सावित्री काला की कहानी - “दी”

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“दी” “दी” की कहानी कहाँ से शुरू करुँ ,समझ में नहीं आ रहा है। वह स्नेहिल थी ,प्रभावशाली व्यक्तित्व की धनी थी। उनकी मधुर वाणी से हम सब प्रभा...

“दी”

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“दी” की कहानी कहाँ से शुरू करुँ ,समझ में नहीं आ रहा है। वह स्नेहिल थी ,प्रभावशाली व्यक्तित्व की धनी थी। उनकी मधुर वाणी से हम सब प्रभावित थे। सुना था वे किसी सम्पन्न परिवार से थीं उनके विषय में कालेज में कई तरह की अनर्गल बातें भी सुनी गई। लेकिन वे अपने अध्ययन व् अध्यापन के प्रति पूरी तरह समर्पित थीं। सदा पुस्तकों को पढ़ने में ही व्यस्त रहतीं। उनके पास अपनी काफी बड़ी लाइब्रेरी थीं। जिसमें बड़े बड़े विद्वानों की चुनी हुई पुस्तकों का अथाह भंडार था ,वे कभी किसी मित्र के घरेलू कार्यक्रमों में नहीं देखी गई। साहित्यिक गोष्ठियों ,कवि सम्मेलनों ,तथा विद्यालय के प्रांगण में आयोजित होने वाले साहित्यिक कार्यक्रमों में सदा बढ़ चढ़ कर भाग लेती दिखाई देती थीं। कभी -कभी टेनिस तथा बैडमिंटन के कोर्ट में भी शिरकत करती थीं। इस अवस्था में भी बड़ा अच्छा खेलती थीं। हमारी सबसे प्यारी टीचर थीं ,हम सब उन्हें "मैडम "नहीं “दी” कह कर पुकारते थे। जैसा रूप था वैसे ही उनके गुण भी थे। वे हमारे कालेज में प्रोफेसर थीं ,पर बड़ी सादगी से रहतीं थीं। बच्चों के प्रश्नों के उत्तर इतनी सरलता से दे देती थीं की कठिन से कठिन प्रसंग भी सबको समझ में आ जाता था। हम सब मंत्र मुग्ध हो कर उनके लैक्चर सुनते थे। कोई भी छात्र "दी " की क्लास मिस नहीं करता था। कोई छात्र तो कालेज केवल "दी "की ही क्लास अटैंड करने ही आता था।

सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि “दी” कभी भी छात्रों की हाजिरी नहीं लेती थीं। उनको मालूम था की सभी छात्र उनकी कक्षा में उपस्थित है। बाक़ीटीचर तो आधा समय छात्रों की हाजरी लेने में ही लगा देते थे। “दी” आते ही एक नजर सारी कक्षा पर डालती थीं ,तथा मुस्कुरा कर सबका अभिवादन स्वीकार करती। छात्र समवेत स्वर से "यस " “दी” कहते। और “दी” अपने विषय का लेक्चर शुरू कर देती थीं। पूरा लेक्चर समाप्त करके वे प्रश्न भी पूछती थीं। छात्रों से सही उत्तर मिलने पर ही वे अगले विषय पर आती थीं। ऐसी थी हमारी दी।

पर पता नहीं दिल्ली के लोग उनके चरित्र के विषय में न जाने क्या क्या बातें करते थे। उनके सन्मुख तो उनकी तारीफ के पुल बांधते थे ,पर पीठ पीछे उनकी बुराई करते फिरते थे। जो छात्रों को अच्छी नहीं लगती थी। कई बार तो छात्रों ने बुराई करने वालो के मुँह पर ही कह दिया “दी” हमारे कालेज की सबसे अच्छी टीचर है।

हम कक्षा में उनकी बुराई सुनने नहीं आते ,आप अपना विषय पढ़ाइए लैक्चरर अपना सा मुँह लेकर रह जाते और कभी भी किसी छात्र को उत्तर नहीं दे पाते। कुछ तो दी की तारीफ छात्रों से सुनते ही क्लास छोड़ कर चले जाते थे। जब कभी छात्र दी से उन्हें बताते वे बस मुस्करा कर रह जाती। उनकी भुवन मोहिनी मुस्कान से ही छात्र निहाल हो जाते। उन्हें कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं हो पाती। “दी” सभी छात्रों से सामान व्यवहार करती थी ,जब कि अन्य टीचर टूयशन लेने वाले बच्चों पर अधिक ध्यान देते थे। यह बात पूरे कालेज के छात्र जानते थे की चाहे कितनी मुश्किल हो “दी” घर में किसी को अटैंड नहीं करती थी। यह बात भी सब जानते थे ,की वे अपने फ्लैट में किसी पुरुष के साथ रहती है। वे विवाहित भी नहीं लगती थीं ,कोई उन्हें सधवा बताता था कोई विधवा समझता था। जिस पुरुष के साथ वे रहती थीं उस वे "जी" कह कर पुकारती थीं। उनकी एक नौकरानी थीं जो केवल उन दोनों के साथ रहती थीं। वही उनके घर का सारा काम करती थीं। “दी” उन्हें "अम्मा" कह कर पुकारती थीं ,वह पूरब की थीं उसकी बोली भाषा पुरबिया थीं। पर “दी” का घर आँगन बहुत साफ सुथरा रखती थीं। वह बचपन से ही “दी” के साथ रहती थीं ,ऐसा “दी” ने ही हमको बताया था। वैसे हम कभी भी “दी” से उनके विषय में कुछ भी नहीं जान पाये थे ,इतना जरूर सुना था की “दी” किसी सम्पन्न घराने से संबंध रखती है। “दी” रोज़ शाम को "जी" के साथ गाड़ी में जाती थी ,तथा काफी समय बाद लौटती थी। यह उनका नित्य का कार्यक्रम था। कॉलनी की महिलाये उनके इस रूप को हजम नहीं कर पाती थी ,इस लिए अनर्गल बातें बनाती रहती थी। जिनसे “दी” का कोई किसी प्रकार का कोई मतलब नहीं था। “दी” का दोहरा व्यक्तित्व था,एक रूप कालेज में ,दूसरा रूप घर में। पर वे अपने निजी जीवन में किसी को भी झाँकने की इजाजत कभी भी नहीं देती थीं। न उनसे कोई पूछ सकता था की “दी” आपके साथ कौन महाशय रहते है वे आपके क्या लगते है। विद्यालय का युवा वर्ग तो उनका फैन था। जब वे कक्षा में धारा प्रवाह बोलती तो सब छात्र मन्त्र मुग्ध से उन्हें सुनते थे। उनके विषय में वर्षों से कोई छात्र फेल भी तो नहीं हुआ था। बड़ा ही आकर्षक व्यक्तित्व था “दी” का ,वे किसी अंन्य कालेज से स्थांनतरित होकर हमारे कालेज में आई थीं। उन्हें प्राचार्य बनने के लिए कई बार ऑफर आया ,पर वे प्रोफेसर के पद पर ही प्रसन्न थीं। किसी प्रकार की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती थीं। हो सकता है वे बंधन या जिम्मेदारी से मुक्त जीवन जीना चाहती हों ,कोई तो यहाँ तक कह डालता था की तभी “दी” ने शादी नहीं की वह विवाहोपरांत बंधन नहीं चाहती थीं।

तभी हमारे कालेज में एक अन्य टीचर भी स्थानांतरित होकर आये। उन्होंने हमें बताया की "दी " शादी शुदा है ,बड़े घराने की है। विवाह की ही रात इनके पति घर से गायब हो गए थे। घरवालों ने जबरदस्ती उनकी शादी कराई थी ,वे किसी अन्य लड़की को चाहते थे ,घरवालों के डर के मारे विवाह तो कर लिया ,पर “दी” की प्रतिष्ठा दांव पर लगा कर घर से भाग गए। “दी” ने दूसरे दिन ही अपनी ससुराल छोड़ दी। वे अपने पिता के घर भी नहीं गयी। सीधे कालेज गई और प्रतिदिन की तरह सामान्य रूप से कालेज का कार्य करने लगी। छै महीने बाद उन्होंने उस नाम मात्र के पति से तलाक ले लिया। “दी” थी बड़ी जीवट विदुषी महिला ,कालेज में सब उन्हें सम्मान व आदर देते थे। पर यहाँ तो मैं देख रहा हूँ कि छात्र उनके दीवाने ही बने हुए है। ये मैडम है ही ऐसी ,मैं जानता हूँ हम पूर्व परिचत है पर ये हम से भी बात नहीं करती। इन्होंने अपना जीवन बड़ी सादगी और सरलता से बिताया है ,पर अपने विषय में माहिर है। इन्हें अपने विषय में भाषण देने के लिए कई विश्वविद्यालयों से बुलावा आता रहता है। इनके बहुत से लेख पत्रपत्रिकाओं में यदा कदा छपते ही रहते है। तुम्हें बड़ा आश्चर्य होगा कि मैडम अंटार्कटिका भी जा चुकी है। वहीं इनकी मुलाकात कुमार जी से हुई। शायद ये उन्हीं के साथ रहती है , वे पिछले ही वर्ष अमेरिका कि किसी यूनिवर्सिटी से रिटायर्ड हो कर भारत आये है। अब तो शायद मैडम भी कुछ दिनों के बाद अवकाश प्राप्त करने वाली है। बिना शादी के बम्बई व दिल्ली में इसीतरह कई लोग रहते है। कोई बुरा नहीं मानता ,”दी” भी कुमार के साथ रह रही है। तभी “दी” का रिटायरमेंट का दिन भी आ गया। बड़ी धूम धाम से कॉलेज सजाया गया। छात्रों ने सांस्कृतिक कार्यक्रम का भी आयोजन किया। “दी” की तारीफ के पुल बांधे गए। इतनी प्रभावशाली अच्छी टीचर कल से नहीं पढ़ाएगी छात्र कुछ बेचैन भी थे। पर सब ने ख़ुशी ख़ुशी “दी” की विदाई समारोह में बढ़ चढ़ कर भाग लिया। सबने देखा कि”दी” ने अपनी विदाई के समय "जे "को भी मंच पर बुलाया। पहिले से ही निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार दो मालायें एक थाल में सजाकर प्राचार्य जी कि पत्नी खड़ी थी। सभी ने आश्चर्य से देखा कि विदाई के भाषण के बाद विद्यालय के संस्कृत टीचर मंच पर आये और माइक पर मंत्रोच्चार करने लगे। “दी” तथा "जे" के हाथों में जयमाल थी। उन्होंने पूरे विद्यालय को साक्षी मान कर एक दूसरे के गले में जयमाल डाली। सारा हाल तालियों कि गड़गड़ाहट से भर गया। सभी ने करतल ध्वनि से इस नव विवाहित दम्पत्ति को आशीर्वाद दिया। “दी” ने मंच पर ही "जे" के चरण स्पर्श किये "जे" ने अपनी जेब से मंगल सूत्र निकालकर “दी” के गले में पहिनाया। प्राचार्य जी कि पत्नी सिंदूर कि डिबिया साथ लाई थी। "जे" ने अपनी अंगूठी से “दी” कि मांग में सिंदूर भरा।

सभी बड़ी उत्सुकता पूर्वक विवाह कि नवीन प्रथा देख रहे थे। वे सब इस शादी के गवाह थे। विवाह कार्यक्रम सम्पन्न होने के पश्चात सबने भोजन किया। उसके बाद “दी” और "जे" अपनी नयी गाड़ी की ओर बढ़े जो छात्रों ने फूलों से सजा रखी थी। विद्यालय के छात्रों ने गेट तक गाड़ी को धक्का देकर खींचा ,मानो अपनी बहन को विदा कर रहे हों। सबने सजल नेत्रों से इस नव विवाहित जोड़े को विदा किया। उसके बाद “दी” और "जे" अपने पूर्व निर्धारित गंतव्य की ओर चले गए ,जिसका आज तक किसी को नहीं मालूम। जैसे जीवन भर “दी” के विषय में लोग तरह -तरह की बातें करते थे उन की बातों का पटाक्षेप उनकी विदाई के बाद भी नहीं हुआ। लोग अनुमान लगते रहते की “दी” और "जे "शहर छोड़ कर कहाँ गए होंगे। कोई कहता "जे" का अमेरिका में बहुत बड़ा कालेज है ,वहीं पढ़ाने चले गए होंगे। कोई कहता किसी हिल स्टेशन को उन्होंने अपने रहने का आशियाना बनाया होगा। आश्चर्य की बात तो यह थी की वर्षों तक उनके यहाँ कोई रिश्तेदार भी नहीं देखा गया। हो सकता है वैवाहिक दंश को वे आजीवन झेलती रही ,तभी विवाह जैसी संस्था को नकार कर वर्षों अपने मित्र के साथ सुखी जीवन यापन करती रही।

हमारे समाज में आज “दी” जैसी न जाने कितनी महिलाएं ऐसा ही जीवन बिता रही है। यह सब आधुनिक जीवन शैली का ही परिणाम है। इसे कुछ बुद्धिजीवी लोग उदारवाद की संज्ञा भी देते हैं। समाज में इस प्रथा को "लिव इन "के नाम से जाना जाता है। हमारी प्यारी “दी” ने भी विवाह जैसी संस्था को नकार कर यही प्रथा अपनायी थी ,जो अपने पीछे न जाने कितने आधे -अधूरे प्रश्न छोड़ गयी। उनके जाने के बाद कोई अनर्गल बात उनके विषय ने नहीं सुनी गई। क्योंकि हमारी स्नेही “दी” अपने साथ सब कही अनकही बातों को अपने साथ समेट कर हमसे दूर चली गई थी। पर अपनी अमिट याद हमारे लिए छोड़ गयी थी। हम सब दोस्त जब कभी मिलते है तो अपनी प्यारी टीचर “दी” को अवश्य याद करते हैं ,ईश्वर से प्रार्थना भी करते हैं कि वे जहाँ भी रहे खुश रहें।

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रचनाकार: सावित्री काला की कहानी - “दी”
सावित्री काला की कहानी - “दी”
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