ऑपरेशन चिड़ियों की तरह चहकता और झरने जैसा मुस्कराता हुआ, सुबह-सुबह सजा-सँवरा भव्य दादी की अँगुली थामे घर से निकलता। अस्पताल के गेट से बाहर अ...
ऑपरेशन
चिड़ियों की तरह चहकता और झरने जैसा मुस्कराता हुआ, सुबह-सुबह सजा-सँवरा भव्य दादी की अँगुली थामे घर से निकलता। अस्पताल के गेट से बाहर अपनी स्कूल बस का इंतजार करता। बस आने तक किसी लय में फुदकता हुआ, कोई पंक्ति कूकता रहता। उस समय उसके साथ पड़ोसी अमित भी रहता, जो उससे दो-तीन साल बड़ा था। साथ-साथ स्कूल बस में जाता था।
अमित व भव्य दोनों डॉक्टर परिवारों से थे। अमित के पिता डॉ. रंजन सजन थे। भव्य की माँ प्रतिभा स्त्री रोग विशेषज्ञ थीं, पिता डॉ. आमोद पैथोलोजिस्ट ट्रस्ट का अस्पताल था। दोनों परिवार 'डॉक्टर रेजिडेंट कैम्पस' में रह रहे थे।
तीन-चार महीने पहले ही आई थीं दादी माँ। कारण भव्य था। उन दिनों भव्य खिलौने तोड़ता, किताबें फाड़ता, सेविका इमरती से झाड़ता, स्कूल मैं साथियों से मारपीट करता। रोकने पर तनकर खड़ा हो जाता। कहता, ''मैं हूँ शक्तिमान।''
माँ-बाप से खाली घर मैं उसके लिए एक टेलिविजन रह जाता था। रिमोट हाथों में लिये टीवी. चैनलों को बदलता रहता। बेताल, स्पाइडर मेन या शक्तिमान जैसै सुपर मैन किरदारों मेँ वह हर समय डुबकी लगाए रहता। माँ के सामने कभी स्पाइडर मैन की तरह दीवार पर सीधा चढ़ने की कोशिश करता तो कभी कोई चीज उछालकर कहता, ''शक्तिमान भी ऐसे ही फेंकता है ना।''
भव्य माँ की गोद में बैठकर पढना चाहता। अपनी कॉपियों में अपने द्वारा किए गए अक्षरों के रेखांकन दिखाना चाहता। स्कूल की बातों का खजाना बाँटना चाहता। लेकिन ट्रस्ट के अस्पताल में मरीजों की बाढ़ सँभालते-सँभालते प्रतिभा का दमखम लौटते वक्त तक चुक गया होता। फिर भी आराम करती प्रतिभा का ध्यान किसी मरीज में उलझा रहता। तो कभी अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट के लिए बेचैनी रहती। या मरीज के ऑपरेशन के लिए दुविधा होती। इस बीच अस्पताल से कॉल आ जाती। प्रतिभा सब कुछ इमरती के हवाले कर चल देती। अपमानित भव्य खीजकर रीता रह जाता।
बीच-बीच में इमरती से झाड़कर भव्य ने अस्पताल जाना शुरू कर दिया। वही वह माँ के चैम्बर में बैठा अपना होमवर्क निपटाता। अपनी दिपदिपाती ऑखों से माँ को देखता रहता।
''मम्मी, मरीजों के फूले पेट से ही बच्चा निकलता है, ना ?''
''मम्मी! तुम ऑपरेशन क्यों करती हो ?''
भव्य के इन प्रश्नों का उत्तर देने के बजाय प्रतिभा ने स्वयं ही प्रश्न कर डाला था, ''तुम्हें कैसे मालूम ?'' भव्य ने सीधा उत्तर दिया कि उसने ऑपरेशन करते हुए देखा था। हरे कपड़े पहनाकर। मरीज को मेज पर लिटा दिया था। और उसके फूले पेट को काटकर उन्होंनें बच्चा निकाल दिया। भव्य ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि यह सब उसने ऑपरेशन रूम के बाहर खड़ा होकर, शीशे के दरवाजे से देखा था।
अस्पताल की आया और कम्पाउंडर भव्य को छोटे डॉक्टर साहब कहने लगे थे, क्योंकि जब कभी प्रतिभा किसी काम से चैम्बर से निकलती तो वह मरीजों से पूछताछ शुरू कर देता।
मरीजों के सामने भव्य का रहना प्रतिभा को अच्छा नहीं लगता था। एक दिन निर्णायक क्षण आ पहुँचा। छुट्टी का दिन था। जाड़ों के दिनों में धूप स्नान के लिए प्रतिभा छत पर बैठी थी। भव्य की आवाज ने उसका ध्यान खींचा। पलटकर देखा तो भव्य मुँडेर पर चढ़ा था।
''मैं शक्तिमान की तरह उड़ूंगा, मम्मी !''
शक्तिहीन-सा हो गया था प्रतिभा का जिस्म। मुँडेर से बाहर की 'ओर वह सड़क पर गिर सकता था। भव्य रोकने से रुकने वाला भी नहीं था। क्षण में उपाय सूझ गया था प्रतिभा कौ। ''शक्तिमान बेल्ट पहनकर ही उड पाता है। तुम भी अपनी बेल्ट पहन लो तभी हवा में उड़ सकोगे।'' प्रतिभा ने कहा।
भव्य मान गया। मुँडेर से नीचे उतर आया।
धौंकनी सी चलती साँसों और डर से शिथिल शरीर होते हुए भी प्रतिभा ने भव्य को गोद में भर लिया। नीचे उतर आर्या। उस दिन उसने खाना छुआ तक नहीं। क्षोभ में अस्पताल से त्याग-पत्र लिख डाला था।
अपने जन्मदिन पर परियों के आने के सपने देखने वाले भव्य का कोना-कोना दादी माँ ने अपनी गोद में समेट लिया।
स्कूल बस से लौटता तो भव्य दादी माँ को अपना इंतजार करते हुए अस्पताल गेट पर पाता। उनकी अँगुली में अपने को थामकर भव्य सब कुछ भूल जाता। स्कूल में अपने दिन का हिसाब-किताब बताता। दादी के हाथों से खाना खाता। फिर थोड़ा-सा आराम करता। इसके बाद दादी माँ उसका होमवर्क करातीं। एक दिन इमरती ने कह दिया, ''आज तो दादी जी के पेट में दर्द हुआ था, भव्य।''
सुनकर वह खाना भूल गया। अपना बार्बी डॉक्टर का सेट खींच लाया। घोषणा कर दी कि वह दादी माँ का पूरा चेकअप करेगा। दादी माँ को उसने लिटा लिया। उनकी ऑखें देखी। जीभ देखी। कलाई पकडी। दायें-बायें पेट देखा। पैर देखे। इसके बाद स्टेथोस्कोप गले में लटका लिया। साथ ही रंगीन चश्मा आँखों में -चढा लिया। हाथ में पेन लेकर बोला, ' 'आप में खून की कमी है। खून चढ़ाना पडेगा। अल्ट्रासाउंड करना पड़ेगा। मैं ऑपरेशन करूँगा। इस बीच मैं कुछ दवा लिख देता हूँ।''
''तू तो पूरा नकलची बन्दर है। अपनी माँ की नकल करता है। बड़ा सयाना हो गया है।'' दादी माँ ने उठते हुए कहा। भव्य को उन्होंने चूम भी लिया था।
भव्य क लिए दादी का कन्धा झूला बन चुका था और उनकी गोद पालना। उनकी गोद में दिन को अलविदा कहता। सुबह का स्वागत करता। शाम को उनके साथ चलकर मन्दिर में जाता। रात्रि में उनके साथ टीवी. पर आने वाले धार्मिक धारावाहिक देखता। मुँह से आग, हवा या पानी बरसाते देवताओं 'और राक्षसों को देखकर तालियाँ बजाता। तीर-कमान से लड़ते योद्धाओं को देख अचम्भित रह जाता। भव्य समझ नहीं पाता था, शाप का प्रभाव। धारावाहिकों के किसी प्रसंग में क्रोधित ऋषि शाप देते। और शापित आदमी जानवर या कुछ अन्य बन जाता। यह देख, उलझन भव्य के चेहरे से झाँकने भी लगती।
दादी माँ ने भव्य को समझाया, ' 'जो लोग भगवान की ज्यादा पूजा करते हैं, उन्हें इस प्रकार की शक्ति भगवान जी दे देते हैं।''
एक दिन मन्दिर से आते वक्त भव्य ने दादी माँ से पूछ लिया, ' 'मुझको कब भगवान जी शक्ति को ?'' ''तुम्हें क्यों चाहिए ?'' पूछा। उन्हें भव्य मैं आए परिवर्तनों का अहसास था। मन्दिर वह खुशी-खुशी जाने लगा था। वहां चुपचाप हाथ जोड़े और आँखें बन्द किए खड़ा रहता था।
''मैं सबको हनुमान जी बना दूँगा। छोटे-छोटे हनुमान जी। फिर सबके साथ खेलूँगा।''
धार्मिक धारावाहिकों में ''जय हनुमान'' भव्य को सबसे ज्यादा पसन्द था। दादी माँ की गोद में बैठकर अन्य धार्मिक कथाओं के साथ 'रामकथा' वह सुन चुका था। फिर भी उसे हनुमान सबसे ज्यादा पसन्द आए थे। ' 'हनुमान जी तो सबसे अच्छे हैं। उड़ जाते हैं, पहाड़ भी उठा लेते हैं। कभी चींटी तो कभी बहुत बड़े हो जाते हैं। और अपनी पूँछ में आग लगाकर सबको जला डालते हैं।'' भव्य दादी माँ से कहता, अब उसे शक्तिमान या बेताल जैसे सुपरमेन मिट्टी के खिलौने लगने लगे थे।
भव्य के संग्रह में हनुमान मुखौटे के साथ दो-तीन बन्दरों के मुखौटे भी थे। इमरती को बन्दर मुखौटा और स्वयँ हनुमान मुखौटा पहनकर भव्य प्लास्टिक की गदा कन्धे पर रख लेता। धारावाहिक के गीत गाता, ''नाद देव की महिमा भारी, संगीतमय है सृष्टि सारी।'' उसके संवाद बोलता, ''मैं रुद्रावतार हूँ।'' जयघोष करता, ''जय श्रीराम।''
एक बार दादी माँ ने पूछ ही लिया, ' 'तुम्हारे श्रीराम कहीं रहते हैं ?''
भव्य घूम गया। बहुत सोचने के बाद बोला, ' 'वो तो टीवी. में रहते हैं। कभी टीवी. में आते हैं।''
इस उत्तर पर दादी माँ बहुत देर तक हँसती रही थीं।
जीन्स की पैंट और जैकेट पहने, हनुमान का मुखौटा लगाए और गदा हाथ में लिए जब कभी भव्य किसी फिल्मी धुन पर ब्रेकडान्स जैसी उछल-कूद करता, उस समय दादी माँ अपने हाथों में अपना चेहरा छिपा लेतीं। अमित भव्य को हनुमान कहने लगा था। इस पर वह खुश हो जाता। हनुमान चाल की नकल करता। अपना सीना फुलाकर अकड़-अकड़कर चलता।
दादी-पोते की जुगलबदी सप्तम् सुर मैं थी। भव्य उनकी गोद मैं बैठकर सवाल करता। जैसे, ''दादी माँ! पापा अपने सीने के बालों को शेव क्यों नहीं करते? हनुमान जी डायनासोर को भी मार सकते हैं ना। अमित कह रहा था कि डायनासोर हनुमान जी से भी बड़े होते थे।''
कल होमवर्क करते हुए भव्य ने दादी माँ से पूछा, ''दादी माँ! अमित डाकू क्यों बनना चाहता है? डाकू बुरे आदमी होते हैं ना। बुरे आदमी नहीं बनना चाहिए। मैं तो हनुमान जी बनूँगा। पापा मेरे लिए ड्रेस ले आए हैं। स्कूल में रविवार को हमारा फैन्सी ड्रेस शो है।''
भव्य ने दादी माँ से अपनी उलझन कह दी थी। अमित अपन पिता डी. रंजन के साथ आया था। माथे पर लाल टीका, मुँह पर कपड़ा बांध और हाथ में खिलौना ए.के.47 लिये। अपनी तेज आवाज मैं बोला, ''मेरी डकैतियाँ काकोरी कांड की तरह याद की जाएँगी। मेरे खून वर्ग संघर्ष के अनुष्ठान समझे जाएंगे। और पुलिस से बचने की दौड़ मेरी दांडी यात्राएँ होंगी। जाति से खेलने वाले मेरे आत्म-समर्पण का बहीखाता खुलवाएँगे। इसके बाद थोड़ा मेरा जेल प्रवास होगा। फिर राजनीति का खुला मैदान होगा। मुझ पर फिल्म बनेगी। विदेशों तक में मेरे फैन क्लब होंगे।''
संवाद अमित ने अच्छी तरह रट लिये थे। अर्थ वह खुद नहीं जानता था। लेकिन भव्य की चिन्ता थी कि अमित मॉर्डन डाकू क्यों बनना चाहता है।
प्रतिभा और आमोद ने अमित के पूर्वाभ्यास पर सन्तोष व्यक्त किया था। कल से हुनमान इस पहनने की जिद भव्य कर रहा था। स्कूल से लौटने पर दादी माँ ने उसे मुकुट पहनाया। मुखौटा लगाया। पूंछ बाँधी। लँगोट कसी। खडाऊ पहनाई। भव्य बहुत खुश था। नजर बचाकर वह घर से बाहर निकल आया। अस्पताल पहुँच गया। मरीजों भरी शाम कईपुा ओपीडी थी। हनुमान चाल में चलते हुए भव्य कहने लगा, ''हनुमान जी बन गया हूँ। भगवान जी बन गया हूँ।'' मरीजों में कौतूहल भर गया था।
अपने चैम्बर में ले जाकर प्रतिभा ने भव्य को कसकर डपटा।
रुआँसी आवाज में भव्य ने पूछा, ''क्या भगवान् अस्पताल नहीं आ सकते ?''
''अस्पताल में मरीज आत हैं। डॉक्टर आते हैं।'' प्रतिभा ने उसे झिड़कते हुए कहा।
भव्य वापस लौट आया। दार्दा माँ की गोद में छिप गया। रोने लगा। दादी माँ पुचकारती रर्र्हा। पूँछती रहीं। उस शाम को मन्दिर जाते वक्त भव्य अस्पताल के सामने रुक गया। बोला, ' 'दादी माँ! क्या हनुमान जी ऑपरेशन कर सकते हैं? अमित कह रहा था कि हनुमान जी ऑपरेशन नहीं कर सकते।''
''तेरे पेट में दाढी-मूँछ उग आई है।'' दादी माँ ने आश्चर्य में कहा। टेढ़ा-सा भव्य प्रश्न था। ' 'बेटा! किताबें पढकर आदमी क्या से क्या हो जाता है। किताबें पढकर आदमी क्या से क्या हो जाता है। किताबें कुछ करती हैं क्या? ऐसे ही भगवान जी भी केवल राह दिखाते हैं।' '
अपनी बड़ी-बड़ी ऑखों से भव्य दादी माँ को एकटक देखता रहा। लौटते वक्त उसने दादी माँ को बताया कि मंदिर मैं उसने हनुमान जी से कह दिया है कि कल स्कूल वह उनके साथ जाएगा। उनकी पीठ पर बैठकर और उड़कर बस के समय तक जरूर आ जाएँ नहीं तो छुट्टी। क्योंकि अमित पूछ रहा था कि क्या हनुमान जी उसे स्कूल ले जा सकते हैं?''
दूसरे दिन भव्य ने स्कूल बस आने तक हनुमान जी का इंतजार किया। बस आने पर दादी माँ को देखकर चुपचाप उसमें चढ़ गया। टाटा भी नहीं की। स्कूल से वापस आने पर दादी माँ की अँगुली पकड़कर चुपचाप घर लौट आया। उसने मुकुट, मुखौटा और पूँछ उठाकर रख दी। घोषणा कर दी कि फैन्सी ड्रेस शो में वह डॉक्टर बनेगा और ऑपरेशन करेगा।
प्रतिभा और आमोद दोनों ही भव्य को समझाने में हार चुके थे। आखिर में दादी माँ प्लास्टिक ट्रॉली पर लगा उसका 'बेबी डॉक्टर सेट' खींच लाई। भव्य की आखों में हीरे जैसी चमक झांकने लगी थी। उसने अपना रंगीन चश्मा पहना। स्टैथोस्कोप गले में लटकाया। तब तक आमोद एक प्लास्टिक की गुड़िया अपनी कमीज के नीचे छिपा लेट चुका था। प्रतिभा ने भव्य का हाथ पकड़कर बेबी नाइफू से कट का इशारा करवाया और अपने दूसरे हाथ से भव्य ने कमीज के नीचे छिपी गुड़िया बाहर निकाल ली।
''ऑपरेशन हो गया।'' भव्य अकर बोला था।
दादी माँ की यात्रा पूर्ण हो चुकी थी।
- 'अजय। निदान नर्सिग होम फ्री गंज रीड हापुड़ - 2451०1 111००11०
रचनाकार की शिराओं में बहती हिंदी के अबाध प्रवाह में नहाकर मन प्रफुल्लित होता है.आगामी हिंदी दिवस के अवसर पर रविरतलामी जी को हिंदी सेवा के लिए हार्दिक बधाई!
जवाब देंहटाएंउत्तम रचना बाल मनोभाओं का सुन्दर चित्रण
जवाब देंहटाएंलेखक प्रसंशा एवम बधाई के पात्र है मेरी सस्नेह
बधाई