प्रेत संवाद बद्री सिंह भाटिया सुबह काँशिया नहा धो कर जब पूजा में बैठा तो उसका मन नहीं लगा। एक छाया सी सामने आती और चली जाती। उसने अपने गु...
प्रेत संवाद
बद्री सिंह भाटिया
सुबह काँशिया नहा धो कर जब पूजा में बैठा तो उसका मन नहीं लगा। एक छाया सी सामने आती और चली जाती। उसने अपने गुरु का स्मरण किया जो अब इस दुनिया में नहीं है और फिर आचमन कर पूजा आरम्भ की। साँचा विद्या के दो पासे भी फेंके मगर मन भटका ही रहा। अपने कुल इष्ट, कुलजा और अपनी विद्या देवी का स्मरण कर वह पूजा के कमरे से बाहर आ गया।
बरामदे में आकर उसने खारचा खींचा और बैठ गया। बड़ी बहू को आवाज दी कि वह चाय लाये। बहू कुछ काम कर रही होगी सो पत्नी चाय का गिलास लेकर आई। उसने गिलास पकड़ा और चाय सुड़कने लगा। पत्नी पास ही बैठ गई। वह जानता है कि जब भी पत्नी यूँ पास बैठती है, उसे कुछ खास कहना होता है। उसने उसकी इस प्रक्रिया को जान हुँकारा भरा- ‘हूँऽ'
‘वो क्या है कि... रेशमी की हालत ठीक नी है। सुणा है सोजा- वोजा पड़ गया है और...।'
‘तो क्या, अब कब को रैणी वो... सात खसमी है।' काँशिया बोला।
‘लो जी, एक जान संसार से जाणे वाल़ी है और आप...'
‘अच्छा होर बोल। आज मेरा मूड ठीक नी है। गर मर जायेगी तो लकड़ी पाणे चले जायेंगे। जे ठीक हो जायेगी तो हाल पूछ आयेंगे। उसका वो नया खसम राम सरन कुछ तो कर रहा होगा- राण्ड किस उम्र में खसम कर बैठी। एक पैर कब्र में होर... वहीं मरती तो लड़कियाँ हाल तो पूछ जातीं.... फेर उससे म्हारे को क्या फर्क पड़ता है, उसका गाँव दुजा, उसकी जात दुजी। जा पशुओं को बाहर बाह्न। आज इतवार है, छुट्टी का दिन, बहुत लोक आणे। बहू को बोल के दो परांठे तो बणा दे, मेरे को। वर्ना फेर फुर्सत नी मिलणी।'
पत्नी को उसने उठा दिया। वह भी उखड़ी सी चल दी। मगर काँशिए का मन नहीं थमा। वह कहीं भीतर रेशमी से जुड़ गया।
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दिन चढ़ गया था। काँशिए की बैठक में दस-पन्द्रह लोग जमा हो गये थे। कमरे में धूप, अगरबत्ती की गंध फैली थी। काँशिया अपने आसन पर बैठ अपने प्रेत इष्ट को स्मरण कर, अपनी हस्तलिखित साँचा पुस्तक पर, एक व्यक्ति के बारे में पासा फेंक-फेंक कर उत्तर दे रहा था और उसकी सत्यता जानने के लिए भी पूछता जा रहा था। व्यक्ति कहीं हाँ तो कहीं ना करता। उसके ना करने पर वह साँचा पुस्तक के अमुक खण्ड के अमुक प्रश्नोत्तर को पढ़ने को कहता जो उसने अपनी शिक्षा-दीक्षा के समय लिखा था।
उसका कमरा पन्द्रह बाई बीस फुट के आकार का है। जिसका चार बाई तीन का दरवाजा पूरी ताकत लगा कर खोलना पड़ता है। खोलते समय घरड़ऽ...घरड़ की आवाज़ निकलती है। कमरे में एक ओर सामान और अन्न रखने का लकड़ी का कोठा बना है। कोठे पर सोने के लिए खिंद, रजाई, खारचे इत्यादि रखे हैं। लकड़ी के फर्श पर सफा की चटाई, पुरानी दरी और चीनी की पुरानी बोरिया रखी हैं। कोठे के सामने वाली दीवार में एक अलमारी बनी है जिसमें ऊपर के खाने में कुछ पुस्तकें, उसके सिर के ठीक पीछे एक तस्वीर के सामने एक लोटा रखा है। इस लोटे में वह प्रश्नकर्ता से भेंट लेकर डालता है और कहता है- ‘माराज ये पूछणे वाला है, सच-सच बताणा बे।' -अपने लिए अच्छा गुद-गुदा आसन है। सामने एक पीढ़ी सी है जो लाल वस्त्र से ढकी है। पीढ़ी पर साँचा पुस्तक है। पीढ़ी के एक ओर धूप अगरबत्ती के लिए पात्र हैं तो दूसरी तरफ एक काला दुपट्टा रखा है। इसे ओढ़ वह प्रेतात्मा को जगा कर अमुक व्यक्ति के विशेष प्रश्नों का उत्तर देता है। यह प्रक्रिया किसी विशेष आग्रह पर ही करनी होती है। यूँ लगभग सारे प्रश्नों के उत्तर पासा फेंक कर दे देता है। कमरे में नये वर्ष का कलैण्डर, महिषासुरमर्दिनी काली का कलैण्डर और कुछ लेखकों, पत्रकारों द्वारा उसकी प्रशंसा में लिखे लेख चिपका दिए हैं। इनकी ओर वह बीच-बीच में इंगित भी करता जाता है।
बात बढ़ती रही और दिन चढ़ता रहा। एक पर एक प्रश्नों के उत्तर, आगंतुकों की तुष्टि और पूर्ववत क्रम। इस बीच एकाएक एक प्रेतात्मा से संवाद के बीच, वह प्रश्नकर्ता के उत्तर देने की बजाए अपने चेले से पूछ बैठा। ‘हां तो क्या रेशमी मर गई।'
‘पता नी माराज।'
‘रेशमी तू फिक्र न कर हाँऊ आणे वाला है...।'
सब चुप। ये क्या! सबने प्रश्नकर्ता की ओर देखा- ‘ये रेशमी कौण?'
उसने भी मुँह बना कर नकार दिया। ‘म्हारे परिवार में तो रेशमी...।'
इतने में काँशिए में स्थित प्रेतात्मा ने कहा- -‘देवा, पंचों, मैं हुआ थाऽने।' और उसने अपने पर ओढ़ा काला वस्त्र हटा दिया। अपने इष्ट देव को मत्था टेका और बोला, ‘पारले गाँव की रेशमी मर गई है। उसकी चिता पर झगड़ा हो गया है। रेशमी स्वयं आकर बोल गई- ‘रे काँशिया तू हिंया, पूछे दे रा है, और वहाँ मेरी मिट्टी खराब हो रही है... उसने ई बोला जे श्मशान में जहाँ रामसरन उसे फुकणा चाता है हुआँ उसके लड़के नी फूकणे देते। बोलते हैं जे ये म्हारे गाँव का श्मशान है। ये म्हारे बाप के साथ बेशक रैती थी पर उसकी घरवाली नी थी। इसे अपणे गाँव के श्मशान में फूको। उसके श्मशान वाले बोलते हैं जे इसने दूसरा खसम कर लिया है इसलिए अब इस गाँव से उसका कोई वास्ता नहीं है सो उसे वहाँ फूको। अब मेरे को तो जाणा पड़ेगा, देखता हूँ कि कुछ कर सकूँ। मुए मुड़दे को बी अपणी कसक का मुद्दा बनाणे लगे हैं। तौबा-तौबा क्या जमाना आ गया।'
सबने बात सुनी। कुछ अचरज कर गये। प्रश्नकर्ता सन्न रह गया। ये साला मेरी पूछ के बीच क्या हो गया? कैसी आत्मा जगाई? अपनी परेशानी के कारण उसने काँशिए से कहा- ‘मेरा तो कुछ कर दो गुरु जी?'
‘यार! तेरा ई तो कर रा था। इसने सारी आत्माओं को पीछे कर दिया। अभी इसका कर्म नहीं हुआ है सो ये ज्यादा बलवान है। उनके आणे में देर लगी सो क्या करना। तू अब मंगलवार को आणा।'
‘मैं तो बहुत दूर से आया हूँ।'
‘आज सबेरे से ई मेरे को खटका हो रहा था। जनानी बी खबर लाई थी। मेरा ई ध्यान नी गया। किसी ने बताया भी नहीं। क्या जमाना आ गया लोक मरने की खबर बी छिपाते हैं। पैले ऐसा नी होता थिया। खैर! क्या करना। अब जे मैं आत्मा जगाणे बी बैठूं तो नी जगा सकता। आप उपचार करो जो बताया है। फेर आपको एक बार तो आणा पड़ेगा सो तब कर लेंगे। अभी तो मुझे चलणा है।' और वह उठ गया।
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श्मशान में लाश कफ़न में लिपटी एक ओर रखी है। सामने लगाई गई चिता की लकड़ियाँ आधी बिखरी पड़ी हैं। दोनों गाँवों के युवा और कुछ बूढ़े बाँहें फैला-फैला कर विवाद में उलझे हैं। रामसरन के लड़के पहलवानी मुद्रा में हैं। चेहरे तमतमाए हुए हैं। रामसरन बेबस सा बक रहा है कि ये मेरी थी यार! मिट्टी को क्यों खराब करते हो? ये यहाँ जली कि वहाँ? क्या फर्क पड़ता है? सामने गाँव के लोग भी अपनी अकड़ में थे और बके जा रहे थे कि इसका अब इस गाँव से लेना-देना ही नहीं रहा। श्मशान खराब थोड़े बी करना कि लिया होर इस-उस को जला दिया।
एक अट्टहास, गहरी लम्बी हँसी में तब्दील होता काँशिया के कानों को चीरता पूरे श्मशान में फैल गया। जिसे केवल काँशिया सुन व समझ पाया। काँशिया चौकन्ना हुआ। ये रेशमी का स्वर है। किस दिशा से आई आवाज? उसने देखा-वह श्मशान तीन खड्डों के संगम पर त्रिवेणी बनाता है। एक ओर राजपूत कंवर, एक और कनैत, एक ओर चमार, दूसरी ओर कोली, जुलाह के श्मशान हैं। यद्यपि यहाँ ऐसे कोई स्थान नहीं बने हैं जहाँ लिखा हो मगर इन्हें ऐसे ही निर्धारित किया हुआ समझा जाता है। श्मशान तीनों खड्डों के चौड़े पाट पर स्थित है जो भिन्न-भिन्न प्रकार के पेड़ों से घिरा है। कितने बरस हो गये यहाँ आते? मूर्दे फूँकते उसने इस दृष्टि से कभी सोचा ही न था।
एकाएक अट्टहास की आवाज काँशिया के कानों में आई- ‘मैं यहाँ हूँ' उधर क्या देख रहा है? उसने ऊपर देखा। और भीतर ही भीतर बोला- ‘हाँ देखा।'
‘मेरी मिट्टी की हालत...।' थोड़ा रुआँसी सी आवाज।
‘करता हूँ कुछ?'
‘कुछ नी होगा- अभी कल तक यूँ ही रहेगा, साँझ होने वाली है। ए मुए अकड़े हुए हैं। इनको ठण्डा होने में टैम लगणा; तब तक आओ बात करें।' वह थोड़ा संयत आवाज में बोली। कांशिए ने दोनों पक्षों से बात की। मगर कुछ नहीं बना। मुद्दा वैसा ही रहा- ‘अब पुलिस आएगी तो कुछ होगा।' वह यह सोच एक और बैठ गया कि जवानों की गर्मी को थोड़ा और ठंडा होने दो। जब थक जायेंगे फिर बात करेगा। उसने एक-दो और बूढ़ों से भी बात की जो मायूस बैठे थे- समय को गाली दे रहे थे। काँशिए ने पूछा- ‘अब क्या होगा?' सब ने असमंजस में मुंडी हिलाई। काँशिए के कानों में पीछे से आवाज आई- ‘ऐ छोड़, सब लुच्चे हैं...' आवाज रेशमी की थी। वह रुआँसा हो गई - रोते हुए उसने कहा- ‘मेरा भाग्य ही ऐसा है। मैं जन्म से ही ऐसी हूँ। कहीं बी कोई ऐसा सिरहाना नी मिला कि मैं चैन से रह सकूँ। बचपन में जन्मते ही माँ को खा गई। बड़ी हुई तो पिता को। चाचा ने शादी की। घर बस रहा था कि एक दिन पति चला गया। पता है तब मेरी उम्र क्या थी? सतरह बरस। दो बेटियों का बोझ। इतनी बड़ी जमीन-जायदाद और मैं अकेली? मेरे दुर्भाग्य का एक नया अध्याय हिंया से शुरू हुआ माराज! कांशिया जी।
‘अरे! तू क्यों सुणाती है, मैं नी जाणता क्या। मेरा होर तेरा बी तो कुछ रिश्ता रा है। ...तब्बी तो तेरी ऊवाज सुणते ई आ गया।'
‘क्या करती, पेड़ पर बैठे-बैठे अकड़ गई थी।' मुए क्या झगड़ा ले बैठे?'
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और काँशिया स्मरण करने लगा- रेशमी क्या थी? बला की सुन्दरी। छः फुट की जवान। भरा-पूरा शरीर, लम्बे घुंघराले बाल। पीला धाटू लगा कर और काली सदरी, सुथण डालती तो वह दूर से ही पहचान ली जाती थी। लामण, भौरूं, झूरी गाते तो घाटियाँ गूँज जाती। दूर नालों, चरांदों और खेतों में काम करते लोग शाबाशेऽऽ की ध्वनि से रेशमी को दाद देते। मनचलों के दिल पर छुरी चलती और वे रश्क करते उसके पति से कि देखो भाग्य। रेशमी इसके काबिल नहीं थी। कहाँ ये चौदह-पन्द्रह की छोरी और कहाँ वो चालीस साल का खूसट। तीसरी बार दूल्हा बना। मुआ ठीक होता तो पहली दो को सम्भाल कर रखता, मगर...।
और एकाएक एक दिन रेशमी का पति चल बसा। कच्ची उम्र में विधवा होना--- वह अपनी लम्बी उम्र और बच्चियों को देखती तो गले में कुछ फँसा महसूस करती- ग्यारह-बारह दिन तो रिश्तेदार वगैरह कटा गये। इस बीच अनेक फैसले हुए। इतनी जायदाद और पहाड़ सी जिंदगी। इस पर दो बेटिया ँ; क्या होगा? दूसरा खाविंद करे भी तो कैसे? हिसाबी इस फिराक में कि यह दूसरा घर करे तो वे हकदारी का दावा कर जमीन अपने नाम करा ले।
‘रेशमी का दोहरा मन। एक दिन वह बोल पड़ी- ‘नहीं! वह यहीं रहेगी। वो बी कह गये थे कि जमीन टब्बरवालों को नी देणी। लड़कियाँ भी लड़के ही हैं। सो...।' उसकी घोषणा के तुरन्त बाद वह टब्वर वालों की सूची में दुश्मन हो गई।
इस बीच एक दो ने समर्थन भी किया कि वे गाँव के हैं सो जमीन में हल-वल चला लिया करेंगे- बुआरा वगैरा करके सारे काम हो जाया करेंगे।
पति के कर्म खत्म हुए और रेशमी की रसोई में गाँव के एक जवान की बैठक जमने लगी। किसी न किसी बहाने। संतराम नाम था उसका। गाँव में संता के नाम से प्रसिद्ध। जवान तगड़ा था। गांव के चौराहे, हाट-घराट पर ताश का शौकीन। घर पर काम के नाम पर निल बटा (शून्य)। रेशमी के घर पर आने-जाने, उसकी जमीन में काम करने से गाँव में जहाँ उसके चरित्र पर बात उठने लगी, वहाँ यह भी कहा जाने लगा कि चलो मुआ कुछ कमाने तो लगा। रेशमी चुप सुनती रही क्योंकि उसे एक सहारे की जरूरत थी।
धीरे-धीरे रेशमी के चेहरे पर से वैधव्य का पर्दा हटने लगा। वह थोड़ा निडर होती गई। संतराम के साथ जीवन की एक पायदान और चढ़ गई। परन्तु यह काफी समय तक नहीं चला। धार, ढलान, नेवल से होती बात एक दिन संत राम की पत्नी के मायके तक पहुँच गई। वहाँ पर चर्चा चली। यह तय हुआ कि रेशमी को कहा जाये कि वह संत राम की पत्नी को भी अपने घर रखे और विधिवत ब्याह करे। वर्ना! ...इधर गांव में संतराम की पत्नी पहले ही भड़की हुई थी। सो एक दिन यह युद्ध जो निश्चित था, हो गया। मगर रेशमी नहीं मानी बल्कि उसने संत राम से भी कह दिया कि वह चाहे तो उसके जीवन से दूर जा सकता है। संत राम असमंजस में क्या करे, क्या न करे। उसके ससुराल वाले अपने दाव पर हार भी गए थे।
समय बदला। ऋतु बदली। बसंत के बाद गर्मी और फिर बरसात। सेब का सीजन जोरों पर था। रेशमी के इस बार फसल अच्छी हुई थी। उसने संत राम को ट्रक के साथ दिल्ली भेज दिया था। इधर वह तहसील मुख्यालय पर आजादी के अवसर पर मेले की तैयारियां करने लगी। उसने दोनों बच्चियों को नये कपड़े सिलवाए। अपने लिए कलेजी रंग की कमीज, काले रंग की सुथण और पसंदीदा पीला धाठू खरीद लिया था। बादामी रंग की जैकेट उसने पहले ही खरीदी हुई थी।
संतराम मेले से दो दिन पहले आया। आते ही रेशमी ने पूछा- इतने दिन कहाँ लगा दिए।
वह उस पर बरस पड़ा- ‘दिन लगा दिये या यूँ पूछ कि जिन्दा कैसे आया?'
‘क्या मतलब?'
‘मैं तो अस्पताल में दाखिल था।'
‘क्यों? क्या हुआ?' चौंकी रेशमी। ‘यहाँ किसी को पता ई नी?'
‘यार! हुआँ रास्ते में किसी ने ऐसे बिस्कुट खिलाए कि मैं बस में ही बेहोश हो गया। सारी सेल ले उड़े वे लोग। मुझे तो अस्पताल में होश आया।'
‘क्याऽऽ?' रेशमी के मुँह से निकला। ‘पर तेरे साथ तो वो नीचे वाले लोग बी थे न!' तू कहीं झूठ तो नहीं बोल रहा?'
‘रेशमी विश्वास करो, यह सच है।'
मगर रेशमी के मन में कहीं यह बात घर कर गई थी कि संतराम ने पैसे डकार लिए हैं। तभी उसने अपने ससुराल वालों को उसके यहां भेजा। वह बड़ी मुश्किल से अपने पर काबू रख पाई। बड़ी देर तक सोचती रही। फिर जब तारे आध्ो आसमान में चढ़ गये तो उठी और दरवाजा बाहर से बंद कर गली में लोप हो गई।
मेले में जाने का मन तो था नहीं पर वह चली गई। उसने संत राम को भी कहा कि वह पहले की तरह इस बार भी ठोडा खेलेगा। उसने उसके लिए लाए वस्त्र दिए और प्रसन्न भीतर चली गई।
रेशमी मेले में घूमती रही। अपनी बच्चियों को घुमाती रही। उनकी मन पसन्द की चीजें लेती रही। अनेक रिश्तेदारों से मिली। फिर मेले में ठोडा खेल देखने के लिए चल दी। ठोडा खेल में एक से एक खिलाड़ी आये थे। बाजा बज रहा था और तीरंदाज दूसरे खिलाड़ियों पर तीर के प्रहार करते जा रहे थे। पहले एक प्रहार करता फिर दूसरा। रेशमी खेल की परम्परा में महाभारत काल की इस परम्परा की तह में चली गई। कभी कौरव और पांडव भी इसी तरह कुरुक्षेत्र के मैदान में लड़े होंगे। तब एक दूसरे के योद्धा खेत रह जाते होंगे। इस युद्ध में षड्यंत्र भी हुए थे। वह सोचती जा रही थी कि उसके कानों में एक चीख गूँजी। वह चौंकी। उसके आगे संत राम जमीन पर गिर गया था। उसके तीर लगा था। चीख से भगदड़ मच गई। लोग एकदम इकट्ठे हो गये। क्या हुआ, किसने किया और हक्का-बक्का वह क्या उत्तर दे? वह तो अपने विचारों में ही खोई थी। खेल रुक गया। खेल का बाजा थम गया- क्या हुआ?, क्या हुआ कहते सभी टाँगों में पट्टी बांधे तीरंदाज खिलाड़ी भी घटनास्थल पर आ गये।
एक ने संत राम की छाती से तीर खींचा- यह तो लोहे का है!
सभी खिलाड़ियों ने कहा- हमारे तीर तो तोष और बांस के हैं?
लोहे के तीर की खबर फैलते ही पुलिस भी आ गई। घायल संत राम को अस्पताल पहुंचाया गया। उपचार चला मगर वह ज्यादा नहीं जी सका! एक दिन बाद दम तोड़ गया! यह पता नहीं चला कि लोहे का तीर किसने मारा? कहाँ से मारा? फिर यह किसने किया? सीधे तीर मारना तो खेल की परम्परा भी नहीं रही। सभी ने प्रशासन पर यह दोष लगाया कि खेल में तीर क्यों नहीं देखे परखे गये? संत राम से किसकी दुश्मनी थी? कांशिया भी नहीं समझ पा रहा था।
‘कांशिया तुम भूल गये। तुम्हें तो मैंने बता दिया था न कि संत राम कैसे मरा? वह मेरे जीवन से नया खेल खेलने लग गया था। ...उन दिनों तू भी तो मेरे पास आता रहा था न।' पेड़ पर से रेशमी की आत्मा ने कहा।
‘हां याद आया। तू मेरे पास आया करती थी। अपने पति की आत्मा के बारे जानने। उन दिनों तुझे एक आत्मा घर में डराया करती थी। तभी एक दिन, हम दोनों में एक नया समझौता शुरू हो गया था।'
‘नहीं। दरअसल मुझे पता चल गया था कि संत राम के ससुराल वाले मेरे साथ कोई शरारत करने वाले हैं सो मुझे ही प्रबन्ध करना पड़ा। पर मैंने इतना बड़ा पासा नहीं खेला था।'
‘हाँ सो तो है।'
काँशिया रेशमी के जीवन का एक और पन्ना पलटने लगा। तब वह तीस-बत्तीस की हो गई थी। शरीर गठन में पूर्ववत्। उसने अपनी जमीन पर काम के लिए एक गोरखा रख लिया था। गोरखे से वह अपने सारे काम ले रही थी। एक दिन उसे पता चला कि गोरखे के चलन में फर्क आ गया है। उसने उसके कमरे से बड़ी लड़की को निकलते देख लिया था। तब से वह लड़की पर नज़र रखने लगी थी। और एक दिन उसका शक ठीक निकल गया था। लड़की गोरखे पर पूरी तरह मोहित थी। इस बात की भनक गाँव को मिले, उसने गोरखे को भीतर बुलाया, ‘मुआ कुछ तो शर्म होती। समाज का खयाल होता। गाँव में मेरे रुतबे का खयाल होता। मैं इधर पंचायत में मैम्बर बनने की सोच रही थी कि तूने.... क्या रिश्ता बना ये? माँ बेटी दोनों के साथ। कल जग को पता चलेगा। तेरी लाश भी नी मिलणी। समझा!'
गोरखा चुप सुनता रहा। अपने को दोषी मानता। वह डर गया था। पर रेशमी कहाँ चुप रहने वाली थी। कुछ तो करना होगा। वह सुलग रही थी। एक दो बार तो खयाल आया कि गाँव के एक दो के साथ मिलकर गोरखे का पत्ता ही साफ कर दे पर फिर चुप रही। लड़की का हाव-भाव देखने लगी। फिर मन ही मन निर्णय लिया और एक दिन फिर गोरखे को बुला लिया। गोरखे ने जब रेशमी का रूप देखा तो काँप गया। रेशमी ने उसके आगे प्रस्ताव रखा कि वह बड़ी लड़की से ब्याह कर ले। वरना वो जानता है। धमकी सुन क्या करता? उसे ब्याह स्वीकारना पड़ा।
‘काँशिया! तू सोचता होगा, रेशमी क्या कर रही है। पर मेरे को ये करना पड़ा। निम्मा गर्भ से हो गई थी। फिर मेरी जमीन, सेब का बागीचा। यह गोरखा इमानदार था। मैं इसको खोणा भी नी चाती थी। गलती किससे नहीं होती सो करना पड़ा। फेर मेरे को तेरे पर बी विश्वास था। तू मेरी मदद तो करता ई रैता थिया ना.... पर वो देख सामणे, ये मेरे देवर का लड़का। देख मेरी चिता को नी लगणे दे रा...। मुए को जिन्दगी का पाठ मैंने सिखाया। साला मेरी जांघों में पड़ा रैता था। लालची। सोचता थिया जे मैं जमीन इसके नाम कर दूँगी। जल़ रहा है। ये तब से ई खार खाणे लगा थिया, जब मैंने अपनी जमीन का एक भाग निम्मा के नाम कर दिया थिया। मेरे को लगणे लगा था जे ये साले मेरे को कभी बी मार देंगे। लड़कियों को बी मार देंगे होर जमीन हड़प लेंगे सो... तू थाणे जा, सालों को कैद करा। मेरी मिट्टी... वर्ना देख फेर, मैं कर दूँगी हियां कुछ....गुस्सा आ रहा है ...
‘थाणे तो...।' वह कुछ कहता रेशमी की आत्मा बोली
‘वो देख राम सरन को। अपने कपूतों के सामणे कितना बौणा हो गया है। मेरे को बोलता थिया जे मैं इनको बेदखल कर दूँगा पर क्या कर पाया? अभी मारता न एक-एक झापड़ और बोलता-रेशमी मेरी थी, सो यहीं जलेगी उसकी मिट्टी। पर क्या... मेरी जिन्दगी की तरह लाश पर बी खेल।' रेशमी रूआँसा हो गई।
काँशिया उसकी तकलीफ सहन न कर सका और बीच बचाव के लिए दोनों ठाकुरों के पास चला गया। मन ही मन सोचता। भगवान ने इनको अक्ल की बजाए अकड़ ज्यादा बाँट दी है। समझ की बातें करने, मिट्टी को ठिकाने लगाने की बातें करते। समय बीत गया और दिन ढल गया। अब यदि समझौता भी हो जाता है तो लाश को आग नहीं दी जा सकती। इधर थाने से भी संदेश आ गया है कि लाश उसी तरह रखी जाये, मुआयना होगा।
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रेशमी की लाश के पास राम सरन और उसके एक दो हमउम्र साथी बैठे बीड़ी पी रहे थे। एक दो युवा भी थे जो मुर्दा शरीर की मर्यादा को देख बैठे मक्खियाँ उड़ा रहे थे। सामने चिता की बिखरी लकड़ियाँ थी। उस पर सामने के गाँव के चार-पाँच अधेड़ उम्र के लोग और तीन-चार युवक बैठे थे। पीछे रेशमी के देवर ने अपनी दुनाली रखी हुई थी। वह अभी भी बोल रहा था। ‘...इसको तो कोलियों के श्मशान पर जला देणा चाहिए।' उसकी इस बात पर दूसरा बोला- ‘मुआ ये तो रात को कर लेंगे। पर अब्बी तू किसी को भेज कर तीन-चार पोच मंगा। रात को यहाँ डर बी लगेगा होर ठण्ड बी बढ़ेगी। ‘जे कहीं रेशमी आ गई तो... ऐ काँशिया कुछ नी करेगा। हँसता रहेगा।'
‘अरे! तू डटा रै ये गाँव की इज्जत का मामला है- कल यहाँ की रंडें खसम बदलती रैणी और लोग तुम्हारे पर मूतते रैणे... तुम्हारी मर्दानगी पर हँसते रैणे। आखिर श्मशान की बी मर्यादा होती है। मर्द बन मर्द। ...सेवा राम भेजा है मैंने।'
राम सरन के लड़के भी अपने साथियों के साथ डटे हैं। लाश फूँकेगी तो उनके श्मशान पर... बस।' बाकी लोग बड़बड़ाते खिसक गये थे-- मुए ये और मुई ये रेशमी। क्या धर्म रहा लकड़ी डालने का। जिन्दगी भर भी सुख से नी रई। मरने पर ये बखेड़ा कर गई।
काँशिया अपनी जगह से उठा और राम सरन के पास आया। उससे पूछा कि ये सब कैसे हुआ? राम सरन मरियल सी आवाज में बोला- ‘अरे! ओ दिवाकर है न! लुच्चा। मार गया भाँजी। हम लाश बांध रहे थे। गाँव के लोग सभी आंगन में इकट्ठे थे। वहीं कपाल क्रिया होर मुखाग्नि की बात छेड़ी किसी ने.... इस पर अपने-अपने जवाब थे सबके। तब वही बोल मरा कि इसका तो क्रियाकर्म उन लोगों द्वारा होना चाहिए क्योंकि ये उस गाँव की ब्योती (ब्याही हुई) थी। राम सरन के घर तो अपणा आखिरी टैम काटणे आई हुई थी। ...पता नी किसने ये बात पार पौंचा दी और वे अकड़ गये फेर यूँ ही दो तीन बीच बचाव वाले बण गये। इसके दोनों जवाँइयों को भी स्नेहा भेजा पर वे बी नी आये। फिर दो घंटे तो उपर ई लड़ते बीत गये। तब ये सोच कर लाश यहाँ ले आये कि गाँव के बच्चे रोटी तो खा लें। मुड़दा गाँव में पड़ा रा तो किसी घर में खाणा नी बणना।'
‘भाई काँशिया ये सारा मसला जैदात का है। इस साली ने अपणा सब कुछ तो दे दिया जवाँइयों को। जब उन्होंने लात मारी तो पड़ी राम सरन के पल्ले। अब न इसको कुछ मिला न, उसके देवरों को। तब बणी ये बात।' एक गाँवी ने अपनी टिप्पणी की।
‘पर मुए, मिट्टी तो ठकाणे लाणी पड़नी, कल बास फटणी।' काँशिए ने कहा।
‘रात को देखेंगे। इन नशेड़ियों से बी बात करेंगे। फेर यहीं कहीं कनारे में जैसे लगा देंगे।' एक जवान ने कहा।
‘वो कैसे होगा?'
‘अरे सब होता है। पोच मँगा दिए हैं। कट्ठे पियेंगे। फेर दोस्ती में कर लेंगे।'
‘और पुलस का?' काँशिए ने शक जाहिर किया।
‘होर इसका मरण कर्म।' एक ने कहा।
‘हाँ सो तो है। ...पुलस को बता देंगे या चलो रात को समझौता कर सवेरे जला देंगे। ये बी हो सकता है। यूँ बी सूरज छिपणे के बाद दाग नी होते।' एक ने कहा।
‘अरे! दाग नी होते। क्या जिन्दगी रई इसकी तेरे को तो मालूम है।'
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चूंकि श्मशान गाँव के बाहर खड्ड में था और सर्दियों के दिन थे सो खड्ड का पानी अपने साथ ठण्डक लाने लगा। पास में कोई लकड़ी या उपले तो थे नहीं जिससे आग जलाई जाती और रात काटने का इंतजाम होता। बस थी तो चिता की लकड़ियाँ। गोइटे, बलेठी और चन्दन। सो काँशिया उठा और चिता की दो-चार लकड़ियाँ उठा लाया। एक ने आँखों ही आँखों में शँका जाहिर की। काँशिए ने कहा- भाई कुछ तो करना पड़ना।
उसने गोइठे में सुलगी आग को चूर दिया और उस पर लकड़ियाँ रख दीं। मुखाग्नि को रखी बलैठी भी उसने आग पर झोंक दी ताकि लकड़ियाँ जल जायें। फिर इधर-उधर से बाड़ इकट्ठा करने लगा। सेंक की तलब सभी को हो रही थी सो जवान भी उठे और आग सेकणे का प्रबन्ध करने लगे। एक ने रेशमी के देवर को आवाज दी कि अब लाश तो कल ही जलाणी है सो यहीं आग ताप लो। झगड़ा-वगड़ा कल देखेंगे। यूँ क्यों नाराज बैठा है। यह समझौता शुरू करने का एक शस्त्र भी था। पर वह नहीं आया। चिता की लड़कियों के ताप पर किसी ने एतराज नहीं जताया।
आग भभक उठी। काँशिया जरा उँघने लगा तो उसके कान में आवाज आई। ‘काँशिया, ठण्ड लग रही है। तेरे लोइए में आ जाऊँ।'
‘रेशमी तू तो प्रेत बन गई है- तेरे को ठण्ड कैसी?'
‘अरे तू नी जाणता, मैं नँगी हूँ। तुम लोगों ने जलाने के बाद जो यहाँ कपड़ा चढ़ाणा था उसी से तो तन ढाँपणा था मैंने.... जे तू नी माना तो मैंने घुसणा अपणे शरीर में, और मैं उठ गई तो तुम सब नी रखणे फेर। कल यहाँ जलनी लाशे ई लाशे। बोल करूँ ऐसा?'
‘कर भला?' काँशिया ने हँसते हुए कहा।
‘मैंने कर लेणा, खुंदक नी देणी मेरे को। होर तब खाऊँगी मैं तेरा काल़जा।' हंसी वह।
‘तू साली जिन्दगी भर काल़जा ई तो खाती रही।'
‘तेरा क्या बगाड़ा रे? मुआ तूने जो माँगा, बिना कुछ लिए दिया, तेरी होर मेरी तो जात बी नी मिलती थी, पर मैंने सब भूलकर तेरे को दे दिया, क्यूँ? ...बाकी तो।' वह थोड़ा व्यंग्य और शिकायत से बोली। ...साले मेरे साथ खेलणे आते थे। अपणे-अपणे तीर चलाते थे। रांड-रूणी देख के मेरी जमीन हड़पणा चाते थे। कभी लड़कियों पर नज़र रखते थे। उनको तो फेर अपणी-अपणी करनी भुगतनी पड़ी न! क्यों? ...मैं आई नीचे अपणा लोइया खोल, वहाँ बैठूंगी। तेरे से बात बी करूँगी। यहाँ पेड़ पर तो ठण्ड लग रही है।'
‘पर मर जाणी कोई शरारत नी करना, तू चलाक ज्यादा है।'
‘नई यार! तेरे पास आ कर मैं राम सरन को बी छू लूँगी। बेचारा.... देख कैसा हुआ है। क्या सोचता होगा, जे खरी म्हात्मी ले आई।'
काँशिए ने अपना लोइया खोला। और फेर आग तापणे लगा। रेशमी की आत्मा उसके पास आ गई थी। आग तापती वह चुप रही। लोग अब उसके मिट्टी हुए शरीर की बात करते-करते राष्ट्रीय और राज्य स्तर की, गाँव की राजनीति की बातें करने लगे थे। बीच-बीच में समय के चक्कर की बात कि देखो क्या समय आया। आज मुर्दा जलाणा बी मुश्किल हो गया।
खाना तो खाया नहीं जाना था सो पाउच का दौर चलने लगा। एक दो युवकों ने रेशमी के देवर को मना लिया कि वह आग तापने चल पड़े। फिर राम सरन के लड़कों को भी वहीं बुला लिया और सभी आग तापने लगे। बीच-बीच में पौच से ठर्रा भी पीने लगे।
रेशमी फिर बतियाने लगी- ‘काँशिया, क्या जिन्दगी रई मेरी।'
‘क्या सोचा था। लोगों ने मेरे जीवन मेें क्या-क्या खेल खेले? दुःख तो आज इस बात का है कि इतने पाप मैंने किए तो एक बात के लिए कि मैं सुहागण मरना चाती थी। पर कोई मर्द इस गुर्दे का नी मिला कि मुझे रख सकता। हट फिर कर दो ई बातें उसके पास होती। मैं शरीर तो इसलिए दे देती थी कि इसमें मेरी बी जरूरत थी। पर जमीन के लिए तो गहरे विश्वास की जरूरत थी।
‘होर देख, मेरा विश्वास कब टूटा?... जब मैंने अपणी जमीन उस गोरखे होर निम्मा (लड़की) को दी तो वे कैसे किनारे हुए? मैंने तो सोचा थिया जे मुआ गोरखा नेपाली है। हियाँ ई मर खप्प जायेगा। पर उसने बी कनारा कर लिया।
‘पर वो बोलता थिया जे, तूने जमीन का बड़ा हिस्सा छोटी को दे दिया। काणी बाँट कर गई तू।' काँशिया ने बताया।
‘हाँ! काणी तो हैं पर इसमें बी एक राज है। ....वो साला मेरे गहणे मार गया था। फेर मेरी देख-रेख में बी गड़बड़ करता था। लड़की मेरी कम, उसकी ज्यादा सुणती थी। वो इतनी चालाक थी कि उसने गोरखे को पूरा कब्जे मेें रखा हुआ था। वह उसके बिना एक कदम नी रखता था। मैं जब भी बुलाती, निम्मा साथ आती। उससे मैंने अपणे हिस्से की जमीन इस विश्वास पर छोटी को दी कि ये म्हारे आपणे हैं। मेरा दर्द समझेंगे, पर जमीन लेते ई छोटा जँवाई भाग गया। लड़की ने बी आणा-जाणा छोड़ दिया।
‘मेहणत-मजदूरी आई मेरे हिस्से। मेरा वो शरीर टूटता-टूटता लकड़ी बन गया। मैंने सबसे कहा, मुए मेरी जवानी से तो खेले, मेरा अन्त समय ई कटा दो। अभी बी मेरे पास घर है। बीघा भर जमीन है, वह दे दूँगी। सेब के पेड़ हैं, पर कोई नी आया। फेर एक दिन बुखार में तपती मरी जा रही थी। दो दिन से रोटी नी खाई थी तो इस राम सरन को बुलाया- ये बी कल्ला ई था। ...देख शिमले में अफसर थिया ये। इसने पाले ये लँकड़े, मुए आज लट्ठ बणे हुए हैं। पढ़ाए-लिखाए- नौकरी लगाए। ब्याह हुआ होर अपणी छेवड़ियों के साथ बन्द हो गये। आपणा-आपणा हिस्सा ले कर.......।
‘......इसने मेरा साथ दिया। भगवान इसको खूब देगा। ....देख मैं बी क्या उल्लू हूँ। अब देणा क्या। तीन-चार साल बाद चित हो जाणा इसने। पर याद रख! जे धर्मराज के पास मेरी गति ठीक नी हुई तो मैं वहाँ इसका साथ माँगूगी। इसने ठीक बिताई मेरे साथ। मैं बोलूँगी ‘बीऽ माता मेरी किसमत नये सिरे से लिख।'
‘पर हियाँ बी तो तूने वही किया, जो और जगह, करती थी।
‘हाँ! इसको पैले रोटी की जरूरत थी। सो पका देती थी। प्यार से खिलाती थी। ऐसी साफ सुथरी जैसी इसकी जनानी खिलाती थी। फेर कभी जे इसमें कुछ तपत आती तो उसका सुख बाँट लेती। पर ये निगोड़ा लालची नी है। इसने कभी शरीर माँगा होर मैंने न की तो चुप कर जाता था। गुस्सा नी करता था। तब मैं ही पछताती, क्यों न की इस शरीफ आदमी को। पर... तब कहीं रात को घुसती थी इसके पास। .....हाँ! काँशिया, मैंने एक खाली कागज पर ‘दसखत' कर रखे हैं। इसको नी पता। बाद में तू बता देणा- चाहेगा तो मेरा घर, बची हुई जमीन अपणे किसी के नाम कर देगा, जिसको चाहेगा... पर ये देख क्या बोल रा है ये मेरा देवर- यही फुक देणी मेरी ल्हास। ठैर मैं अभी घुसती हूँ अपणे शरीर में होर खाती हूँ इसका कालजा।' वह गुस्सा गई थी।
‘घियाने' की आग जरा नर्म पड़ी तो काँशिए ने एक लड़के से कहा- ‘अरे! लकड़ियाँ आगे कर।' लड़का चौंका। वह ताप और नींद के बोझ से ऊँघ रहा था। उसने लकड़ियाँ आगे कीं। ताप बढ़ा। फिर काँशिया को संबोधित कर बोला- ताऊ तू बीच-बीच में बड़बड़ाता क्यों है? किसी प्रेत से तो नी बात कर रहा। ...आज यूँ बी तेरे मजे हैं- कोई सिद्धि तो नी कर रा।'
‘नई रे! मुए ऐसे थोड़े बी होते हैं ये काम।'
‘मेरे को सिखा देगा?'
‘पैले तू मेरे घर आणा शुरू कर। तेरा गुर्दा तो देखूँ पैले।'
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वे बतिया रहे थे। रात बढ़ रही थी। दोनों पक्ष नशे में धुत थे। इस बीच एक लड़खड़ाता हुआ उठा और चिता चिनने लगा। चिता चिनने के बाद एक और उठा उसने बड़े-बड़े लट्ठ बदलने शुरू किए और चिता के गिर्द खड़े कर दिए। यह सब मूक याँत्रिक हो रहा था क्योंकि इस सम्बन्ध में कोई बात ही नहीं हुई थी।
फिर दोनों ने इशारा किया और लड़खड़ाते लाश उठाई और चिता पर रख दी। जितने में राम सरन कुछ कहता, उन्होंने अलाव में से लकड़ियाँ उठाई और मुखाग्नि दे डाली। घी का डब्बा कुछ आग पर कुछ रेशमी के मुँह पर डाला। पता नहीं मुँह में पड़ा भी की नहीं।
आग भभकने लगी थी। सारे नशेड़ी उठती धुएँ की धार को देखते रहे। दोनों युवा बाँस के डण्डे लेकर लाश को ठोर-ठोर कर जलाने लगे। बड़बड़ाते- साली क्या गुल खिला गई? फिर पीछे हटे। एक पौच से थोड़ी शराब पी- जो बची- लिफाफे समेत चिता में डाल दी। ‘ले साली तू बी पी!' -फिर पीछे हट कर अलाव के पास आये और लेट गये। लाश जलती रही।
काँशिया चौंका। रेशमी उठ कर चली गई थी। एक आवाज उसके कानों में आई - ‘काँशिया हो लिया मेरा अग्नि संस्कार। कपाल क्रिया भी, दे मरने.... हाँ! मेरे नंगे जिस्म के लिए एक चोली चिता पर डाल देना या क्रिया पर दान कर लेना।'
तब पौ फट रही थी।
बद्री सिंह भाटिया,
द्वारा प्रवीण भाटिया, ग्रीन वुड, दूसरी मंजिल, गांव दूधली, डा. भराड़ी, शिमला-171001
अच्छी पर विचित्र कहानी है
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