टाइम इज फ़नी दिनेश चौहान लोग कहते हैं ' टाइम इज मनी ' । लोगों के कहने पर मुझे कोई ऐतराज नहीं है पर मैं इसमें एक ‘ राइम ‘ और जोड़ना...
टाइम इज फ़नी
दिनेश चौहान
लोग कहते हैं 'टाइम इज मनी'। लोगों के कहने पर मुझे कोई ऐतराज नहीं है पर मैं इसमें एक ‘राइम‘ और जोड़ना चाहता हूं-'टाइम इज फनी'। यह इसलिए कि समय को लेकर हर कोई मजाक पर उतारू होता है। अब वी आई पीज़ को ही ले लीजिए। वे अपने समय को तो मनी समझते हैं लेकिन आम जनता के समय को फनी समझते हैं। तभी तो वे कार्ड में छपे नियत स्थान पर नियत समय पर कभी हाजिर नहीं होते। यदि ऐसा हो जाए तो शर्तिया वह गिनीज बुक ऑफ वर्ड रिकॉर्ड में दर्ज हो जाए। खैर समय को लेकर सबकी अपनी-अपनी हैबिट है। या कहें समय को लेकर सबकोई कुत्ते की पूंछ से कांपिटीशन काना चाहते हैं। कोई अपनी आदत से बाज नहीं आना चाहता। और इसी के चलते हजारों किस्से बनते जाते हैं। लेकिन यहां पर जो किस्से दिए जा रहे हैं वह तो निस्संदेह टाइम इज मनी को टाइम इज फनी बना रहे हैं।
किस्सा -1. द बॉस
नए बॉस बहुत खुर्राट हैं और समय के पाबंद भी। अब तो देर से दफ्तर आने वालों की खैर नहीं। दफ्तर में नए बॉस के आने पर चर्चा छिड़ी थी और सब समय को लेकर बॉस के कोपभाजन होने से बचने की मानसिक तैयारी कर रहे थे। हर दफ्तर में बॉस नामक जो जीव होता है वह समय को लेकर बहुत चिंतित रहता है। यह दूसरी बात है कि चिंता का यह भूत उस पर तब सवार होता है जब वह बॉस बनता है। बॉस बनने के पहले हर मुलाजिम देरी के लिए एक से बढ़कर एक नायाब बहाने गढ़ने में माहिर होता है।
''दोस्तो, ये दफ्तर है और दफ्तर के कुछ कानून कायदे होते हैं। पहला कायदा तो ये है कि समय पर दफ्तर के सभी कारिंदे, क्षमा करेंगे यदि 'कारिंदे' शब्द से किसी को ऐतराज हो तो मुझे कहना चाहिए दफ्तर के सभी मुलाजिम दफ्तर में हाजिर हो जाएं। यदि हमने इस पहले कायदे को साध लिया तो मेरा दावा है बाकी सारे कायदे अपने आप सध जाएंगे। बल्कि मैं तो कहूंगा हम बिफोर टाइम दफ्तर में हाजिर होने की आदत डालें। मेरी सफलता का राज ही बिफोर टाइम है। समय से पहले मैं स्कूल में भर्ती हो गया। समय से पहले मेरी शादी हो गई। कानूनन इक्कीस वर्ष होने का इंतजार मेरे मां-बाप ने नहीं किया। ये तो बहुत बाद की बात है मैं इस दुनिया में भी बिफोर टाइम आ गया था। मैं अपनी मां के पेट से सात महीने में ही बाहर आ गया था। हा!हा!!हा!!!'' नए बॉस ने दफ्तर में एंट्री भाषण पिलाया था जिसका सार था- दफ्तर आने में समय का ध्यान रखा जाए।
''मरो सालो, सब बिफोर टाइम की चिंता में दुबले हो जाओ। मेरे ठेंगे से। कहता है 'मैं अपनी मां के पेट से सात महीने में ही बाहर आ गया था।' मेरे बारे में क्या ख्याल है; मै अपनी मां के पेट से दस महीने बाद सीजेरियन पैदा हुआ था। ही!ही!!ही!!!'' दफ्तर का एक आदतन लेटकमर अपनी आदत से बाज नहीं आने का ऐलान कर रहा था।
किस्सा -2. मंच संचालक
मंच कैसा भी हो उसमें संचालक नाम का प्रभावशाली जीव जरूर होता है। यूं तो मंच संचालक में बहुत से गुण होते हैं पर उसमें से एक खास गुण होता है समयाभाव के रोना रोने का। हर मंच संचालक इस मुद्दे पर जरूरत से ज्यादा कांसस होता है। कार्यक्रम शुरू हुआ नहीं कि वह समयाभाव का रोना रोने लगता है। इसके लिए वह बड़ा प्यारा बहाना बनाते हुए कहता है- ''मित्रो, हमारे मुख्य अतिथि महोदय जी ने अपने अत्यंत ही कीमती समय से कुछ समय निकालकर इस मंच की शोभा बढ़ाने का कष्ट
क्रमशः...(2)
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किया है अतः शुरू के वक्ताओं से निवेदन है कि अपनी बात संक्षिप्त में रखने का कष्ट करेंगे।' ये दूसरी बात है कि वक्ता के लिए दो मिनट का समय तय करने के पहले यह मंच संचालक पूरे पांच मिनट का समय हजम कर चुका होता है अपनी लंबी-चौड़ी भूमिका, शायरी, नारों वगैरह-वगैरह में। संचालक हर उद्घोषणा के पहले चार-छः लाइन की शायरी न झाड़े, अपने इतिहास, भूगोल, राजनीति और सामान्य ज्ञान का बखान न करे तो कौन उसके मंच संचालन की दाद देगा? लिहाजा मंच संचालक अधिक से अधिक समय तक मंच से चिपके रहना अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझता है। चूंकि मंच संचालक षुरू से अंत तक माइक का प्रभारी होता है और इसके लिए अतिरिक्त एनर्जी लाजिमी होता है लिहाजा वह उद्घोषणा करते हुए हर वक्ता के हिस्से के समय का नास्ता करता चलता है ताकि उसके उर्जा का ह्रास न हो और उसका स्टेमिना बना रहे। यह राजनैतिक मंच के श्रोताओं के माफिक भी बैठता है क्योंकि वे चाहते हैं कि नेताओं की लफ्फाजी जितनी कम से कम सुनने मिले उतना अच्छा है और जितनी जल्दी उस कार्यक्रम से छुट्टी मिले तो पाप कटे। ऐसे मंच से संचालक के समय जलपान से श्रोताओं पर क्या असर होता है ये तो मैं नहीं बता सकता लेकिन कवि सम्मेलन के संचालक के समय जलपान से मंचस्थ अन्य कवियों पर क्या बीतती है इसके बारे मे जरूर बात करना चाहूंगा।
इधर एक नया ट्रेण्ड शुरू हुआ है कि कवि सम्मेलन को स्वतंत्र रूप से आयोजित न कर फिलर के रूप में आयाजित किया जाता है। अब जब इसे पैबंद की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है तो यह अनुमान लगाना कतई मुश्किल नहीं है कि वहां समय की कितनी मारामारी होगी। कवि सम्मेलन एक फुलटाइम कार्यक्रम है लेकिन उसे पुस्तक विमोचन, संगोष्ठी, सम्मान समारोह, राजनैतिक कार्यक्रमों और आर्केस्ट्रॉ आदि की भीड़ में पैबन्द की तरह फिट कर दिया जाता है। ऐसे में संचालक द्वारा समय का ध्यान रखने की रट लगाने से कवियों के दिल पर क्या बीतती है उसे एक भुक्तभोगी कवि ही जान सकता है। ऐसे ही एक कवि सम्मेलन में संचालक ने जब एक कवि महोदय को समय का ध्यान रखने की हिदायत देते हुए आमंत्रित किया तो वे माइक के पास पहुंचते ही बिफर पड़े-''संचालक की मनमानी नहीं चलेगी, नहीं चलेगी, मंच संचालक मुर्दाबाद, मुर्दाबाद, संचालक हटाओ, कवि सम्मेलन बचाओ...।''
उसने संचालक की ऐसी-तैसी करके रख दी। मंच संचालक समेत उपस्थित कविगणों और श्रोताओं में खलबली मच गई। सभी सकते में थे। लेकिन उन कवि महोदय का धारावाहिक जारी था- ''लानत है ऐसे कवि सम्मेलन में भागीदारी से। इससे अच्छा तो मंच संचालक होना है जो कवियों से तो समय का ध्यान रखवाता है लेकिन खुद सारे समय को हजम करता जाता है। अरे, हम क्या खाक समय का ध्यान रखेंगे। सारी दुनिया का ध्यान तो खुद समय रखती है। मनुज बली नहिं होत है, समय होत बलवान। ऐसे बलवान का हम क्या ध्यान रखेंगे। इस दुनिया में हर चीज को पैदा करने वाली है प्रकृति और मारने वाला है समय। समय से कोई नहीं बच सकता। बार-बार ऐसे समय का ध्यान रखने की बात करता है, नामुराद! यही नहीं ऊपर से बीच में भी कवि को समय का ध्यान रखने के लिए टोक देता है। यह कवि के साथ अत्याचार है। अरे, कवि को बीच में टोकने वाले, उसके हिस्से के समय का भक्षण करने वाले, तू क्या कवि के समय का निर्धारण करेगा। इसका निर्धारण तो श्रोताओं के वन्स मोर का शोर या सड़े अण्डे, टमाटर और जूते चप्पल का जोर करता है।''
इतना कहकर कवि महोदय बिना कविता पाठ किए मंच से रुख्सत हो गए। संचालक महोदय को दुबारा समय का ध्यान दिलाने की नौबत ही नहीं आई क्योंकि मंच पर आर्केस्ट्रॉ पार्टी के कारिंदे काबिज हो चुके थे।
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लेखक परिचय
दिनेश चौहान ( दिनेश कुमार ताम्रकार)
घरू नाम-राजेन,
शिक्षा-बी.ए., बीटीआई, इंटरमिडिएट ड्राइंग।
जन्म-24.06.1961, भीमसेनी एकादशी, संवत् 2018।
धमधा, जिला-दुर्ग, छत्तीसगढ़।
18 वर्ष की आयु में शासकीय नौकरी में आने के बाद 20 वर्ष की आयु में बधिर विकलांगता का शिकार हो गया। मूलतः चित्रकार, चित्रकारी की कहीं विधिवत औपचारिक शिक्षा नहीं। लेकिन अब गतिविधि मुख्यतः लेखन पर केन्द्रित। हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी में कविता, कहानी, व्यंग्य के अलावा कार्टून एवं चित्र कथाओं का क्षेत्रीय व राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं, संकलनों, स्मारिकाओं में नियमित-अनियमित प्रकाशन। आकाशवाणी से कविता का प्रसारण। कार्टून वाच पत्रिका द्वारा आयोजित राज्य स्तरीय कार्टून प्रतियोगिताओं में लगातार पुरस्कृत। विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित। साहू समाज (रायपुर-गरियाबंद जिला) द्वारा अंतरसामाजिक सौहार्द्र के तहत ''समाज गौरव सामाजिक सम्मान'' से सम्मानित-सन्2014। कई नए एवं पुराने चर्चित कहानीकारों की हिन्दी कहानियों का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद। स्कूलों में कक्षा पहली से दसवीं तक छत्तीसगढ़ी भाषा का एक विषय के रूप में अध्यापन अनिवार्य किए जाने की पुरजोर वकालत। छत्तीसगढ़ी में पहली बार वर्ग पहेली का निर्माण जो 'पत्रिका' के 'पहट' अंक में चौखड़ी जनउला के नाम से धारावाहिक प्रकाशित।
विशेष उल्लेखनीय- शासकीय नौकरी में विभागीय वित्तीय एवं अन्य लाभकारी प्रकरणों में बाबू एवं अफसरों को भेंट-पूजा (रिश्वत) की सर्व स्वीकार्य परंपरा है लेकिन मैं सौभाग्यशाली हूं कि रिश्वत विहीन नौकरी के 34वें वर्ष में सफलता पूर्वक कार्यरत हूं। मैंने कलम को हथियार बनाकर एक तरीका विकसित किया है कि मेरे अब तक के सभी वित्तीय एवं लाभकारी प्रकरण बिना किसी आर्थिक लेन-देन के निराकृत होते रहे हैं।
प्रकाशित कृति-
1- कइसे होही छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया?(छत्तीसगढ़ी गद्य संग्रह)
2- चौखड़ी जनउला(छत्तीसगढ़ी वर्ग पहेली)
पे्रस में-सृजन साक्षी (हैहयवंशीय क्षत्रिय ताम्रकार समाज के रचनाधर्मियों की पहचान)।
संप्रति-छत्तीसगढ़ शासन, शिक्षा विभाग में प्रधान पाठक (पू.मा.शाला) के पद पर कार्यरत।
संपर्क-छत्त्ीसगढ़ी ठीहा, शीतला पारा, नवापारा-राजिम, जिला-रायपुर, छ.ग., 493881।
मो. न.-9826778806A E-Mail: dinesh_k_anjor@yahoo.com
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