(इस कविता का पहला भाग – छोटी नदी की बड़ी कहानी यहाँ प्रकाशित है) छोटी नदी की बड़ी कहानी – 1 नदी के इस छोर पर – एक मंदिर है कमनसीब और मं...
(इस कविता का पहला भाग – छोटी नदी की बड़ी कहानी यहाँ प्रकाशित है)
छोटी नदी की बड़ी कहानी – 1
नदी के इस छोर पर –
एक मंदिर है
कमनसीब
और
मंदिर के भीतर एक मूर्ति है
अपनी छिन्न-भिन्न अवस्था में
बेसहारा-बेबस-लाचार।
मूर्ति (ईश्वर) की नाक ;
और
तर्जनी कटी हुई है
यह कैसा समय चक्र कि
ईश्वर के चेहरे पर
निरीहता झलक रही है।
अभेद्य मंदिर प्राचीर भी
अब लड़खड़ा रहा है
और
ईश्वर के एकाकीपन का एकमात्र साथी –
अभेद्य सन्नाटा
पहरा दे रहा है।
यहाँ के पुरखे-पुरखिन बताते हैं –
इस मंदिर ने झेले हैं
कई आक्रमण
नानाविध झंझावात कि
पुरोहितों ने भी किया
इस मंदिर का त्याग
कहा -
मंदिर है यह अभिशप्त।
ईश्वर का हुआ प्रकोप कि –
नदी सूख गई
कई माँओं की कोख सूनी रह गई
कुछ को बच्चे हुए
किन्तु
हुए कृशकाय औ’ स्याह।
ठीक मंदिर के सम्मुख खड़ा
मैं देख रहा हूँ -
ईश्वर इस क़दर हुए हैं जर्जर कि
मूर्ति के भग्नावशेष
अब उन्हीं के अस्तित्व को
मुँह चिढ़ा रहे हैं
और
झुलसा देने वाली तेज़ धूप में
नदी में उग आए
बेशर्म के फूल उपहास कर रहे हैं
और
नदी उदास है।
नदी के दूसरे छोर पर –
सभ्य शिक्षितों की
नायाब कालोनी के भीतर का
अति अधुनातन समाज
और
शहरपनाह के बाहर का
आदिम-गँवारू-अनगढ़ समाज
भग्न ह्रदय लिए चला आता है
यदा-कदा
इसी मंदिर की ओर
ईश्वर की शरण में –
नानाविध आदिम-अधुनातन
विकारों से निजात पाने
क्षति-दुर्गति
जरा-मरण
शनि-हानि का निवारण करने
संपन्नता का वरदान माँगने।
राष्ट्र का भविष्य
प्रेम-मग्न प्रेमी भी
दिख जाते हैं यहाँ -
कभी
अभिसार करते
या
कभी-कभार
प्रेम संकट से निस्तार पाने
और
बिछुड़ा
या
बिखरता हुआ प्रेम सँवारने।
मैंने देखा -
कुछ युवा
इस मंदिर के ठीक सामने से
वाहनों में जब गुज़रते हैं
मंदिर के ठीक सामने
ईश्वर से अभिमुख होकर
गाड़ी का हॉर्न बजाते हैं
और
मनोकामना पूर्ति के लिए
आशीष माँगते हैं।
ऐसा करने की वजह पूछने पर
वह अत्यंत सहज भाव से
बताते हैं कि –
ईश्वर को पूजने-स्मरण-निवेदन करने का
यह मौजूँ (सुविधाजनक) तौर-तरीक़ा
उनके पितामह ने बताया है।
ठीक मंदिर के सम्मुख खड़ा
मैं देख रहा हूँ -
ईश्वर के चेहरे से
विरक्ति और वितृष्णा झलक रही है।
ठहरी हुई नदी
यह सब देख-सुनकर
सन्नाटे में है
और
अपने दोनों तटों के बीच
पड़ी हुई है
जीर्ण-शीर्ण-विदीर्ण
उदास-बरबस-लाचार।
नदी के दूसरे छोर पर –
एक विशालकाय गिरजा घर है -
संपन्न-समृद्ध।
गिरजा घर की गगनचुंबी
श्वेत-शुभ्र मीनारें-दीवारें
इस अञ्चल को
आलोकित कर रही हैं
यहाँ लगी मीनारी घड़ी से
गिरजा घर के निर्माण की घड़ी का
अनुमान लगाया जा सकता है।
यहाँ सदैव
लोगों की चहल-पहल
बनी रहती है।
आदिम-आधुनिक
हिन्दू-मुस्लिम-सीख-ईसाई
सभी धर्म-संप्रदाय के लोग
अनगिनत आकांक्षाएँ लिए
अमूमन यहाँ आते-जाते दिख जाते हैं
लोगों की अखण्ड चहल-पहल का ही प्रतीक है कि
मोमबत्तियाँ जलती रहती है
और
रोशनी अखण्ड बनी रहती है।
ठीक गिरजा घर के सामने –
एक बूढ़ा बरगद
तरह-तरह के
रंग-बिरंगी
टाँतियों से (सूत्र वस्त्रों से)
लदा हुआ है।
लोग मन्नतें माँगते हैं
प्रार्थनाएँ करते हैं
दुआ-सलाम करते हैं
अरदास करते हैं कि
उन्हें मनोवांछित हासिल हो जाए
अप्राप्य को प्राप्त करने की
लालसा
प्रयासों
कयासों
का ही नतीजा है कि
बूढ़ा बरगद
टाँतियों से लद गया है।
अपने पाट में निस्तब्ध-निर्जल पड़ी हुई नदी
बूढ़े बरगद के दर्द की
एकमात्र गवाह है
इसलिए
उसकी करुणामयी स्थिति देख उदास है
और
दोनों तटों के बीच
निश्शब्द पड़ी हुई
स्वयं को
बरगद की सी अवस्था में पाती है।
नदी की दुर्दशा देख
एक धर्मपरायण सदाशयी-सत्पुरुष ने
एक सामाजिक संस्था के मार्फत
नदी स्वच्छता योजना बनाई।
तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों ने
इस कृत्य को
हिन्दू धर्म का
धार्मिक अनुष्ठान माना
कहा कि –
धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र औ’ समाज में
ऐसा धार्मिक कृत्य
अन्य धर्मों की भावनाओं को
ठेस पहुँचाने वाला है।
हिन्दू धर्म में
नदी को
माँ का दर्जा हासिल है
और
नदी की पूजा भी होती है।
आदिम काल से ही
ऋषि मुनि
नदी में ही ‘सूर्य’ को
अर्घ्य देते रहे हैं
अतः नदी का स्वभाव
और धर्म
हिन्दू परक और हिन्दू पूरक हैं
नदी यह सब सुनकर सन्नाटे में है।
उसने
सदियों से
मानव जाति को
अपने विशुद्ध जल से सींचकर
सभ्यता के शिखर तक पहुँचाया
और
स्वयं खाली हो गई।
अब नदी अपना खालीपन लिए
‘सूर्य’ से कह रही है -
अगला विभाजन
तुम्हारा है।
नदी के एक छोर पर –
झोंपड़ेनुमा एक मकान में
एक टीवी (दूरदर्शन) लगा हुआ है
और दूरदर्शन
सरकार की मुफ्त डीटीएच सेवा से लैस है।
दोनों बस्तियों के
अमूमन सभी बच्चे-बूढ़े और युवा
दोनों बस्तियों में उपलब्ध
इस एकमात्र दूरदर्शन का
लुत्फ़ उठाने इकट्ठा हुए हैं
और
आज की सदी का
सर्वाधिक लोकप्रिय
एवं
ग्लैमरस गेम –
‘क्रिकेट’ देखने में मग्न हैं।
वहीं बगल में
एक आँख से काना व्यक्ति
देश के खिलाड़ियों का लचर प्रदर्शन
अन्यमनस्क देख रहा है।
अगले दिन की सुबह –
नदी की बायीं ओर
दूर-दूर तक बंजर खेत हैं
बबूल और अन्य कटीले पौधों से
अटे पड़े यह खेत
इस परिसर और परिवेश के विकास को
बयान कर रहे हैं
कुछ बच्चे
हाथ में बल्ला लिए
इन्हीं बंजर खेतों में उतर आये हैं।
बल्ले की शिराओं से बहते हुए
लाल अर्क से
एक वृक्ष के कटने की बात
स्वतः जाहिर हो जाती है
काष्ठकार ने
बल्ला बनाने के लिए
बच्चों से पैसे भी ऐंठ लिए हैं।
दूरदर्शन का कमाल कि
बच्चों ने
अपने-अपने
बल्ले-सूरमा चुन लिए हैं
और
उन्हीं सूरमाओं की नकल उतारते हुए
उबड़-खाबड़ बंजर भूमि में
बेहतरीन प्रदर्शन की चेष्टा कर रहे हैं।
नदी के दाहिने तट पर
एक विशाल होर्डिंग लगा है
होर्डिंग में
एक श्वेत कन्या
अत्यल्प वस्त्रों में
कांतिवर्धक उबटन का
विज्ञापन कर रही है।
होर्डिंग के ठीक सामने खड़ी
एक कृष्ण-वर्णीय अवयस्क बालिका
उस गौर-वर्णीय कन्या को
अबूझ निगाहों से
अपलक निहार रही है।
गर्मी से तपी दुपहरी में लोग ऊँघ रहे हैं -
आकाश से
वायुयान के गुज़रने की
सनसनाती आवाज़ आ रही है
दो बस्तियों के पाँच सौ लोग
वायु यान देखने
घर से आँगन में
और
नदी तटों से गुजरती हुई
सड़कों पर उतर आए हैं।
अब
पाँच सौ लोगों की
नौ सौ निन्यानवे आँखें
वायु यान की गतिशील
सनसनाती आवाज़ का पीछा करते हुए
वायु यान की टोह ले रहे हैं।
उन्हें दिख जाती है
केवल
धुएँ की सी श्वेत धुंधली-सी रेखा
जो धीरे-धीरे
ओझल होती जाती है
और
पीछे छूट जाती हैं
अश्रुतिगम्य ध्वनि तरंगें
जो स्मृतियों के वलयों में
कैद होती जाती हैं
और
बस्तीवासियों के चेहरे पर
एक अज़ीब तरह का
अनमनापन
छा जाता है।
विकास का दिवास्वप्न
कभी पूर्ण नहीं होता
स्मृतियों के वलय अमिट
स्वप्नों का आवर्तन अमिट
आशाएँ हर पल धुँधलाती हैं
किन्तु
मिटने का नाम नहीं लेती
एक बेचैनी
एक उदासी चिरंतन
इस माहौल में बनी रहती है।
(01.09.2014)
डॉ. आनंद पाटील|Dr. Anand Patil
हिन्दी अधिकारी|Hindi Officer
तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय|Central University of Tamil Nadu
नीलक्कुड़ी परिसर|Neelakudi Campus
कंगलान्चेरी पोस्ट|Kangalancherry Post
तिरुवारूर|Thiruvarur-610 101 (तमिलनाडु|Tamil Nadu)
आनंद बहुत अच्छा लिखते हैं। आनंद में रहने वाला व्यक्ति जब सचमुच आनंद से ही भीतर उतरकर लिखता है तब ऐसी रचना बनती है। पहले भी आनंद लंबी कविताएं लिखते रहे हैं। यह रचना भी उसी क्रम में बहुत अच्छी तरह बुनी हुई लगती है जैसे कोई सुघड़ा घर के काम काज सब सुरुचि से निपटा के हेंमंत-बसंत की गुनगुनी धूप में बयार से बचते हुए कई रंगों के ऊनी गोलों को संभालते...उंगलियों में लपेटे...और गुनगुनाते हुए अपने जिए हुए रंगों और चित्रों को स्वेटर में बुनती जा रही हो, ढालती जा रही हो...... ऐसी ही रचना है आनंद की....। आनंद की रचना में सबसे खास बात यह रहती है कि पाठक को उन दृश्यों, विंबों, जीवन पलों और युग की परिस्थितियों को जीते हुए अगली पंक्ति पर जाना होता है...और ऐसा लगता है कि आगे-आगे कोई ग्वाला गुनगुनाता चल रहा है और पाठक उसके पीछे गोधूलि में औसारे को लौटती गाय की तरह बस उसके पीछे है...कोई विकल्प नहीं है उसके पास.... बस श्रवण, मनन एवं पांव में एक नैरंतर्य... मुकाम की ओर..। ईश्वर की निरीहता, विरक्ति, वितृष्णा, विकास का विनाशक चित्र, कटते पेड़, टुच्चे विज्ञापन और बिखरता आत्महंता समाज. बड़े होते होर्डिंग और छोटे होते लोग....इस एक रचना में सब कुछ तो है जो सोचने को बहुत से विषय छोड़ जाता है...और रचनाकार के चिंतन की शिद्दत का सबूत दे जाता है.. पांच सौ लोगों की नौसौ न्यानवेै आंख.. निश्चित ही पूरे समाज की संवेदनहीनता और चलताऊ पन पर करारी चोट है..। आनंद की नदी की सूर्य को दी गई चेतावनी उपेक्षणीय नहीं है कि अगला विभाजन तुम्हारा है...यदि हम विकास संपन्न और विचार विपन्न होते चले गए तो निश्चित ही यह उदासी माहौल की चिरंतन पहचान बन जाएगी- समाज की दिशा और दशा पर चिंतन का एक सफल प्रयास। धन्यवाद। धन्य आनंद है जो इतनी व्यस्तताओं पर भी अच्छा लिख लेता है। मेरी बधाई और आशीष...। डॉ राजीव रावत, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान खड़गपुर
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता है। वर्तमान के संबंध में इस कविता को रेखांकित किया जाएगा।
जवाब देंहटाएंसार्थक पंक्तियाँ—
(नदी) ने
सदियों से
मानव जाति को
अपने विशुद्ध जल से सींचकर
सभ्यता के शिखर तक पहुँचाया
और
स्वयं खाली हो गई।