब तक जिंदा रहे, आप लोगों ने इलाज और देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ा․' कुछ औरतें तो इससे भी एक कदम आगे बढ़कर रोते हुए शर्माजी की बहुओं से पारी-पारी से चिपट रहीं थीं, कई तो आर्द्र स्वरों में विलाप कर उठतीं․ मातमपुर्सी से समय निकालकर कई औरतों ने कार्तिक को निकाल बाहर करने की सलाह देने से भी नहीं चुकी, बेकार के खर्च बढ़ाने से क्या फायदा ?
शर्माजी के बेटे-बहु सभी व्यस्त थे मातमपूर्सी के लिए आए मेहमानों की देखरेख में, नाश्ता-चाय का दौर चलवाने में, सिर्फ कार्तिक ही था जिसकी आँखें डबडबायी एकटक शर्माजी को देख रही थी, कार्तिक सोच रहा था दिन के डेढ़ बज रहे थे, ये शर्माजी के सूप पीने का वक्त था․
राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंडा
गिरिडीह-815301
झारखंड
दोनों लघुकथाएँ एक से बढ़कर एक सुन्दर
जवाब देंहटाएंमार्मिक शिक्षाप्रद बधाई राजीवजी