गोवर्धन यादव का आलेख - गणेश चतुर्थी के दिन चांद देखने की मनाही क्यों?

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भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चन्द्रदर्शन-निषेध भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष चतुर्थी सिद्धविनायक चतुर्दशी के नाम से विख्यात है. इस दिन संपूर्ण भा...

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भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चन्द्रदर्शन-निषेध

भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष चतुर्थी सिद्धविनायक चतुर्दशी के नाम से विख्यात है. इस दिन संपूर्ण भारतवर्ष में श्रीगणेशजी की विधिवत स्थापना की जाती है. इसी दिन भगवान श्री गणेश का जन्म हुआ था. श्री गणेश हिन्दुओं के प्रथम पूज्य आराध्य देवता हैं. अपने भक्तों के कष्ट दूर करने में श्रीगणेश सक्षम देवता हैं.

गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्थजम्बूफ़लचारुभक्षणं उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजमं

इस तिथि में किया गया दान, स्नान, उपवास और पूजन-अर्चन श्रीगणेश की कृपा से सौ गुना हो जाता है., परन्तु इस दिन चन्द्रदर्शन से मिथ्या कलंक भी लगता है. अतः इस तिथि में चन्द्रदर्शन न हो, ऎसी सावधानी बरतनी चाहिए. इसी दिन भगवान श्रीकृष्णजी ने भी अकस्मात चन्द्रदर्शन कर लिए थे, इस चन्द्रदर्शन के कारन उन पर चोरी का आरोप लगा था. इस कथा से जुडा हुआ आख्यान जरुर पढा जाना चाहिए.

द्वापर युग में द्वारिकापुरी में सत्राजित नामक एक यदुवंशी रहता था. वह सूर्यदेव का परम भक्त था. उसकी कठिन भक्ति से प्रसन्न हो, सूर्य ने उसे एक स्यमन्तक नामक मणि दी, जो सूर्य के समान ही कान्तिमान थी. वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना देती थी तथा उसके प्रभाव से सम्पूर्ण राष्ट्र में रोग, अनावृष्टि, सर्प, अग्नि, चोर तथा दुर्भिक्ष आदि का भय नहीं रहता था

एक दिन सत्राजित उस मणि को धारणकर राजा उद्रसेन की सभा में आया. उस समय मणि की कान्ति से वह दूसरे सूर्य के समान दिखायी दे रहा था. भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा थी कि यदि वह दिव्य रत्न राजा उग्रसेन के पास रहता तो सारे राष्ट्र का कल्याण होता. सत्राजित को इस बात का पता चल गया कि श्रीकृष्ण इस मणि को प्राप्त करना चाहते हैं. वह श्रीकृष्ण की शक्तियों से भी परिचित था. अतः डरकर उसने उस मणि को अपने भाई प्रसेन को दे दी.

एक दिन प्रसेन घोडॆ पर सवार होकर आखेट के लिए वन में गया. तभी उसका सामना एक सिंह से हुआ. सिंह को मारने के बजाए वह स्वयं उसका शिकार हो गया. प्रसेन जब घर नहीं लौटा तो यादवों में कानाफ़ूसी होने लगी कि श्रीकृष्ण ने उसका वध कर दिया है और मणि ले ली होगी.

उधर वन में, मुँह में मणि दबाए हुए सिंह को ऋक्षराज जाम्बवान ने देखा तो उसने उस सिंह को मारकर स्वयं मणि ले ली और ले जाकर अपने पुत्र को खेलने के लिए दे दिया.

उधर लोकापवाद के स्वर गली-कूचे में से होते हुए स्वयं श्रीकृष्णजी के कानों तक पहुँचे. अपने ऊपर लगे चोरी के आरोपों से वे विचलैत हो उठे. उन्होंने इस बात की चर्चा राजा उद्रसेनजी से की और कुछ साथियों को लेकर प्रसेन के घोडॆ के खुरों के चिन्हों को देखते हुए वन में जा पहुँचे.

वहाँ उन्होंने घोडॆ और प्रसेन को मृत अवस्था में पाया तथा पास ही में सिंह के चरणचिन्ह भी देखे. उन चिन्हों का अनुसरण करते हुए आगे जाने पर उन्हें सिंह भी मृत पडा मिला. वहाँ से ऋक्षराज जाम्बवान के पैरों के निशान देखते हुए वे उस गुफ़ा तक जा पहुँचे, जहाँ जाम्बवान का निवास था.

श्रीकृष्ण ने अपने साथियों से कहा कि अब यह तो स्पष्ट हो चुका है कि घोडे सहित प्रसेन सिंह द्वारा मारा गया है, परंतु सिंह से भी कोई बलवान है, जो इस गुफ़ा में रहता है. मैं अपने पर लगे लोकापवाद को मिटाने के लिए इस गुफ़ा में प्रवेश करता हूँ और स्यमन्तकमणि लाने की चेष्टा करता हूँ. यह कहकर वे उस गुफ़ा में घुस गए.

गुफ़ा गहन अन्धकार में डूबी हुई थी. किसी तरह कठोर चट्टानों से टकराते, अपने आपको बचाते हुए वे धीरे-धीरे आगे बढ रहे थे. काफ़ी अन्दर जाने पर उन्होंने देखा कि गुफ़ा के अन्दर काफ़ी रौशनी फ़ैल रही थी. यह प्रकाश उस दिव्य मणि के द्वारा फ़ैल रहा था. और आगे बढते हुए उन्होंने ने देखा कि एक नन्हा बालक उस दिव्य मणि से खेल रहा है. जैसे ही श्रीकृष्ण ने उस मणि को लेने का प्रयास किया, पास ही बैठा ऋक्षराज उन पर टूट पड. दोनों के मध्य इक्कीस दिन तक घोर युद्ध होता रहा. अन्त में शिथिल अंगवाले जाम्बवान ने भगवान श्रीकृष्ण को पहचान लिया और प्रार्थना करते हुए कहा:- “हे प्रभु ! आप तो मेरे स्वामी श्रीराम ही हैं. द्वापर में आपने मुझे इस रुप में दर्शन दिया. आपको कोटि-कोटि प्रणाम है. हे नाथ ! मेरे अपराध क्षमा करें. मैं अर्ध्यस्वरुप अपनी इस कन्या जाम्बवती सहित इस दिव्य मणि भी आपको देता हूँ, कृपया इन्हें ग्रहणकर मुझे कृतार्थ करें तथा मेरे अज्ञान को क्षमा करें”

श्रीकृष्णजी जाम्बवान से पूजित हो स्यमन्तकमणि लेकर जाम्बवती के साथ द्वारिका आए. वहाँ उनके साथ गए यादवगण बारह दिन बाद ही लौट आए थे. द्वारिका में यह बात बडी तेजी के फ़ैल गयी थी कि श्रीकृष्ण गुफ़ा में मारे गए हैं, किंतु उन्हें आया देख संपूर्ण द्वारिका में प्रसन्नता की लहर दौड गयी. उन्होंने यादवों से भरी हुई सभा में वह मणि सत्राजित को दे दी. सत्राजित ने भी प्रायश्चितस्वरुप अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्णजी से कर दिया.

यदि दैववशात चन्द्रदर्शन हो जाए तो इस दोष के शमन के लिए निम्नलिखित मंत्र का पाठ करना चाहिए, ऎसा विष्णुपुराण (4/13/42) में वर्णित है

सिंहः प्रसेनमवधीत्सिंहो जाम्बवता हतः/ सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः

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103, कावेरी नगर,छिन्दवाडा(म.प्र.) 480001 गोवर्धन यादव

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. धार्मिकता से जुड़ा यह लेख बहुत अच्छा है नैतिकता का सन्देश भी देता है इस तरह के लेख से मन को शांति भी मिलती है .

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  2. बहुत सुंदर श्री मान जी... बधाई..

    मेरे साथ कुछ ऐसा संयोग जुड़ा है कि मैं कई वर्षों से इस दिन चंद्र दर्शन जरुर कर बैठताहूं.. और बाल पन में कल्याण में पढने के कारण इस कथा से भयभीत भी रहता हूं... किंतु गणेश जी मेरे सदैव से आराध्य हैं ...यही मानता हूं कि इसमें भी कोेई उनकी इच्छा होगी... रहा आरोपों का मसला.. तो वो तो मेरे दैनिक आभूषण हैं...शायद इसी लिए प्रभु दर्शन करा देते हैं.....

    जय गणेश जी की...

    डॉ राजीव रावत
    हिंदी अधिकारी
    आईआईटी खड़गपुर

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: गोवर्धन यादव का आलेख - गणेश चतुर्थी के दिन चांद देखने की मनाही क्यों?
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