साहित्य और संवादः दो दशक की चिन्तन यात्रा पुस्तक – साहित्य और संवाद लेखिका – डॉ. मधु सन्धु समीक्षक - प्रोफेसर डॉ. चंचल बाला ( हिन्दी ...
साहित्य और संवादः दो दशक की चिन्तन यात्रा
पुस्तक – साहित्य और संवाद
लेखिका – डॉ. मधु सन्धु
समीक्षक - प्रोफेसर डॉ. चंचल बाला
(हिन्दी विभाग, खालसा कालेज फॉर वुमेन, अमृतसर, पंजाब)
पिछले दो दशकों में हिन्दी साहित्य की लगभग प्रत्येक विधा पर स्तरीय लेखन हुआ है और प्रतिष्ठित कृतियों का मूल्यांकन भी पत्र-पत्रिकाओं में मिलता रहा है। डॉ0 मधु संधु ने 'साहित्य और संवाद' में 1991 से 2012 तक प्रकाशित पुस्तकों पर लिखी अपनी 'मूल्यांकनपरक समीक्षाओं या समी़क्षात्मक मूल्यांकन' को एक ही जिल्द में बांधनें का श्लाधापरक कार्य किया है। पुस्तक के अट्ठाइस शीर्षकों मे कोई तीस समीक्षाएं हैं। समकालीन कथा आलोचना में डॉ. मधु संधु का महत्वपूर्ण स्थान है। डॉ. मधु ने शोध और आलोचना क्षेत्र में 1981 में ‘कहानीकार निर्मल वर्मा' पुस्तक के साथ प्रवेश किया। 'साठोत्तर महिला कहानीकार', 'कहानी कोश (1951-1960)', 'महिला उपन्यासकार', 'हिन्दी लेखक कोश', 'कहानी का समाजशास्त्र', 'हिन्दी कहानी कोश (1991-2000)' 'हिन्दी का भारतीय और प्रवासी महिला कथा लेखन' आदि उनके आलोचनात्मक एवं शोधपरक ग्रंथ हैं। 'नियति और अन्य कहानियां' कहानी संग्रह, 'गद्य त्रयी' और 'कहानी श्रृंखला' सम्पादित रचनाएं हैं। हिंदी की लगभग सभी प्रकाशित और नेट पत्रिकाओं में उनकी 200 के आसपास कहानियां, कविताएं, लघुकथाएं, आलेख, शोधपत्र, समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। सितम्बर 2011 के अंक में द संडे इंडियन ने उनकी गणना 21वीं शती की 111 हिंदी लेखिकाओं में की है। उनमें अपनी पारदर्शी आलोचन दृष्टि से सृजनात्मक रचना के आर-पार देख उसका सशक्त मूल्यांकन करने की रचनात्मक सामर्थ्य है।
साहित्य और संवाद में 1991 से 2012 के बीच प्रकाशित उन उपन्यासों, कहानी संकलनों, काव्य रचनाओं, आत्मकथ्यांशों, पत्राों एवं व्यंग्य रचनाओं का मूल्यांकन है जिन पर लेखिका की समीक्षाएं हिन्दी भाषा की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्रा-पत्रिकाओं में समय समय पर प्रकाशित होती रही हैं।
प्रथम आलोच्य कृति कृष्णा सोबती की 1991 में प्रकाशित लम्बी कहानी अथवा लघु उपन्यास 'ऐ लड़की' है। ऐ लड़की को नारी विमर्श से जोड़ते हुए लेखिका ने पुरुष सत्ताक के षडयंत्राो का जिक्र किया है। बेटे के बिना जीवन को निरर्थक मान लेने वाली औरत ने जान लिया है कि बेटी को जन्म देकर ही मां की पीढ़ी आगे बढ़ती है। चित्राा मुद्गल के 'आंवा' में महानगर है। लेकिन यहां भी कैरियर सजग युवती सर्वत्र असुरक्षित है। डॉ. मधु संधु लिखती हैं-
'घर से निकलते ही उसे पता चलता है कि वह मात्रा देह है। वैसे यह बात उसे मौसा ने नौ-दस की उम्र में ही बता दी थी। पिता के मित्र परम पूज्य अन्ना साहब बलात्कार नहीं करते, दुराचार/अनाचार करते हैं, क्योंकि वह बेटी जैसी है। पवार उससे सच्चा प्रेम करता है ? नहीं ! वह तो राजनैतिक भविष्य के लिए दलित-बा्रह्मण गठबंधन चाहता है। सिद्धार्थ की आंखों में लौलुपता है। मटका किंग अपनी बेटी को ही वासना का भाजन बनाता है और सौतेला भाई गौतमी को। स्पष्ट है कि औरत के अस्तित्व का तिलिस्म उसकी देह से ही उपजता है।' (पृ. 32)
मंजुल भगत का 1977 में अनारो और अठारह वर्ष बाद 1995 में उसका पूरक गंजी प्रकाशित हुआ। डॉ. मधु संधु ने इन्हें पत्नीव्रत पति की खोज में निकली स्त्रियां माना है-
'उपन्यास पतिव्रता की परम्परित मूल्यवत्ता को चुनौती देता है। यहां पति की अनुचरी बनकर पतिव्रता का धर्म निभाने वाली औरतें न होकर उन्हें सीधे रास्ते पर लाने वाली पतिव्रताएं हैं।'ं
सिम्मी हर्षिता के जलतरंग को उन्होंने संस्कृति आस्था और संघर्ष का जलतरंग कहा है। लेकिन नारी उत्पीड़न, विमर्श और सशक्तिकरण यहां वहां बिखरा है। रोहिणी अग्रवाल के कहानी संकलन 'आओ मां हम परी हो जाएं' में पितृसत्ताक के षडयंत्रों के साथ-साथ समाज और व्यवस्था के कूट रहस्य भी बेनकाब हुए हैं। ए असफल की 'वामा' की स्त्री अपने अस्तित्व पर लगे प्रश्नचिन्हों का बराबर हिसाब मांग रही है और कृष्णा अग्निहोत्री की 'यह क्या जगह है दोस्तो' की स्त्री नितांत अकेली है। उसके पास न पति है, न प्रेमी, न बच्चे।
प्रख्यात कथाओं पर लिखने वाले नरेंद्र कोहली का 'तोड़ो कारा तोड़ो' 1996 में आया। डॉ. मधु संधु ने मुख्यतः नरेन्द्र कोहली के इस उपन्यास के उस पक्ष को लिया है, जहां विवेकानंद विभिन्न काराओं को तोड़ते दिखाई देते हैं-सामाजिक कुरीतियों की कारा, धार्मिक संकीर्णताओं, अहंकार एवं तंत्र-मंत्र की कारा, मठाधीशों की मोहांधता, विलास और ऐश्वर्य की कारा, वैयक्तिक द्वंद्वों की कारा, भाषा की कारा। कृष्णा अग्निहोत्राी का 'बित्ता भर की छोकरी' दोहरे संघर्ष को झेल रही राजनेत्री इंदिरा गांधी पर लिखा गया उपन्यास है। यहां योग्य बेटी परिवार को प्रतिष्ठा दे रही है।
लेखिका ने पितृसत्ता के षडयंत्रों के साथ-साथ समय और समाज, व्यवस्था और राजनीति के कूट रहस्य भी बेनकाब किए हैं। उनका 'पाषाण युग' काश्मीर की सुलगती घाटी के बाशिंदों के साहस और वेदना का दस्तावेज बन कर आया है। महीपसिंह के 'अभी शेष है' और 'बीच की धूप' में विभाजन की राजनीति, विभाजनोत्तर भारत की राजनीति, आपातकाल की राजनीति, आपातकालोत्तर भारत की राजनीति, पड़ोसी देश पाकिस्तान की राजनीति, विश्व राजनीति-सभी चित्रित हैं। अजय शर्मा के 'बसरा की गलियां' में वैश्विक स्तर पर राजनैतिक युद्धोन्माद के परिप्रेक्ष्य में डॉ. मधु संधु ने नारी जीवन की भिन्न अवस्थाओं, विडम्बनाओ, ़त्राासदियो,ं वेदनाओं, चिंताओं और जीवट का चित्रण किया है। लेखिका कहती है-
'यहां तीसरी दुनिया की सशक्त औरतें हैं। अपनी शक्ति से जिन्होंने परिवार को मातृसत्ताक बना लिया है। वे पुरुष को गुलाम बना सकती हैं। उसका खतना करवा सकती हैं। उसकी मातृभूमि बदल सकती हैं। उपन्यास की औरतें वट के सहारे, उसकी छत्रछाया में बढ़ने वाली लताएं नहीं, वे वट का पेड़ होने की क्षमता लिए हैं।' (पृ. 59)
उन्होंने राजेन्द्र यादव का आत्मकथ्यांश 'मुड़ मुड़ के देखता हूँ' और मन्नू भण्डारी का 'एक कहानी यह भी' सहेजा है। लेखिका लिखती हैं-
'यादव का यह आत्म कथ्य जीवन के अंतिम अरण्य में किया गया कन्फैशन है। आत्मा की आवाज जैसा कुछ है। ..... आत्म विश्लेषण है।' (पृ. 40)
मन्नू भण्डारी की 'एक कहानी यह भी' अनुभवों को ईमानदारी से शब्दबद्ध किया गया आत्मकथ्यांश है। वे दोनों पुस्तकों में आई लेखकों की रचना प्रक्रिया की भी बात करती है।
मैत्रेयी पुष्पा की औपन्यासिक आत्मकथा 'कस्तूरी कुण्डल बसै' में जीवन का ग्लोरिफिकेशन है। यहां पीढ़िया नानी, मां और बेटी यानी स्त्रियों से बन रही हैं। 'यह दर्द गाथा है। कोई दुखभंजनी बेरी न नानी को मिली, न कस्तूरी को, न बेटी को। सच्चाइयों का साक्षात्कार इसे इस सदी की विशिष्ट कृति बना देता है।' (पृ. 44)
मधु कांकरिया के ' पत्ताखोर' में नशे का शिकार युवावर्ग है और 'सलाम आखिरी' में वेश्याओं की परत दर परत खुलती दुनिया की कुरूपताएं, कुत्सा और भयावहता है। लेखिका ने बताया है- 'वेश्या उन्मूलन के लिए आज तक कोई आगे नहीं आया। पुरुष वर्चस्व वाले हमारे समाज में वेश्या समस्या को समस्या समझा ही नहीं जाता। पुरुषों की अवसरवादी अधकचरी नैतिकता में यही है कि जो सर्वभोग्या है, उसका भोग नैतिक अपराध है ही नहीं।' (पृ. 46)
2007 में प्रकाशित उषा प्रियंवदा का 'भया कबीर उदास' भी यहां है। लिखती हैं- भया कबीर उदास का कथ्य एकदम अछूता और अद्वितीय है। अनेक प्रश्न है। कैंसर सब निगल जाता है और स्त्रीत्व का बिम्ब ही बालों और वक्ष के बिना नहीं बनता। उपन्यास आधे अधूरे शरीर वाली स्त्री की सामान्य स्त्री सी कामनाओं को स्वर देता हैं। (पृ. 102)
प्रवासी साहित्य ने विगत दशकों में अपनी विशेष पहचान बनाई है। उषा राजे सक्सेना की 'वह रात और अन्य कहानियां' ब्रिटेन में रह रहे इमिग्रेंटस की संवेदनाओं, ओढ़े हुए आभिजात्य, आत्मविश्वास और संघषोंर् की सवाक् दस्तावेज़ हैं। इन कहानियों में बाल एवं किशोर जीवन एवं उसके मनोविज्ञान को नायकत्व दिया गया है। प्राणशर्मा की पराया देश की कहानियों और लघु कथाओं में प्रवासी का दर्द बिखरा पडा है। दो संस्कृतियों के बीच पिस रहे प्रवासीे डेनमार्क से अर्चना पेन्यूली के 'वेयर डू आई बिलांग ' और अमेरिका से सुषम बेदी की 'सड़क की लय' में मिलते हैं। इलाप्रसाद की 'उस स्त्री का नाम' की कहानियों को लेखिका ने अगली पीढ़ी के दर्द की कहानियां कहा है।
'साहित्य और संवाद' में आज की सभी प्रमुख विधाएं हैं। सुधा ओम ढींगरा के 'धूप से रूठी चांदनी', कीर्ति केसर के 'मुझे आवाज देना' और रमेश सोबती के 'एक विवश मौन' काव्य संकलनों का मूल्यांकन भी किया गया है। 'प्रिय राम' में गगन गिल द्वारा सम्पादित निर्मल वर्मा के पत्र हैं। नरेन्द्र कोहली के व्यंग्य 'सबसे बड़ा सत्य' में असंगतियों और विसंगतियों का बहुमुखी रूप उजागर है।
जैसे प्रेमचंद के पंडित और मौलवी की भाषा में अंतर है, वैसे ही लेखिका की भाषा हर रचना की प्रकृति के अनुसार बदलती गई है। लगता है डॉ. मधु संधु को गागर में सागर भरने वाले सूत्र बेहद प्रिय हैं। सूत्रों के प्रति उन्हें इतना मोह रहा है कि भाषा की इस गति और शक्ति का सर्वत्र उल्लेख करती हैं। जैसेः-
1- गृहस्थ में पांव रखकर स्त्री का जो मर्दन और मंथन होता है, वह भूचाल के झटकों से कम नहीं होता। - ऐ लड़की
2- जुनून कामयाब हो गए तो बहादुरी है, नाकामयाब रहे तो बेवकूफी।- बीच की धूप
3- सुख के लम्हे तक पहुँचते पहुँचते हम उन लोगों से जुदा हो जाते हैं, जिनके साथ हमने दुख झेलकर सुख का स्वप्न देखा था।-प्रिय राम
4- कुड़ी हो या चिड़ी, चाह कर भी न घास पर फुदक सकती है, न आसमान में उड़ सकती है। हर जगह शिकारी का खतरा।-आओ मां हम परी हो जाएं
नवीन मुहावरों, भाषागत उपलब्धियों , शिल्पगत विविधताओं का भी डॉ. मधु ने उल्लेख किया है। जैसे 'ऐ लड़की' का शिल्प पूर्वदीप्ति और प्रलापीय है, 'तोड़ो कारा तोड़ो', 'पाषाण युग', 'आवा'ं ,'सड़क की लय', 'यह क्या जगह है दोस्तो' मे प्रतीकात्मकता है।ं
ं 'साहित्य और संवाद' मात्र समीक्षात्मक ग्रंथ नहीं है। इसमें बाइस वर्ष के हिन्दी साहित्य में समाए विद्रोह के स्वर गूँज-अनुगूंज उत्पन्न कर रहे हैं। यहां नारी विमर्श, उत्पीड़न और सशक्तिकरण है। दोयम दर्जा झेलने वाली स्त्री पुरुष से तेज भाग रही है। निकट अतीत की घटनाओं को लेकर लिखे गए ऐतिहासिक उपन्यास हैं। समय और समाज, राजनीति और व्यवस्था के कूट रहस्यों का अनावरण है। कश्मीर की सुलगती घाटी में बिलबिला रहा पाषाण युग है। नशाखोरी, कैंसर और वेश्यावृति के मसलों को स्वर देने वाले उपन्यास हैं। जीवनीपरक आत्मकथ्यांश हैं और प्रवास में जीवन की लय ढूँढ रहे, जमीन से उखड़े प्रवासी भी। हर रचना सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक मूल्यों से टकरा रही है। 'साहित्य और संवाद' एक प्रभावी शुरूआत करता है। दो दशकों में आने वाली चुन्नौतियों को स्वर देता है। सृजन में समाए चिन्तन का एक सुधी आलोचक द्वारा किया गया मूल्यांकन है।
पुस्तक साहित्य और संवाद
लेखिका डॉ. मधु संधु
मूल्य 300/
प्रकाशक अयन, दिल्ली
पृष्ठ 152
प्रोफेसर डॉ. चंचल बाला, हिन्दी विभाग, खालसा कालेज फॉर वुमेन, अमृतसर, पंजाब.
बेहतरीन समीक्षा
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