हनुमान मुक्त का व्यंग्य - सरनेम से भ्रम

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सरनेम से भ्रम मेरा स्थानान्तरण दूसरे शहर हो गया। लोग मेरी जाति, कुल से परिचित नहीं थे। मैं भी उन्हें परिचित कराना नहीं चाहता था। मेरे नाम ...

सरनेम से भ्रम

मेरा स्थानान्तरण दूसरे शहर हो गया। लोग मेरी जाति, कुल से परिचित नहीं थे। मैं भी उन्हें परिचित कराना नहीं चाहता था। मेरे नाम के पीछे लगा सरनेम मुक्त मेरी जाति का बोध कराने में असमर्थ था।

एक दिन पिछड़ी जातियों के आरक्षण समर्थक आंदोलन के एक नेता वर्मा जी मेरे पास आए। वे आरक्षण के लिए मेरा समर्थन चाहते थे। मैं समझ गया कि इन्हें मेरे नाम के पीछे लगे उपनाम ने भ्रमित कर दिया है या मेरे साथ मेलजोल रखने वाले लोगों से ये भ्रमित हो गए हैं। वरना ऊँची जाति के व्यक्तिके पास कोई भी निचली जाति का व्यक्ति आरक्षण के समर्थन के लिए भला क्यों आएगा। हर कोई जानता है कि कोई भी ऊँची जाति का व्यक्ति अपनी जाति को नहीं छिपाता। जाति को छिपाने का काम तो नीची जाति वालों को करना पड़ता है, जिससे लोग उन्हें हेय दृष्टि से नहीं देखें, उनसे बात करने से पहले ही उनके बारे में नकारात्मक भाव नहीं लाएं। उन्हें हीन नहीं समझें।

वैसे भी ज्यादातर जाति सूचक सरनेम नहीं लगाने के मामले में देखा गया है कि नीची जाति के लोग ही अपने नाम के पीछे जाति सूचक सरनेम नहीं लगाते और लगाते हैं तो ऐसा सरनेम लगाते हैं जिससे सामान्य व्यक्ति उनकी जाति का सहज ही अनुमान नहीं लगा सके।

वे चाहते हैं कि लोग उनके रूप को देखकर, उनकी योग्यता को देखकर उनके बारे में कोई मानसिकता बनाए। उनकी जाति को देखकर नहीं। भारतीय विद्वानों ने इस पर पर्याप्त विचार किया है कि रूप बड़ा है या जाति। रूप व्यक्ति-सत्य है, जाति समाज-सत्य। जाति उस पद का द्योतक है जिस पर समाज ने मुहर लगा रखी है। ऐसे लोग समाज-सत्य की सड़ी-गली धारणाओं को तोड़ना चाहते हैं वे व्यक्ति सत्य को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं।

मुझे भी वे ऐसा ही मान रहे थे। उनकी बातों को सुनकर मैं मन ही मन प्रफुल्लित हो रहा था कि चलो गलत फहमी में ही सही ये लोग मुझे अपना हितैषी तो मान रहे हैं, यदि इनको मेरी जाति के बारे में पता होता तो किसी भी स्थिति में मुझसे आरक्षण के समर्थन में बात करने नहीं आते।

मैंने उनका उनके रूप के अनुसार सत्कार किया। वे बोले, ‘आजकल ऊँची जाति के लोग हमारे आरक्षण के खिलाफ लामबन्द हो रहे हैं। यदि हम सब एकसाथ उनके खिलाफ लामबन्द नहीं हुए तो वह दिन दूर नहीं जब हमें आरक्षण से वंचित होना पड़ेगा। आप तो लेखक टाइप व्यक्ति हो, कुछ ऐसा लिखो जिससे हमारी जाति के लोग इस आरक्षण के समर्थन में एक साथ खड़े हो जाएं और ऊँची जाति के लोग चुप हो जाएं।’

मैं बोला, ‘वर्मा जी! ऐसी कोई बात नहीं है। हमें आरक्षण मिलना सामाजिक न्याय की बात है। हमसे इसे कोई भी नहीं छीन सकता। जब तक हमारी जाति के लोग, सामान्य जाति के लोगों के बराबर नहीं आ जाते, आप चिन्ता मत करो।’

वर्मा जी मेरी बात से संतुष्ट नहीं हुए। वे चाहते थे कि मैं आरक्षण का विरोध करने वाले ऊँची जाति के लोगों को अच्छी-अच्छी गालियाँ दूं, अच्छे-अच्छे अकाट्य तर्क आरक्षण के समर्थन में दूं। मेरी बात से वे थोड़े निराश हो गए लेकिन तुरन्त ही हिम्मत जुटाकर बोले, ‘मुक्त जी, ऐसा कब तक चलता रहेगा। हम कब तक अन्याय सहते रहेंगे। आरक्षण का विरोध करने वालों को जेल में डाल दिया जाना चाहिए।’

मैं वर्मा जी की मन स्थिति समझ रहा था। इनके दोनों लड़के बड़े अफसर थे। स्वयं के पास भी करोड़ो रुपयों का कारोबार था। नेताजी ही उनका साइड जॉब थे।

मैंने कहा, ‘वर्माजी आप जैसे लोग आरक्षण लेना खत्म कर दो तो जाति का भला हो सकता है, ऐसे लोग जिन्हें दो समय की रोटी नसीब नहीं है। वे तुम्हारे साथ रेस में आगे कैसे निकल सकते हैं। भला चिमनी और बिजली के लैम्प में मुकाबला कैसे हो सकता है? मुझे तो ऐसा लग रहा है कि तुम ही अपनी जाति के लोगों का हक छीन रहे हो। क्यों ना पिछड़ी जाति के लोगों की एक बैठक बुलाकर यह निर्णय लिया जाए कि धनाढ्य लोग आरक्षण का लाभ नहीं लेंगे। यदि सभी ने ऐसा सोच लिया तो निश्चित रूप से हम इस जाति के लोगों का भला कर सकते हैं।’

मेरी बात अपने ही प्रतिकूल पड़ते देख वर्माजी ने रंग बदला। वे बोेले, ये सब तो अपनी घरेलू बाते हैं। इन पर फैसला तो हम सब बाद में मिल बैठकर कर लेंगे, लेकिन फिलहाल आरक्षण विरोधियों का मुकाबला कैसे करें। यह सब बाताओ।

मैं बोला, ‘जो लोग आरक्षण का विरोध कर रहे हैं, उनके तर्कों को कुतरना शुरू कर दो। अच्छा सा वकील हायर करके अपना पक्ष न्यायालय में प्रस्तुत करो।’

‘इसी पर डिसकस करने तो मैं तुम्हारे पास आया हूँ। अपने दिमाग में दौड़ाओ और कोई अच्छी सी काट बताओ लेकिन अभी जो तुम धनाढ्य लोगों के आरक्षण नहीं लेने की बात कर रहे थे, उस बात को दुबारा किसी से मत कहना। तुम समझते नहीं यदि हम ही ऐसा करने लग जाएंगे तो हम-तुम इतनी भाग-दौड़ क्या भाड़ झौंकने के लिए कर रहे हैं। हर कोई अपने बच्चों के लिए, आने वाली संतति के सुखद भविष्य के लिए काम करता है।’

हम-तुम श द के बार-बार उच्चारण को सुनकर मेरे चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गई। मैने कहा, ‘वर्माजी तुम सिर्फ अपनी बात करो। मुझे अपने में शामिल में मत करो। मैं आरक्षित जाति का व्यक्ति नहीं हूं।’

मेरे मुंह से इस अप्रत्याशित रहस्योद्घाटन को सुनते ही वर्माजी भौचक्के रह गए, लेकिन तुरन्त संभलकर बोले, ‘तभी मैं सोच रहा था कि तुम अब तक ऐसी बहकी-बहकी बातें क्यो कर रहे थे। अपने ही खिलाफ तुम हमको सलाह कैसे दे सकते हैं। मैं अभी जाकर सबको बताता हूँ कि तुम आरक्षण विरोधियों के भेदिये हो और हमें बेवकूफ बनाने के लिए अपने नाम के आगे अपनी जाति सूचक सरनेम नहीं लगा रहे हो।’

यह कहते हुए वर्मा जी उठ खड़े हुए और मन ही मन गाली बकते हुए अपनी जाति के आरक्षण समर्थकों के पास अपनी भड़ास निकालने निकल पड़े।

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रचनाकार: हनुमान मुक्त का व्यंग्य - सरनेम से भ्रम
हनुमान मुक्त का व्यंग्य - सरनेम से भ्रम
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