एक शिक्षक की संक्षिप्त कथा../ प्रमोद यादव जब कभी सेठ-मारवाड़ी के बच्चों को ( जवानों को भी ) दुकान के गद्देदार आसन में बैठे लाल- हरे नोटों की...
एक शिक्षक की संक्षिप्त कथा../ प्रमोद यादव
जब कभी सेठ-मारवाड़ी के बच्चों को ( जवानों को भी ) दुकान के गद्देदार आसन में बैठे लाल- हरे नोटों की गड्डी गिनते देखता हूँ तो ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि हे भगवान ! यह जनम तो एक शिक्षक के घर जनम लेकर व्यर्थ और अनर्थ हुआ ..अब अगले जनम का कोई चांस बनता हो तो कृपा करके किसी मालदार सेठ-मारवाड़ी की गोदी में ही डालना .. क्या ठाठ की जिंदगी होती है इनकी...गरीबी और अभाव तो इन्हें कभी छू तक नहीं पाता...पैदा होते ही.’ सिल्वर स्पून इन माउथ ‘... इनके घरों में बच्चे कितने लाड-प्यार से पलते-बढ़ते हैं..खिलौने खेलने की उमर में पूरा का पूरा मीना बाजार इनके आगे-पीछे होता है.. औरों की तरह एक-दो झुनझुने से इनका मन नहीं बहलता....पढ़ने-लिखने की उमर में न तो बच्चा परेशान होता है ना ही इनके माँ-बाप.. बच्चा स्कूल गया तो अच्छा और नहीं गया तो और भी अच्छा..छोटी उम्र में ही बड़ा जाब थमा देते हैं...पुश्तैनी दुकान में बिठा देते हैं..जितने समय में उसका कोई हमउम्र मेट्रिक होकर निकलता है उतने समय में ये दुकानदारी में डाक्टरेट कर लेते हैं..
हमारे यहाँ तो पैदा होते ही बच्चे को सिर के ऊपर से कान पकड़ने की प्रेक्टिस कराते हैं..और जिस दिन भी बच्चा कान पकड़ लेता है उस दिन से उसकी उलटी गिनती शुरू हो जाती है.. कान पकड़ने का सिलसिला फिर अनवरत जीवन भर चलते रहता है..स्कूल में बात-बात पर मास्टरजी पकड़ते हैं.. तो घर में गाहे-बगाहे माँ-बाप ....कालेज के दिनों में धोखे से कहीं प्यार-व्यार के चक्कर में पड़ गए तो बार-बार खुद ही पकड़ने होते हैं कान ..छोटी-छोटी बात के लिए माशूका से माफ़ी जो मांगनी होती है..इससे बच गए तो शादी के बाद पूरा दुकान (दोनों कान) बीबी की प्रापर्टी हो जाती है..वह पकड़ती तो नहीं बल्कि खा जाती है कान ..अनाप-शनाप इधर-उधर की बातें सुना-सुना के....
खैर..तो बात चल रही थी पढाई-लिखाई की....बड़े घरों के बच्चे ना भी पढ़े तो कोई हर्ज नहीं पर किसी शिक्षक का बच्चा पढ़ाई-लिखाई में अरुचि दिखाए तो शामत ही आ जाती है..बार-बार उलाहने दिए जाते हैं, चेतावनी दी जाती है कि पढोगे नहीं तो कुछ बनोगे कैसे ? ( कुछ बनोगे से तात्पर्य केवल शिक्षक बनने से होता है ) और आगे ऐसी स्थिति में कुली-कबाड़ी या चपरासी-चौकीदार बनने का मुफ्त आशीर्वाद देते हैं....बाबूजी को लगता है कि शिक्षक बनकर वे सर्वपल्ली राधाकृष्णन बन गए..बार-बार उनका उदाहरण दे शिक्षकों का गुणगान करते थकते नहीं.. शिक्षक-दिवस के दिन तो पूरे पल्लीमय हो जाते हैं..बड़े ही मनोयोग से मनाते हैं- ये दिवस..जैसे उनका अपना ही जन्म-दिवस हो..गुरु-शिष्य परंपरा पर धुंआधार भाषण भी देते हैं..अब उन्हें कौन समझाये कि वैसे दिन कब के लद गए..वे गाँव-देहात में बरसों से पढ़ाते रहें इसलिए उन्हें इसका इल्म नहीं..लेकिन जबसे शहर में ट्रांसफर होकर आये हैं, उनके पाँव के नीचे की जमीन खिसकने लगी है..बार-बार गाँव को याद कर कहते हैं-कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन को.. अक्सर कहते हैं-शहरों में इस उच्चकोटि के सम्माननीय ( शिक्षकीय ) कार्य का इतना भयंकर अवमूल्यन कैसे हुआ-समझ नहीं आता..शहर में आके इन्हें ’ दाल-आटे ’ का भाव मालूम होने लगा है ..देहात में तो साग-सब्जी,दाल-चांवल ,गेहूँ ,प्याज,टमाटर आदि मुफ्त ही मिल जाया करते..विद्यार्थी बड़े प्यार से ये सब स्कूल में बतौर “चढ़ावा” ले आते ..कभी-कभी (परीक्षा के दिनों में) बच्चों के पालक भी घर पहुँच सेवा बजा देते..
शहर में तो आधे से अधिक तनखा इसी सब में घुस जाता है..ऊपर से हर एक-दो दिन में स्कूल में नए-नए कार्यक्रम...नए-नए फरमान...गाँधी जयंती, तुलसी जयंती, तिलक जयंती,बाल-दिवस, गणतंत्र दिवस,स्वतन्त्रता दिवस तक तो ठीक ..अब तो पर्यावरण दिवस,साक्षरता दिवस,ओजोन दिवस, विज्ञान-दिवस, खेल-दिवस और ना जाने क्या-क्या दिवस मनाते हैं..ऊपर से रोज-रोज का बड़ा ही ‘हारिबल’ दिवस- मध्याह्न भोजन दिवस....बाबूजी इन दिनों कहने लगे हैं कि यही हाल रहा तो देखना एक दिन ऐसा भी आएगा कि किसी एक दिन हम इन दिवसों की तरह ही ‘पढ़ाई-लिखाई दिवस’ भी मनाएंगे..पूरे साल में केवल एक ही दिन बच्चे पढेंगे-लिखेंगे..उसी दिन पढाई होगी..उसी दिन परीक्षा और उसी दिन रिजल्ट...अभी-अभी स्कूल में एक नया फरमान आया है कि प्रधानमंत्री जी शिक्षक-दिवस के दिन तीन बजे से पांच बजे तक बच्चों को संबोधित करेंगे..अभी तक तो इस दिन गुरूजी लोग ही भाषण देकर इस दिन तुष्ट हो लेते थे अब यह भी गया..समझ नहीं आता जो आता है वही चाचा बनने को क्यों आतुर रहता है ? कलेक्टर की मीटिंग से लौटने के बाद से बाबूजी बहुत परेशान दिखे..
मैंने पूछा- ‘आप इतने परेशान क्यों हैं ? आवश्यक संसाधन रेडिओ-टी.वी. की व्यवस्था तो सुनिश्चित हो ही जायेंगे..’
‘ अरे वो बात नहीं है..बात ये है कि पूरा दिन गया..पहले तो भाषण बाजी के बाद ग्यारह-बारह बजे तक छुट्टी हो जाती थी..अब तो पूरे दिन खटना है..एक बजे तक हमें अपने स्तर पर मनाने का आदेश है..फिर मध्याह्न भोजन कराना है..रोज की तरह सुबह करायेंगे तो बच्चे दोपहर को भला क्यों आयेंगे ? तीन से पांच बजे तक प्रधान मंत्री जी का संबोधन है जिसे हमें सुनना अनिवार्य कहा है..अब शिक्षक-दिवस का भी राजनीतिकरण होने लगा है..’ वे कुछ खफा-खफा से बोले.
‘ बाबूजी..वोट की राजनीति में सब जायज है..इसमें सफल हुए और चुने गए तो आगे के पांच साल “इमेज” बनाने में लगते हैं,,हर वर्ग में पैठ बनाने में लगते हैं.. इसे इसी की एक प्रक्रिया मानकर चलें..ज्यादा परेशान न होवें.. ’ मैंने उन्हें ढांढस बंधाया.
शिक्षक-दिवस के दिन शाम को छः बजे वे लौटे तो एकदम हांफने लगे..पूरा चेहरा जैसे पीला पड़ गया था..पसीने से तरबतर थे..आते ही कुर्सी पर धंस गए..मैंने पूछा- ‘ क्या हुआ ?...सब ठीक तो है ना ?’
तब वे बोले- ‘ गजब हो गया दीनू..सब कुछ होकर भी कुछ ना हो सका. और आगे अब क्या होगा..ईश्वर ही जाने..’
‘ अरे पहेली मत बुझाओ..बताओ..क्या हुआ ? ’
तब उन्होंने बताया कि ऐन पी.एम. साहब के भाषण के वक्त बिजली चली गई..और बच्चे हो-होकर हुल्लड़ करते भाग निकले..किसी तरह कुछ बच्चों को रोक पाए..लेकिन बिजली के आते तक पी.एम. का सम्बोधन ही समाप्त हो गया..अब न मालूम क्या होगा ? मेरी शिकायत कलेक्टर के थ्रू कहीं पी.एम. तक न चली जाए.. फिर थोडा रूककर बोले- ‘ बेटा..कुछ भी बन जाना पर भूलकर भी शिक्षक मत बनना..बड़े धोखे हैं इस राह में...कभी जनगणना में झोंकते हैं तो कभी चुनाव में..बाकी के दिनों सरकारी योजनाओं में...ईश्वर करे..अगले जनम में भी भूलकर किसी शिक्षक के घर पैदा मत लेना..’
मैं एकदम प्रसन्न हुआ कि आखिर बाबूजी ने भी मेरी मंशा पर मोहर लगा दी..अगले जनम के लिए भी छूट दे दिया..पर समस्या ये है कि अगले प्रोग्राम पर कौन मोहर लगाए ? फिर भी आशान्वित हूँ..जब इतना कुछ सुलझ गया है तो ये भी सुलझ जाएगा..किसी न किसी सेठ-मारवाड़ी के घर मुंह में सिल्वर स्पून लिए पैदा हो ही जाऊँगा....और फिर आगे लाल-हरे नोट की गड्डियां गिनूँगा..एकाएक बाबूजी की बातों से तंद्रा टूटी..वे पूछ रहे थे- ‘ क्या सोचने लगे ? ‘
‘ कुछ नहीं बाबूजी..आप घबराएं नहीं..कुछ नहीं होगा..दो दिन पहले ही सरकार ने विपक्ष के विरोध के चलते इस कार्यक्रम को स्वैच्छिक कर दिया था..शायद आपको मालूम नहीं..आप आराम करिए.. चैन से टी.वी. देखिये..’
मेरी बातों को सुन वे एकदम हलके हो गए.. और टी.वी. आन कर समाचार देखने लगे.. शिक्षक-दिवस के कार्यक्रम देखने लगे...
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प्रमोद यादव
गयानगर, दुर्ग , छत्तीसगढ़
सामयिक सन्दर्भ में बेहतरीन प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुशील यादव
सामयिक सन्दर्भ में सारगर्भित रचना
जवाब देंहटाएंसुशील यादव