पुस्तक समीक्षा सुलगती जमीं की कराहती आवाज -‘‘मैं बस्तर बोल रहा हूँ--‘‘ वीरेन्द्र ‘सरल‘ शस्यश्यामला भारत भूमि के मानचित्र पर बस्तर की ...
पुस्तक समीक्षा
सुलगती जमीं की कराहती आवाज -‘‘मैं बस्तर बोल रहा हूँ--‘‘
वीरेन्द्र ‘सरल‘
शस्यश्यामला भारत भूमि के मानचित्र पर बस्तर की पहचान प्रकृति के गोद में बसे एक ऐसे भूखण्ड की रही है जो साल के सघन वृक्षों से आच्छादित है। जहाँ विश्व विख्यात कुटुम्बरसर की गुफा और च़ित्रकोट का जलप्रपात है। जहाँ माँ दन्तेश्वरी का पावन धाम है। डंकनी और शंखनी की धाराएं माँ दन्तेश्वरी के चरण पखारकर उसका यशोगान करती हुई धरा को अभिसिंचित कर उर्वरा बनाती है। जहाँ की धरती लोहा उगलती है। जहाँ महुए के मादक गंध के साथ वहाँ के निवासियों की जिन्दगी मांदर के थाप पर थिरकती है, नाचती और गाती है जहाँ का लोक संगीत आदिवासी दिलों की धड़कन और साँसों का सरगम है। पर न जाने किस मनहूस घड़ी में बस्तर के सुख और समृद्धि को किन स्वार्थी तत्वों की नजर लग गई कि बस्तर सुलगने लगा है। न जाने किन लोगों ने बस्तर के सीने में बारूद भर दिया है जो बस्तर आज लाल आतंक का पर्याय बन गया है। कब कहाँ धमाका हो जाए और इंसानी जिस्म के चिथडे़ उड़ जाए कुछ नहीं कहा जा सकता। गोलियों की सनसनाहट और भारी बूटों की आवाज से सहमकर पहाड़ी मैना खामोश हो गई है। जीवन का संगीत थम-सा गया है। होठों की हँसी छिन गई है। दिल की धड़कनों में निराशा का घना कोहरा छा गया है और आँखों के भीतर आँसुओं का सैलाब छिपा है, देखने वालों को तो सिर्फ भींगीं आँखों की नमी भर ही दिखाई देती है। आखिर कौन हैं इस हालात के जिम्मेदार? बस इसी तड़प, छटपटाहट और बैचेनी की अभिव्यक्ति है डॉ राजाराम त्रिपाठी जी की कृति ‘ मैं बस्तर बोल रहा हूँ‘।
चूंकि डॉ त्रिपाठी औषधीय पौधों के ख्याति लब्ध विशेषज्ञ है इसलिए नब्ज पकड़कर मर्ज को पहचानना उन्हें खूब आता है। तभी तो उन्होंने बस्तर के पीड़ा की पड़ताल सतह के ऊपर-ऊपर ही नहीं बल्कि सतह के बहुत भीतर तक पहुँचकर करने का स्तुत्य प्रयास किया है। बस्तर के अन्तरात्मा में झाँकने की भरपूर कोशिश की है और सुलगती धरती की कराहती आवाज को ‘ मैं बस्तर बोल रहा हूँ‘ कृति के माध्यम से समाज के सामने रखा है। साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। साहित्य को समाज का दर्पण कहलाने का गौरव यूँ ही नहीं मिल गया है। इस गौरव को पाने के लिए साहित्यकारों की सदियों की साधना लगी हुई है। साहित्यकार की सजग दृष्टि हमेशा सामयिक घटनाओं पर होती है। वह घटना में अर्न्तनिहित कारणों का विश्लेषण करता है। घटनाओं पर चिन्तन करके कार्य और कारण का पड़ताल करता है। घटना के दूरगामी परिणाम पर विचार करता है और अपनी कृति में अपने चिन्तन का निचोड़ रखते हुए समाज को सचेत और जागृत करता है। मनुष्य की सोयी हुई संवेदना को झकझोर कर जगाता है और बेहतर मानव समाज के निर्माण के लिए मनुष्य को प्रेरित करता है।
डाॅ साहब की कृति में उनके चिन्तन के विविध रंग है। सुख-दुख, हर्ष-विषाद, आशा-निराशा, प्रश्न-उत्तर मगर सबसे ज्यादा चिन्तन है तो जल, जंगल और जमीन के साथ वहाँ बसने वाली जिन्दगी की है। जहाँ ‘मुखौटा‘ और ‘अक्श‘ कविता आत्मचिन्तन के लिए प्रेरित करती है वहीं ‘कौन हो तुम‘ कविता बस्तर के लूटने वाले हाथों से प्रश्न करती है। ‘मुझे मेरा बस्तर कब लौटा रहे हो‘ कविता में कवि का आक्रोश आग उगलता हुआ महसूस होता है। ‘फैसला लेना ही होगा अब‘ सिहांसन से सीधे ही प्रश्न करता है कि ‘वजीरों के वास्ते, प्यादे कटते रहेंगे कब तक‘। जहाँ ‘गौरय्या‘ कविता में कवि ने पक्षी सरंक्षण की बात कही है वहीं ‘आँगन की तुलसी कविता‘ में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और बिगड़ते हुए पर्यावरण पर गहरी चिन्ता जताई है। अपने निजी स्वार्थ के लिए पेड़ों की हत्या करने वाले पत्थर दिलों को आतमचिन्तन के लिए प्रेरित करते हुए कवि लिखते हें कि-
‘‘पेड़ से पूछिए मत! उन्हें देखिए---
फिर--
तुम्हें अपनी जिन्दगी का मकसद,
खुद-ब-खुद मिल जाएगा
और तुम्हारा जीवन,
‘आँगन की तुलसी बन जाएगा।‘‘
समीक्ष्य कृति की पहली ही कविता ‘मैं बस्तर बोल रहा हूँ‘ ही कृति के महत्त्व को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है। यह कविता कवि की निर्भीकता और कविता की ओजस्विता का प्रमाण है। जिसमें कवि अपनी खुली आँख से सब कुछ देखकर और सचेत मस्तिष्क से उस पर चिन्तन कर व्यवस्था की खामियों पर और मनुष्य की स्वार्थी प्रवृतियों पर विद्रोही तेवर अख्तियार कर लिखते हैं कि--
‘‘बरूदों से भरी हैं सड़कें, हरियाली लाली में बदली
नेता, अफसर, सेठ, साहूकार, पुलिस सिपाही और जमींदार
एक थैली के चट्टे-बट्टे, इनकी पोल अब खोल रहा हूँ, हाँ मैं बस्तर बोल रहा हूँ।‘‘
कवि के कवि कर्म के दर्द की पराकाष्ठा इन पंक्तियों में व्यक्त होता है, जब वे लिखते हैं कि ‘मेरी कविता में घायल बस्तर साँस लेता है‘। कवि का दृष्टिकोण हमेशा आशावादी होता है। तभी तो कवि डॉ त्रिपाठी अपने असफलता के भीतर की सफलता को महसूस कर लिखते हैं कि ‘मैं पतझड़ में बसंत, मौन में संवाद, मृत्यु में जीवन और प्रलय में सृष्टि ढुँढने की कोशिश करता हूँ।‘
इस कृति को पढ़कर मुझे भी उम्मीद है कि कवि के इस कृति की प्रेरणा से नई पीढ़ी सजग और सचेत होकर बस्तर के हितों की रक्षा करेगी। बस्तर को लूटने वाले हाथ विफल होंगे। भटके हुए लोगों की मनुष्यता जागेगी और खुशहाल और समृद्ध बस्तर का सपना साकार होगा। उत्तम कृति के लिए कवि को हार्दिक बधाई।
वीरेन्द्र ‘सरल‘ बोड़रा (मगरलोड़) धमतरी (छत्तीसगढ़) birendra.saral@gmail.com
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