आलेख कार्पोरेट जगत , युवा वर्ग और राष्ट्र भाषा हिन्दी विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है, पर प्रश्न है कि क्या सच...
आलेख
कार्पोरेट जगत , युवा वर्ग और राष्ट्र भाषा हिन्दी
विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र
हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है, पर प्रश्न है कि क्या सचमुच ही हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा बन पाई है ? इस यक्ष प्रश्न को अनुत्तरित छोड़ देने में विगत पीढी के उन राजनेताओं की बहुत बडी गलती है, जिसके अनुसार हमारी संसद ने यह विधेयक पारित कर दिया कि जब तक देश का एक भी राज्य हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार करने में अपनी तैयारी या अन्य कारणों से असमर्थता व्यक्त करें, तब तक हिंदी को अनिवार्य नहीं किया जावेगा। यही कारण है कि क्षेत्रवाद, भाषाई राजनीति, पक्ष, विपक्ष के चलते कानूनी रूप से हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा के रूप में आजादी के पैंसठ वर्षों बाद भी स्थापित नहीं हो पाई।
लोकतंत्र में कानून से उपर जन भावनायें होती है, विगत कुछ दशकों में बाजारवाद विश्व पर हावी हुआ है आज का युवावर्ग इसी बाजारवाद से प्रभावित है, जहां आजादी के दिनों में उत्सर्ग, देश के लिये समर्पण और त्याग की भावनायें युवाओं को आकृष्ट कर रही थी, वहीं वर्तमान समय में स्वंय की आर्थिक उन्नति, बढ़ती आबादी के दबाव के बीच गलाकाट प्रतिस्पर्धा में येन केन प्रकारेण आगे निकलने की होड में युवा सतत व्यस्त है। आज कार्पोरेट जगत में युवा शक्ति का साम्राज्य है . विभिन्न कंपनियों के शीर्ष पदों पर अधिकांशतः युवा ही पदारूढ़ हैं . बाजार वैश्विक हो चला है . अंग्रेजी वैश्विक संपर्क भाषा के रूप में स्थापित हो चुकी है, अतः आज युवावर्ग ने मातृभाषा हिन्दी की अपेक्षा अंग्रेजी को प्राथमिकता देते हुये अपनी अभिव्यक्ति व संपर्क का माध्यम बनाया है, त्रिभाषा फार्मूले के शीर्ष पर अंग्रेजी स्थापित होती दिख रही है।
आंकडों में देखे तो हिन्दी का विस्तार हो रहा है, नई पत्र पत्रिकायें, किताबें, हिन्दी बोलने वालो की संख्या, विश्वविद्यालयों में हिन्दी पाठ्यक्रम , सब कुछ बढ़ रहा है। पर वास्तविकता से परिचित होने की जरूरत है, जर्मन रेडियो डायचेवेली ने हिन्दी प्रसारण बंद कर दिया है। बीबीसी अपने हिन्दी प्रसारण अप्रैल 2011 से बंद करने वाला है। हिंदी पुस्तकों के प्रथम संस्करणों में 200 से 250 प्रतियां ही छप रही है। हिंदी लेखकों को कोई उल्लेखनीय रायल्टी नहीं मिल रही है। हिंदी ‘हिन्गलिश‘ बन रही है। मोबाईल पर एस.एम.एस हो या नेटवर्किंग साइट पर युवा वर्ग की चैटिंग, रेडियो जाकी की एफ.एम. रेडियो पर उद्घोषणायें हो या टीवी के युवाओं में लोकप्रिय कार्यक्रम, शुद्ध हिंदी मिलना दुष्कर है.गांव गांव तक हमारी फिल्मों व फिल्मी गीतों का युवा वर्ग पर विशेष प्रभाव है , अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी शीर्षक की फिल्में , उनके डायलाग तथा हिन्दी व्याकरण को ठेंगा बताती शब्दावली के फिल्मी गीत अपनी तेज संगीत वाली धुनों के कारण युवाओं में लोकप्रिय हैं . आशा की किरण यही है कि यह सब जो कुछ भी है देवनागरी में है , सकारात्मक ढ़ंग से देखें तो इस तरह भी हिन्दी देश को जोड़ रही है, तथा विश्व में हिन्दी को स्थान भी दिला रही हैं .कार्पोरेट जगत के एम बी ए पढ़े लिखे युवा भले ही अंग्रेजी में गिटर पिटर करें या कार्पोरेट जगत का आंतरिक पत्र व्यवहार , प्रगति प्रतिवेदन आदि भले ही अंग्रेजी में हो पर जब वे अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग करते हैं तो उन्हें विज्ञापनों में हिन्दी का ही सहारा लेना पड़ता है , यह और बात है कि यह हिन्दी भी विशुद्ध न होकर जन बोली ही होती है.
हिंदी कविताओं की पुस्तकें छपती है, पर वे विजिटिंग कार्ड की तरह बांटी जाने को विवश है, एवं लेखकीय आत्ममुग्धता से अधिक नहीं है। युगांतरकारी रचना धर्मिता का युवा हिन्दी लेखकों, कवियों में अभाव दिख रहा है। देश की आजादी के समय मिशन स्कूल, पब्लिक स्कूल एवं कान्वेंट स्कूलों के पास जो संस्थागत ताकत शिक्षण के क्षेत्र में थी, उसका हिंदी के विपरीत समाज पर स्पष्ट दुष्प्रभाव अब परिलक्षित हो रहा है । शिक्षा, रोजगार का साधन बनी, व्यक्ति की संस्कारों या सच्चे ज्ञान की वाहक अपेक्षाकृत कम रह गयी . रोजगार तथा बच्चों के सुखद आर्थिक भविष्य के दृष्टिकोण से स्वंय हिन्दी के समर्थक पालकों ने भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने में ही भलाई समझी इसके परिणाम स्वरूप आज की अंग्रेजी माध्यम से पढी पीढी सत्रह, इकतीस या उननचास नहीं समझ पाती, उसे सेवेनटीन, थर्टीवन और फोर्टीनाइन बतलाना पडता है , यह पीढ़ी अंग्रेजी में सोचकर भले ही हिंदी में लिख ले पर वह हिन्दी के संस्कारों से जुड़ नहीं पाई है .
किंतु सब कुछ निराशाजनक ही नहीं है, एटीएम मशीन हो, या कम्पयूटर के साफ्टवेयर अंग्रेजी के साथ हिंदी के विकल्प भी अब सुलभ है, हिंदी शिक्षण हेतु नेट पर कक्षायें भी चल रही है, हिंदी ब्लाग प्रजातंत्र के पांचवें स्तंभ के रूप में स्थापित हो चला है,नित नये हिन्दी ब्लाग्स विविध विषयों पर देखने को मिल रहे हैं . यह सब हमारा युवा वर्ग ही कर रहा है, हिंदी में शोध करने वाले आज भी गंभीर कार्य कर रहे है, इसके दीर्घकालिक प्रभाव देखने को जरूर मिलेगें। आने वाले समय में आज का युवा ही हिंदी को किसी कानून के कारण नहीं, या उपर से थोपे स्वरूप में नहीं वरन् स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के बीच , अंतरमन से हिंदी की सरलता, सहजता के कारण तथा हिन्दी के भीतर की जनभाषा होने के कारण व्यापक स्वरूप में अपनायेगा, हमारी पीढी इसी आशा और विश्वास के साथ हिंदी को बढ़ता देखना चाहती है।
vivek ranjan shrivastava
अतिरिक्त अधीक्षण इंजीनियर
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर (मप्र) 482008
हिंदी राष्ट्रभाषा है , इसका कोई अभिलेख है ?.मिल सकेगा ?
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