गीता दुबे पिंजरा पुश्तैनी मकान की दीवारें अब झड़ने लगीं थीं| कभी कहीं का छज्जा गिर जाता तो कभी किसी दीवार का प्लास्टर उखड जाता| पंखे में...
गीता दुबे
पिंजरा
पुश्तैनी मकान की दीवारें अब झड़ने लगीं थीं| कभी कहीं का छज्जा गिर जाता तो कभी किसी दीवार का प्लास्टर उखड जाता| पंखे में तेल डलवाने पर भी उसमें से आ रही चर-चर की आवाज में कोई कमी नहीं आती| सभी चीजों की मरम्मत करवाते- करवाते वह थक चुका था| बगान में लगे कटहल,आम,जामुन,बेल इतने फल देते कि उन्हें रखना और पड़ोसियों में बटवाना एक बड़ा काम हो जाता| पेड़ों की सरसराहट की आवाज उसे चैन से सोने नहीं देती| जब तक माँ,बाबूजी और चारों बहनें थीं, उसे वह मकान कभी बड़ा नहीं लगा| लेकिन अब तो परिवार के नाम पर वो उसकी पत्नी और एक उनका बेटा गोलू ही थे| वह अपने गोलू के लिए एक तोता खरीद लाया था जिसे उसने एक बहुत ही खूबसूरत पीतल के पिंजरे में रखा था और उस पिंजरे को बरामदे में लटका दिया था|
वह जब कभी किसी फ़्लैट में जाता तो वह उसकी तुलना अपने पुश्तैनी घर से करता| उसे लगता फ़्लैट की जिंदगी कितनी सुकून भरी होती है, छोटा और सुखी घर| फ़्लैट का दरवाजा बंद कर लो और सारी दुनिया से बेखबर अपनी दुनिया में खो जाओ| न पेड़ों की सरसराहट का शोर न पेड़ों के पत्ते को इकठ्ठा कर जलाने का झंझट और न ही वक्त बे वक्त किसी पड़ोसी के चले आने का डर| उसने मन ही मन तय कर लिया कि वह भी अब फ्लैट में ही रहेगा और अपना पुश्तैनी मकान छोड़ देगा| उसने ऐसा करने में जरा भी देर नहीं की|
लेकिन यह क्या! नया फ्लैट जिसे उसने बड़े शौक से शहर के सबसे पाश एरिया में खरीदा और सजाया था उसमें आते ही उसे बेचैनी होने लगी| सुबह-सुबह जहाँ सूर्य की किरणें खिड़की से झाँककर उसे जगातीं थीं, वहीँ यहाँ बंद ए. सी. के कमरों में रात और दिन का फर्क उसे पता ही नहीं चलता| पुश्तैनी घर में जहाँ वह बाहर बरामदे में खुली हवा के बीच सुबह की चाय के साथ अखबार पढ़ता, वहीँ फ्लैट के ड्राइंग रूम में ट्यूब लाइट की रोशनी में अखबार पढ़ते वक्त लगता जैसे उसकी जिंदगी से सुबह का उजाला कहीं गुम होता जा रहा है| उसकी बैचैनी बढ़ती जाती| फ्लैट के बाहर आते ही वह महसूस करता कि वह आजाद है लेकिन फ़्लैट में लौटते ही एक अजीब सी घुटन उसे घेर लेती| उसे यह समझते देर नहीं लगी कि उसने क्या खो दिया है|
वह फ्लैट बेच वापस अपने पुश्तैनी मकान में आ गया| आते ही उसने पीतल के पिंजरे से तोते को आजाद कर दिया| वह अब जान गया था कि पिंजरा चाहे जितना भी खूबसूरत हो उसमें सिर्फ और सिर्फ घुटन ही होती है|
गीता दुबे (लेखिका)
जमशेदपुर,झारखण्ड
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जूही समर्पिता
ईश्वर का जाल
नव वर्ष के अनेक सन्देश मेरे मोबाईल पर दोस्तों और रिश्तेदारों के आये। सबों को यथोचित धन्यवाद ,शुभकामनाएं भेजती जा रही थी। कुछ ऐसे भी नंबर थे जो अपरिचित थे पर शुभकामनाएं ही तो दे रहा है बेचारा जो भी है यह सोच कर प्रत्युत्तर दे रही थी। अचानक एक सन्देश मिला जो नव वर्ष कि शुभकामना के साथ अधिक आत्मीयता और निकट ता का अहसास दे गया। सन्देश के नीचे लिखा नाम मुझे पुलकित कर गया। जाने क्या सोच कर मैंने चुप रहना ही बेहतर समझा पर दिल के किसी कोने में इस भूले बिसरे शख्स की आवाज़ सुन ने की इच्छा हुयी
इस संदेशे को डिलीट करने को दिल तैयार नहीं था। चुपके से इस नंबर को सेव कर रख लिया। …………
कई दिन बीत गए। जीवन की आपा धापी में मैं भूल गयी कि शायद कोई अब तक अपने भेजे संदेशे के उत्तर के इंतज़ार में बैठा होगा। उसका सन्देश मेरे मोबाइल के इन बॉक्स में पड़ा पड़ा दम तोड़ रहा था। वो बेचारा मेरे प्रेम भरे संदेशे के इंतज़ार में अंतिम सांसें गिन रहा था। मैं किसी अल्हड़ तरुणी की तरह बेफिक्र अपनी ही धुन में मगन थी। ................... उस मजनू की भी हिम्मत दूसरा सन्देश भेज कर मुझे झकझोरने की नहीं हो रही थी इसीलिए तो वो ख़ामोशी से मेरे अत्याचार को बर्दाश्त कर रहा था। गृहस्थी की जिम्मेवारियां ,नौकरी ,सामाजिक दायित्तव निभाते हुए दिल की आवाज़ सुन ने की भी फुर्सत नहीं मिली। …………।
कई महीने बाद आफिस के किसी काम से मुझे अकेले ही लखनऊ जाने का अवसर मिला। अकेली थी शायद इसलिए ,या नए शहर में किसी को जानती नहीं थी इसलिए या सिर्फ दिल की आवाज़ सुनकर मैंने कांपते हाथों से अपने मोबाइल में दबे पड़े उस इनबॉक्स के सन्देश को खोजने की कोशिश की। जाने क्यों दिल की धड़कन कुछ तेज सी हो गयी। अनजाने डर से या फिर पुराने टूटे बिखरे सम्बन्धों की याद से उंगलियां कांप रहीं थीं।बड़ी मुश्किल से अपनी बेकाबू होती हुयी उँगलियों से मैंने उस मोबाइल नंबर का काल बटन दबा दिया। ……। "हैलो "वर्षों बाद वो चिर परिचित आवाज़ सुन कर या पैंतीस वर्ष पहले टूटे रिश्ते को याद कर या फिर ख़ुशी से मेरी आँखों से अविरल अश्रुधारा बह निकली .......... शब्दों ने होंठो को छूने से इंकार कर दिया। बिन कुछ कहे ही मैंने फोन रख दिया।
पैंतीस वर्षों पहले की यह आदत आज अनायास याद आ गयी। उन दिनों मोबाइल नहीं हुआ करते थे। अक्सर जब उसका फोन आता और आस पास कोई बैठा होता मैं चुप चाप आवाज़ सुन कर फोन रख दिया करती। यह सिलसिला दिन में कई बार चलता। कभी रौंग नंबर कह कर मैं रख देती और कभी यूँ ही बिन कुछ कहे ही। मेरी इसी अदा पर शायद उसे प्यार आ गया था। अजीब सा मौन संवाद चलता रहता। .......... दोनों की खामोशियाँ बहुत कुछ बयान कर जाती और एक अनाम रिश्ते में हम दोनों बंधते चले गए ……। न कोई कसमें न वादे ,न ज़िन्दगी भर साथ निभाने के सपने और न ही एक दूसरे के लिए जान देने की ख्वाइश। ............. बस प्रेम का ऐसा रिश्ता ,जो न कभी बंध पाया और न जुड़ पाया। फिर इतने वर्षों बाद यह उलझन क्यूँ? ……… समझने की उम्र तो अब हुयी है। वो तो बचपना था। क्या दिल अब भी बच्चा है? उधेड़बुन में ध्यान ही नहीं रहा कि घंटी फिर बज रही है। इस बार स्वर को संयमित कर 'हैलो ' कहने की बारी मेरी थी। ……… आंसुओं को धीरे से साड़ी के आँचल से पोछते हुए मैंने पूछा 'कैसे हैं.…। ''ठीक हूँ ,खुद को चिकोटी काट कर देख रहा था शायद ....... ख्वाब है या हकीकत। ……… आज सूरज किधर निकला है। तुम तो फोन ही नहीं उठाती। …।''
जाने कितनी ख्वाइशें दिल में उठीं और कितने सवाल दिमाग में। ……… पर बिना कुछ कहे सुनती रही' अच्छा बताओ कैसी हो ' . ''आपके शहर में हूँ। आफिस के कुछ काम से दो दिनों के लिए आयी थी.......''.
" अरे अरे तो पहले क्यूँ नहीं बताया मैं तुम्हें लेने आ जाता। ......". मेरी बात को काट ते हुए कहा उसने। ....... कहाँ हो मैं अभी आता हूँ।'' ....... इतनी आत्मीयता इतना अधिकार और इतनी सहजता थी उसकी बातों में। …… यह मैंने पहले कभी महसूस किया था ऐसा याद नहीं आ रहा।आँखों में आंसू बार बार आ कर मुझे हैरान परेशान कर रहे थे। मेरी आँखों में इतना पानी जाने कहाँ से आ गया। ऐसा लगता है मनो गोमती का सारा पानी यही से जाता है। बात कर थोडा मन हल्का हो गया था पर आँखें अब भी भारी थीं .............
दिन भर के काम के बाद हम दोनों मिले थे। इतने लम्बे अंतराल के बाद मिलन। …। एकबारगी उसे मैं पहचान ही नहीं पायी थी। कच्ची उम्र का वो हीरो कहीं खो गया था ,खूबसूरत ज़ुल्फ़ों की जगह अब चाँद नज़र आने लगा था। फैशनेबल कपड़ों की जगह साधारण सी कमीज़ की उम्मीद मुझे नहीं थी। आँखों के नीचे झुर्रियों से अधेड़ उम्र लगने लगी थी। बाल भी कम थे और मूंछें भी सफेदी लिए दिख रही थीं। मेरी आँखें उस दीवाने को तलाश रहीं थीं जो सुबह शाम नए नए टी शर्ट पहन कर अपनी मोटर साईकिल से मेरे घर के तब तक चक्कर लगाता रहता जब तक मैं उसे एक झलक न दिखा दूं। जाने कौन सा काम करता था जिसमें उसे इतनी फुर्सत मिलती थी कि जिस लड़की का नाम तक उसे नहीं मालूम उसके आगे पीछे घूमता रहे। ....... एक झलक पाने के लिए रात भर तारे गिनता और दिन भर गलियों के चक्कर लगाता।
गाडी में उसके साथ आज अकेले बैठते मुझे न लोगों कि चिंता थी न समाज का दर। इस शहर में मुझे कोई नहीं जानता। इसलिए जब उसने कही लॉन्ग ड्राइव पर चलने को कहा तो मैं सहर्ष तैयार हो गयी पर पूरे रास्ते हम दोनों अपनी अपनी यादों में ही खोये रहे। .......... कभी किसी ने प्यार का इज़हार नहीं किया था पर दोनों एक दूसरे के प्रति आकर्षित ज़रूर थे। प्यार था भी या नहीं यह मैं नहीं कह सकती। ……। यदि सिर्फ आकर्षण था तो आज इतने लम्बे अंतराल के बाद मिलन पर आंसू क्यों ? हम दोनों ही तो अपने अपने परिवार में सुखी थे। दोनों के वैवाहिक जीवन सुखमय कहे जा सकते हैं तब ईश्वर ने ये कैसा जाल बिछा दिया। ......
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सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
चक्र्व्यूह
मैं चाहता था कि सोमेश्वर अपने जीवन में आई जिस मायूसी भरी बदइंतजामी को झेल रहा है , उस त्रासद स्थिति से उसे जल्द से जल्द बाहर निकल आना चाहिए .अगर वह कुछ दिन और इसी हालत में रहा तो निरंतर अवसाद के कारण अपनी सारी सफल उपलब्धिओं के बावजूद किसी मेंटल हॉस्पिटल के एक बेड का हिस्सा बन जायेगा .
मैं हर शाम अपनी दोस्ती का फर्ज निभाता और उसका मूड बदलने की मंशा से उसकी उदास शामों का हिस्सा बनने चला जाता . पुराने दिनों की तरह मैं उसके साथ उन अच्छी और संजीदगी से भरी कहानियों वाली फिल्मों का जिक्र छेड़ देता . मोबाईल में अपलोड किये हुए वह सुरीले गाने सुनवाता जो उसे बेहद पसंद थे या फिर राजनीति के उन किस्सों पर चर्चा करने की कोशिश करता जिन पर वह अक्सर हमेशा अपनी बेबाक रॉय दिया करता था. पर हर बार निराशा मेरे हाथ लगती क्योंकि वह या तो हाँ- हूँ करता रहता या फिर बेतुके प्रश्नो पर अटक जाता .........” हर दिन सूरज डूबता क्यों है और डूबने के बाद कहाँ चला जाता है……? हमारी जिंदगी में ऐसे लोग कहाँ से आ जाते हैं जो बिना बताये चले भी जाते हैं ..........., जो लगातार हमें अपना कहते रहते है , वे ही हमें धोखा क्यों दे देते है .................?
उसके इन सभी प्रश्नो का उत्तर वह हर बार मुझसे सुन चुका है पर हर बार वह अपने सभी प्रश्न किसी रेकॉर्डेड टेप की तरह दोहरा देता है . मैं उसके मानसिक द्व्न्द से हार गया हूँ उसके साथ पिछले दिनों में उसकी उम्मीदों के खिलाफ ऐसा कुछ हुआ है जिसके लिए उसका दिल और दिमाग कत्तई तैयार नहीं था और जब उसने अच्चानक धोखा खाया तो उसके पुरे अस्तित्व ने स्वयं को चारो खाने चित्त पाया . तब से उसे लग रहा है कि नियति ने उससे उसका सबकुछ बिना बताये और अचानक छीन लिया है . उसके पास अब कुछ भी नहीं बचा है .वह अपने बनाये इस चक्रवूह से कैसे बाहर निकले , और मैं कैसे इस काम में उसकी मद्द्द् करूँ , मैं अब स्वयं को असफल पा रहा था . मैंने उसे उसके हाल पर छोड़ दिया था . मुझे अपनी दोस्ती या दोस्ती से जुड़े फ़र्ज़ पर दया आई . मैने खुद को बेबस पाया . मैंने उसे नियति के हवाले कर दिया .मुझे लगा एक उगते हुए सूरज का उसकी शाम आने से पहले ही अवसान हो गया है . उसका ख्याल आते ही मैं उस लड़की को कोसने लगता और किसी अनहोनी के भय में डूब जाता . मैने सोचा नियति को कोई नहीं बदल सकता . मैंने उसके पास जाना बंद कर दिया .
" हेलो ." एक दिन अचानक मेरे मोबाइल की घंटी बजी .
" अंकल , मैं अमिता बोल रही हूँ ."
" हाँ , बोलो बेटा .सोमेश्वर ठीक है न !"
" अंकल , आप बहुत दिन से आये नहीं . इसी लिए फोन किया था ."
मुझे लगा जरूर कोई अनहोनी अपनी दस्तक देने को तैयार खड़ी है .सोमेश्वर को अस्पताल ले जाना होगा या फिर उसको साईंकियाट्रिस्ट की जरूरत आ पड़ी होगी .
मेरी शाम सोमेश्वर के घर पर उसके घरवालों के बीच थी .
सोमेश्वर चाय की चुस्कियों के बीच कह रहा था ," यार ! सूरज डूबेगा नही तो अगली सुबह उगेगा कैसे और एक सच और भी है कि सूरज कभी डूबता नहीं है, सिफ हमारी आँखों से ओझल हो जाता है क्योंकि इस धरती के साथ हम सभी गोल - गोल घूमते हैं .एक अंतराल के बाद हर घटना , हर चीज अपनी वापसी करती है . भले ही कभी - कभी उसका रूप बदल जाता है , बस ."
" वो धोखे वाली बात .........?" मैंने कहा .
" भाई , जो धोखा दे ,यह उसका नजरिया है.. धोखा देने वाला शख्स इंसान नहीं होता और जो मनुष्य के रूप में भी इंसान नहीं, उससे समय रहते पीछा छूट जाये तो समझो ऊपर वाले ने हमारे हक़ में इन्साफ कर दिया है ."
" तेरी बात पर तो मजा आ गया यार .. चल , आज कोई बढ़िया सी फिल्म देखते हैं ."
“कौन सी ? ”
“ वही चक्र्व्यूह , और कौन सी .”
सोमेश्वर खुल कर हँस रहा था
( सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा )15/09/2014
डी - १८४ , श्याम - पार्क एक्सटेंशन , साहिबाबाद - 201005 मोबाईल : ( ऊ. प्र.)
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तिये के चावल
विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
संयोगवश शहर में एक ही दिन जालिम सिंह व धर्मचंद की मृत्यु हो गई । जालिम सिंह एक नम्बर का दुष्ट व कई हत्याओं में शामिल व्यक्ति था । वह अपने जीवन के कई वर्ष जेल में बिता चुका था । उसके ठीक विपरीत धर्मचंद एक पुण्य -आत्मा , सदाचारी एवम् परोपकार की साक्षात मूर्ति थे । जब एक ही दिन दोनों की मृत्यु हुए तो एक ही दिन उनका तीसरा भी था । श्मशान में तिया करने वालों की भीड़ थी । अतं में रीति के अनुसार पके हुये चावलों को कौवा आकर खावे तब तीये की प्रक्रिया पूरी समझी जाती अत: दोनों के परिजन कौवों का इन्तज़ार करने लगे ।तब ही अचानक एक कौवा कहीं से उड़ता आया और जालिमसिंह की राख के ढेर के पास पके चावलों को चोंच में भर कर उड़ गया ।
ये देख कर सभी दंग रह गये ।इसके बाद फिर एक भी कौवा वहाँ नहीं आया । बहुत देर प्रतीक्षा कर सभी वहाँ से चले गये । पर धर्म चंद के श्रेष्ठ व सदाचारी जीवन पर कौवे वाली घटना ने उस दिन प्रश्न-चिह्न सा लगा दिया । इस घटना की चर्चा कई महिनों चली कि क्या संयोगवश शमशान में कौवे के न आने व चावल न खाने से क्या किसी व्यक्ति की भलाई , बुराई में बदल सकती है और खाने पर बुराई, भलाई में । ये प्रश्न , सभी शहर वासियों को आज भी मन ही मन परेशान करता रहता है...
कथाकार -विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
गंगापुर सिटी ,स. मा.(राज.)322201
सभी लघुकथाये सुन्दर मार्मिक हैंऔर अपना सन्देश
जवाब देंहटाएंसफलता पूर्वक दे पायीं इसलिये उनके लेखक बधाई
के पात्र है हमारी बधाई