गांव के बिछोह ने बनाया शायर-माहीमीत परिंदो संग हर मस्तियां छोड़ आए गांव में हम कितनी हस्तियां छोड़ आए शहर के कुछ समंदर नहीं पार होते हौसले...
गांव के बिछोह ने बनाया शायर-माहीमीत
परिंदो संग हर मस्तियां छोड़ आए
गांव में हम कितनी हस्तियां छोड़ आए
शहर के कुछ समंदर नहीं पार होते
हौसले की जो हम कश्तियां छोड़
आए
अपने
गाँव को एक हस्ती का दर्ज़ा देने वाले यह शायर है माहीमीत।
उन्हें अपने गांव से बेहद प्यार है।
वह कहते हैं कि उनके हरेक शेर ने गाँव की आबोहवा में साँसे ली हैं।
एक तरफ उनकी शायरी में गांव से बिछडने का बेतहाशा सदमा व्याप्त है, तो दूसरी ओर उनकी शायरी से इंसानी जज्बा और जुनूं हासिल होता है। वह इकलौते शायर हैं जिनकी शायरी मंजिल की तलाश में भटकती नहीं है बल्कि हासिलात की पुरजोर बात करती है।
उनके इस शेर की बानगी देखिए -
जिस मंजिल को निकले थे सदियों पहले,
आज जैसे-तैसे मुसाफिर ठिकाने लगे।
प्रस्तुत है माहीमीत से वीनू विनय की बातचीत के मुख्य अंश:-
-शायरी का जुनून कब और कैसे लगा?
-असल में मेरे परिवार का शायरी से कोई ताल्लुकात नहीं है। पिताजी तो खुले खेतों में फसलें उगाते हैं भला उनका शायरी से क्या वास्ता हो सकता हैं? लेकिन मेरा मानना है की जिस आदमी की नियति में बचपन से ही तकलीफ, गर्दिशी और पैसों की तंगी हो उस इंसान की रग में शायरी का लहू बहने लगता है। उसका हरेक मर्म शायरी की भाषा बोलता है। उसका पसीजा हुआ दिल शायरी को महसूस करता है। उसके अंदर खुद-ब-खुद शायरी का जुनून बहने लगता हैं।
-आपकी शायरी की प्रेरणा कौन है?
यही तकलीफ मेरी शायरी की भी प्रेरणा है। मां जब मेरी पढ़ाई के लिए दूसरें के खेतों में अपना पसीना खून की तरह बहाती थी तो शायरी के ख्वाब मेरे इर्द-गिर्द मंडराने लगते थे। कई बार जब वह तीखी धूप में बीमार हो जाती थी तो एक-दो शेर सफीनों पर उभरने लगते थे। पिता जब खदानों में पत्थर तोड़ते थे उस असहनीय तकलीफ की आहट से गजल शाया होने लगती थी। जब घर छोड़कर शाजापुर पढने गया तो मां और पिता के साथ साथ गांव की हर चीज याद आने लगी। यानि शायरी थोड़ी बहुत उम्दा होने लगी। उस समय गाँव का हर जर्रा परिंदे, नीम के रूमानी पेड़, गांव की तंग लेकिन जज्बाती गलियां, आम के दिलकश पेड़, लहूलुहान खेत और गाँव की आबोहवा में पली खूबसूरत लड़कियां। इन्हीं के बिछोह, तिश्नगी और ख्याल ने मुझे शायर ईजात कर दिया। अब उसी गजल के ओर शेर देखिए-
यूं तो इक घर की दहलीज छोड़ी थी हमने
लगता है अब कई बस्तियां छोड़ आए
उलझनों की ये शब अब नहीं बिताई जाती
आम की छांव तले निंदिया छोड़ आए
अब कोई दिल को अच्छा नहीं जंचता है
जब से वादे की एक बिंदिया छोड़ आए
-पहला शेर कब कहा था? सुना है आपको रंगमंच से भी बेहद प्यार हैं।
-मेरे जिदंगी के दो अहम हिस्से है शायरी और थियेटर। जहां थियेटर मेरी रूह है तो शायरी मोहब्बत। आठ साल की उम्र से मैंने छोटी-मोटी नज्म लिखना शुरू किया था। जबकि ११ साल की उम्र में मैंने पहला नाटक किया था। यह एक हास्य नाटक था। जिसमें एक देहाती पहली बार रेल का सफर करता है और स्टेशन मास्टर से अजीबोंगरीब सवाल पूछता है। इसमें मैंने देहाती की भूमिका निभाई थी। यह नाटक सैकंड नंबर पर रहा था। लेकिन मुझे बहुत दुःख हुआ था कि आखिर यह नाटक दूसरे नंबर पर क्यों रहा पहले नंबर क्यों नहीं आया। इस नाटक को दर्शकों की भरपूर दाद मिली थी। इसी दौरान मैंने कुछ शायरी कही। मेरी पहली गजल का मतला कुछ इस कदर था-सागर भर जाए इतना न रुलाना, आ जाओ न लेकर कोई बहाना।
-सुना है आपने बेहद संघर्ष किया हैं?
-पिताजी के पास खेती-बाड़ी बहुत ज्यादा थी नहीं। दो चार बीघा जमीं में से इतना अनाज भी नहीं निकलता था की ठीक से साल भर का चार लोगों का पेट भर सके। ऊपर से मेरी और छोटे भाई की पढ़ाई का खर्च। इसी के चलते जब 2006 में अपने हाई सेकंडरी की एग्जाम पास कर ली तो कॉलेज की फीस जमा करना मुश्किल था। इसके चलते रोजगार की तलाश में इंदौर आया। लेकिन यहाँ कई दिनों की तलाश के बाद भी कोई रोजगार नहीं मिला। एक दिन जब दीवारों प्राइवेट कोचिंग क्लास के लगे पोस्टर देखे। पोस्टर पर पता देख कर काम के लिए उनके ऑफिस जा पहुंचा। उन्होंने जब पूछा कैसे लगाओगे तो रेट तो पता नहीं था सो मन से कह दिया 60 पैसा प्रति पोस्टर लूंगा। एक पल उन्होंने मुझे हैरानी से देखा। मुझे लगा शायद मैंने ज्यादा रेट बता दिया। लेकिन वह सज्जन बढ़े ईमानदार थे। उन्होंने मुझे एक प्रति पोस्टर एक रुपए दिया। इसके चलते पढ़ाई छोड़ दीवारों पर पोस्टर लगाना शुरू किया। उन दिनों जिस दिन काम नहीं होता था तो भूखे ही सोना पड़ता था। कई बार तो बस स्टैंड और रेल्वे स्टेशन की दीवारों पर पोस्टर लगाते हुए पुलिस के डंडे खाए। कई मर्तबा लोगों तंज सुने।
-कभी संघर्ष से हताश नहीं हुए?
-कभी नहीं। हालांकि उन दिनों की स्थिति बताना बेहद मुश्किल काम हैं। एक एक रूपये के मोहताज थे। लेकिन मुझे नीरज की हमेशा एक बात याद रही की संघर्ष के दिनों में लिखी गई उनकी रचनाएँ ही सर्वश्रेष्ठ हैं। इस हौसला मिलता रहा। इस तरह 2006 के बाद के सात आठ साल गरीबी और अवसाद में बीते। लेकिन इन्हीं दिनों ने मुझे बहुत सिखाया। आज में जो कुछ हूँ इन्हीं दिनों की वजह से हूँ।
-आपकी शायरी में रोमांस एक अलग अहसास देता है। लेकिन आपने कभी अपनी प्रेमिका का जिक्र नहीं किया।
- एक शेर देखिए- पैरहन सुखाने छत पे न आया करो, आते जो तेरी गली भर नजर जाते है। असल में मैंने शुरूआत में अपने गांव और मिट्टी वियोग में शायरी कही। बाद में युवा मन के दागदार किस्सों से बेहद आत्मीयता और लगाव हुआ तो कुछ अजीब किस्म की शायरी जन्म लेने लगी। मैं गहरी सोच में पढ़ गया कि आखिर शायरी में यह परिवर्तन क्यों है। इसके बाद के कुछ शेर देखिए किस तरह का परिवर्तन मेरी शायरी में आया-
यार तेरे मोहल्ले कि लड़की जमाली हूर लगती हैं
जरा दो-चार बात तो करादे
कि उससे दो चार गुफ्तगू हो जाएं
तो सदियों से ठहरी
मेरी इक नज्म में रवानी आ जाये।
-किन शायरों के आप मुरीद रहे है।
-मुझे दुष्यंत, फैज, अदम गोंडवी और मजाज को पढ़ना अच्छा लगता है। गालिब का अंदाजे बयां भी मुझे पसंद आता है। आज के शायरों में बशीर बद्र को कई बार पढ़ा है। लेकिन ऐसा नहीं कि मैं शायरी करता हूं तो सिर्फ शायरी ही पढूं। मुझे सआदत हसन मंटो, प्रेमचंद, अमृता प्रीतम की कहानियां बेहद भाती है। विदेशी साहित्यकारों में विलियम शेक्सपीयर, चेखव, गाब्रिएल गार्सिया मार्केज सहित कई साहित्कारों को पढ़ना अच्छा लगता है। पाब्लो नेरुदा की कविताएं बेहद लुभाती हैं।
-आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि क्या रही है?
-मेरा परिवार विशुद्ध किसान परिवार हैं। दो वक्त की रोटी कमाते है और खुश रहते है। मेरे पिताजी सहित चार भाई थे। शायरी और थिएटर से उनका दूर दूर तक वास्ता नहीं था। अचानक कैसे ये उर्दू अदब का शौक चढ़ गया। हमारी थोड़ी बहुत खेतीबाड़ी है उसी में अपना गुजारा करते हैं। उर्दू जबान से भी कोई सरोकार नहीं था। मेरे नानाजी उस समय हेडमास्टर थे। एक बार जब घर के आँगन में ही लंगड़ी दौड़ में मैंने सो से ज्यादा राउंड लगाये। नानाजी ने कहा तुमने दो किलोमीटर पूरा कर लिया। मैं सुनकर हैरान था। उसी दिन से मैंने ठान लिया था की में कुछ अलग काम कर सकता हूँ। सच बताऊँ उन दिनों परिवार की बहुत दयनीय स्थिति थी। उस स्थिति से मैं उभर नहीं पाता अगर शायरी से वाबस्ता न होता।
-ऐसा नहीं लगता की आज स्तरहीन शायरी ज्यादा लिखी जा रही हैं।
-देखिए ऐसा नहीं है कि स्तरहीन शायरी सिर्फ इसी दौर में हो रही है। शायरी जब तक लिखी जाएगी उसकी गुणवत्ता और स्तरहीनता दोनों की बात होती रहेगी। एक बात जरूर है कि आज शायरी की स्तरहीनता थोड़ी बढ़ी है। इसका एक ही कारण हमारी संवेदना का मरना। शायर बेहद संवेदनशील इंसान होता है। जब समाज से संवेदनशीलता मरेगी तो बेहतर शायरी कैसे होगी।
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