दो स्तों देश में जिस तरह से सांप्रदायिक दंगों ने मानवता का स्वाद बदल कर रख दिया और उसकी भयाभय तस्वीर आम लोंगों के लिए छोड दी है, उससे तो ...
दोस्तों देश में जिस तरह से सांप्रदायिक दंगों ने मानवता का स्वाद बदल कर रख दिया और उसकी भयाभय तस्वीर आम लोंगों के लिए छोड दी है, उससे तो यही लगता है, कि इस देश में एक दूसरे के धर्म की दुश्मनी की आड अपने स्वार्थ के लिए आम जनता को बलि का बकरा बनाया जा रहा है। उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर दंगें हो या मध्यप्रदेश के हरदा जिले के खिरकिया ब्लॉक के छीपाबड़ गॉव के दंगें या फिर उज्जैन और खण्डवा के दंगें हों या देश के अन्य इलाकों में हुऐ सांप्रदायिक दंगें हों, इनकी तस्वीर को देखने पर मानवता की वो तस्वीर सामने आती है, जिसे देखकर देश में रह रहे आम इंसान की रूह कॉप जाती है।
दंगों का कारण चाहे जो भी हो पर देश में हो रहे सांप्रदायिक दंगों की तस्वीर देखने पर मानवता के पीछे छुपी वो तस्वीर सामने आ जाती है, जिससे आम इंसान का भरोसा उठ चुका है, देश जल रहा है,दंगों में आम आदमी जो दो वक्त की रोजी-रोटी के लिए घर से निकलकर आम रास्तों पर जा रहा,और अपनी जान गंवा रहा जिसे प्रशासन के अलावा देखने और सुनने वाला कोई नहीं है, क्या आम जनता आदमी की जान बचाने की जिम्मेदारी मात्र पुलिस और प्रशासन की है। या फिर सभ्य समाज में रह रहे जिम्मेदार लोंगों की भी है, महगें स्कूल और बडे-बडे कालेजों में क्या आम आदमी के प्रति सद़़्भावना और मानवीयता का पाठ आपने नहीं पढा, धर्म की आड में अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए बेकसूर जनता को मौत के मंजर में धकेलना क्या यही सीखा है आपने। तमाम तरह के सबाल इन धटनाओं से जन्म लेते हैं, आखिर कब तक इन सांप्रदायिक दंगों के काल के गाल में लोग समाते रहेंगें। और हम लोग कब तक अपनी नैतिक जिम्मेदारी से बचते रहेंगें। इस देश में हो रहे दंगों की आग की लपटों ने ना जाने कितने मासूम बच्चों की जान ले ली और ना जाने कितनी माताओं से उनका चिराग छीन लिया और ना जाने कितनी औरतों का सुहाग छीन लिया, देश में हुऐ ज्यादातर सांप्रदायिक दंगों का कारण एक दूसरे के धर्म के प्रति भणकाऊ भाषण या एक दूसरे के धर्म की धार्मिक भावनओं को ठेस पंहुचाना रहा।
क्या इसे देश की विडम्बना ही कहेंगें कि अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए समाज ठेकेदार छोटी-छोटी धटनाओं को अपने जेहन में उतारकर अपने व्यक्तिगत मतभेदों को और अपनी व्यक्तिगत भावनाओं को सांप्रदायिक दंगों का स्वरूप दे देते हैं परिणामस्वरूप लाखों की सम्पत्ति के साथ-साथ कई बेकसूर जाने इस दंगें के काल के गाल में समा जाती हैं, जिनका उत्तरदायित्व लेने वाला कोई नहीं बचता, जो लोग इन दंगों से पूर्ण रूप से जुडे रहते हैं, वो प्रशासन की आखों में धूल झोंककर बच जाते हैं, ओर जिन लोंगों का इन दंगों से दूर-दूर का नाता नहीं होता है वही कानूनी चक्कर में फॅस जाते हैं। यहॉ वो लोग जिन्होंनें प्रशासन की ऑखों में धूल झोंककर अपने आप को बचा लिया है और आम आदमी को दंगों में फंसा दिया यहॉ भी मानवीयता तार-तार होती नजर आती है। आखिर इस धर्मनिरपेक्ष देश में अपनी कट्टर भावनाओं की आग में कब तक आम आदमी जलता रहेगा। और कितनी मासूम जिंदगियां दंगों के काल के गाल में समाती रहेगीं, इसका जवाब देने की शासन या सरकार की जिम्मेदारी नहीं है बल्कि उन लोगों को इसकी जिम्मेदारी उठानी होगी जिनके कारण कितनी जिंदगियां दंगों के काल के गाल में समा गई, भले ही इस सभ्य समाज की तस्वीर विदशों में अमन चैन और भाईचारे के नये कीर्तिमान स्थापित करने की हो, पर देश की आंतंरिक तस्वीर पर नजर डाली जाये तो देश में विभिन्न क्षेत्रों में हुऐ दंगों को देखकर आम आदमी की रूह कॉप जायेगी। सडकों पर चलती जिदंगियों की सासें थम जाती है,पक्षियों की आवाज भी दंगों की भयाभय आहट के सामने गुमनाम ओ जाती हैं।
शासन/सरकार/प्रशासन और देश में ज्यादातर सामाजिक संघठन अमन चैन और भाईचारा कायम रखने की केाशिश जरूर करते होगें पर दंगों में शामिल उन असामाजिक तत्वों की चाल के सामने शासन /सरकार/प्रशासन और सामाजिक संघठन बौने जरूर नजर आते दिखाई देतें हैं, इंसान के नैतिक कर्तव्यों का अर्थ यह नहीं कि अपने व्यक्तिगत स्वार्थ और अपनी आपसी रंजिश को भुनाने के लिए मंदिर, मस्जिद, चर्च और गुरूद्वारे जैसे पवित्र् स्थानों का इस्तेमाल कर सांप्रदायिक दगों को जन्म दिया जाय, साथ ही हमें यह भी अधिकार नहीं है कि किसी के धर्म की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने हेतु उसकी आलोचना की जाय, पर फिर हम ये सब भूलकर निजी स्वार्थ के लिए उत्तेजित होकर सार्वजनिक सम्पत्तियों सहित धर्म से जुडी हुई इमारतों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश में रहते हैं। इसके परिणामस्वरूप हमारी उत्तेजना की चपेट में आकर कई मासूम जिदंगियों की सांसें थम जाती है, लाखों रूपये की सम्पत्ति नष्ट हो जाती है, जिसकी भरपाई कभी नहीं हो पाती है।
आखिर सभ्य और सुरक्षित समाज ने क्या हमें यही सिखाया है, या हमारे संस्कारों में कमी है, या फिर हीरो बनने की होड में इन सांप्रदायिक दंगों के परिणामों को भूल गये है, कारण चाहे कुछ भी हो पर हर स्तर इंसान मानवीयता खोता नजर आता है। किसी भी किताब या कानून में हमें यह अधिकार नहीं दिये गये हैं कि मानवता को भूलकर भोले-भाले इंसानों के प्रति अमानवीय व्यवहार किया जाय, फिर भी हम इस सब बातों से अनजान होकर एक दूसरे के धर्म के दुश्मन बने हुऐ हैं, देश और दुनिया में कायम अमन चैन को दंगों में परिवर्तन कर इंसानियत खोने की मिसाल कायम करते हैं। क्या आने वाली पीढियों के लिए देश में हुए सांप्रदायिक दंगे सबक साबित होंगें। देश में अमन चैन और भाईचारा फिर से कायम होगा मानवीयता खोता इंसान नींद से जागेगा।
लेखक,
अनिल कुमार पारा,
रामनगर जिला सतना (म0प्0)
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