इकलौती बहू/कहानी चिन्ताप्रसाद कुल जमा चौथी जमात तक पढ़े थे पर खानदानी चालाक थे। चिन्ताप्रसाद के पुरखों ने कमजोर वर्ग के लोगों को भूमिहीन...
इकलौती बहू/कहानी
चिन्ताप्रसाद कुल जमा चौथी जमात तक पढ़े थे पर खानदानी चालाक थे। चिन्ताप्रसाद के पुरखों ने कमजोर वर्ग के लोगों को भूमिहीन बनाने में बड़ी भूमिका निभाई थी। अंग्रेजों के जमाने में भूमिका लेखा -जोखा रखना इनका खानदानी पेशा था पर आजादी के बाद सब कुछ सरकार की अधीनस्थ हो गया। नौकरी के लिये इश्तहार निकलने लगे। नौकरी के लिये कोई भी आवेदन कर सकता था,पढ़े- लिखे नवयुवक ने परम्परागत् एकाधिकार को पटकनी दे दी। चिन्ताप्रसाद पैतृक व्यवसाय हाथ नहीं लगने की उम्मीद खत्म हो गयी थी। वे बचपन में शहर की ओर भाग चले थे । शहर में आने के बाद उन्हें नौकरी के लिए दर-दर भटकना नहीं पड़ा। जैसे नौकरी उनकी इन्तजार कर रही थी। कालेज की कैन्टीन में चिन्ताप्रसाद को काम मिल गया। तनख्वाह के साथ खाना रहना मुफ्त मिलने लगा। चिन्ताप्रसाद की तनख्वाह सूखी बच जाती थी। साल भर के चिन्ताप्रसाद की नौकरी पक्की हो गयी थी। वह हर दूसरे महीने बूढे़ मां-बाप को मनिआर्डर भेजने का नियम बना लिया। चिन्ताप्रसाद के घर हर दूसरे महीने मनिआर्डर की रकम लेकर डाकिया आता। डाकिया आसपास के गांवों में चिन्ताप्रसाद की जिक्र करता फिरता,कहता मुंशीलाल का बेटवा बहुत कमासूत हो गया है,ससुरा चिन्तवा शहर भाग तो कर गया, देखो हर दूसे महीना दो सौ का मनिआर्डर भेजता है। खैर अच्छा कर रहा है दो सौ पर दो रूपया तो अपनी भी कमाई हो जाती है। चिन्ताप्रसाद की कमाई को देखकर उसके रिश्तेदार ने अपने साले की बी․ए․पास लड़की से ब्याह करवा दिया। नौकरी पक्की होते ही चिन्ताप्रसाद सरकारी दमाद हो गया। पत्नी रजनी को भी शहर ले आया। वह पढ़ी लिखी थी उसे घर में बैठना अच्छा नही लगता था। वह चिन्ताप्रसाद से कहती क्यों जी मेरे लिये कही नौकरी ढूंढ दो मैं घर में बैठना नहीं चाहती।
चिन्ताप्रसाद-घर में काम कम है क्या?हमारी तनख्वाह और सुख-सुविधा कम पड़नी लगी है क्या ?
रजनी-देखो रोटी रसोई के अलावा और कौन सा काम है। सुन्दरप्रसाद स्कूल जाने लगा है,खूबी साल भर में स्कूल जाने लायक हो जायेगी। मेरा मन घर में नहीं लगता,मुझे कुछ करना है। बहुत बन संवर को आपको बहुत रिझा चुकी। दो बच्चे हो गये है। मन उबने लगा है रोज रोज एक ही काम तुम्हारी सेवा सुश्रुषा,आपको खुश करने के लिये शरीर के पोर-पोर हिलवा डालना। मैं भी इंसान हूं। मैं सुहाग रात में ही बोल दी थी ना, मैं दो बच्चों से ज्यादा पैदा नहीं करूंगी। बूढ़ा-बूढी तो चाहते है सूअर जैसे बच्चे पैदा करूं तो वो मुझसे नहीं होगा। हां आपको सन्तुष्ट रखने में कोई कोर-कसर नही छोड़ूंगी पर मुझे बच्चों के भविष्य के लिये कुछ करना है।
चिन्ताप्रसाद-करने को बहुत काम है।
रजनी-रोटी रसोई,कपड़ा धोना,झाड़ू पोछा बस यही ना ।
चिन्ताप्रसाद-और भी तुम बहुत काम करती हो।
रजनी-अच्छा तुम्हारी मालिश। ये कोई काम नहीं यह तो घरवाली का दायित्व बनता है। पति,सास-ससुर की सेवासुश्रुषा करें,पति को खुश रखे। घर परिवार का पूरा धन रखे।
चिन्ताप्रसाद-तुम तो रोज बिना मालिश किये मुझे सोने नहीं देती। कुछ औरतें तो ऐसी है जो पति के सिर पर तेल रखना अपनी गुलामी का प्रतीक मानती है। तुम तो रोज मालिश करता हो।
रजनी-फुसलाओ ना । मुझे कुछ करना है,अपनी आय और बढ़ानी है,सुन्दर और खूबी बिटिया के अच्दे से अच्छे स्कूल में दाखिला करवाना है।
चिन्ताप्रसाद-होगा तुम चिन्ता ना करो,खाना खाओ आराम करो दिन भर थक जाती हो बच्चों के पीछे भाग-भागकर। खूबी स्कूल जाने लगेगी तब तुम्हारे काम के बारे में सोचेगें।
सालभर बाद रजनी जिद कर बैठी। चिन्ताप्रसाद हथियार डाल दिया। रजनी डाकघर की एजेण्ट बन गयी। पैसा जमा करवाने लगी। साथ ही घर में कैन्टीन भी खोल ली। अब क्या रजनी की तरकीब काम आ गयी । कुछ ही बरसों में रूपया की बारिस होने लगी। सुन्दर प्रसाद एम․काम की परीक्षा पास करते ही बैंक में अफसर लग गया। अब तो रजनी के हौशले को जैसे पंख लग गये। सुन्दर प्रसाद की नौकरी लगते ही बहुत खरीददार आने लगे। मुंह मांगी रकम गाड़ी सब देने को तैयार थे। रजनी को पुष्पा भा गयी। भा भी क्यों न जाती रूप-रंग यौवन भी था ही ऐसा सुन्दर प्रसाद पुष्पा के आगे कहीं नहीं लगता था। पुष्पा एम․ए․ तक पढी थी। पुष्पा के पिता उसके लिये दूल्हा खरीदने के लिये मुंह मांगी रकम देने को भी तैयार थे। रजनी को एम․ए․ तक पढी बहू के साथ मुंह मांगी कीमत भी मिल रही थी,बात पक्की हो गयी।
अच्छे मुहुर्त में सुन्दर प्रसाद और पुष्पा का ब्याह हो गया। पुष्पा ससुराल आयी। रजनी पुष्पा की सासु मां ने उसे चाभी का गुच्छा देते हुए बोली पुष्पा यह घर तुम्हारे हवाले कर रही हूं।
पुष्पा-सासु मां अभी से ये भार कैसे उठा सकूंगी।
रजनी-मेरी इकलौती बहू उठाना तो तुमको ही है। अरे जब मैं आयी थी तो चिन्ताप्रसाद की तरफ इशारा करके बोली इनके दर्जन भर भाई-बहनों को बोझा उठाना पड़ा था मुझे,तुम्हारे सामने तो वैसा संकट तो नही है।
चिन्ताप्रसाद झेंपते हुए बोले थाम लो,इकलौती बहू हो सब कुछ तुम्हारा हो तो है,बस मेरी खूबी का धन रखना।
पुष्पा-खूबी मेरी ननद नहीं छोटी बहन है,उनको तो पलकों पर बिठाकर रखूंगी कहते हुए पुष्पा ने चाभी का गुच्छा थाम लिया था। चाभी के गुच्छे ने पुष्पा को ऐसे चक्रव्यूह में फंसा दिया जिसकी उसे कल्पना भी नहीं थी। रजनी ने घर की जिम्मेदारी से फुर्सत ले ली। बतौर पोस्ट आफिस बचत एजेण्ट खुद को व्यस्त कर ली। कैन्टीन की जिम्मेदारी अब पुष्पा के उपर थी। पुष्पा भी हार नहीं मानने वाली थी वह भी इकलौती बहू का ताज पाकर अपना सर्वस्व स्वाहा करने को तैयार थी। पुष्पा के ब्याह के साल भर बाद चिन्ताप्रसाद की नौकरी चली गयी। खूबी भागकर ब्याहकर ली। चिन्ताप्रसाद ने कैन्टीन का कारबार और बढ़ा लिया पर एक भी मजदूर नहीं रखा। सब काम पुष्पा को करना होता सौ ग्राहकों की टिफिन का खाना बनाना बर्तन भाड़े साफ करना। चिन्ताप्रसाद रिक्शा में भर कर दोनो समय टिफिन पहुंचाने जाता। बेचारी कोल्हू का बैल हो गयी थी सुबह चार बजे उठता बारह बजे सोने जाती। इसके बात सुन्दरप्रसाद की सेवा सुश्रुषा। सुन्दरप्रसाद हट्ठा-कटठा पहलवान जैसे था,पुष्पा तो इस घर में आते ही सूखना शुरू हो गयी थी अब तो सूखकर कांटे जैसी हो चली। सुन्दरप्रसाद की नजरों में वह अब एक मजदूर जैसी हो गयी थी पर रात भर वह पुष्पा को वेश्या की तरह निचोड़ना नहीं भूलता था। सुन्दरप्रसाद पुष्पा के साथ बाहर जाना अपानी तौहीनी समझता था। वह कार में अपने साथ कभी नहीं बिठाया,चाहे वह अपनी मां के साथ जा रहा हो या अकेले पुष्पा को पिछली सीट पर बिठाता जैसे पुष्पा उसकी घरवाली नही होकर घर की नौकरानी हो। समय के चक्र ने पुष्पा को भी दो बच्चों की मां बना दिया पर वह मायके का मुंह नहीं देखी। ब्याह के पन्द्रह साल बाद मां की तेरहनी में रजनी को मायके जाने की इजाजत मिली थी और तेरहवीं बीतते ही वापस चले आने की हिदायत भी इकलौती बहू को। पुष्पा समर्पित भाव से घर-मंदिर और पतिदेव की उपासना में लगी रहती। वह स्वयं कभी भी इकलौती बहू की सीमा नहीं तोड़ी जबकि उसके सास-ससुर ही नहीं पति ने उसे एक नौकरानी से अधिक कभी नहीं समझा।
पुष्पा के तन से उपजे पसीने और आंखों से पसीजे आंसू पीकरे चिन्ता प्रसाद का कैन्टीन का व्यवसाय खूबफलफूल रहा था। कैन्टीन के व्यवसाय में उसका नाम काफी उपर पहुंच गया था खैर पहुंचता भी क्यों नहीं सब काम पुष्पा ही जो करती, खाना भी इतना अच्छा बनाती कि अंगुलिया चाटते रह जाये। थोक में डिब्बे कभ् मांग बढ़ने लगी,ग्राहक कई गुना बढ़ गये। चिन्ताप्रसाद को टिफिन पहुंचाने में दिक्कत महसूस होने लगी। कैन्टीन के बढ़ते हुए व्यवसाय को देखकर रजनी ने अपना काम धीरे-धीरे घटाने लगी चिन्ताप्रसाद की चिन्ता कम करने के लिये। रजनी डिब्बा भरवाने में पुष्पा की तनिक मदद करने लगी। धीरे-धीरे रजनी ने पोस्ट आफिस बचत का काम एकदम बन्द कर दी और कैन्टीन की गद्छी संभाल ली। चिन्ताप्रसाद का काम पहले भी डिब्बा पहुंचाना और सामान लाना था। रजनी गद्दी के साथ सामान खरीदने में भी चिन्ताप्रसाद का सयोग करने लगी परन्तु पुष्पा का काम बढ़ता चला गया। ससुराल में उसे कभी किसी ने इंसान नहीं समझा। बस उसे बैल की तरह दिन रात जोतते रहे। पुष्पा ससुराल और पति की कभी नमूसी नहीं होने दी। इकलौती बहू होने के नाते वह ससुराल को मंदिर समझकर सेवा कार्य में लगी रहती थी।
कैन्टीन का व्यवसाय प्रगति पर था अचानक चिन्ताप्रसाद का गला बन्द होने लगा। डाक्टर को दिखाया तो डाक्टर बोले गुटखा तम्बाकू खाने से जबड़े जाम हो गये है,सब तरह की नशा छोड़ना पड़ेगा। मरता क्या ना करता चिन्ता प्रसाद ने सब त्याग दिया पर रत्ती भी फायदा नहीं हुआ। अन्तोगत्वा पता लगा कैसर आखिरी स्टेज पर है और एक कैंसर दिन चिन्ता प्रसाद को लील गया। अब रजनी के सिर पर कैन्टीन के व्यवसाय को संभालने की जिम्मेदारी पूरी तरह से आ गयी। लाखा कोशिशों के बाद भी धंधा धीरे-धीरे मंदा पड़ने लगा।
उधर सुन्दर प्रसाद की नौकरी में भूचाल की स्थिति पैदा हो गयी,उसे किसी घोटाले के कारण नौकरी से निकाल दिया गया। कई महीनो तक नियति घर से दफतर जाने वाले समय निकलता वापस आने वाले समय वापस आता। आर्थिक स्थिति चरमराने लगी थी। एक दिन कैन्टीन का सामान खरीने के लिये बाजार जाने की तैयारी कर रही थी कि इसी बीच सुन्दरप्रसाद आ गया संयोग से महीने का पहला सप्ताह था। रजनी सुन्दरप्रसाद से बोला बेटी तेरी मदद चाहिये।
सुन्दरप्रसाद-मां चलो कहा चलना है।
रजनी-बाजार ।
सुन्दरप्रसाद-क्या खरीदना है।
रजनी-अरे कैटीन और घर के लिये राशन लेना है।
सुन्दरप्रसाद-चलो मां गाड़ी अभी बाहर खड़ी है गैरेज में नही खड़ी किया हूं चलो।
रजनी-बेटा कुछ रूपये की मदद चाहिये।
सुन्दरप्रसाद-वह तो नहीं है।
रजनी-तनख्वाह नहीं मिली क्या ?
सुन्दरप्रसाद-मिली थी मां पर कोई एकाउण्ट हैंगकर तीन महीने से पैसे निकाल ले रहा है,जबकि वह सस्पेंड चल रहा था।
रजनी-क्या,मुसीबत पर मुसीबत।
सुन्दरप्रसाद-मां चिन्ता ना करो सब ठीक हो जायेगा।
रजनी सुन्दरप्रसाद के साथ गयी आधी अधूरी सामान लेकर आयी पर इतने सामान से कैन्टीन चला पाना कठिन था। चिन्ताप्रसाद के मरते ही परिवार पर मुसीबत के पहाड़ गिरने लगे थे। पुष्पा को देखकर रजनी की हिम्मत बढ़ जाती वह हार मानने को तैयार न था। साल बीत गया तब जाकर रजनी को पता चला कि बेटे की नौकरी नहीं रही। सुन्दरप्रसाद टयूशन पढ़ाने का काम करने लगा पर वह कैन्टीन के काम से नही जुड़ा चाहता तो पैतृक व्यवसाय से जुड़कर अच्छा कारोबार कर सकता था पर कहते हैं ना विनाश काले विपरीत बुद्धि वही हुई। टयूशन की कमाई से सुन्दरप्रसाद अपना खर्च निाकल लेता बस। सुन्दरप्रसाद की पैतृक जमे जमाये व्यवसाय में अरूचि के कारण थक हारकर कैन्टीन का धंधा रजनी को बन्द करना पड़ा और घर का कैंटीन वाला एरिया किराये पर चढ़ गया। इससे घर कि आर्थिक स्थिति में कोई चमत्कारिक सुधार तो नहीं हुआ पर चूल्हा गरम होने का इन्तजाम तो हो गया था।
पुष्पा को दिन पर दिन घर की बिगड़ती आर्थिक स्थिति बेचैन किये जा रही थी। एक दिन वह हिम्मत कर सुन्दरप्रसाद से सविनय बोली क्यों जी हम नौकरी कर ले क्या ?
सुन्दरप्रसाद-मेरी नौकरी चली गयी तो तू मुझे ताना दे रही है।
पुष्पा सुन्दरप्रसाद का पांव पकड़कर बोली कैसी बात कर रहे है। इस घर का दुख-सुख मेरा दुख-सुख है। क्या मैं इस घर से अलग हूं। मेरे लिये तो यह घर मंदिर है है और घर के लोग देवता।
सुन्दरप्रसाद-रहने दे मेरा मजाक उ़ड़ाने को।
पुष्पा-आपका मजाक उड़ाकर मुझे नरक का भागी नही बनना है। मैं तो आपका साथ देना चाहता हूं हाथ बटाना चाहती हूं,घर की तरक्की में अपने को स्वाहा करना चाहता हूं ।
सुन्दरप्रसाद- रहने दे स्वाहा करने को बहुत कर लिया तुमने स्वाहा। तुमको पेट भर खाने को तो मिल रहा है ना।
पुष्पा-पेट तो कुत्ते भी भर लेते है।
सुन्दरप्रसाद-कहा तुमको कलेक्टर की नौकरी मिल रही है।
पुष्पा-भले ही कलेक्टर की नौकरी नही मिले स्कूल टीचर की तो मिल सकती है।
सुन्दरप्रसाद-कर ली तुमने नौकरी जाओ घर के काम में मन लगाओ। ऐसे ही ऐरे-गैरो को नौकरी मिलती रही तो तुम अब तक कलेक्टर बन गयी होती। मैं तो कमिश्नर होता,कलेक्टर कमिश्नर एक घर में रहते,दो लालबत्ती की कारें घर के सामने खड़ी,चल हट तुम्हारी जगह चूल्ह चौके में है,तुम वही तक ठीक हो।
पुष्पा ने हिम्मत दिखाई आज उसने पत्नी धर्म को तोड़ दिया। वह तमतमाते हुए बोली घरकी नौकरानी मुझे आपने बनाया है, मुझे भी मौका मिला होता तो मैं भी कुछ बनकर दिखा सकती थी। दुर्भाग्यवश मां-बाप ब्याह की के उतावलेपन में मेरे भविष्य का क्तल करवा दिया आपके हाथों मिस्टर सुन्दरप्रसाद। दुनिया के सामने तो नौकरानी की तरह रखे बंद कमरे में मेरी शरीर से वैसे ही खेलते रहे जैसे श्वान हड्डी से खेलता है। ये दोनों बच्चे मैं अकेले नहीं पैदा की हूं। साथ आने जाने में आपकी महिमा मण्डित होता है,देखना मैं नौकरी करके दिखाउंगी।
घर में शोर सुनकर पुष्पा आ धमकी। घर की नौकरानी यानि इकलौती बहू को खरखोटी सुनायी पर पुष्पा के जबान पर लटका ताला आज अनायास टूट गया था। वह अपनी बात बेधड़क रखे जा रही थी। उसकी हिम्मत को देखकर सुन्दरप्रसाद के होश उड़ चुके थे। पुष्पा बोली सांरी माय डियर हसबैण्ड,आई मैनेज माई ओन प्रोबल्म एण्ड गिभ बेटर फयूचर टू माई किडस् कहते हुए वह सासूमां से आंखों में आंसू लिये अपने मन की बात कह सुनायी।
रजनी-तुमको नौकरी करनी है।
पुष्पा-हां सासूमां बच्चों के अच्छे भविष्य के लिये। मैंनेजर साहब तो फेल हो गया। इनकी सारी मैनेजरियल स्किल मुझे नौकरानी बनाये रखने में निकलती रही और खुद फेल हो गये। दो साल से हाथ पर हाथ धरे बैठे है। ऐसे कैसे काम चलेगा। बच्चों के स्कूल की फीस जमा करनी है। बाबूजी की दी छत है वरना क्या हाल होता ऐसे पति के साथ।
रजनी-पुष्पा तू इस घर की इकलौती बहू है,अब तक जो हुआ भूल जाओ। तुमको भी अपनी किस्मत अजमाने का मौका मिलना चाहिये। सुन्दरप्रसाद के पिता भी इस दुनिया में रहे और ना ही तेरे मां-बाप। मैं अपनी आंखों के सामने तुम लोगों को सम्पन्न देखना चाहती हूं। बहू तुम्हें भी अपना भाग्य अजमाने का मौंका है,मेरी आंखों के सामने तुम्हारी मनोकामना पूरी हो जाती तो मैं भी चैन से मर सकूं। रजनी की ऐसी बात सुनकर पुष्पा रजनी का पांव पकड़कर बोली सासूंमां मरने की बात ना करो।
रजनी-पुष्पा के सिर पर हाथ रखते हुए बोली बहू तुम्हारी काबिलियत को हम लोगों ने कोई अहमियत नही दी। तुम कैन्टीन की एक बेजुबान अवैतनिक कर्मचारी बनी रही। तुमने कभी भी अपने लिये कुछ नहीं मांगा। आज तुमने मांगा भी है तो घर परिवार के लिये। तुम अपनी किस्मत अजमा सकती हो बहू मेरी आर्शीवाद तुम्हारे साथ है। हो सकता है तुम्हारे प्रयास से घर की आर्थिक स्थिति में सुधार आ जाये। काश तुम्हारी काबिलियत को पहले समझ लिया गया होता। इस परिवार के सुन्दरप्रसाद और खूबी को काबिल समझते रहे । दोनो ने आपनी काबिलियत दिखा दिया,पुष्पा जब से तुम इस घर में आयी हो अग्नि परीक्षा ही दे रही हो । अब तुम खुद अग्नि परीक्षा देने जा रही हो,भगवान तुम्हें सफलता दे।
पुष्पा-सासूंमां मैंने बहुत लगन से पढ़ाई पूरी की हूं। मां-बाप दादा-दादी ही नहीं पूरे कुटुम्ब की लाडली थी पर नसीब ने धोखा दे दिया और मैंनेजर साहब और प्रसाद परिवार की नौकरानी हो गयी। दुर्भाग्यवश इसके लिये मेरे बाप ने अपनी इकलौती बेटी के लिये अपने जीवन भर की कमाई कुर्बान कर दी और खुद कंगाल हो गये। पुष्पा सुन्दरप्रसाद की ओर मुखातिब होते हुए बोली वाह रे मैनेजर साहब क्या सिला दिया आपने धर्मपत्नी को रात में वेश्या और दिन में नौकरानी बना कर रख दिया। आपने जो भी दुर्व्यवहार मेरे साथ किया मैंने उसे भी स्वीकारा । आपकी उन्नति के लिये हमेशा प्रार्थना करती रहती हूं।
रजनी-अभी बहुत देर नहीं हुई है,यदि तुममें हुनर है तो दिखा सकती है प्रसाद परिवार के भले के लिये इकलौती बहू होने के नाते।
पुष्पा-हां सासूमां जरूर दिखाउंगी। प्रसाद परिवार ही मेरा अस्तित्व है,उसके हित में पहले दर्द सही अब हुनर का उपयोग भी क्योंकि प्रसाद परिवार के हुनर को जमाना ने देख लिया है।
रजनी-बहू बात करने का नहीं कर दिखाने का वक्त है। प्रसाद परिवार जर्जर कश्ती को अब तुम्हारा ही भरोसा है।
पुष्पा-हां सासुमां कहते हुए,आंसू पोछते हुए वह सीधे अन्दर गयी अपने साथ मायके से लायी सन्दूक उठाकर आंगन में पटकी दी।
रजनी-पुष्पा सन्दूक क्यों तोड़ रही हो।
पुष्पा-तोड़ नहीं रही हूं सासूमां इसी सन्दूक में मेरे सपने सजाने का साजो सामान पड़ा है।
रजनी-क्या ?
पुष्पा-जंग खायी फाईल हवा में लहराते हुए बोली मिल गया वो साजो सामान।
रजनी-इतना बावली क्यों हो रही है।
पुष्पा-मुझे हुनर दिखाने का मौका जो दिया है प्रसाद परिवार की मुखिया ने।
कुछ ही पलों में पुष्पा की जीवन शैली एकदम बदल गयी। वह दूसरे दिन जल्दी उठी,घर का झाड़ू पोंछा कर खुद स्नान की । पूजा घर में स्थापित देवी देवताओं के साथ अपने स्वर्गीय ससुर चिन्ताप्रसाद की प्रज्ञा,शील और करूणा के प्रतीक बुद्ध भगवान की तस्वीर रखकर मौन लम्बी पूजा अर्चना की। पूजा अर्चना के बाद पति सुन्दरप्रसाद और सासुमां का चरण स्पर्श कर वह घर से अकेले निकल पड़ी। पुष्पा रोज सुबह घर से ऐसे ही निकलती और शाम ढलते वापस आ जाती। बड़ी आस्था और श्रद्धा के साथ घर का काम कर रजनी उखड़ती सांस को सहारा देती,पति सुन्दरप्रसाद को ढांढस बंधाती। अन्ततःपुष्पा को एक कालेज में हिन्दी प्राध्यापक की नौकरी मिल गयी। धीरे-धीरे पुष्पा के प्रयास से प्रसाद परिवार में सुख-शान्ति और वैभव स्थापित हो गया। पति सुन्दरप्रसाद और रजनी के लिये वही पुष्पा जिसकी कद्र नौकरानी जैसी भी नहीं थी आत्मसम्मान बन गयी। रजनी स्वाभिमान से कहती फिरती पुष्पा प्रसाद परिवार की इकलौती बहू जर्जर कश्ती को स्वर्णिम बना दिया। बहू भले ही इकलौती हो पर पुष्पा वही पुष्पा जो फूटी आंख भी नहीं भाती थी।
डा․नन्दलाल भारती
आजाददीप,15-एम-वीणा नगर,इंदौर । म․प्र․। -452010
बहुत मार्मिक व प्रभावशाली प्रस्तुति.
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