दिलरुबा जी दिलरुबा जी कल मुझे प्रेम के बारे में समझा रहे थे। " सभी प्रेम कथाएं एक जैसी होती हैं। अक्सर, वे प्रेम कथाएं नीरस होती हैं ज...
दिलरुबा जी
दिलरुबा जी कल मुझे प्रेम के बारे में समझा रहे थे। " सभी प्रेम कथाएं एक जैसी होती हैं। अक्सर, वे प्रेम कथाएं नीरस होती हैं जहां एक अदद खल बीच में मौजूद न हो। यह खल कोई भी हो सकता है; नायिका का बाप, चाचा, मामा, भाई या फिर खुद उसे पाने की इच्छा रखने वाला कोई दूसरा युवा। यूं प्रौढ़ावस्था में भी प्रेम प्रसंग देखने - सुनने में आते हैं लेकिन अक्सर ऐसे प्रसंग प्रेम कथाओं के बजाय अपराध कथाओं में तब्दील हो जाते हैं. लेकिन कभी - कभी जब प्रेम करने वाला व्यवहारिक दृष्टिकोण रखता है तो कुछ प्रेम कथाएं हास्य कथाओं में भी तब्दील हो जाती हैं। "
इतना बताने के बाद दिलरुबा जी ने पूछा ," सिगरेट तो है न !" मैंने जेब से पैकेट निकालते हुए कहा ," लीजिये !" आपको यह भी बता दूं कि अक्सर लोग सिगरेट तो रखते हैं लेकिन माचिस मांगते मिलेंगे लेकिन दिलरुबा जी माचिस रखते हैं और सिर्फ सिगरेट मांगते हैं। दिलरुबा जी ने ज्यों ही पहले कश का धुंआ बाहर फेंका, मैंने,कहा, " प्रेम में व्यवहारिक दृष्टिकोण वाली बात मैं ठीक से समझा नहीं।" वे बोले, " यार, कोई चालीस वर्ष पहले की बात है। हमारे कसबे में एक ऐसी ही प्रेम कथा का बीज अंकुरित हो रहा था। उसमें नायक, नायिका और खलनायक ये तीन पात्र मौजूद थे। खलनायक एक दो - बार नायक की धुनाई भी कर चुका था और नायिका नायक के शरीर पर लगी चोटों पर आंसू भी बहा चुकी थी। यकायक नायिका ने फैसला बदला और फिर वह हमेशा के लिए इस कथा के खलनायक की हो गई। " " आखिर क्यों ? " मैंने पूछा यह अनुभव होते हुए भी कि ऐसा तो होता रहता है। " अरे, उन्हीं दिनों उस खलनायक की दो लाख की लॉटरी आ गई। " दिलरुबा जी बोले। " फिर उस बेचारे नायक का क्या हुआ ? " मैंने अपनी सहानुभूति जताते हुए पूछा। दिलरुबा जी ने सिगरेट का एक गहरा कश खींचा और फिर कुछ रूककर हँसते हुए बोले," होना क्या था ? उसने भी कुछ समय बाद घर बसा लिया और वही तो तुम्हें इस किस्से को सुना रहा है। "
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मजबूरी
अपने टूटे कनस्तर में बचे उस थोड़े से आटे से जानकी ने छह रोटियां बनाई ताकि वह उस शाम अपने तीन बच्चों को दो - दो रोटियां दे सके। सब्जी के लिए वह इधर - उधर से मूली के फेंके पत्ते उठा लायी थी। उसके घरवाले को परदेश गए यही कोई दस - बारह दिन हुए होंगे। उसने जाते हुए बोला था कि जैसे ही चार पैसे हाथ में आयेंगे, मनीआर्डर कर देगा। जानकी ने बच्चों को रोटी दी तो उसकी बड़की बोली, " माँ, तुम भी साथ में खाओ न । " अरे पेट में सुबह से दर्द है; भूख नहीं लग रही है। " जानकी ने वही झूठ दोहराया जिसे वो ऐसे मौकों पर बोलती आई है यानी जब कभी उसके घर में खाने की कमी होती है। फिर वह कुछ सोचते हुए बोली , " ठीक है। मैं सब्जी खा लेती हूँ। हरी सब्जी से कुछ तो आराम मिलेगा। "
उस रात जानकी को भूख के मरोड़ों ने सोने नहीं दिया। सुबह - सुबह जानकी गाँव के पंचायती हैण्ड पंप पर पानी भरने गई तो उसकी नजर सरपंच जी के घर के पिछवाड़े पड़े मोटे - मोटे परांठों पर पड़ी। कुत्तों के लिए फेंके गए थे शायद । न चाहते हुए भी वह उधर गई और उसने वे परांठे उठा लिये । वह खुश थी कि किसी ने उसे उन फेंके हुए परांठों को उठाते हुए नहीं देखा है। शीघ्रता से एक कौर अपने मुहं के हवाले करते हुए उसने अपने - आप को समझाया इसमें बुरा भी क्या है ? उस दिन मंदिर के पंडित जी भी तो यही कह रहे थे, " दाने - दाने पे लिखा है खाने वाले का नाम। "
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दलाल
शुभ्रा को देखने आज पहली बार कोई लड़का आ रहा था। पूरा घर सुबह से तैयारियों में जुटा था। पापा कई बार बाजार जा चुके थे। माँ घर की सफाई में जुटी थी। काम वाली को कल ही बता दिया था कि आज जल्दी आ जाना। यूं तो उसने केमिस्ट्री ऑनर किया था, इसके बावजूद माँ उसे कई बार हिदायतें दे चुकी थी कि लड़के वालों के सामने कैसे पेश आना है; कितना बोलना है; कितना चुप रहना है और यहां तक कि कितना मुस्कराना है। उसे लग रहा था जैसे कोई फ़िल्म निर्माता अपनी महंगे बजट वाली फ़िल्म के लिए उसे बतौर हीरोइन साइन करने आ रहा है । वह सोच रही थी कि क्या लड़के को भी उसकी माँ ऐसा ही कुछ समझा रही होगी।
खैर, पहली बार कोई उसे देखने आ रहा है - यह सोच कर वह थोड़ी नर्वस थी तो कहीं शब्दों में बयां न किया जा सकने वाले उसके कुछ सपने भी थे। लेकिन जो कुछ हुआ, उसके बारे में तो शुभ्रा ने कभी भी न सोचा था। लड़का अपने माँ - बाप के साथ आया। वह सही समय पर अपने घर के ड्राइंग रूम में दाखिल हुई। उससे एक - दो सवाल पूछने के बाद लड़के के बाप ने मुस्कराते हुए जो कुछ कहा, शुभ्रा को तो तब पता चला कि वे लोग तो इस फ़िल्म का निर्माता उसके पिता को बना रहे थे और " विवाह " नामक इस सामाजिक फ़िल्म के लिए हीरो के रूप में अपने बेटे को साइन करवाने के लिए पचास लाख रुपये नकद चाहते थे । इतना ही नहीं, उनका यह प्रस्ताव भी था कि इस फ़िल्म के कुछ हिस्से विशेष कर वे दृश्य जिसमें बारातियों की आवभगत की जानी है, उसके पिता के खर्चे पर किसी पंचतारा होटल में शूट होने चाहियें। शुभ्रा को ऐसा लगा जैसे वह उस लड़के का बाप न होकर महज उसके दाम तय करने वाला एक दलाल है।
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सुभाष चंद्र लखेड़ा,
सी - 180 , सिद्धार्थ कुंज, सेक्टर - 7, प्लाट नंबर - 17 , द्वारका,
नई दिल्ली - 110075 .
लखेड़ा जी आपकी तीनो ही लघु कथाएँ गंभीर सार्थक
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी लगी इस सफल लेखन के लिये बधाई
श्रीवास्तव जी, नमस्कार !
जवाब देंहटाएंशुभकामनाओं सहित हार्दिक धन्यवाद !
श्रीवास्तव जी, नमस्कार !
जवाब देंहटाएंशुभकामनाओं सहित हार्दिक धन्यवाद !