भाषा का आधार एवं हिन्दी प्रोफेसर महावीर सरन जैन किसी भी विकसित भाषा के अनेक रूप और व्यवहार क्षेत्र होते हैं। यथा – (1) साहित्यिक भाषा (2)...
भाषा का आधार एवं हिन्दी
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
किसी भी विकसित भाषा के अनेक रूप और व्यवहार क्षेत्र होते हैं। यथा – (1) साहित्यिक भाषा (2) वैज्ञानिक भाषा (3) तकनीकी भाषा (4) व्यावसायिक भाषा (5) वाणिज्यिक भाषा (6) प्रशासनिक भाषा आदि आदि। प्रत्येक की अलग अलग प्रयुक्तियाँ एवं शैलियाँ होती हैं। मगर समस्त रूपों का आधार उस भाषा का जनभाषा रूप ही होता है। किसी भी भाषा के विभिन्न रूपों का अपनी आधारभूत जनभाषा से अलगाव कम से कम होना चाहिए। जनभाषा अर्थात बोलचाल की भाषा। बोलचाल की भाषा के भी बहुविध रूप होते हैं। इनमें से भाषा-क्षेत्र के पढ़े लिखे लोगों के द्वारा जो भाषा बोली जाती है उसके आधार पर मानक भाषा का रूप निर्धारित होता है। यह मानक भाषा रूप भी एक बार निर्धारित होने के बाद स्थिर होकर नहीं रह जाता। इसका कारण यह है कि बोलचाल की सहज, रवानीदार एवं प्रवाहशील भाषा पाषाण खंडों में ठहरे हुए गंदले पानी की तरह नहीं होती। पाषाण खंडों के ऊपर से बहती हुई अजस्र धारा की तरह होती है। नदी की प्रकृति गतिमान होना है। भाषा की प्रकृति प्रवाहशील होना है। भाषा की इकाइयों में से सबसे ज्यादा बदलाव उसकी शब्दावली में होता है। मैंने अपने एक लेख में प्रतिपादित किया था कि भाषा नदी की धारा की तरह होती है। इस पर कुछ विद्वानों ने सवाल उठाया कि क्या नदी की धारा को अनियंत्रित, अमर्यादित एवं बेलगाम हो जाने दें। मेरा उत्तर है - नदी की धारा अपने तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा अपने व्याकरण की व्यवस्था एवं संरचना के तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा में बदलाव एवं ठहराव दोनों साथ साथ रहते हैं। ‘शब्दावली’ अपेक्षाकृत अधिक गतिशील एवं परिवर्तनशील है। व्याकरण भाषा को ठहराव प्रदान करता है। ऐसा नहीं है कि ‘व्याकरण’ कभी बदलता नहीं है। बदलता है मगर बदलाव की रफ़तार बहुत धीमी होती है। ‘शब्द’ आते जाते रहते हैं। हम विदेशी अथवा अन्य भाषा से शब्द तो आसानी से ले लेते हैं मगर उनको अपनी भाषा की प्रकृति के अनुरूप ढाल लेते हैं। ‘शब्द’ को अपनी भाषा के व्याकरण की पद रचना के अनुरूप विभक्ति एवं परसर्ग लगाकर अपना बना लेते हैं। हम यह नहीं कहते कि मैंने चार ‘फिल्म्स’ देखीं; हम कहते हैं कि मैंने चार फिल्में देखीं।
एक काल की भाषा पर दूसरे काल की भाषा के नियमों को नहीं थोपा जा सकता। किसी भी भाषा के व्याकरण के नियमों को किसी भी अन्य भाषा पर थोपना गलत है।भाषाविज्ञान का यह सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक नियम है। मैंने एक लेख में यह प्रतिपादित किया कि संस्कृत और हिंदी की शब्दावली में ही नहीं अपितु उनकी भाषिक व्यवस्थाओं एवं संरचनाओं में भी अंतर विद्यमान हैं। मैंने अपना मत व्यक्त किया कि जो शब्द लोक में प्रचलित हो गए हैं, उनके लिए मैं संस्कृत की शब्द रचना का सहारा लेकर नए शब्द गढ़ने के खिलाफ हूँ। मेरा भाषाविज्ञान का ज्ञान तथा लोक-व्यवहार का विवेक मुझे ऐसा करने वालों का समर्थन करने से रोकता है। इस पर कुछ विद्वानों ने ऐसा टिप्पण किया जैसे मैं संस्कृत के खिलाफ हूँ अथवा संस्कृत की महान व्याकरणिक परम्परा से अनजान हूँ। मैं मानता हूँ कि भारतीय भाषाविज्ञान की परम्परा बड़ी समृद्ध है और उसमें न केवल वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत के भाषाविद् समाहित हैं अपितु प्राकृतों एवं अपभ्रंशों के भाषाविद् भी समाहित हैं। पाणिनी ने अपने काल के पूर्व के 10 आचार्यों का उल्लेख किया है। उन आचार्यों ने वेदों के काल की छान्दस् भाषा पर कार्य किया था। मगर पाणिनी ने वैदिक काल की छान्दस भाषा को आधार बनाकर अष्टाध्यायी की रचना नहीं की। उन्होंने अपने काल की जन-सामान्य भाषा संस्कृत को आधार बनाकर व्याकरण के नियमों का निर्धारण किया। वाल्मीकीय रामायण में इस भाषा के लिए ‘मानुषी´ विशेषण का प्रयोग हुआ है। पाणिनी के समय संस्कृत का व्यवहार एवं प्रयोग बहुत बड़े भूभाग में होता था। उसके अनेक क्षेत्रीय भेद-प्रभेदों की भाषिक सामग्री तो अब उपलब्ध नहीं है मगर उनकी होने के संकेत मिलते हैं। पाणिनी के समय में लौकिक संस्कृत का नहीं अपितु वैदिक भाषा का आदर होता था। उसे सम्माननीय माना जाता था। मगर यह ध्यातव्य है कि पाणिनी ने अपने व्याकरण के नियमों का निर्धारण करने के लिए वैदिक भाषा को आधार नहीं बनाया। पाणिनी ने उदीच्य भाग के गुरुकुलों में उनके समय में बोली जाने वाली लैकिक संस्कृत को प्रमाण मानकर अपने ग्रंथ में संस्कृत व्याकरण के नियमों का निर्धारण किया। पाणिनी के बाद महर्षि पतंजलि ने भी भाषा प्रयोग के मामले में भाषा के वैयाकरण से अधिक महत्व सामान्य गाड़ीवान (सारथी) को दिया। महाभाष्यकार पतंजलि के ´पतंजलिमहाभाष्य' का वैयाकरण तथा रथ चलानेवाले के बीच का संवाद प्रसिद्ध है जिसमें उन्होंने भाषा के प्रयोक्ता का महत्व प्रतिपादित किया है। प्रयोक्ता व्याकरणिक नियमों का भले ही जानकार नहीं होता किन्तु वह अपनी भाषा का प्रयोग करता है। व्याकरणिक नियमों के निर्धारण करने वाले से अधिक महत्व भाषा का प्रयोग करनेवाले का है।
इसी प्रसंग में, मेरा विनम्र निवेदन है कि हिन्दी का आधार हिन्दी क्षेत्र के पढ़े लिखे लोगों के द्वारा बोली जाने वाली भाषा को माना जाना चाहिए। उसके आधार पर ही हिन्दी की शब्दावली, शब्दकोश, व्याकरण आदि का निर्माण होना चाहिए। हिन्दी के 40 या 50 साल पुराने परम्परागत शब्दकोशों और व्याकरण ग्रंथों को आज की हिन्दी का पैमाना नहीं माना जा सकता। परम्परागत शब्दकोशों और व्याकरण ग्रंथों में जिसको आदर्श माना गया है वह 50 साल पुरानी हिन्दी है। हिन्दी के समाचार पत्रों, टी. वी. के हिन्दी चैनलों तथा हिन्दी की फिल्मों में उस भाषा का प्रयोग हो रहा है जिसे हमारी संतति बोल रही है। भविष्य की हिन्दी का स्वरूप हमारे प्रपौत्र एवं प्रपौत्रियों की पीढ़ी के द्वारा बोली जानेवाली हिन्दी के द्वारा निर्धारित होगा जिसके आधार पर उस काल के शब्दकोशकार एवं वैयाकरण हिन्दी के शब्दकोशों तथा व्याकरण-ग्रंथों का निर्माण करेंगे।
एक बात और जोड़ना चाहता हूँ।ऐतिहासिक भाषाविज्ञान एवं एककालिक अथवा संकालिक भाषाविज्ञान की दृष्टियाँ समान नहीं होती। उनमें अन्तर होता है। शब्द प्रयोग के संदर्भ में जब ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाता है तो यह पता लगाने की कोशिश की जाती है कि भाषा के शब्द का स्रोत कौन सी भाषा है। शब्द प्रयोग के संदर्भ में जब एककालिक अथवा संकालिक भाषाविज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाता है तो भाषा का प्रयोक्ता जिन शब्दों का व्यवहार करता है, वे समस्त शब्द उसकी भाषा के होते हैं। उस धरातल पर कोई शब्द स्वदेशी अथवा विदेशी नहीं होता। प्रत्येक जीवन्त भाषा में अनेक स्रोतों से शब्द आते रहते हैं और उस भाषा के अंग बनते रहते हैं।भाषा में शुद्ध एवं अशुद्ध का, मानक एवं अमानक का, सुसंस्कृत एवं अपशब्द का तथा आजकल भाषा के मानकीकरण एवं आधुनिकीकरण के बीच वाद-वाद होता रहा है और होता रहेगा। भारत में ऐसे विद्वानों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है जो केवल मानक भाषा की अवधारणा से परिचित हैं। जो भाषाएँ इन्टरनेट पर अधिक विकसित एवं उन्नत हो गई हैं, उन भाषाओं के भाषाविद् मानकीकरण की अपेक्षा आधुनिकीकरण को अधिक महत्व देते हैं। सन् 1990 तक हमने भी हिन्दी भाषा के मानकीकरण पर अधिक बल दिया। हमारे डी. लिट्. की उपाधि के लिए प्रस्तुत एवं स्वीकृत शोध-प्रबंध का विषय ही मानक हिन्दी पर है। मगर सन् 1990 के बाद से हमने हिन्दी के आधुनिकीकरण पर अधिक बल देना शुरु कर दिया है।
परम्परा से चिपके रहने वालों की नजर में कुछ शब्द सुसंस्कृत होते हैं एवं कुछ अपशब्द होते हैं। भाषा की प्रकृति बदलना है। भाषा बदलती है। परम्परावादियों को बदली भाषा भ्रष्ट लगती है। मगर उनके लगने से भाषा अपने प्रवाह को, अपनी गति को, अपनी चाल को रोकती नहीं है। बहती रहती है। बहना उसकी प्रकृति है। इसी कारण कबीर ने कहा था - 'भाखा बहता नीर´।भाषा का अन्तिम निर्णायक उसका प्रयोक्ता होता है। प्रत्येक काल का व्याकरणिक संकालिक भाषा के व्याकरण के पुनः नए नियम बनाता है। व्याकरण के नियमों में भाषा को बाँधने की कोशिश करता है। भाषा गतिमान है। पुनः पुनः नया रूप धारण करती रहती है।
हमें आज की शिक्षित पीढ़ी जिन शब्दों का प्रयोग बोलचाल में करती है, उनको अपना लेना चाहिए। यदि वे शब्द अंग्रेजी से हमारी भाषाओं में आ गए हैं, हमारी भाषाओं के अंग बन गए हैं तो उन्हें भी अपना लेना चाहिए।मैं हिन्दी के विद्वानों को बता दूँ कि प्रेमचन्द जैसे महान रचनाकार ने भी प्रसंगानुरूप किसी भी शब्द का प्रयोग करने से परहेज़ नहीं किया। उनकी रचनाओं में अंग्रेजी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। उनके लेखन में अंग्रेजी के ये शब्द ऊधारी के नहीं हैं; जनजीवन में प्रयुक्त शब्द भंडार के आधारभूत, अनिवार्य, अवैकल्पिक एवं अपरिहार्य अंग हैं। फिल्मों, रेडियो, टेलिविजन, दैनिक समाचार पत्रों में जिस हिन्दी का प्रयोग हो रहा है वह जनप्रचलित भाषा है। जनसंचार की भाषा है। समय समय पर बदलती भी रही है। इस भाषा में सोच एवं सामर्थ्य शब्द पुल्लिंग में नहीं अपितु स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होते हैं। यह मैंने इस कारण स्पष्ट किया कि मैंने अपने लेखों में इन शब्दों का प्रयोग स्त्रीलिंग में किया था। मगर मेरे जो लेख जनसत्ता में प्रकाशित हुए हैं, उनमें पत्र के सम्पादक महोदय ने उनको पुल्लिंग मानकर मेरी वाक्य रचना बदल दी है। यह स्पष्टीकरण इस कारण जरूरी है ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आए।
अंत में, मैं यह दोहराना चाहता हूँ कि आज की हिन्दी को नए शब्दकोशों तथा नए व्याकरण-ग्रंथों की आवश्यकता असंदिग्ध है। कोशों में तथा व्याकरणों में तो "पत्थर" संज्ञा शब्द है। मगर आज इसका प्रयोग संज्ञा के अतिरिक्त विशेषण, क्रिया तथा क्रिया विशेषण के रूप में भी होता है। क्या प्रयोक्ता को यह आदेश दिया जाए कि "पत्थर" का केवल संज्ञा के रूप में ही प्रयोग करो। क्या जनभाषा से निम्न प्रयोग करना निषिद्ध, अमान्य एवं अवैध माना जाए – 1.पत्थर दिल नहीं पसीजते। 2. वह पथरा गया है। 3. तुम मेरा काम क्या पत्थर करोगे। यदि उपर्युक्त प्रयोग ठीक हैं तो व्याकरण एवं कोश भी तदनुरूप बनाने होंगे।
Professor Mahavir Saran Jain
( Retired Director, Central Institute Of Hindi )
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मैं प्रोफेसर साहब के विचार से सहमत हूँ.
जवाब देंहटाएंसुंदर आलेख
जवाब देंहटाएंआप का लेख बड़ा सन्तुलित और पठनीय है । मैं ने अपनी पुस्तक हिन्दी की दशा और दिशा में कई लेखों
जवाब देंहटाएंमें हिन्दी को ले कर जो विचार व्यक्त किये हैं आप के विचारों से मिलते हैं । मेरी बधाई लेंं ।
नदी की धार के साथ साथ तटबंधो का निर्माण होता है उसी प्रकार हमारी हिन्दी भाषा के विकास के साथ उसके स्वरूप में आए परिवर्तनानुसार मानक नव व्याकरण व शब्दकोष का निर्माण आपेक्षित है इस बार को आपने अपने लेख में आपने सुन्दर दंग से अभिव्यक्त किया है | मैं आपकी इस बात से पूर्णरूपेण सहमत हूँ|
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