हिंदी में, हिंदी के लिए सर्वाधिक उद्घृत पंक्ति है - निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल । इस पंक्ति को भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिंदी की उ...
हिंदी में, हिंदी के लिए सर्वाधिक उद्घृत पंक्ति है - निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल । इस पंक्ति को भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिंदी की उन्नति पर अपने कविता रूप में प्रस्तुत व्याख्यान में कहा था. रचनाकार.ऑर्ग के पाठकों के लिए प्रस्तुत है वह अविकल व्याख्यान.
व्याख्यान से बोध होता है कि अंग्रेज़ी का प्रचार-प्रसार और हिंदी की दुर्दशा उस समय से ही प्रारंभ हो चुकी थी। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का यह व्याख्यान आज और अधिक प्रासंगिक है.
हिंदी की उन्नति पर व्याख्यान
अहो अहो मम प्रान प्रिय आर्य भ्रातृ-गन आज ।
धन्य दिवस जो यह जुड़ो हिंदी हेतु समाज ।1।
तामें आदर अति दिये मोहिं तुसम निज जन जान ।
जो बुलबायो मोहिं इत दर्शन हित सन्मान |2|
जदपि न मैं जानत कछू सब बिधि सों अति दीन ।
तदपि भ्रात निज जानिकै सबन कृपा अति कीन ।3।
भारत में यह देस धनि जहाँ मिलत सब भ्रात ।
निज भाषा हित कटि कसे हम कहँ आज लखात ।।४।।
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल ।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को सूल ।।5।।
पढ़े संस्कृत जतन करि पंडित भे विख्यात ।
पै निज भाषा ज्ञान बिन कहि न सकत एक बात ।6।
पड़े फारसी बहुत बिध तौहू भये खराब ।
पानी खटिया तर रहो पूत मरे बकि आब ।७।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि सब गुन होत प्रबीन ।
पै निज भाषा ज्ञान बिन रहत हीन के हीन ।8।
यह सब भाषा काम की जब लौं बाहर बास ।
घर भीतर नहि कर सकत इन सों बुद्धि प्रकास ।। ९।।
नारि पुत्र नहिं समझहीं कछु इन भाषन माहिं ।
तासों इन भाषन सों काम चलत कछु नाहिं । । १ ०।
उन्नति पूरी है तबहि जब घर उन्नति होय ।
निज सरीर उन्नति किए रहत मूढ़ सब लोय । 11।
पिता बिबिध भाषा पढ़े पुत्र न जानत एक ।
तासों दोउन मध्य में रहत प्रेम अविवेक ।12।
अँग्रेजी निज नारि को कोउ न सकत पढ़ाइ ।
नारि पढ़े बिन एक हू काज न चलत लखाइ । १३।
गुरु सिखबत बहु भाँति लौ जदपि बालकन ज्ञान ।
पै माता-शिक्षा सरिस, होत तौन नहिं ज्ञान ।। १४।
जब अति कोमल, जिय रहत तब बालक तुतरात ।
मूलत नहिं सो बात जो तबै सिखाई जात ।15।
भूलि जात बहु बात जो जोबन सीखत लोय ।
पै छत नहिं बालकन सीख्यो सुनो जो होय । । १६।
जिमि लै कांची मृत्तिका सब कछु सकत बनाय ।
पै न पकाए पर चलत तामें कछू उपाय ।। 17।
काँ चे पर ता सों बनत जो कछु सो रह जात ।
चिन्ह सदा तिमि बाल सिसु शिक्षा नाहिं भुलात ।18।
सो सिसु-शिक्षा मातृ-वस जो करि, पुत्रहि प्यार ।
खान-पान खेलन समय सकत सिखाय' बिचार ।। १९।
लाल पुत्र करि चूमि मुख बिबिध प्रकार खेलाइ ।
माता सब्र कछु पुत्र को सहजहि सकत दिखाइ ।20।
सो माता हिंदी बिना कछु नहि जानत और ।
तासों निज भाषा अहै, सबही की सिरमौर । । २१ ।।
पढ़ो लिखो कोउ लाख बिध भाषा बहुत प्रकार ।
पै जबही कछु सोचिहो निज भाषा अनुसार । । २२ .। ।
सुत सों तिय सों मीत सों भृत्यन सों दिन रात ।
जो भाषा मधि कीजिये निज मन की बहु बात । । 2३ । ।
ता की उन्नति के किये सब बिधि मिटत कलेस ।
जामें सहजहि देसकौ इन सब को उपदेश । । २४। ।!
जद्यपि बाहर के जनन गुन सों देत रिझाय ।
पै निज घर के लोग कहँ सकत नाहिं समझाय । । २५ । ।
बाहर तो अति चतुर बनि कीनो जगत प्रबंध ।
पै घर को व्यवहार सब रहत अंध को अंध ।। २६ ।
कै पहिने पतलून कै भये मौलबी खास ।
पै तिय सके रिझाय नहिं जो गृहस्थ सुख बास । । २७ । ।
इनकी सो अति चतुरता तिनको नाहिं सुहात ।
ताही सों प्राचीन कवि कही भली यह बात । । २८। ।
खसम जो पूजै देहरा भूत-पूजनी जोय ।
एकै घर में दो मता कुसल कहाँ से हो य । । २९ । ।
तासों जब सब होंहि घर विधा-बुद्धि-निधान ।
होइ सकत उन्नति तबै और उपाय न आन । । ३० । ।
निज भाषा उन्नति बिना कबहुँ न ह्वैहै सोय ।
लाख अनेक उपाय यों भले करो किन कोय । । ३१ । ।
इक भाषा, इक जीव इक मति सब घर के लोग ।
तबै बनत है सबन सों मिटत मूढ़ता सोग । । ३२ । ।
और एक अति लाभ यह यामें प्रगट लखात ।
निज भाषा में कीजिये जो विद्या की बात । । ३३ । ।
तेहि सुनि पावै लाभ सब बात सुन जो कोय ।
यह गुन भाषा और महँ कबहूँ नाहीं होय । । ३४।
लखहु न अँगरेजन करी उन्नति भाषा माँहि ।
सब विद्या के ग्रंथ अंगरेजिन माँह लखाहिं । । ३5।
सब्द बहुत परदेस के उच्चारनहु न ठीक ।
लिखत कछू पढ़ि जात कछु सब बिधि परम अलीक । 36।
पै निज भाषा जानि तेहि तजत नहीं अंग्रेज ।
दिन दिन याही को करत उन्नति पै अति तेज ।37।
बिबिध कला शिक्षा अमित ज्ञान अनेक प्रकार ।
सब देसन से लै करहु भाषा माँहि प्रचार । 38।
जहाँ जौन को गुन लह्यो लियो जहाँ सो तौन ।
ताहीं सों अंगरेज अब सब बिद्या के भौन । । ३9।
पढ़ि बिदेस भाषा लहत सकल बुद्धि को स्वाद ।
पै कृतकृत्य न होत ये बिन कछु करि अनुवाद । 40।
तुलसी कृत रामायनहु पढ़त जबै चित लाय ।
तब ताको आसय लिखत भाषा माँहि बनाय । । ४1।
तासों सबहीं भाँति है इनकी उन्नति आज ।
एकहि भाषा मँह अहै जिनकी सकल समाज ।। ४2।
धर्म जुद्ध विद्या कला गीत काव्य अरु ज्ञान ।
सबके समझन जोग है भाष माँहिं समान । । ४3।
भारत में स ब 'भिन्न अति ताही सों उत्पात ।
बिबिध देस मतहू बिबिध भाषा बिबिध लखात ।। 44।
सौंप्यौ ब्राह्मन को धरम तेई जानत वेद ।
तासों निज मत को लह्या कोऊ कबहुँ न भेद । । 45।
तिन जो भाष्यो सोइ कियो अनुचित जदपि लखात ।
सपनहुँ नहिं जानी कछु अपने मत की बात । 46।
पढ़े संस्कृत बहुत बिध अंग्रेजी हू आप ।
भाषा चतुर नहीं भये हिय को मिट्यो न ताप ।।४७ ।।
तिमि जग शिष्टाचार सब मौलवियन के आधीन ।
तिन सों सीखे बिनु रहत भये दीन के दीन ।। ४८। ।
बैठनि बोलनि उठनि पुनि हँसनि रे मिलनि बतरान ।
बिन पारसी न आवही यह जिय निश्चय जान । 4९।
तिमि जग की विद्या सकल अंगरेजी आधीन ।
सबै जानि ताके बिना रहै दीन के दीन ।। ५०। ।
करत बहुत बिधि चतुरई तऊ न कछु लखात ।
नहिं कछु जानत तार में खबर कौन बिधि जात । ।५१ ।।
रेल चलत केहि भांति सों कल है काको नाँव ।
तोप चलावत किमि सबै जारि सकल जो गाँव ।52।
वस्त्र बनत केहि भाँति सों कागज केहि बिधि होत ।
काहि कबाइद कहत हैं बाँधत किमि जल-सोत । 5३।
उतरत फोटोग्राफ किमि छिन मँह छाया रूप ।
होय मनुष्यहि क्यों भये हम गुलाम ये भूप । 5४।
यह सब अंगरेजी पढ़े बिनु नहिं जान्यो जात ।
तासों याको भेद नहिं साधारनहि लखात ।। ५५ ।।
बिना पड़े अब या समै चलै न कोउ बिधि काज ।
दिन दिन छीजत जात है या सों आर्य्य समाज ।। ५६ ।।
कल के कल बल छलन सों छले इते के लोग ।
नित नित धन सों घटत हैं बाढ़त है दुख सोग ।। ५७। ।
मारकीन मलमल बिना चलत कछू नहिं काम ।
परदेसी जुलहान कै मानहु भये गुलाम ।।५८।।
वस्त्र काँच कागज कलम चित्र खिलौने आदि ।
आवत सब परदेस सों नितहि जहाजन लादि । 5९ ।
इत की रूई सींग अरु चरमहि तित लै जाय ।
ताहि स्वच्छ करि वस्तु बहु भेजत इतहि बनाय । । ६० ।
तिनही को हम पाइकै साजत निज आमोद ।
तिन बिन छिन तृन सकल सुख स्वाद बिनोद प्रमोद । । ६१।
कछु तो बेतन में गयो कछुक राज-कर माँहि ।
बाकी सब व्यौहार में गयो रह्यौ कछु नाहिं । । ६ 2।
निरधन दिन दिन होत है भारत भुव सब भाँति ।
ताहि बचाइ न कोउ सकत निज भुज बुधि-बल कांति । । ६३ । ।
यह सब कला अधीन है तामें इतै न ग्रन्थ ।
तासों सूझत नाहिं कछु द्रव्य बचावन पंथ । । ६४! ।
अंगरेजी पहिले पढ़ै पुनि विलायतहि जाय ।
या विद्या को भेद सब तो कछु ताहि लखाय ।65।
सो तो केवल पढ़न में गई जवानी बीति ।
तब आगे का करि सकत होइ बिरध गहि नीति ।66।
तैसहि भोगत दण्ड बहु बिनु जाने कानून ।
सहत पुलिस की ताड़ना देत एक करि दून ।६७!
पै सब बिद्या की कहूँ होइ जु पै अनुवाद ।
निज भाषा महँ तो सबै याको लहै सवाद ।6८।
जानि सकैं सब कछु सबहि बिबिध कला के भेद ।
बनै बस्तु कल की इतै मिटै दीनता भेद ।।६९।
राजनीति ममर्झै सकल पावहिं तत्व बिचार ।
पहिचानैं निज धरम को जानैं शिष्टाचार ।७0 ।।
दूजे के नहिं बस रहैं सीखैं बिबिध विबेक ।
होइ मुक्त दोउ जगत के भोगैं भोग अनेक ।७1 ।
तासों सब मिलि छाँड़ि कै दूजे और उपाय ।
उन्नति भाषा की करहु अहो भ्रात गन आय ।72।
बच्यौ तनिकहू समय नहिं तासों करहू न देर।
औसर चूके व्यर्थ की सोच करहुगे फेर ।७३।।
प्रचलित करहु जहान में निज भाषा करि जरन ।
राज-काज दरबार में फैलावहु यह रत्न ।।७४।।
भाषा सोधहु आपनी होई सबै एकत्र ।
पड़द्रु पढ़ाबहु लिखहु मिलि छपवाबहु कछु पत्र ।7५।
बैर बिरोधहि छोड़ि कै एक जीव सब होय ।
करहु जतन उद्धार को मिलि भाई सब कोय ।7६।
आल्हा बिरहहु को भयो अंगरेजी अनुवाद ।
यह लखि लाज न आवई तुमहि न होत बिखाद ।७७।
अंगरेजी अरु फारसी अरबी संस्कृत ढेर ।
खुले खजाने तिनहिं क्यों लूटत लावहु देर ।७८।
सबको सार निकाल कै पुस्तक रचहु बनाइ ।
छोटी बड़ी अनेक बिध बिबिध विषय की लाइ ।७९।
मेटहु तम अज्ञान को सुखी होहु सब कोय ।
बाल वृद्ध नर नारि सब बिद्या संजुत होय ।80।
फूट बैर को दूरि करि बाँधि कमर मजबूत ।
भारत माता के बनो भ्राता पूत सपूत ।81।
देव पितर सबही दुखी कष्टित भारत माय ।
दीन दसा निज सुतन की तिनसों लखी न जाय ।।८२।।
कब लौं दुख सहिहौ सबै रहिहौ बने गुलाम ।
पाइ मूढ़ कालो अरध-सिक्षित काफिर नाम ।।८3।।
बिना एक जिय के भये चलिहै अब नहिं काम ।
तासों कोरो ज्ञान तजि उठहु छोड़ि बिसराम ।8४।
लखहु काल का जग करत सोवहु अब तुम नाहिं ।
अब कैसो आयो समय होत कहा जग माहिं ।।८5।।
बढ़न चहत आगे सबै जग की जेती जाति ।
बल बुधि धन विज्ञान में तुम कहँ अबहूँ राति ।।86 । ।
लखहु एक कैसे सधै मुसलमान क्रिस्तान ।
दाय फूट इक हमहिं में कारन परत न जान । ।८७ !
बैर फूट ही सों - भयो सब भारत को नास ।
तबहु न छाँड़त याहि सब बँधे मोह के फाँस ।।८8 ।
छोड़हु स्वारथ बात सब उठहु एक चित होय ।
मिलहु कमर कसि भ्रातगन पावहु सुख दुख खोय । । ८९।
बीती अब दुख की निसा देखहु भयो प्रभात ।
उठहु हाथ मुँह धोइ कै बाँधहु परिकर भ्रात ।। 90 ।
या दुख सों मरनो, भलों, धिग जीवन बिन मान ।
तासों सबं मिलि अब करहु बेगहि ज्ञान बिधान ।। ९१।
कोरी बातन काम कछु चलि है नाहिंन मीत ।
तासों उठि मिलि कै करहु बेग परस्पर प्रीत ।। ९2।
परदेसी की बुद्धि अरु वस्तुन की करि आस ।
पर-बस ह्वै कब लौं कहो रहिहौ तुम ह्वै दास । । 93।
काम खिताब किताब सौं अब नहिं सरिहै मीत ।
तासों उठहु सिताब अब छाँड़ि सकल भय भीत । । ९4।
निज भाषा, निज धरम, निज मान करम ब्यौहार ।
सबै बढाबहु बेगि मिलि कहत पुकार पुकार ।। ९५।
लखहु उदित पूरब भयो भारत-भानु प्रकास ।
उठहु खिलावहु हिय-कमल करहु तिमिर दुख नास । । ९6।
करहु बिलम्ब न भ्रात अब उठहु मिटाबहु सूल ।
निज भाषा उन्नति करहु प्रथम जो सब को भूल । । ९7।
लहहु आर्य्य भ्राता सबै विद्या बल बुधि ज्ञान ।
मेटि परस्पर द्रोह मिलि होहु सबै गुन-खान । । ९८।।
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व्याख्यान से बोध होता है कि अंग्रेज़ी का प्रचार-प्रसार और हिंदी की दुर्दशा उस समय से ही प्रारंभ हो चुकी थी। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का यह व्याख्यान आज और अधिक प्रासंगिक है.
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बिलकुल सही और सटीक है आपका मंतव्य।
प्रासंगिक प्रस्तुति के लिए साधुवाद।
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
क्या वह व्याख्यान पूरा दोहों की शक्ल में था...
जवाब देंहटाएंप्रत्येक दोहा है बहुत ही सारगर्भित....
सादर
डॉ राजीव रावत
हिंदी अधिकारी
आईआईटी खड़गपुर
जी हाँ, यह पूरा व्याख्यान दोहों की शक्ल में ही था जिसे आजकल के हिंदी-दिवस वक्तव्यों की तरह ही किसी एक "हिंदीवर्द्धिनी सभा" में दिया गया था.
हटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंप्रासंगिक एवं प्रशंसनीय प्रस्तुति !
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