हिन्दी भाषा व हमारी मानसिकता हिन्दी भारतीय आर्य- भाषा परिवार की भाषा है। यह संस्कृत भाषा से निकल कर प्राकृत भाषा काल के तीनों सोपानों, पालि,...
हिन्दी भाषा व हमारी मानसिकता
हिन्दी भारतीय आर्य- भाषा परिवार की भाषा है। यह संस्कृत भाषा से निकल कर प्राकृत भाषा काल के तीनों सोपानों, पालि,पाकृत और अपभ्रंश को पार करती हुई आज समूचे भारत की सम्पर्क भाषा बन गई है। इसका विकास अंतर्क्षेत्रीय भाषा राष्ट्र भाषा,राज भाषा और अन्तर-राष्ट्रीय भाषा के रूप में हो रहा है। हमारे जन जीवन , सामाजिक सांस्कृतिक -संप्रेषण, ज्ञान-विज्ञान और सृजनात्मक साहित्य के रूप में विकसित हिन्दी हमारी ही नहीं अपितु पूरे विश्व की व्यवस्थाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर चुकी है। इसी का परिणाम है कि यह अपने देश में मातृ- भाषा , प्रथम भाषा, द्वितीय भाषा आदि रूपों में पढ़ी और पढ़ाई जा रही है और यह भारत के बाहर भी कई देशों में अध्ययन -अध्यापन का विषय है।
हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा तो है ही इसके अतिरिक्त 14 सितम्बर,1949 को हमारे संविधान में इसे राजभाषा होने का गौरव प्रदान किया है। आज यह नौ राज्यों , उत्तर प्रदेश ,हिमाचल प्रदेश, हरियाणा राजस्थान,मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तरांचल, झारखण्ड़, छत्तीसगढ़ राज्यों और दिल्ली एवं अंडेमान-निकोबार संघ राज्य-क्षेत्रों में शासन और शिक्षा की भाषा है ।
हमारे हिमाचल प्रदेश में हिन्दी राजकीय विद्यालयों में प्रथम भाषा के रूप में पढ़ाई जाती है । इसके विकास के लिए लगभग पिछले पाँच दशकों से निरन्तर प्रयास किए जा रहे हैं। यद्यपि इसका सीधा सम्बन्ध हमारे जीवन से है, यह अभिव्यक्ति अथवा विचार विनिमय का सशक्त माध्यम है तथा परिवार व समाज से जोड़ने वाली प्रमुख कड़ी है, यह राष्ट्रीय संस्कृति की प्रमुख वाहिका है, इसके साथ ही यह विद्यालय के अन्य विषयों की शिक्षा का सशक्त माध्यम है तथापि इसमें जितनी अधिक प्रगति होने की अपेक्षा थी वह कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हो रही है।
मातृभाषा का शाब्दिक अर्थ है माँ के मुख से निकलने वाली भाषा अर्थात जिस भाषा को बच्चा अपनी माँ का अनुकरण करके सीखता है । हमारे प्रदेश में ग्रामीण बालक पश्चिमी पहाड़ी की बोलियों को ही अपनी माँ के मुख से सीखते है तथा उसके प्रति उनका मोह विद्यालय में भी कम नहीं होता वे अध्यापकों के साथ तथा कक्षा में पढ़ते समय ही हिन्दी बोलते हैं अन्यथा चाहे खेल का मैदान हो या मार्ग या अन्य कोई स्थान वे आपस में अपनी ग्रामीण बोली का ही प्रयोग करते हैं। मैं यहाँ उन भारतीय माताओं की बात नहीं कर रहा जो प्रादेशिक बोलियों , यहाँ तक कि राष्ट्र- भाषा हिन्दी में भी बात करना अपने लिए लज्जा की बात समझती हैं। एक दिन एक बालक जो अपनी माँ के साथ बाजा़र
जा रहा था ने ‘नमस्ते अंकल’ कह कर मेरा अभिवादन किया तो उसकी माँ ने तत्काल प्रतिक्रिया करते हुए उसकी भुजा को पकड़ कर मरोड़ना प्रारम्भ कर दिया और उस बालक को कहने लगी - ‘ठीक से बोल’ और तब तक उसका हाथ नहीं छोड़ा जब तक उसने मुझे ‘गुड़मार्निग’ नहीं कहा । कुछ देर तक मैं समझ ही नहीं पाया कि बालक ने क्या अनुचित कह दिया है पर बाद में मेरी समझ में आ गया कि वह यह दर्शाना चाहती थी कि उसका बेटा अंग्रेजी जानता है । वह भी समय था जब राष्ट्पिता महात्मा गाँधी को लोग गाँधी बापू कह कर पुकारते थे परन्तु आज के तथाकथित शिक्षित लोग आज इन शब्दों का प्रयोग करना अपमान की बात समझते हैं और अपनी संतान के मुख से पहला शब्द ‘मॉम’ और ‘डैड’ ही सुनना चाहते है। मैं तो उन बालकों की बात कर रहा हूँ जिनको घरों में अंग्रेजी तो क्या कोई हिन्दी बोलने वाला ही नहीं मिलता। यही नहीं कुछ अध्यापक भी अपनी बोली के मोह को नहीं छोड़ सकते और विद्यालय में बालकों व सहकर्मियों के साथ अपनी बोली में ही बात करते हैं तथा उनका अध्यापन का कार्य भी उसी बोली में चलता है ।
मैं पूरे भारत की बात् न करते हुए केवल अपने हिमाचल प्रदेश की बात करता हूँ हमारे प्रदेश में अनेक बोलियाँ भी बोली जाती है। प्रशासनिक दृष्टि से पूरे प्रदेश को भले ही 12 जिलों में विभक्त किया गया है परन्तु यदि भाषिक दृष्टि से अवलोकन करें तो इन जिलों के अन्दर बोली जानें वाली बोलियाँ में तो काफी भिन्नता है ही साथ ही साथ एक जिले के अन्दर भी अनेक बोलियाँ बोली जाती है। ‘कोस-कोस पर पानी बदले , चार कोस पर वाणी’ वाली बात इस प्रदेश पर पूर्णरूपेण चरितार्थ होती है। राष्ट्रीय पाठ्य चर्या की रूपरेखा-2005 के परिपेक्ष्य 3.1.1 में भी उल्लेख किया गया है कि,‘‘अगर स्कूल में उच्चतर स्तर पर बच्चों की घरेलू भाषा/भाषाओं मे शिक्षण की व्यवस्था न हो तो प्राथमिक स्तर की स्कूली शिक्षा अवश्य घरेलू भाषा / भाषाओं में दी जाए। यह आवश्यक है कि घरेलू भाषाओं को सम्मान दें।’’यहाँ घरेलू भाषा से तात्पर्य घर की भाषा, कुनबे की भाषा, आस पड़ोस की भाषा आदि से है। मेरे विचार से यहाँ ‘भाषा’शब्द ‘बोली के अर्थ को अपने अन्दर समाहित किए हुए है । हमारे प्रदेश मे प्राथमिक कक्षाओं में अध्यापक बालक के घर, कुनबे, पड़ोस आदि में बोली जाने वाली बोलियों की मदद हिन्दी भाषा शिक्षण में ले कर बालकों को बडे़ ही रोचक व सहज ढ़ंग से हिन्दी का ज्ञान दे सकते हैं परन्तु माध्यमिक व उच्च कक्षाओं में, जब वे हिन्दी भाषा का काफी हद तक ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तो मेरे विचार से यह प्रयास किया जाना चाहिए कि वह बोलने व लिखने में मानक अथवा साहित्यिक हिन्दी भाषा का अत्यधिक प्रयोग करें। इसका शिक्षण अवधि के दौरान कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए। प्राचीन काल में बालक संस्कृत भाषा में प्रवीणता इसीलिए प्राप्त कर पाते थे क्योंकि गुरुकुल में अन्य भाषा को बोलने के अनुमति नहीं होती थी। कॉनवैंट विद्यालय के छात्र इसलिए ही अच्छी अंग्रेजी बोल लेते हैं क्योंकि वहाँ जब तक बच्चा विद्यालय में रहता है; द्वितीय भाषा की घण्टी को छोड़ कर उसे अंग्रेजी में ही बात करनी होती है। यदि हिन्दी के बोलने व लिखने में गुणवत्ता लाने के लिए ऐसा प्रयास किया जाए तो हमें काफी सफलता मिल सकती है तथा यह कदम हमारी राजभाषा के विकास के लिए एक सफल कदम होगा।
वर्तमान में राज- भाषा हिन्दी दिल्ली व मेरठ के आसपास बोली जाने वाली खड़ीबोली का विकसित रूप है और यह उन बोलियों से काफी भिन्न हैं जिनका प्रयोग हमारे प्रदेश के बालक आमतौर पर किया करते है। भाषा शिक्षण में प्रायः तीन प्रकार की कुशलताओं को विकसित करने पर बल दिया जाता है-यांत्रिक कुशलताएँ ,अर्ध-यांत्रिक कुशलताएँ तथा चिंतनात्मक एवं सृजनात्मक कुशलताएँ। यांत्रिक कुशलताओं का विकास तो थोड़े प्रयत्नों से करवाया जा सकता है परन्तु अन्य दो कुशलताओं का विकास तो तब तक सम्भव नहीं है जब तक बालक पढ़े गए शब्दों का प्रयोग अपने दैनिक जीवन में नहीं करते अथवा उसे पढ़ने के लिए विवश नहीं होते।
आज हम हिन्दी को कई रूपों में प्रयुक्त करते हैं - साहित्यिक हिंदी, जन संचार माध्यम की हिन्दी, कार्यालयी हिन्दी, वैज्ञानिक हिन्दी,व्यावसायिक हिन्दी अथवा प्रयोजनमूलक हिन्दी। इन सभी प्रयुक्तियों में काफी अन्तर देखने को मिलता है इस कारण अध्ययन अध्यापन करने वाले के सामने समस्या खड़ी है कि वह किस हिन्दी को समझे और समझाए। उदाहरण के लिए आज वाहन के पीछे या सड़कों के मोड़ों पर साफ लिखा मिलता है- ‘हार्न बजाऐं।’ शायद ये दोनो शब्द अपने प्रयोजन को हल कर रहे हैं इस कारण लोग इसे गलत नहीं मानते । परन्तु एक साहित्यिक व्यक्ति के लिए यह बात बड़ा महत्त्व रखती है। ‘ए’तथा ‘ऐ’ के उच्चारण में रात दिन का अन्तर है। ‘बजाएँ ’ के स्थान पर ‘बजाऐं’ का लिखा जाना इस बात की ओर संकेत करता है कि हम अपनी मातृभाषा के ग्यारह स्वरों के उच्चारण से भी परिचित नहीं हैं।
अध्यापक अपनी कक्षाओं में अनुस्वार और अनुनासिक का प्रयोग सिखाते हैं परन्तु इनका सही प्रयोग साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में भी नहीं किया जाता। टाईपराइटर के युग में तो समस्या हो सकती थी पर आज के कंप्यूटर के युग में तो किसी भी वर्ण को सुविधा से लिखा जा सकता है। भाषा को सरल और सुगम बनाने के लिए जन प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया जाना स्वाभाविक है परन्तु लेखन कौशल या व्याकरण के नियमों की अवहेलना उसके मानकीकरण और एकरूपता लाने के प्रयास में प्रमुख बाधा साबित होती है। बालक जैसा पाठ्य पुस्तकों में पढ़ता है या जैसा उसे विद्यालय में सिखाया जाता है वह उसकी हर स्थान पर वैसी ही अपेक्षा करता है परन्तु जब संचार माध्यमों और आम व्यवहार में उसे अन्य रूप में प्रयुक्त हुआ देखता है तो उसके मन में दुविधा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिस कारण कई बार उसका अपनी पुस्तकों और अध्यापक पर से विश्वास उठ जाता है।
हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है इसके अतिरिक्त इक्कीस राष्ट्रीय भाषाओं को संविधान में मान्यता प्रदान की गई है । परन्तु राजभाषा के पद पर आसीन होने से इसका महत्त्व सर्वाधिक है परन्तु बड़े आश्चर्य की बात है हिन्दी भाषी व्यक्ति से यदि प्रश्न किया जाता है कि हमारी हिन्दी की वर्ण माला में कितने वर्ण हैं तो उसके सामने असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इसका कारण यह है कि यदि हम आम बाज़ार में उपलब्ध तीन चार व्याकरण की पुस्तकों को उठा कर देखते हैं तो सबमें अन्तर देखने को मिलता है। भाषा की व्यवस्था को चलाने वाले मानक व्याकरण के अभाव में ऐसी समस्याएँ बनी रहेंगी। इनका समाधान तभी सम्भव हो पाएगा यदि पूरे देश के लिए भाषा के एक मानक व्याकरण का निर्माण किया जाए।
आज जब सम्पूर्ण राष्ट्र विद्यालय प्रबन्धन समितियों से लेकर राष्ट्रीय शिक्षा अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् तक विभिन्न कड़ियों के माध्यम से जुड़ा है तो भाषा लेखन के क्षेत्र में मानकीकरण एवं एकरूपता के लिए प्रयास होने चाहिए तभी राष्ट्रभाषा हिन्दी अन्तर-राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम हो सकती है। किसी भाषा में कितना साहित्य हर वर्ष छपता है यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना यह कि उस साहित्य को कितने लोग सही ढ़ंग से पढ़ते और समझते हैं। अतः हमारा लक्ष्य कामचलाऊ हिन्दी को प्रोत्साहन देना न हो कर मानक एवं परिनिष्ठित हिन्दी का विकास करना होना चाहिए तभी इसका विकास सम्भव है अन्यथा इसके अस्तित्व के साथ-साथ हमारी संस्कृति को भी खतरा हो जाए तो इसमें कोई संदेह नहीं है।
ओम प्रकाश शर्मा,
एक ओंकार निवास, सम्मुख आँगरा निवास,
छोटा शिमला, शिमला-171002
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंरावत जी धन्यवाद |
हटाएंशुक्रिया |
हटाएंबहुत ही गहन विचार है
जवाब देंहटाएंबढिया जानकारी मिली
प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद |
हटाएंपसंद के लिए आभार |
हटाएंबहुत सुंदर प्रयास.
जवाब देंहटाएंश्रीमान, हिंदी राष्ट्रभाषा घोषित करने वाला कोई भी अभिलेख हो तो कृपया जानकारी दें.
सादर.
अयंगर, 8402021340.
Rangraj Iyengar जी प्रोत्साहित करने के लिए धन्यवाद ,क्षमा चाहूंगा एसा कोइ अभिलेख मेरे पास अभी उपलब्ध नहीं है यदि कहीं मिला तो अवश्य सूचित करूंगा |
हटाएंकुलदीप ठाकुर जी प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद , मैं नई पुराणी हलचल में सम्मिलित हो गया हूँ |
जवाब देंहटाएंसंजू जी ,धन्यवाद ,'नई पोस्ट' विहंगम दृष्टि डाली बहुत पसंद आई |
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार |
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