(गोवर्धन यादव) वक्रतुंडा महाकाय सूर्यकोटि समप्रभा , निर्विघ्नम कुरु मे देवा सर्व कार्येशु सर्वदा श्री गणेशजी हिन्दुओं के प्रथम पूज्य देव...
(गोवर्धन यादव) वक्रतुंडा महाकाय सूर्यकोटि समप्रभा, निर्विघ्नम कुरु मे देवा सर्व कार्येशु सर्वदा
श्री गणेशजी हिन्दुओं के प्रथम पूज्य देवता हैं. हिन्दुओं के घर में चाहे जैसी पूजा या क्रियाकर्म हो, सर्वप्रथम श्री गणॆशजी का आवाहन और पूजन किया जाता है. शुभ कार्यों में श्री गणेशजी कि स्तुति का अत्यन्त महत्व माना गया है. गणेशजी विघ्नों को दूर करने वाले देवता है. इनका मुख हाथी का, उदर लम्बा और शेष शरीर मनुष्य के समान है.
सिर किसी जानवर का और शरीर आदमी का, देखकर आश्चर्य होना स्वभाविक है. इस विचित्र संयोग के पीछॆ एक कहानी भी आ जुडती है.
एक समय की बात है. माता पार्वती स्नान करने के लिए जाने वाली थी. स्नानघर में प्रवेश करने से पूर्व उन्होंने अपने पुत्र से कहा कि वह प्रवेश-द्वार पर बैठकर इस बात की निगरानी करे कि कोई भी अन्दर प्रवेश न कर पाए. अपनी माता की आज्ञा शिरोधार्य कर वे एक स्थान पर बैठ गए. उसी समय उनके पिता शंकरजी का आगमन हुआ. वे अन्दर प्रवेश करें, उससे पूर्व ही उस बालक ने उन्हें अन्दर प्रवेश करने से रोक दिया. शंकरजी ने इसमें अपना अपमान माना और दोनों के मध्य अघोषित युद्ध छिड गया. अन्त में श्रीशंकर ने अपने त्रिशूल से उस बालक की गर्दन धड से अलग कर दी. माता पार्वतीजी जैसे ही स्नानघर से बाहर निकली, अपने पुत्र को निर्जीव देख वे विलाप करने लगी और अपने पति को भला-बुरा कहने लगी और उसे पुनः जीवित करने की प्रार्थणा करने लगी.
शंकरजी ने अपने गणॊं को बुलाकर आज्ञा दी कि वे शीघ्रता से जायें और तुरन्त जन्म लिए किसी मानव का सिर लेकर आयें. गण यहाँ-वहाँ चक्कर लगाता रहा लेकिन वह अपने प्रयास में सफ़ल नहीं हो पाया. खाली हाथ लौटकर जाने के भीषण अपराध की क्या सजा हो सकती थी, वह भलि-भांति जानता था. संयोग से उसी समय एक हथिनी को प्रसव हुआ. उसने तत्काल उस शिशु हाथी का सिर काट लिया और भगवान शंकर के समक्ष आ उपस्थित हुआ.
भगवान शंकर ने तत्काल उस मृत बालक के सिर की जगह हाथी का सिर लगा दिया. उनसे आशीर्वाद पा वह बालक जी उठा. उस बालक का नाम श्री गणेश रखा गया. अपने पुत्र को जीवित पा माता पार्वती अत्यन्त ही प्रसन्न हुई.
संभवतः यह संसार यह पहला सफ़ल प्रयोग( आपरेशन) था जब किसी मानव के शरीर से किसी जानवर के शरीर के किसी अंग का प्रत्यारोपन किया गया था. यह प्रसंग इस बात का संकेत देता है कि उस समय मेडिकल साईंस में भारत कितना सिद्धहस्त रहा होगा.
श्री गणेशजी बारह नामों से याद किए जाते हैं. तथा= वक्रतुण्ड, एकदंत, कृष्णपिङ्गाक्ष गजवक्त्र, लम्बोदर, विकटमेव, विघ्नराजेन्द्र धूम्रवर्णं, भालचन्द्र विनायक, गणपतिं, एवं गजानन. नारद स्तोत्र के अनुसार इन नामों का त्रिसंध्या में जाप करने मात्र से मनुष्य के सभी विध्न दूर हो जाते हैं, और सारे मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं,. विध्यार्थी को विध्या की प्राप्ति, धनार्थी को धन की, पुत्रार्थी को पुत्र तथा मोक्षार्थी को मोक्ष की प्राप्ति होती है.
श्री गणेशजी को एकदंत कहा जाता है. इससे एक कथा जुडी है, वह इस प्रकार से है. एक समय की बात है कि परशुरामजी ने इस पृथ्वीतल से समस्त क्षत्रियों का समूल नाश करने के पश्चात अपने गुरु श्रीशंकरजी से मिलने कैलाश जा पहुँचे. किसी बात को लेकर परशुराम और गणेशजी के बीच युद्ध होने लगा. इस युद्ध में परशुराम ने अपना फ़्ररसा गणेश जी पर चला दिया,जिससे उनका एक दांत टूट गया. उस समय से उनका नाम एकदंत पडा. इसी तरह उनके बारह नामों से जुडी अलग-अलग कथाएं पढने को मिलती हैं.
श्री गणेशजी प्रथम पुज्य देवता हैं. हिन्दुओं के घर में चाहे जैसी पूजा या क्रियाकर्म हो, सर्वप्रथम श्री गणेशजी का आवाहान और पूजन किया जाता है. इसके पीछे भी एक कथा प्रचलित है. वह इस प्रकार से है. भगवान श्री शंकरजी और माता पार्वतीजी ने अपने दोनों पुत्र श्री गणेश एवं कार्तिकेय से कहा कि तुम दोनों में से जो संपूर्ण पृथ्वी का चक्कर लगाकर पहले आ जाएगा, इसकी सर्वप्रथम पूजा की जाएगी. कार्तिकेय का वाहन मोर था. वे उस पर सवार होकर पृथ्वी का चक्कर लगाने के लिए निकल पडॆ. श्री गणेश अपने स्थान पर ही रुके रहे. जब उनसे यह पूछा गया कि वे किस कारण से रुके हुए हैं, जबकि तुम्हारे भाई तो काफ़ी समय पूर्व इस कार्य को करने के लिए प्रस्थान कर चुके हैं. तब श्री गणेशजी ने कोई जवाब न देते हुए अपने माता-पिता के सात चक्कर लगाए और उनके समक्ष हाथ जोडकर खडॆ हो गए और अत्यंत ही विनीत भाव से उन्होंने कहा कि पृथ्वी ही क्या, वे समस्त ब्रह्माण्ड के सात चक्कर लगा चुके हैं. इस कथा से उस मर्म को समझा जा सकता है कि कोई भी मनुष्य यदि अपने माता-पिता की पूजा-अर्चना/सेवा-शुश्रुषा करता है, तो उसके लिए संसार की सारी वस्तुएं सहज में ही उपलब्ध हो जाती है. उन्हें और दूसरे अन्य उपाय खोजने की आवश्यकता नहीं पडती. शायद यही कारण था कि भगवान आशुतोष और माता पार्वतीजी ने उन्हें प्रथम पूज्य होने का वरदान तत्काल ही दे दिया था. उस समय से श्री गणेशजी की पूजा-वंदना सर्वप्रथम की जाती है.
श्रीगणेशजी की मूर्ति अथवा चित्र को ध्यान से देखें. उनके सूपे से लंबे कान हैं. बडॆ कान इसीलिए है कि वे सारे भक्तों की बात सुन सकें. उनकी लंबी सी सूंड है. लंबी सूंड से अभीप्राय यह है कि उनकी घ्राण शक्ति काफ़ी महबूत है और हर चीज पकड के अन्दर है. उनके चेहरे पर ध्यान टिकाएँ. शांत और प्रसन्नचित दिखलायी देते हैं. उनको लंबोदर कहते हैं. माने उनका बडा सा पेट है. बडॆ से पॆट के तात्पर्य यह है कि उनमे सभी बातों को उदर्स्थ कर लेने की अद्भुत क्षमता हैं. उनके चार हाथ हैं. चार होने का अर्थ यह है कि वे कई-कई काम एक साथ बिना थके कर सकते हैं. शायद आप सभी ने पढा होगा कि महाभारत लिख चुके वेदव्यासजी के शरीर को व्याधियों ने घेर लिया था. तब उन्हें सलाह देते हुए नारदजी ने कहा था कि इससे छुटकारा आने के लिए आपको भागवत की रचना करनी चाहिए. श्री विष्णु के चरित्र को लिखने के बाद ही आप शांति पा सकेंगे. तब महर्षि ने लिखने से पहले एक विचित्र शर्त रख दी कि द्रुतगति से लिखने वाला और बिना टोका-टाकी किए हुए लिखते रहने वाले ऎसे व्यक्ति की तलाश की जाए,तो वे भाग्वत लिखवा सकेंगे. तब श्री गणेशजी को यह काम सौंपा गया था. महर्षि बिना रुके बोलते जाते थे और श्री गणेश उसे तत्काल लिख डालते थे. इससे स्पष्ट हो जाता है कि वे कुशाग्र बुद्धि के भी देवता थे. उनमे सहनशक्ति भी गजब की थी. उनके एक हाथ में उनका प्रिय मोदक भी है. मोदक का अर्थ होता है वह वस्तु जो मीठी हो और खाने के बाद प्रसन्नता से भर दे. उनके दो हाथों में परस है. परस माने वह पाश जिससे वे अपने शत्रु को बांध सकते हैं..इतने सारे गुणॊ से भरपूर हमारे श्री गणेशजी हैं. निश्चित ही उनके पूजने वालों में भी इन दिव्य गुणॊं का होना नितांत आवश्यक है. यदि ऎसा नहीं है तो फ़िर उनके पूजन का ,उनके गुणाणुवाद गाने का कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा.
( श्री बालगंगाधर तिलक-23 जुलाई 1856- 1 अगस्त 1920)
श्री गणेशजी के इन्ही दिव्य गुणॊं को आत्मसात करने के बाद महामना बालगंगाधर तिलक ने उन्हें अपना इष्ट माना और आजादी के संग्राम को धारदार बनाने के लिए श्री गणेशजी का आव्हान किया और सार्वजनिक गणेशोत्सव के माध्यम से स्वतंत्रता के दीवानों को एक छत के नीचे इकठ्ठा करना शुरु किया. उन्होंने इसी वक्त हूंकार भरते हुए कहा था कि “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है”
इसी माह की भाद्र पद सुदी 4 अर्थात 29 अगस्त 2014 को श्रीगणेशजी की पूरे देश में स्थापना की जाएगी. स्थापना की जाए, यह अत्यंत ही खुशी की बात है, लेकिन हमारा-आपका उद्देश्य क्या होना चाहिए,? क्या उसके पीछे बाल गंगाधरजी वाला कोई संकल्प/उद्देश्य होगा या फ़िर केवल स्थापना और शेष दिन केवल आरती/भजन/पूजन और लाउडस्पिकर का शोर शराबा जिसके माध्यम से चीखते गलाफ़ाड भोंडॆ गाने गूंजते रहेंगे?
देश की वर्तमान स्थिति से भला कौन परिचित नहीं हैं?. सभी जानते हैं कि देश इस समय दोहरे संकट की घडी पर खडा है. हमारे पडौसी ने अघोषित युद्ध छॆड रखा है. वह दिन-रात गोले बरसा रहा है. LOC पर रहने वाले भयाक्रांत हो घर-बार छॊडकर पलायन करने में मजबूर हो चले हैं. आए दिन हमारे सैनिक और निर्दोष नागरिक मारे जा रहे हैं. दूसरी ओर, दूसरा पडौसी (ड्रैगन) भारतीय सीमा का उल्लंघन कर अपनी सीमा का विस्तार कर रहा है.
इस दोहरे संकट के चलते एक नया राष्ट्रीय संकट भी हमारे सामने, सुरसा की तरह मुँह बांए आन खडा हुआ है कि हमारे अपने ही लोग, अपने ही पास-पडौस में रहने वाली युवतियों का जीना हराम किए दे रहे हैं. ऎसा करने वालों को न तो समाज का डर सताता है और न ही किसी कानून का. नेता लोग आए दिन विवादित बयान दे रहे हैं, जिससे जनाक्रोश और बढ जाता है. बजाय हल खोजे जाने के बात-बात पर वाद-विवाद और, एक दूसरे पर आरोप-प्रयारोप लगाने में समय की बर्बादी हो रही है.
मित्रों---बडी कठिन और आक्रातंक घडी में विघ्नविनाशक श्री गणेशजी विराजित होने वाले हैं. इन विषम परिस्थियों में हमारा क्या दायित्व होगा? हम क्या कर सकते हैं? इन आसन्न कठिनाइयों के चलते हम समाज को अथवा सरकार को क्या योगदान दे सकते है? उस परमशक्तिवान से हम क्या मांगना चाहेंगे? हम केवल और केवल अपने लिए ही कुछ मांगेगे अथवा अपने आसपास पडौस के लिए भी मांगेंगे? जो लोग अपने पडौस में गंदा खेल खेल रहे हैं, उनको सदाबुद्धि आए, ऎसे कौन-कौन से वर हम उनसे मागेंगे? अथवा उनकी प्रतिमा को भिन्न-भिन्न कार्टून की शकल देकर उनका मखौल उडाएंगे? इन तमाम प्रश्नों को राजनीति के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए. आज जो कुछ भी घटित हो रहा है, उससे हम शर्मसार ही हुए हैं. तो क्या इसका सम्मानजनक हल हम सब मिलकर नहीं निकालेंगे तो फ़िर कौन निकालेगा?. एक ओर जब हम गर्व से कहते हैं कि भारत देश हमारा है, तो क्या हमारा –आपका-सबका यह दायित्व नहीं बनता कि इन समस्याओं का हल सर्व सम्मति ने निकाला जाना चाहिए, क्योंकि सारी बातें देश की प्रतिष्ठा और सम्मान से जूडी हैं.
इन तमाम तरह की कठिनाइयों से/ इन तमाम तरह के उलझे प्रश्नों की लडी आपको सौंपते हुए समाधानकारक उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी. इसके उत्तर मुझे नहीं देने हैं ,बल्कि अपने आपसे इन ज्वलंत प्रश्नों के उत्तर खोजने होंगे समाधानकारक हल निकालना आपका-हमारा सभी का उत्तरदायित्व है. आज देश आपसे इन प्रश्नों के उत्तर मांग रहा है. मुझे आशा ही नहीं वरन पूरा विश्वास है कि आप इन प्रश्नों के उत्तर खोज निकालेंगे अथवा अपने विघ्नहर्ता श्री गणेशजी के चरणॊं में बैठकर उन्हीं से सारी समस्याओं के समाधानकारक हल प्राप्त करने होंगे.
103,कावेरीनगर,छिन्दवाडा(म.प्र.) 480001 (गोवर्धन यादव)
सुन्दर ग्यानवर्द्धक आलेख 1 आभार 1
जवाब देंहटाएंexcellent presentation!
जवाब देंहटाएंज्ञान वर्धक लेख |
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सामयिक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंगणेशोत्सव की हार्दिक शुभकामनायें।
बढ़िया है।
जवाब देंहटाएं