''ए रिक्शा वाले ,आश्रम चलोगे ?'' रिक्शेवाले ने मेरे पूछने के अंदाज़ से ,मेरी भाषा से ,या मेरे उच्चारण से तुरंत समझ लिया कि म...
''ए रिक्शा वाले ,आश्रम चलोगे ?''
रिक्शेवाले ने मेरे पूछने के अंदाज़ से ,मेरी भाषा से ,या मेरे उच्चारण से तुरंत समझ लिया कि मैं बंगाल से नहीं हूँ और पहली बार बोलपुर आई हूँ। उसने बांग्ला मिश्रित हिंदी में जवाब दिया ''हैं जाबो ,तीन सौ टाका देना। मैं थोड़ा अचरज में पड़ गयी ……। ये रिक्शे का भाड़ा है या टैक्सी का ?तीन सौ रूपये रिक्शे का भाड़ा मैंने आज तक कभी नहीं दिया इसलिए सोचने लगी क्या करूँ? नयी जगह ,नयी राहें अपरिचित लोग ,भाषा की समस्या आदि देखते हुए मैंने कहा'' चलो ढाई सौ दे दूंगी'' और रिक्शे पर बैठ गयी। नौजवान रिक्शे वाले ने भी जोश में रिक्शे की सीट पकड़ी और पैडल संभाला। हम दोनों के ही खुश होने के अपने अपने कारण थे. रिक्शे का हुड गिरा कर इस शाही सवारी पर किसी महारानी की तरह सुबह की ताज़ी हवा में अकेली ही मैं निकल पड़ी।
जिस लॉज में हमलोग ठहरे थे वहाँ से आश्रम अधिक दूर नहीं था। अपनी दो कलीग के साथ शांतिनिकेतन के शिक्षा विभाग द्वारा आयोजित सेमीनार में परचा प्रस्तुत करने मैं पहली बार आई थी।
मेरी दोनों सहेलियाँ जब तक तैयार होंगी मैं भी सैर करते हुए सेमीनार स्थल पर पहुँच जाउंगी सोच कर मैं आगे निकल गयी।
यह मेरी पहली बोलपुर यात्रा थी और वह भी बिलकुल अकेले इस तरह से रिक्शे से अनजान सड़कों पर आज़ादी से घूमना नया अनुभव था। इस छोटी सी किन्तु पूरे विश्व में विख्यात जगह के बारे में बचपन में अम्मा के मुख से सुना था। वह भी मेरी ही तरह अपने कॉलेज से एक कार्यशाला में अपने पंद्रह कलीग के साथ आयीं थी और बेहद खूबसूरत यादें और अनुभव से समृद्ध हो कर लौटी थी। उन के विस्तृत विवरण मेरे कानो में गूंजने लगे। बचपन में सुनी यहां की कहानियाँ दिल के किसी कोने में दबी पड़ी थीं तभी यहां आने के प्रस्ताव को मैं ठुकरा नहीं पायी। गुरुदेव को पढ़ने पढ़ाने का भी अवसर मिला। उनकी कविताओं को अनुवाद कर सुनाने के भी अवसर मिले। मेरे आदरणीय विद्वान दादा ने गीतांजलि का अनुवाद हिंदी में साथ के दशक में किया था जिसकी भूमिका डॉ हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखी थी। ऐसे ही साहित्यिक संस्कार थे जिसने मुझे इस पावन धरती को छूने का अवसर दिया। जिस धरती पर प्रकृतिवादी दार्शनिक गुरुदेव ने ''नत कर दो ,नत कर दो ,मेरा माथा नत कर दो ……जैसी पंक्तियाँ लिखकर अपना सर्वस्व ईश्वर को समर्पित कर दिया उस मिटटी को सिर से लगा कर अपना अभिमान ,अपना अहंकार ,ख़त्म कर ईश्वर के समक्ष सर झुकाने की कामना करने की हार्दिक इक्षा मेरी भी हुयी। अपनी समस्त कमजोरियों से लड़कर ,पूरी तरह सशक्त हो कर सिर्फ अपनी छोटी सी ख्वाइश पूरी करने के लिए अपनी इच्छा से मैं शांतिनिकेतन पहुँच पायी वरना हम औरतों के जीवन में अपनी इच्छाएं कहीं दब कर रह जाती हैं। घर परिवार पति बच्चे सबों की ख़ुशी का ध्यान रखते रखते अपनी भी कोई ख़ुशी है वह भूल ही जाती हैं औरतें।
''आंटी देखो एटा लाइब्रेरी। …… ओइनेक बोई खाता आछै इशारे से इंगित करता हुआ रिक्शा वाला आगे जा रहा था। रुको रुको मुझे अंदर जाना है कह कर मैं रिक्शे से उत्तर गयी। उत्सुकता थी देखने की यहां पुस्तकालय में कैसी किताबें हैं। कैसी किताबें गुरुदेव पढ़ा करते थे , उनकी रेखांकित किताबें भी अब तक सुरक्षित हैं क्या ?पुस्तकालयाध्यक्ष से मिलकर बताया की मैं जमशेदपुर विमेंस कॉलेज से आई हूँ और यहां संगृहीत पुस्तकों की सूचि देख कर अभिभूत हूँ। मुझसे बहुत बड़ी भूल हुयी की मैं अपने दादाडॉ मुरलीधर श्रीवास्तव द्वारा अनुवादित गीतांजलि की एक प्रति नहीं ला पायी। यहाँ विभिन्न भाषाओं में गीतांजलि का अनुवाद देखा। अपने भूलने की प्रवृति को बहुत कोसा। बहरहाल लाइब्रेरियन से उनका पता लेकर रख लिया और बड़े गर्व से अपनी साहित्यिक विरासत का परिचय दिया और पुस्तक भेजने का संकल्प किया।
रिक्शेवाले ने इस बीच कोई उकताहट नहीं दिखाई बल्कि बड़े शौक से मुझे विश्वभारती के विस्तृत परिसर में घुमाता रहा।कहते हैं जब पहलीबार रवीन्द्रनाथ यहां पालकी से उतरे थे तब पहली नज़र में ही उन्हें यह हरी भरी धरा भा गयी थी.यहां के राजा ने कहा जहां तक नज़र जाए ले लो। इतने बड़े क्षेत्र में फैली विश्व भारती जिसका एक एक भवन एक एक कॉलेज भवन की तरह. कला भवन, नाटक भवन,संगीत भवन ,दिखता हुआ यह रिक्शा वाला इतना प्रफुल्लित था जैसे वह पहली बार दिखा रहा हो। हर भवन के आस पास की हरियाली और कलात्मकता मन मोहक थी। मंत्रमुग्ध सी मैं इस मनोहारी छटा निहारती हुयी गुरुदेव की प्रकृतिवादी शिक्षा पद्धति की इक्कीसवी सदी में प्रासंगिकता पर चिंतन मनन कर रही थी। फ्लैट संस्कृति में पलटे बच्चे बंद कमरों में शिक्षा पाते प्रकृति से कितना काट गए हैं। न तो इनमें प्रकृति से शिक्षा मिल पाती है न पर्यावरण के प्रति इनमें संवेदनाएं पनप पाती हैं।
''ओ देखो आंटी उस पेड़ के नीचे बैठ कर बच्चे पढ़ रहे हैं '' वहाँ तक जाने की मुझे इज़ाज़त नहीं पर गुरुदेव की उपस्थिति को महसूस कर सकती हूँ। '' यह हिंदी भवन है यहां इंदु यानी इंदिरा गांधी नौ महीने रह चुकी हैं। '' हाँ मुझे मालूम है जब नेहरू जी जेल में थे और उनकी पत्नी कमला नेहरू बहुत अस्वस्थ थी तब इंदिरा गांधी को गुरुदेव के संरक्षण में भेज दिया गया था। '' मैंने उसके ज्ञान में इज़ाफ़ा करने की कोशिश की पर उसे इतिहास, भूगोल, साहित्य, संस्कृति सब पता था। रिक्शे वाले का ज्ञान मुझे अचंभित कर रहा था। मैंने अनायास उस से पूछ लिया ''तुम कितना पढ़े लिखे हो ?'''' न आमी किछु पौड़ा शुणा कौरी ना। छोटा था बीमार हो गया था इसलिए स्कूल कभी नहीं गया। ''
'फिर तुमने ये बातें कैसे जानी? ' बस बचपन से सुनते सुनते इस नौजवान ने अपने देश के इतिहास के पन्नो को समझा था.
वाचाल रिक्शा चालक मुझे संगीत भवन में चल रही कक्षा में ले गया जहां कितने मनोयोग से गुरु शिष्य परंपरा में संगीत साधना कर रहे थे.लोक नृत्य सीखती थाई लेंड की युवतियां , वाद्य यंत्रों को साधती जापानी उंगलियां और उन को एकता के सूत्र में बांधता वह अल्प शिक्षित चाय वाला जिसके पास मुझे रिक्शेवाले ने चाय पीने को कहा। बुजुर्ग चाय वाले ने थाई लड़की से उसका नाम पूछातब उसने अपनी प्रफुल्लता व्यक्त करते हुए मुस्काते हुए कहा 'टौंग'जिसे बंगाली चाय वाला उच्चारित नहीं कर पाया। टौंग खूब हंस रही थी अपने नाम के ऐसे उच्चारण सुन कर। ऽप्ने नाम का हिज्जे बता कर उसने उस अल्प शिक्षित चाय वाले को कहा 'टी फॉर थाईलैंड एंड जी फॉर गुरुदेव ' मैं उस थाई कन्या को विस्फारित नेत्रों से देखती रह गयी। मैंने उस से अंग्रेजी में पूछना चाह की वह कितने दिनों से शांतिनिकेतन तब उसने टूटी फूटी अंग्रेजी में समझाया की दो महीने पहले वह लोक नृत्य में रिसर्च करने आई है। सिर्फ दो महीने में वह भी यहाँ की संस्कृति में रम गयी और जी फॉर गुरुदेव कह कर अपने नाम का सही उच्चारण बांग्लाभाषी चाय वाले से करवाने की कोशिश कर रही है।
रिक्शेवाले के साथ चाय घुघनी खा कर हम लोग आगे बढे। मुझसे भी अधिक उत्साहित उस रिक्शेवाले ने मुझे नोबेल पुरस्कार प्राप्त अमर्त्य सेन का घर दिखाया और बताया की विख्यात अर्थशास्त्री जब यहाँ आते हैं तब सबों से इसी बरामदे में मिलते हैं। नमन करती हूँ मैं उस रिक्शेवाले के ज्ञान को। मैं जितना अभिभूत थी शांतिनिकेतन आ कर उस से कहीं अधिक मोहित थी इस सरल सहज रिक्शा चालक से मिलकर। जब उस भोले से चलते फिरते ज्ञान कोष से मैंने उसका नाम पूछा तब उसने बड़े रोचक तरह से अमर अकबर अन्थोनी के तर्ज़ पर अपना नाम बिरेन -बीरू- बिदेश बताया। मैंने अपनी हंसी रोकते हुए कहा बीरू तुम गाइड क्यों नहीं बन जाते ? ''नहीं आंटी पढ़ना नहीं आता अंग्रेजी नहीं आती.…… '' मैं उसे समझा नहीं पायी की किसी भीअंग्रेजी बोलने वाले गाइड से अधिक जानकारी बीरू को है पर इस देश में ज्ञान से अधिक डिग्री का महत्व है।
अपनी सांस्कृतिक ,साहित्यिक, शैक्षिक विरासत को शांति निकेतन [केंद्रीय विश्वविद्यालय ] ने कितना संजो कर रखा है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक कितने यत्न से इस विरासत को हस्तांतरित किया गया है। इस राष्ट्रीय धरोहर को बचाये रखने एवं उस पर गर्व करने की शिक्षा यहां के प्रत्येक वर्ग में कूट कूट कर भरी है। अनपढ़ रिक्शा चालक हो या शिक्षा विभाग के शालीन, शिष्ट, बुद्धिजीवी, शिक्षक गुरुदेव उनके ह्रदय में बस्ते हैं। एक क्षण के लिए भी न तो गुरुदेव को भूलते हैं और न उनके अमूल्य योगदान को।
धन्य है इस देश की संस्कृति।
डॉ जूही समर्पिता
साहित्यकार
व्याख्याता शिक्षा विभाग
जमशेदपुर विमेंस कॉलेज
जमशेदपुर
झारखण्ड
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