पुस्तक समीक्षा गजल संग्रह ‘परत-दर-परत सच' ः सत्य से प्रेम तक की यात्रा गजलकार - सन्तोष कुमार सिंह, मथुरा। गजल ने जिस क्षण से हिन्दी...
पुस्तक समीक्षा
गजल संग्रह ‘परत-दर-परत सच' ः सत्य से प्रेम तक की यात्रा
गजलकार - सन्तोष कुमार सिंह, मथुरा।
गजल ने जिस क्षण से हिन्दी काव्य-प्रेमियों के दिल पर दस्तक दी है तभी से वह उनके कंठ का हार बनी हुई है। यों तो गजल को अरबी-फारसी के शिखरों से उर्दू की तलहटी से होकर हिन्दी के समतल तक उतरने में शताब्दियों का समय लगा होगा, किन्तु आज गजल यदि ‘प्रसाद' जी के नारी को सन्दर्भित कुछ शब्द लिए जाँय तो ‘पीयूष-स्रोत...सी......जीवन के सुन्दर समतल में' अनवरत बह रही है। इतनी लम्बी यात्रा, वक्त के इनकलाबात और इंसानी जद्दोजहद ने गजल के रूप-रंग में जो परिवर्तन किए हैं उन्हें एक उर्दू कवि ने कुछ इस तरह व्यक्त किया है -
गजल पहले शराब पीती थी,
नींम का रस पिला रहे हैं हम।
कहने का तात्पर्य यह है कि कभी हुस्न-ओ-इश्क की पुजारिन, महफिले रिन्दाँ की साकी और मुजरे की रक्कासा रही, वही नाजनीं आज यथार्थ के खुरदरे धरातल पर चलने की अभ्यस्त हो गई है।
सन्तोष किुमार सिंह द्वारा प्रणीत चर्चागत गजल-संग्रह ‘‘परत-दर-परत सच'' की यात्रा सत्य से प्रारम्भ होकर प्रेम तक जाती है। कबीर के अनुसार संसार में ये तत्व ही अनमोल हैं जिन्हें पाकर जीव मुक्त हो जाता हे। वे कहते हैं कि उन्होंने इस बाजार से अपने दीपक के लिए प्रेम-रूपी तेल और ज्ञान (सत्य) रूपी बाती का क्रय कर लिया है, उनका लक्ष्य पूरा हुआ; अब वे इस संसाररूपी हाट में पुनः नहीं आयेंगे।
दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघइ।
पूरा किया बिसा हुणा, बहुरि न आवौं हइ॥
आगे मैं संग्रह में संकलित प्रथम गजल का प्रथम तथा अंतिम गजल के अंतिम शे'र को उद्धृत करते हुए यह संकेत करना चाहता हूँ कि इस गजल यात्रा के प्रथम और चरम बिन्दु कौन-से हैंं -
चाहे मन को चुभे या किसी गात को।
सत्य है जो कहूँगा उसी बात को ॥ (सत्य)
ग ग ग ग ग ग
हर जुबाँ पर एक ही होगी कहानी कल सुबह,
प्रेम-रस मेरे लिए तू रातभर लाती रही। (प्रेम)
यात्रा के इन दो बिन्दुओं के मध्य अनेक पड़ाव हैं जिन पर ठहर कर कवि ने अपने परिवेश की, हर अच्छाई-बुराई की, राग-द्वेष की, सौहार्द-सद्भाव की, छल-कपट की, सदाचरण और दुराचरण आदि की खासी पड़ताल की है। आधुनिकता के दैत्य ने हमारी संवेदनाओं को इतना कुंठित कर दिया है कि हम श्वान को छींकते देखकर तो चिन्तित होते हैं, रोग शय्या पर तड़पते पिता को देखकर विचलित नहीं होते -
श्वान को जब छींक आई डर गए चिन्ता हुई,
बाप शय्या पर पड़ा पूछा नहीं क्या कष्ट है।
देश में अनुक्षण बढ़ रहे आर्थिक वैषम्य की ओर एक सचेत गजलगो की दृष्टि न जाए, यह सम्भव ही नहीं है। एक बिम्ब देखें -
उनके सन्दूकों में साड़ी रेशमी सड़ती रहें,
इनके तन पर थेगरी बिन एक भी धोती नहींं।
दुष्यन्त कुमार का भूखा नायक सिर्फ यह मार्मिक शिकायत करता है -
हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत,
तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठा कर फेंक दीं।
सन्तोष कुमार सिंह के समय तक भूख इतनी क्रूर हो चुकी है कि उनके नायक को ही निगल जाती है
तुमने फेंकी थी जिस दिन बची रोटियाँ,
मर गया भूख से वह उसी रात को।
इनके अतिरिक्त दुराचार, भ्रष्टाचार, व्यभिचार आदि समय के भाल पर लगे काले धब्बों में से एक भी ऐसा नहीं है जो कवि को सूक्ष्म दृष्टि से ओझल रहा हो। यौन दुष्कर्म के कुछ बिम्ब तो इतने सटीक हैं कि उन्हें उद्धत करने में भी संकोच होता है। माताओं द्वारा (अवैध या अनचाहे) नवजात शिशुओं का परित्याग भी आज एक समस्या बन चुका है। कवि ने ऐसे बिम्ब प्रायः कर्ण/कुन्ती को प्रतीक बना कर प्रस्तुत किए हैं। श्री सिंह की लेखनी ने ‘वासना के ज्वार में आकण्ठ डूबे' सन्तों की भी अच्छी खबर ली है। श्री सन्तोष कुमार सिंह मूलतः व्यंग्यकार हैं। गजल का लहजा और व्यंग्य के तेवर मिलकर जिस खटमिट्ठे स्वाद की सृष्टि करते हैं वह रचना को और अधिक आस्वाद्य बना देती हे। सुनिए दो शSतानों के मध्य हुई इस वार्ता को -
एक नेता ने करी भू माफिया से वार्ता,
या कहो शैतान से शैतान की बातें हुईं।
अपने व्यंग्य-चित्रों में कवि ने प्रतीकों का और कहीं-कहीं पौराणिक प्रतीकों का आश्रय लिया है। ऐसे श्ो'र बिना किसी संदर्भ या व्याख्या के बहुत कुछ कहने में सक्षम हैं। ऐसा ही एक धमाकेदार व्यंग्य देखिए -
ओ युधिष्ठिर! जब जमाना और था, अब और है,
जेल होगी, द्रोपदी को दाँव पर धरके तो देख।
इन सबके अतिरिक्त अन्नोत्पादन की सम्भावना को निगलती कॉलोनियाँ, घटता भाईचारा और बढ़ता वैमनस्य, खाप-पंचायतें, वैलेन्टाइन डे, उच्च शिक्षा के बावजूद बेरोजगारी, भ्रष्टाचार की बलि चढ़ती प्रतिभाएँ आदि दर्जनों ऐसे आज के कटु यथार्थ हैं जो कवि को चर-दृष्टि से ओझल नहीं रह पाए हैं। इस सबसे ऊपर जो विशेष उल्लेख है, वह यह है कि अनाचार के इस घटाटोप अन्धकार में भी कोई कुण्ठा, हताशा या पलायन का भाव नहीं है, है तो सिर्फ एक सक्रिय किन्तु सौम्य आक्रोश। इस अन्धकार में कुछ है तो दूर क्षितिज से फूटता उजास का एक उल्लास -
जुल्म करके न समझो कि डर जाऊँगा,
मैं तो सुकरात हूँ पी जहर जाऊँगा।
गुल समझ के अगर तुमने मसला कभी,
गंध बनके हवा में बिखर जाऊँगा।
विवेच्य गजलों में केवल चिन्ता, उपालम्भ और तानाकशी ही नहीं है सद्व्यवहार, भ्रातृत्व-भाव, देश के लिए बलिदान-भावना आदि अनेक सकारात्मक सन्देश भी हैं। एक जगह कवि मानव के गलत व्यवहार की ओर इशारा करते हुए उसे स्पष्ट संदेश देता है -
चुभेंगे किसी दिन तुम्हारे ही पगों में,
ये गमलों में काँटे उगा तो रहे हो।
प्रतीकों और मुहावरों के सटीक प्रयोग के साथ कवि ने कुछ नए शब्दों की सृष्टि और नए अर्थो में प्रचलित शब्दों का प्रयोग आदि भी किए हैं जो अधिकांशतः सफल हैं। उर्दू की परम्परागत बहरों के साथ-साथ हिन्दी-प्रकृति पर आघृत कुछ नयी बहरों की सृष्टि कवि की अपनी सूझ है। संग्रह में दो गजलें ( क्रमांक 54 तथा 67) तो ऐसी हैं जो हिन्दी परम्परागत वीर छन्द ( आल्हा छन्द) से रची गई हैं। एक श्ोर देखिए -
कष्ट दिए अपनों ने इतने, दिल में पड़े फफोले आज,
जिनको दूध पिलाया करते, वे ही बने सपोले आज।
कवि ने व्यावहारिक ज्ञान प्रकट करते हुए एक गजल के माध्यम से बताया है कि आज किसी व्यक्ति की कमियाँ बताना भी कटुता पैदा कर देता है। कवि कहता है -
दोस्त पर खुद आज अँगुली क्यों उठाई आपने।
दोस्ती ये इस तरह से क्यों निभाई आपने॥
कल पुरानी दोस्ती भी टूट सकती है जनाब,,
शक्ल उसको आइने में क्यों दिखाई आपने।
एक सार्थक गजल-संग्रह के लिए कवि को शतशः साधुवाद। अन्त में एक चतुष्पदी के साथ पुनः शुभकामनायें -
काव्य प्रसून बिकट बोलेगा।
छल-फरेब से बच बोलेगा।
अगर गजलगो है शाइर तो,
‘परत-दर-परत सच' बोलेगा॥
समीक्षक -
डा0 रामनिवास शर्मा ‘अधीर'
ए-2/1 विजय नगर कॉलौनी,
महोली रोड, मथुरा।
मो0 - 09456418616
बहुत बढ़िया पुस्तक समीक्षा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं'परत-दर-परत' गजल संग्रह की समीक्षा पढ़ी. समीक्षा का प्रयास अच्छा है. पर इसमें कबीर का एक दोहा देकर उसका जो अर्थ किया गया है वह खटक गया. डॉ शर्मा को अर्थ करने में सावधानी बरतनी चाहिए थी.
जवाब देंहटाएंप्रथम तो इस दोहे के दोनों अंत्य पद गलत हैं. ये पद 'अघइ' की जगह 'अघट्ट' (न घटने वाली) और 'हइ' की जगह 'हट्ट' (बाजार) होना चाहिेए. द्वितीय यह कि इस दोहे का अर्थ गलत किया गया है.
यह दोहा कबीर ने गुरु की बंदना में लिखा है. इसमें उन्होंने गुरु की महिमा का बखान किया है. वह कहते हैं- मेरे गुरु ने मेरे दीपक रूपी शरीर में स्नेह (प्रेम) रूपी तेल भर दिया है और उसमें ज्ञान की बत्ती डास दी है. मैंने इस संसार रूपी बाजार में जीवन को जीने के लिए आवशयक सारी खरीद पूरी कर ली है. अब पुनः मैं इस संसार में नहीं आउँगा अर्थात आवागन के चक्र में पड़नेवाला नहीं हूँ.
अगर डॉ साहब के किए अर्थ के अनुसार कबीर को यदि बाजार से ही प्रेम रूपी तेल और ज्ञान रूपी बाती मिल गई तो इसका अर्थ यह हुआ कि ये मूल्यवान चीजें सरे बाजार मिलती है. तब तो इन्हें जो चाहे, जब चाहे मूल्य देकर खरीद सकता है. क्या जरुरत है अनथक पापड़ बेलने की.