संदर्भः- सवौच्च न्यायालय के न्यायाधीश एआर दवे का कथन- कर्म का संदेश देती है गीता प्रमोद भार्गव सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश ए.आर....
संदर्भः- सवौच्च न्यायालय के न्यायाधीश एआर दवे का कथन-
कर्म का संदेश देती है गीता
प्रमोद भार्गव
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश ए.आर. दवे ने कहा है कि, ''यदि मैं भारत का तानाशाह होता, तो कक्षा एक से गीता और महाभारत की शिक्षा अनिवार्य कर देता। क्योंकि ये ग्रंथ आपको जीवन जीने का तरीका सिखाते हैं। यह कहते हुए, मुझे इस बात की कोई परवाह नहीं है कि कोई मुझे धर्मनिरपेक्ष मानता है अथवा नहीं।'' इस कड़ी में मध्यप्रदेश के शालेय शिक्षा राज्यमंत्री दीपक जोशी ने भी पाठ्यक्रम में जीवन की मर्यादित सीख देने वाले राम, कृष्ण और इस्लाम धर्म में जो सीखने लायक बातें हैं उन्हें भी पाठ्यक्रम में जोड़ने की बात कही है। विरोध में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने कहा है कि ''दवे का बयान, अनुचित और अनाधिकृत है। यह संविधान में उल्लेखित लोकतंत्र के मूलभूत संवैधानिक धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के विरूद्ध है।' हालांकि संविधान में व्यक्त न तो धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा स्पष्ट है और न ही उच्चतम न्यायालयों के विभिन्न न्यायाधीशों द्वारा धर्म निरपेक्षता की गई व्याख्याओं में एकरूपता है। इसलिए गीता या रामायण के अंशों को पाठशालाओं में जब पढ़ाए जाने की पहल की जाती है तो तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी सेक्युलरिज्म की ओट में विरोध करने लग जाते हैं। क्योंकि यह बहुसंख्यक किंतु अदारवादी हिंदू धर्माविलंबियों के ग्रंथ है।
दूसरी तरफ अल्पसंख्यकों के शिक्षा संस्थानों में कुरान की आयतें पढ़ाएं या बाईबिल के संदेश अथवा अन्य मध्ययुगीन मजहबी किताबें पढ़ाई जाती रहें वामपंथियों को कोई आपत्ति नहीं होती। जबकि श्रीमद्भगवत गीता दुनिया का एक मात्र ऐसा ग्रंथ है, जिसकी रचना महाभारत युद्ध के दौरान एक विशेष कालखंड में राष्ट्रीयता, नैतिकता और मानवता के चरम तत्वों की प्राप्ती के लिए हुई थी। गोया यह मानव संघर्ष के बीच रचा गया संघर्ष-शास्त्र भी है। आज दुनिया आतंकवाद के संक्रमण काल से गुजर रही हैं, ऐसे में गीता का संदेश कर्म और उदात्त तत्वों को ग्रहण करने का एक श्रेष्ठ माध्यम बन सकता है, लिहाजा गीता को पाठ्यक्रम में शामिल करने की पहल पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है, न कि छद्म धर्मनिरपेक्षता के बहाने नकारने की ?
कर्नाटक और मध्यप्रदेश की शालेय शिक्षा में जब गीता के अंश पढ़ाने की बात उठी तो विरोध हुआ और पाठ पढ़ाने की कोशिशें धरी रह गई थीं। लेकिन जब इसी श्रीमद् भगवत गीता पर रूस में साइबेरिया प्रांत के शहर टोमस्क में चरमपंथियों ने प्रतिबंध लगाने की बात उठाई तो दुनिया के समूचे हिंदु प्रतिबंध के विरोध में उठ खड़े हुए। भारतीय संसद एकजुट होकर गीता के पक्ष में खड़ी हो गई। दारूल उलूम देवबंद के कुलपति मौलाना अबुल कासिम नेमानी ने सार्वजनिक बयान दिया, 'गीता को चरमपंथी साहित्य कहा जाना आधारहीन है और इस मामले में भारत के मुसलमानों को भी रूस के खिलाफ आवाज बुलंद करनी चाहिए।'' भारत स्थित तत्कालीन रूसी राजदूत ने तो ऐसी कोशिश करने वालों को 'पागल' करार दिया था। यही नहीं राजदूत ने इसे भारत और विश्व के लोगों के लिए ज्ञान का सर्वश्रेष्ठ स्त्रोत बताया था। यह प्रतिबंध इस्कॉन (इंटरनेशनल सोसायटी फॉर कृष्ण कांशसनेश) के संस्थापक स्वामी प्रभुपाद द्वारा लिखित गीता के अंग्रेजी भाष्य 'भगवद् गीता एज इट इज' को उग्रवादी साहित्य कहकर न्यायालय में याचिका लगाकर की गई थी। इस्कॉन समूह और गीता की बढ़ती लोकप्रियता से रूस का ऑर्थोडॉक्स चर्च परेशान व विचलित हो गया था। इसके ही इशारे पर टोमस्क की अदालत में लोक अभियोजक ने गीता को चरमपंथी पुस्तक बताया और अदालत ने बिना सोच-विचार किए कानूनी प्रक्रिया आगे बढ़ा दी। किंतु जब समूचे भारत ने प्रतिबंध के विरोध में एकजुटता दिखाई तो रूसी सरकार को कहना पड़ा कि वह रूस स्थित अल्पसंख्यक समुदाय के ग्रंथ गीता के प्रचार-प्रसार पर अंकुश नहीं लगा सकती। विवाद तो कुछ दिनों में थम गया। किंतु इस घटना ने यह तो जता ही दिया कि रूस में धार्मिक कट्टरपंथ बढ़ रहा है। यह विडंबना ही है कि सोवियत संघ के वर्चस्व के दौरान धर्म व आस्था की स्वतंत्रता की छूट की वकालत करने वाला चर्च आज अन्य मतावलंबियों को ऐसी स्वतंत्रता देने को तैयार नहीं है। जबकि धार्मिक भाषायी या अन्य अल्पसंख्यकों के अपने ढंग से जीने और अपने मत का प्रचार करने का अधिकार आज दुनिया भर में सर्वस्वीकृत मानवाधिकार है। फिर गीता तो वैसे भी धार्मिक ग्रंथ से कहीं ज्यादा, एक ऐसा दार्शनिक ग्रंथ है, जो व्यक्ति की अंतर्चेतना में कर्म और कर्तव्य का बोध जाग्रत करता है।
प्रत्यक्षतः दुनिया शांति और स्थिरता की बात करती है। लेकिन शासकों के पूर्वाग्रह, अंतर्द्वद्व, आधुनिक विकास और सत्ता की प्रतिस्पर्धा ऐसी महत्वाकांक्षाएं जगाते हैं कि दुनिया कहीं ठहर न जाए इसलिए भीतर ही भीतर धर्म, संप्रदाय, जाति और नस्ल के भेद के आधार पर सुलगाए रखने का काम भी यही लोग करते हैं। परिणामस्वरूप दुनिया में संघर्ष और टकराव उभरते रहे हैं। टकराव के एक ऐसे ही कालखंड में कर्मयोगी श्री कृष्ण के मुख से अर्जुन को कर्तव्यपालन के प्रति आगाह करने के लिए गीता का सृजन हुआ। इसीलिए इसे संघर्ष शास्त्र भी कहा गया है। गीता का संदेश है, उठो और चुनौतियों के विरूद्ध लड़ो। क्योंकि अर्जुन अपने परिजनों, गुरूजनों और मित्रों का संहार नहीं करना चाहते थे। वे युद्ध से विमुख हो रहे थे। यदि इस मानव-संघर्ष में अर्जुन धनुष-बाण धरा पर धर देते तो सत्ताधारी कौरव जिस अनैतिकता व अराजकता के चरम पर थे, वह जड़ता टूटती नहीं। यथास्थिति बनी रहती है। परंपरा में चले आ रहे तमाम ऐसे तत्व शामिल होते हैं, जो वाकई अप्रासंगिक हो चुके होते हैं। मूल्य परिवर्तनशील समय में शाश्वत बने रहें, इसलिए परंपरा में परिवर्तन जरूरी है। गीता में बदलाव के आवश्यक कर्म की ही व्याख्या की गई है। इसीलिए यह युगांतरकारी ग्रंथ है।
दुनिया के प्रमुख ग्रंथों में गीता ही एक ऐसा ग्रंथ है, जिसका अध्ययन व्यक्ति में सकारात्मक सोच के विस्तार के साथ उसका बौद्धिक दायरा व्यापक करता है। इसीलिए गीता के अबतक विभिन्न लोग एक सौ से भी ज्यादा भाष्य लिख चुके हैं। अन्य धर्म-ग्रंथों की तो व्याख्या ही निषेध है। हालांकि कोई धर्म ग्रंथ चाहे वह किसी भी धार्मिक समुदाय का हो, दुनिया के सभी देशों के बीच उनका सम्मान करने की एक अघोषित सहमति होती है। गीता विलक्षण इसलिए है, क्योंकि यह सनातन धर्मावलंबियों का आध्यात्मिक ग्रंथ होने के साथ दार्शनिक ग्रंथ भी है। इसमें मानवीय प्रबंधन के साथ समस्त जीव-जगत व जड़-चेतन को एक कुटुंब के रूप में देखा गया है और उनकी रक्षा की पैरवी की गई है। इसीलिए भारतीय प्रबंधकीय शिक्षा में भगवान श्री कृष्ण के उपदेश और गीता के सार को स्वीकार किया गया है। जब प्रबंधन की शिक्षा गीता के अध्ययन से दिलाई जा सकती है, तो प्राथमिक शिक्षा में गीता का पाठ क्यों शामिल नहीं किया जा सकता ? जबकि ईसाई मिशनरियों और इस्लामी मदरसों में धर्म के पाठ, धार्मिक प्रतीक चिन्हों के साथ खूब पढ़ाए जाते हैं।
गीता ज्ञान की जिज्ञासा जगाने वाला ग्रंथ है। इसीलिए प्राचीन दर्शन परंपरा के विकास में इसकी अहम् भूमिका रही है। आदि शंकराचार्य से लेकर संत ज्ञानेश्वर, महर्षि अरविंद, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, विनोवा भावे, डॉ. राधाकृष्णन, ओशो और प्रभुपाद जैसे अनेक मनीषी-चिंतकों ने गीता की युगानुरूप मीमांसा करते हुए नई चिंतन परंपराओं के बीच नए तत्वों की खोजें की हैं। यही नहीं मुगल बादशाह अकबर के बेटे दाराशिकोह और महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन तक को एकेश्वरवाद पर आधारित इस ग्रंथ ने भीतर तक प्रभावित किया है। दाराशिकोह ने गीता का फारसी भाषा में अनुवाद भी किया था। विश्वप्रसिद्ध समाजशास्त्री मैक्स बेबर ने गीता को नैतिक राजनीति का ज्ञान देने वाला विश्व में एक मात्र. ग्रंथ बताया था। तय है, व्यक्ति और समाज की रचनात्मकता में गीता का अतुलनीय योगदान रहा है। कालजयी नायकों में गीता के स्वाध्याय से उदात्त गुणों की स्थापना हुई है। इसीलिए ये महापुरूष कर्म की श्रेष्ठता को प्राप्त हुए।
हमारे यहां विडंबना बौद्धिक दयनीयता व विपन्नता की है। जब भी प्राचीन भारतीय साहित्य, ज्ञान परंपरा या रामायण, महाभारत, उपनिषद व पुराणों में दर्ज शाश्वत मूल्यों को पाठ्यक्रमों में शामिल करने की बात उठती है तो कथित बौद्धिकों की एक जमात इन जीवन-मूल्यों को आधारहीन व अवैज्ञानिक ठहराने में जुट जाती है। जबकि भारतीय ज्ञान परंपराएं स्थानीयता से जुड़ी होने के कारण व्यावहारिक हैं। हां, बदलते समय के अनुसार थोड़ा उन्हें परिष्कृत करके युगानुरूप ढालने की जरूरत है। ब्रिटिशकाल में ग्रियर्सन जैसे उदारवादी विद्वान ने तुलसी साहित्य का एक आंशिक पाठ्यक्रम तैयार किया और इसे कक्षाओं में पढाया भी। लेकिन कालांतर में मैकाले ने जब शिक्षा की कमान संभाली तो उसने इस पाठ को हटवा दिया।
गीता तो वैसे भी वेद, वेदांत से भी आगे के विकास की कड़ी है। क्योंकि वह यथास्थिति यानी जड़ता को तोड़ने का संदेश देती है। गीता के उपदेश में बदलाव के महत्व की समझ है। उसमें परिस्थितियों से जूझने का संदेश है, जो चरित्र में कर्म की प्रधानता निरूपित करता है। गीता युद्ध-ग्रंथ है, इसलिए उसमें कर्मकाण्ड कहीं नहीं है। कालांतर में सनातन धर्म में कर्मकांड की उपस्थिति ने व्यक्ति को धर्मभीरू बनाने का काम किया और धर्मभीरूता व कर्मकाण्डी पाखंड के विस्तार ने ही हिंदुओं के पराजय का मार्ग खोला। नतीजतन विदेशी हमलावरों की तो छोड़िए अंग्रेज व्यापारियों ने भी हिंदुओं को सरलता से गुलाम बना लिया। ऐसे में न्यायमूर्ति एआर दवे यदि देश के स्वाभिमान जागरण के लिए रामायण, महाभारत के अंशों को पाठ्यक्रम में शामिल करने की बात कर रहे हैं तो उनके इस साहसिक कथन को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। भारतीय समाज की धर्मभीरूता दूर करने में गीता अह्म भूमिका का निर्वाह कर सकती है। क्योंकि धर्मनिरपेक्षता तो एक छद्म विवादित व विरोधाभासी सिद्धांत है, जो चरित्र में मूल्यों का सृजन करने की बजाय, धर्म समुदायों को संप्रदायिक आधार पर कट्टर बनाकर दूरियां बढ़ाने का काम कर रहा है।
प्रमोद भार्गव
लेखक/पत्रकार
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
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फोन 07492 232007
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है।
सार्थक आलेख ।
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