अंकिता भार्गव की कहानी - वो कागज की कश्‍ती वो बारिश का पानी

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वो कागज की किश्‍ती वो बारिश का पानी   मैं कालेज से घर पहुंचा। आज मुझे शाम तक घर में अकेले रहना था बच्‍चे अपनी मां के साथ नानी से मिलने...

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वो कागज की किश्‍ती

वो बारिश का पानी

 

मैं कालेज से घर पहुंचा। आज मुझे शाम तक घर में अकेले रहना था बच्‍चे अपनी मां के साथ नानी से मिलने जो गए हुए थे। खाना खा कर जरा सुस्‍ताने ही रहा था कि डोर बैल की आवाज बज उठी। ‘अब इस समय कौन आ गया।‘ मैं मन ही मन आगंतुक पर झल्‍लाता हुआ दरवाजा खोलने चल दिया।

दरवाजे पर राज भाई खड़े थे जो कि मुझे देखते ही मुझ पर झपट पड़े। “क्‍यों भई बहुत बडे़ आदमी हो गए हो। कितनी देर से घंटी बजा रहा हूं दरवाजा ही नहीं खोल रहे। अगर पता होता तो पहले से अपाइंटमेंट ले कर मिलने आते।”

“क्‍या भाई साहब आप भी कैसी बातें करते हैं। भला आपका गट्‌टू भी इतना बड़ा हो सकता है कभी। असुविधा के लिए माफी चाहता हूं। बच्‍चे अपनी मां के साथ नानी के घर गए हैं और मेरी कब आंख लग गई मुझे पता ही नहीं चला।” मैंने आगंतुक का स्‍वागत कुछ चिरौरी वाले अंदाज में किया। आगंतुक मेरे बड़े भाई साहब के मित्र थे।

मैंने उन्‍हें बड़े आदर से घर के अंदर बिठाया और खुद उनके लिए चाय नाश्‍ते का प्रबंध करने लगा। इसके अलावा मेरे पास और कोई चारा भी तो नहीं था। “मैं यहां चाय पीने नहीं तुमसे एक जरूरी बात करने आया हूं।” चाय का प्‍याला पकड़ते हुए वो कुछ गंभीर अंदाज में बोले।

“हुकम कीजिए भाई साहब।” इन दिनों विश्‍वविद्यालय की परीक्षा चल रही थी और लोग अक्‍सर मेरे पास अपने बच्‍चों के नंबर बढाने की प्रार्थना ले कर आते रहते थे। शायद राज भाई साहब को भी मुझसे कोई ऐसा ही काम होगा।

“कभी काम से वक्‍त मिले तो अपने भाई साहब को भी संभाल लिया करो। कितना समय हो गया है तुम्‍हें उनसे मिले, कितना?” उन्‍होंने मेरी ओर एक नाराजगी भरी नजर डालते हुए प्रश्‍न किया। हालांकि उनकी यह शिकायत मेरे लिए अप्रत्‍याशित थी किन्‍तु साथ ही यह भी सच था कि मुझे अपने भाई साहब से मिले हुए काफी वक्‍त बीत गया था। क्‍या करूं समय ही नहीं मिलता। काम ही इतना है कि दम मारने की फुर्सत नहीं मिलती।

“तुम्‍हें तो अपने परिवार के अलावा कहीं ओर देखने की फुर्सत नहीं है और वहां देवेश है ने उन्‍हें अपने ही घर में नौकर बना कर रख छोड़ा है। उसे अपने माता- पिता की कोई कद्र ही नहीं रह गई है। पागल सा हो गया है मेरा राघव बेटे से मिल रहे अपमान से। अगर तुम्‍हारे अंदर थोड़ी सी भी इंसानियत बाकी है तो जा कर संभालो अपने भाई को, देखो क्‍या हाल हो गया है उसका।”

इसके बाद भी राज भाईसाहब जाने क्‍या क्‍या कहते रहे मगर मैं कुछ सुन नहीं पाया। मेरे मन में विचारों का झंझावात सा आ गया। ”अच्‍छा भई नरेन मैं चलता हुं। मैं शायद थोड़ा जज्‍बाती हो गया था। अगर कुछ गलत बात कह दी हो तो माफ कर देना।” राज भाईसाहब की आवाज सुन मुझे होश तब आया।

“नहीं, नहीं भाई साहब ऐसा मत कहिए। आपको पूरा पूरा हक है मुझे डांटने का। मैने कभी आपमें और भाईसाहब में कोई फर्क नहीं समझा।” मैंनें कहां

”यह तो तुम्‍हारा बड़्‌प्पन है बेटे, वरना आजकल तो लोग सगे मां बाप का कहा भी बर्दाश्‍त नहीं करते फिर मैं तो तुम्‍हारे भाई का दोस्‍त हूं। खैर वैसे तो यह तुम्‍हारा जाति मामला है मगर फिर भी अगर हो सके तो थोड़ा समय निकाल कर एक बार घर हो आओ। मुझे लगता है इस समय राघव को तुम्‍हारी जरूरत है।“

यह क्‍या कह गए राज भाई साहब। ऐसा कैसे हो सकता है। मेरे बड़े भाई साहब पागल कैसे हो सकते हैं। और उनका बेटा देवेश इतना नालायक कैसे हो गया कि अपने ही माता-पिता को उसने नौकर ही बना डाला। मेरी भाभी के दिए संस्‍कार इतने कमजोर तो नहीं हो सकते कि उनके अपने बेटे का ही खून यूं सफेद हो जाए। मुझे विश्‍वास नहीं हो रहा था। मगर राज भाई साहब झूठ क्‍यों बोलेंगे। आखिर वे भाई साहब के दोस्‍त हैं।

मेरे मन में एक शंका उठी कहीं अगर राज भाई साहब की बात सच हुई तो। मैं सिहर उठा। नहीं यह सच नहीं हो सकता। देवेश ऐसा कभी नहीं कर सकता। मन किया क्‍यों ना भाई साहब से इस बारे में खुद ही पूछ लूं। नहीं, शायद यह ठीक नहीं होगा। राघव भाई साहब उम्र में मुझसे बडे़ हैें और उनकी गृहस्‍थी में किसी भी तरह की दखलंदाजी ठीक नहीं होगी।

”क्‍या बात है। आज ऐसे चुपचाप से क्‍यों हो।“ मेरी पत्‍नी ने मुझसे पूछा तो मैने उसे राज भाईसाहब के आगमन और साथ ही उन्‍होंने जो कुछ भी बड़े भाईसाहब के विषय में कहा सब एक सांस में बता डाला। वह भी सुन कर हैरान रह गईं। “यह आप क्‍या कह रहे हैं। ऐसा कैसे हो सकता है। यदि ऐसा कुछ भी होता तो भाभी मुझे जरूर बताती। आप तो जानते हैं वो मुझसे अपने मन की हर बात कह लेतीं हैं।”

“हां कर लेती हैं भाभी तुमसे हर बात पर यह तो सोचो कि अपने बहू बेटे की शिकायत कैसे करेंगी तुमसे। उन्‍हें लाज नहीं आई होगी। मेरा मन कह रहा है लता कुछ राज भाई साहब की बातों में कुछ सच्‍चाई तो जरूर है। भाई साहब ज्‍यादा पढे लिखे नहीं हैं। मुझे लगता है देवेश ने इसी का फायदा उठा कर दुकान और घर अपने नाम पर करवा लिया होगा और अब उसे भाई साहब और भाभी बोझ लगने लगे हैं इसीलिए वह उनका का अपमान कर रहा है। मेरा मन तो कर रहा है कि सीधा जाऊं और देवेश के एक जोरदार थप्‍पड़ लगा दूं और भाई साहब और भाभी को हमेशा के लिए अपने साथ ले आऊं।”

“नहीं आप ऐसा कुछ नहीं करेंगे।” लता ने कहा तो मैं आश्‍चर्य से उसका मुंह देखता रह गया। मुझे लता से यह उम्‍मीद कत्‍तई नहीं थी। मैं तो आज तक यही सोचता आया था कि वह मेरे भाई-भाभी की दिल से इज्‍जत करती है। मैं तो सपने में भी नहीं सोच सकता था कि लता उन्‍हें अपने साथ रखने से इस तरह सीधे शब्‍दों में मना कर देगी।

“यह तुम क्‍या कह रही हो। क्‍यों ना करूं मैं ऐसा।“ भावनाओं के अतिरेक से मेरा स्‍वर कुछ अधिक ही ऊंचा हो गया। बच्‍चे घबरा कर हमारे कमरे में चले आए। उन्‍हें शायद लग रहा था कि मैं उनकी मां से झगड़ रहा हूं। उन्‍हें इस तरह बेचैन हुआ देख लता उनके पास चली गई। बच्‍चों को समझा बुझा कर वह फिर मेरे पास चली आई। ”वो मेरे भाई भाभी हैं। मैं बहुत प्‍यार करता हूं उनसे। उन्‍हें इस तरह तकलीफ में नहीं देख सकता।” इस बार मेरे स्‍वर में हताशा थी।

“मै आपकी भावनाएं समझ रही हूं, पर आप भी समझने की कोशिश कीजिए कि हमें ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिसे भाई साहब और भाभी की समस्‍याएं और बढ जाऐं। हर रिश्‍ते की एक हद होती है। हो सकता है उन लोगों को हमारा उनके घरेलू मामलों में दखल देना अच्‍छा ना लगे। फिर हमें ठीक से यह भी तो नहीं पता कि सच में भाई साहब के घर में कोई समस्‍या है भी या नहीं। यह भी तो हो सकता ह्रै कि यह केवल राज भाई साहब का वहम ही हो।”

“हो सकता है तुम ठीक कह रही हो लता पर मेरा मन घबरा रहा है तुम ही बताओ मैं क्‍या करूं।” एक पल को तो मुझे लगा जैसे मैं रो दूंगा।

“हम एक काम करते हैं, हम घर चलते हैं और चल कर देखते हैं कि सच क्‍या है।”

“ठीक है। चलो हम घर चल कर देखते हैं। यदि वहां कुछ भी गलत होता हुआ तो मै। देवेश के कान खेंचनें में देर नहीं करूंगा। और तुम मुझे रोकोगी भी नहीं।“

”अच्‍छा ठीक है मगर वादा कीजिए आप वहां कोई पूर्वाग्रह लेकर नहीं जाएंगे और निष्‍पक्ष होकर परिस्‍थ्‍तियों का आंकलन करेंगे।“

”मैं कोई वादा तो नहीं कर सकता पर हां, तुम्‍हारी बातों का ध्‍यान रखने की कोशिश जरूर करूंगा। चलने की तैयारी करो हम कल ही घर चल रहे हैं।“

काफी कोशिशों के बाद भी मेरा मन शांत नहीं हुआ और मैं रात भर सो ना सका। सुबह मेरी आंखें लाल देख कर लता ने मुझे गाड़ी नहीं चलाने दी और पूरे रास्‍ते खुद गाड़ी चला कर ले गई वह काफी अच्‍छी ड्राइवर थी अतः मैने भी कोंई एतराज नहीं किया। बच्‍चे भी अपने ताऊजी और ताईजी से मिलने के लिए काफी उत्‍साहित थे। होते भी क्‍यों नहीं आखिर वो दोनों इनके सभी नाज नखरे बड़े चाव से जो उठाते हैं।

बच्‍चे सारी दुनिया से बेखबर अपनी बातों में खोए थे और उनकी मां अपने किशोरवय बच्‍चों की बातें सुन मुस्‍कुरा रही थी। किन्‍तु मैं नहीं मुसकुरा पाया। मुझे देवेश का बचपन याद आ गया, वह भी कभी ऐसा ही मासूम हुआ करता था किन्‍तु आज उसे अपने स्‍वार्थ के आगे अपने माता पिता भी दिखाई नहीं दिए जिन्‍होंने उसे पालने और पढाने लिखाने में खुद को भी भुला दिया। मेरा दिमाग फिर से भन्‍नाने लगा। मैने कार की सीट पर सर टिका कर अपनी आंखें बंद कर लीं।

जब हम घर पहुंचे तब भाई साहब अपने नवासे के साथ गली में क्रिकेट खेल रहे थे। उन्‍हें देखते ही मेरे मन में भावनाओं का ऐसा ज्‍वार उठा कि मैं गाड़ी रूकते ही उनकी ओर लपका, वे भी मेरी ओर बढे ही थे कि उनका नवासा उनकी गोद में चढ़ गया शायद इतने सारे अजनबी लोगों को देख कर बच्‍चा डर गया था। तब तक परिवार के अन्‍य सदस्‍य भी बाहर चले आए। भाभी ने बहुत ही उत्‍साह से हमारा स्‍वागत किया।

मेरे बच्‍चों से मिल कर भाई साहब मेरी ओर बढे ही थे कि उसी समय उनकी छः माह की पोती ने अपने नन्‍हे नन्‍हें हाथ उनकी ओर फैला दिए। उसकी यह मासूम इच्‍छा भाई साहब भला कैसे ठुकरा देते, उन्‍होंने आगे बढ कर उसे अपनी बाहों में समेट लिया। उस पल मुझे ऐसा लगा मानो मैं नदी किनारे आकर भी प्‍यासा ही रह गया।

चाय नाश्‍ते के समय कुछ देर सब एक साथ बैठे फिर अपने अपने हमउम्र लोगों के साथ जोड़ी बनाली। लता भाभी के साथ तो मेरे बच्‍चे देवेश उसकी बहन और उसकी पत्‍नी के साथ। किन्‍तु मैं अकेला बैठा रह गया क्‍योंकि भाई साहब तब पोती को गोद में लेकर सुलाने की कोशिश कर रहे थे। मुझे उनकी ओर आश्‍चर्य से निहारते देख देवेश बोला, “देखा चाचा, पापा कितना लाड़ लड़ाते हैं गुडि़या को। हमें तो कभी ऐसे प्‍यार नहीं किया। और अब देखो गुडि़या को सारा दिन गोद में लिए रखते हैं।”

“हां चाचा भैया सही कह रहे हैं। पापा बहुत प्‍यार करते हैं इन दोनों से। पूरा बिगाड़ कर रख दिया है इन्‍हें।” भाई साहब की बेटी ने अपने बेटे को मेरी गोद में बैठाते हुए अपने भाई के सुर में सुर मिलाया।

“क्‍यों ना करूं इन्‍हें प्‍यार, ये दोनों मेरे लिए बेहद खास हैं। वो कहते हैं ना कि मूल से ब्‍याज ज्‍यादा प्‍यारा होता है। तुम्‍हारे दादा-दादी भी तो तुम्‍हें कितना प्‍यार करते थे। तब तो कोई समस्‍या नहीं थी, अब जलन हो रही है। तुम मेरी भावना तब समझोगे जब खुद दादा दादी बन जाओगे। क्‍यों नरेन्‍द्र मैं ठीक कह रहा हूं ना।” भाई साहब ने बच्‍ची को थपथपाते हुए मेरी ओर देखा। मैं भला उनकी बात का क्‍या जवाब देता, अभी तक इस भावना से अंजान जो था बस मुस्‍कुरा भर दिया।

शाम के समय भाई साहब बच्‍चों को पार्क में घुमाने ले जा रहे थे, मैं यह सोच कर कि शायद वहां वह मुझसे अपने मन की बात कर सकें उनके साथ हो लिया। मगर यहां भी मेरी आशा निराशा में बदल गई क्‍योंकि वे पूरा समय देवेश और उसकी पत्‍नी की तारीफ ही करते रहे।

हमारे सोने का इंतजाम भाभी ने ऊपर वाले कमरे में किया था। मैं खाना खा कर अपने कमरे में चला आया। लता अभी भी नीचे ही थी शायद भाभी से बातें कर रही थी। यदि कोई और दिन होता तो शायद मैं खीज ही पड़ता लता पर कि जाने वह इतनी देर तक भाभी से क्‍या बातें करती रहती है पर आज ऐसा कुछ नहीं था। आज मुझे लग रहा था कि शायद भाई साहब जो मुझसे नहीं कह पाए वह भाभी लता से कह दे।

लता आई और अपने बिस्‍तर पर लेट गई। मैं कुछ देर इंतजार करता रहा कि वह अपनी ओर से कुछ कहे मगर जब वह कुछ नहीं बोली तो मैंने ही बात आरंभ कर दी। मुझे भय था कि कहीं वह सो ना जाए। ”भाभी ने कुछ बताया।“

”किस बारे में?“

लता के इस प्रश्‍न ने मुझे चौंका दिया, मुझे उस पर खीज सी हो आई। ”तुम्‍हें नहीं पता मैं किस बारे में पूछ रहा हूं।“

”उफ्‍फ आप वहीं अटके पड़े हैं। आप बेकार ही राज भाई साहब की बात को तूल दे रहे हैं जबकि सब कुछ ठीक है। भाई साहब और भाभी बिल्‍कुल खुश हैं। मैं यह नहीं कहती कि राज भाई साहब गलत है मगर आप यह तो मानते है ना कि हर व्‍यक्‍ति का अपना अपना नजरिया होता है। और वह उसी के अनुसार ही सोचता है। हो सकता है राज भाई साहब को भाई साहब का कारोबार में देवेश की और भाभी का घर के काम काज में अपनी बहू का हाथ बंटाना उन पर अत्‍याचार लगती हो मगर यह तो उनका निजी मामला है ना।“

”एक बात और बताइए क्‍या अपने पोता पोती के साथ खेलना पागलपन है। भाई साहब को इतने सालों के बाद तो कुछ सुख मिला है। आर्थिक तंगी के चलते भाई साहब जो खुशियां अपने बच्‍चों को नहीं दे पाए वो सभी खुशियों के पल वे अपने बच्‍चों के बच्‍चों के साथ जी रहे हैं तो इसमें गलत क्‍या है। मुझे तो यह एक सुखी परिवार लग रहा है। “

सुबह मैं काफी देर तक सोता रहा। मैं अंगड़ाई लेता हुआ उठ बैठा तभी एक अजीब सा शोर मेरे कानों से टकराया। मैं छत की मुंडेरी से नीचे झांक कर देखा। वहां का नजारा कुछ अजीब ही था, भाई साहब अपने नवासे के साथ एक पानी से भरे टब में कागज की नाव चला रहे थे। बच्‍चा खुशी से चिल्‍ला रहा था और भाई साहब भी पूरे उत्‍साह से उसका साथ दे रहे थे। सभी घरवाले भी आंगन में खड़े हंस रहे थे। मेरे मन पर छाया कुहासा मानों पूरी तरह छंट गया। मुझे लता की बात समझ आ गई।

मैं भी इस दृश्‍य का मजा लेने लगा तभी बच्‍चे का ध्‍यान मेरी ओर चला गया और वह अपने छोटे छोटे हाथ हिला कर मुझे बुलाने लगा, “छोटे नानाजी हमारी नाव जा रही है। जल्‍दी से आ जाओ सैर पर चलें।” मैंने मुस्‍कुराते हुए बच्‍चे की ओर हाथ हिला कर नीचे आने का इशारा किया और सीढियों की ओर बढ गया।

हालांकि मैं बहुत बेसुरा हूं पर मेरे होंठों से प्रसिद्ध गजल गायक जगजीत सिंह की एक बहुत पुरानी गजल ‘वो कागज की कश्‍ती, वो बारिश का पानी․․․․․․․' फूट पड़ी, जिसे सुन कर सभी हंस पड़े। जाने मेरे गाने के अंदाज पर या फिर उस मौके पर जब मैंने यह गाई, ये तो पता नहीं मगर भाई साहब के घर का यह खुशनुमा माहौल मेरे दिल को सुकून अवश्‍य दे गया

 

लेखिका परिचय

नाम -- अंकिता भार्गव

पिता का नाम -- वीएलभार्गव

शिक्षा -- एम․ (लोक प्रशासन)

रूचियां -- अध्‍ययन एवं लेखन

विशेष -- अस्‍थि रोग ग्रस्‍त

(चित्र – भारती श्याम की कलाकृति)

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रचनाकार: अंकिता भार्गव की कहानी - वो कागज की कश्‍ती वो बारिश का पानी
अंकिता भार्गव की कहानी - वो कागज की कश्‍ती वो बारिश का पानी
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