सोलह आने सोलह लोग. (समीक्षक - गोवर्धन यादव) प्रख्यात साहित्यकार एवं कुशल प्रशासक श्री कृष्णकुमार यादव का यह सातवाँ संग्रह “ 16 आने 16 लो...
सोलह आने सोलह लोग.
(समीक्षक - गोवर्धन यादव)
प्रख्यात साहित्यकार एवं कुशल प्रशासक श्री कृष्णकुमार यादव का यह सातवाँ संग्रह “ 16 आने 16 लोग “ जिसका प्रकाशन “हिन्द युग्म” नयी दिल्ली द्वारा किया गया है, इससे पूर्व आपके अन्य संग्रह- “ अभिलाषा”( काव्य-संग्रह),” अभिव्यक्ति के बहाने व अनुभूतियाँ और विमर्श(निबंध-संग्रह), India Post;150 Glorious Years, क्रांति-यज्ञ;1857-1947 की गाथा, जंगल में क्रिकेट (बालगीत-संग्रह) व्यक्तित्व-कृतित्व पर एक पुस्तक “बढते चरण शिखर की ओर(सं.दुर्गाचरण मिश्र) प्रकाशित हो चुके हैं.
“सोलह आने सोलह लोग” में आपने देश के मुर्धन्य साहित्यकारों का चुनाव कर आपने उनकी जीवनी पर विस्तार से प्रकाश डाला है और अपनी विद्वतापूर्ण कसी हुई लेखनी का परिचय दिया है. मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के सभी माननीय सदस्यों की ओर से तथा यहाँ के प्रबुद्ध साहित्यकारों की ओर से आपको साधुवाद-धन्यवाद ज्ञापित करते हैं.
निःसंदेह यह संग्रह उन तमाम जिज्ञासुओं का मार्ग प्रशस्त करेगा ,जो उस साहित्यकार के बारें में विस्तार से अब तक नहीं जान पाया था, जान सकेगा और अपने ज्ञान में श्रीवृद्धि कर सकेगा.
काफ़ी सोचने और विचार करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि संग्रह में वर्णित उन तमाम प्रख्यात साहित्यकारों के बारे में, देश के अन्य विद्वान साहित्यकारों ने क्या कुछ सोचा,कहा और किस तरह उनके जीवन से प्रेरणा पा सका, उसको रेखांकित करने का प्रयास किया है.
हमें आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि आने वाले समय में हम आपके किसी अन्य नूतन संग्रह से शीघ्र ही परिचित होंगे.
अनन्त शुभकामनाऒं सहित
गोवर्धन यादव
भारतीय आधुनिकता के पहले स्तंभ रवीन्द्रनाथ टैगोर
( 7 मई 1861—8 अगस्त 1941 ).
कविन्द्र-रवीन्द्र और उनका विमर्श
08 वर्ष की उम्र से कविता लिखना शुरु किया. 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त. 2011-हार्वर्ड यूनिवर्सिटी ने विश्व-भारती यूनिवर्सिटी के साथ मिलकर “द असेंशियल टैगोर प्रकाशित किया) ------------------------------------------------------------------------------------------------
सन 1857 के संग्राम के बाद नए राष्ट्र के निर्माण की जो जद्दोजहद शुरु हुई, उसमें स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए राजनीतिक संघर्ष के साथ-साथ वर्ण व्यवस्था वाले जटिल मध्ययुगीन समाज के बदलने का संघर्ष भी शामिल था.लेकिन सबसे कठिन काम था- सांस्कृतिक संघर्ष. भारत की समृद्ध और अति प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा को यूरोप के पुनर्जागरण से निखर कर आए आधुनिक मानवीय विवेक से जोडना चुनौतीपूर्ण काम था. भारतीय साहित्य में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में केवल और केवल टैगोर की कविताएं इस चुनौती से मुठभेड करती दिखाई देती है.
रवीन्द्रनाथ के सामने सबसे पहली चुनौती और बडी चुनौती तो भाषा की थी. लोकप्रियता के बावजूद नोबेल पुरस्कार मिलने के पहले तक उन्हें इस बात के लिए कठोर आलोचना झेलनी पडी थी कि वे बांग्ला की साहित्यिक भाषा में काफ़ी तोड-फ़ोड कर रहे थे. अंततः अति अलंकृत और भावुकतापूर्ण काव्य भाषा को जीवन के करीब लाने का श्रेय उन्हें ही प्राप्त हुआ और इसका सकारात्मक प्रभाव हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं पर पडा. इस तरह वे भारतीय आधुनिकता के जनक थे. सौंदर्य,प्रेम और लोकजीवन के सार तत्व को उन्होंने ग्रहण किया, इसीलिए वे भारतीय काव्य परंपरा से प्रभावित होकर एक नितांत मौलिक और आधुनिक विश्व कवि के रुप में सामने आए. प्रेम, सौंदर्य और करुणा का जो उदात्त रुप गीतांजलि के गीतों में है, उसकी मिसाल पूरी दुनिया में नहीं है.
टैगोर का व्यक्तित्व बहुआयामी है. वे जितने बडॆ कवि थे, उतने ही बडॆ कथाकार, उपन्यासकार, चित्रकार, नाटककार, और विचारक थे. लेकिन सबसे बढकर था शांति निकेतन में शिक्षा का आलोक फ़ैलाने का उनका उपक्रम. टैगोर की कविता व्यथाओं के निवारण का दावा नहीं करतीं, मगर उनके खोए हुए मुद्दों को वापसी की गवाह बनना चाहती हैं
सामाजिक सरोकारों के कवि-नागार्जुन
( 30 जून 1911—5 नवम्बर 1998 )
1930 में “यात्री” नाम से पहली कविता मैथिली में प्रकाशित. 32 में अपराजिता देवी से विवाह. 1934-1949 तक घुमन्तू जीवन. 1936 में बौद्ध हुए और “नागार्जुन” नाम धारण किया .किसान संघर्ष की अगुआई के कारण 1939 से 1941 तक बार-बार जेल. 1948 में गांधी वध पर लिखी चारों कविताएं जब्त. 1962 में भारत-चीन सीमा संघर्ष के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी से मतभेद. 1968 में मैथिली संग्रह “पत्रहीन नग्न गाछ” साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत. 1974 में जयप्रकाश आंदोलन में सीधी हिस्सेदारी और जेल यात्रा. 5 नवम्बर 1998 में महाप्रयाण.
* नागार्जुन---दुविधा के कवि नहीं, अपना पक्ष रखने पारदर्शी कवि हैं( प्रो.गोपेश्वर सिंह)
*नागार्जुन संघर्ष व विद्रोह के कवि हैं (विजेन्द्र नारायण सिंह)
*नागार्जुन के काव्य में जेठ का ताप और पूर्णिमा का सौंदर्य है(प्रो. शंभुनाथ)
*भारतीय जनता की संपूर्ण मुक्ति के कवि थे. उनका स्वपन था कि ऎसे भारत का निर्माण करेंगे, जहाँ मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण की कोई सम्भावना) नहीं ( प्रो.नीरजसिंह
* लोकजीवन का इतना विराट और विशाल काव्य कैनवास अगर और किसी लेखक या कवि के पास हो तो उसे जरुर खोजा जाना चाहिए. त्रिलोचन अवध में जमे हुए हैं, केदारनाथ अग्रवाल बांदा और बुन्देलखण्ड में, मुक्तिबोध मालवा से बाहर नहीं निकलते पर नागार्जुन मिथिला से जहरी खाल तक इलाहाबाद ,दिल्ली,,कोलकाता, बनारस से विदिशा उज्जैन, भोपाल तक और ऋषि से तांत्रिक तक, चाण्डाल से ब्राह्मण तक, रोटी से ताल मखाने तक व्यापे हैं. उनका यह व्यापना असाधारण और अपूर्व है. इसी अर्थ में वे हमारे समय के महान कवि हैं ( डा.विजय बहादुर सिंह ---हिन्दी भवन भोपाल द्वारा आयोजित पावस व्याख्यान माला में अध्यक्षीय उद्बोधन))
बाबा का भाषा पर गजब का अधिकार है. देशी बोली के ठेठ शब्दों से लेकर संस्कृतनिष्ठ शास्त्रीय पदावली तक उनकी भाषा के अनेक स्तर हैं. उन्होंने हिन्दी के अलावा मैथिली, बांग्ला और संस्कृत में बहुत लिखा है. उनकी कविताओं में कबीर से लेकर धूमिल तक की पूरी हिन्दी काव्य-परम्परा एक साथ जीवंत है. उनकी लोकप्रियता का आधार छंदों का सधा हुआ चमत्कारी प्रयोग है.,जो मौके के अनुरूप बडॆ कलात्मक ढंग से बदल जाया करते हैं. इनकी कविताओं का यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद करना कठिन प्रतीत होता है,क्योंकि उनकी मानसिकता का प्रभाव पश्चिम से नहीं बल्कि हिन्दुस्थान से आता है. वे तीखे तेवर वाली कविता ही नहीं लिखते,बल्कि स्वयं आंदोलनो में सक्रीय रुप से भाग लेकर जेल की यात्रा करते हुए आपातकाल का विरोध करते हैं. वे अपने समय के संघर्षों से व्यवहारिक धरातल पर जुडते हैं, एक सक्रीय योद्धा की तरह. बाबा की कविताएं समाज सापेक्ष और जनोन्मुखी हैं. कविताओं के कथ्य, शिल्प और भाषा तीनों स्तर पर देशकर इसे समझा जा सकता है.
फ़क्कड कवि थे निराला.
महाप्राण निराला. ( 21 फ़रवरी 1899—15 अक्टूबर 1961 )
*. महाप्राण कवि निराला मृत्युंजय साहित्यकार थे. छायावाद के सर्वाधिक वैविध्यपूर्ण साहित्यकार रहे निराला के काव्य निश्चित तौर पर आत्मा की अमरता के काव्य हैं. अत्यंत ऊर्जावान व तेजस्वी होने की वजह से उन्हें “महाप्राण” कि उपाधि दी गई थी. ( डा. रघुवंशमणि पाठक)
*उनकी कालजयी कविताएं आज भी जीवन्तता का बोध कराती हैं ( पं.पारसनाथ मिश्र)
*महाप्राण के व्यक्तित्व के समक्ष शब्द मौन हो जाते हैं ( डा.जनार्दन राय)
* निरालाजी का जीवन असहायों व दीनहीनों के लिए समर्पित रहता था. वह स्वयं भूखे रहकर दूसरे का पेट भरने वाले महान इन्सान थे ( डा. शत्रुघ्न )
प्रेमचन्द का सामाजिक व साहित्यिक विमर्श
प्रेमचंद ( 31 जुलाई 1880-----8 अक्टुबर 1936)
जिसके पैर में जूते न हो, देह पर साबूत कपडॆ न हो, पैरों में अष्टधातु की बेडियां किन्तु पहाड चढने का मजबूत इरादा हो,ऎसे दुर्घष लेखक प्रेमचन्द ने उर्दू से होकर हिन्दी कथा-साहित्य का यात्री “कथा-सम्राट” कहलाया और अमर कथा लेखक हो गए. उनका लेखन मील का पत्थर हो गया. उनके पास कालातीत अंतदृष्टि थी जो कालजयी साहित्य रच सकी.
वाद-संवाद तो होते ही रहे हैं. कभी उनपर ब्राह्मण विरोधी होने का आरोप लगा. कहीं उन्हें मार्कसवादी घेरे में लेने का प्रयास था. कभी वे दलित विरोधी नजर आए. लेकिन इससे उन पर कोई फ़र्क नहीं पडता. समाज में लेखक ऎसी आलोचना या प्रशंसा से जीवित नहीं रहता अपने देहान्त के बाद. वह अपने लेखन में जनता की चिरंतन चित्तवृत्तियों को सजाने और संप्रेषित कर देने के कारण जीवित रहता है.
हम उनके अवदान कम कैसे कर देंगे जबकि वे वर्षों से भारतीय जन-जन में अपने पात्रों के जरिए गहरे पैठे हुए हैं, इनकी रचनाएं साधारणीकृत होने का विशिष्ट गुणधर्म लिए है.
अभिनव प्रयोगों के यायावर.-अज्ञेय
7 मार्च 1911---4 अप्रैल 1987
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन “अज्ञेय”
· अज्ञेय को जिन्होंने हिन्दी कविता को एक बार फ़िर सम्भव किया
· (विजयदेव नारायण साही)
*“आखिर इस बात पर विचार होना चाहिए कि आपके समूचे समाज का असली प्रतिनिधि है कौन? लेखक सबसे बडा प्रतिनिधि है समाज का. मंत्री नहीं, विधायक नहीं है-वह जनप्रतिनिधि भले ही कहलाएं. तो फ़िर समाज अपने सबसे संवेदनशील, सबसे जबर्दस्त प्रतिनिधियों को खो चुका है, उस समाज में लेखक होने का क्या मतलब बचता है? अज्ञेय ने बडॆ दर्द के साथ अपनी डायरी में एक जगह पूछा है-“हम कहते हैं कि हमें महान लेखक चाहिए? हम ये क्यों नहीं कहते कि हमे महान समाज चाहिए? हमें महान समाज बनाना है ताकि महान लेखाक पैदा हो सकें.” पते की बात है और हमारे सिर पर चढ के बोलती है. कहाँ से पैदा हो रहा हैअ लेखक? अगर समाज में उसके कहे, सुने,जिए के प्रति रत्ती भार भी कोई रुचि नही है तो फ़िर वे कहाँ से पैदा होगा, कैसे पैदा होगा? ( प्रो. रमेशचन्द्र शाहजी-० हिन्दी भवन भोपाल मे आयोजित कार्यक्रम “अज्ञेयजी की जन्म शताब्दी” के अवसर पर .अध्यक्षीय उद्बोधन)
“वात्स्यायन जी के पास सौंदर्य की अखण्ड दृष्टि है. इनके पास अनुभूति की सघनता जितनी गहरी और प्रशान्त है, अभिव्यक्ति उतनी ही तीव्रतर और नव्यतर है. अणु-अणु,तृण-तृण, बिन्दु-बिन्दु, किरण-किरण में सीमित और आलोडित सौन्दर्य को निसर्ग और मनुष्य के भीतर स्थिर गतिमय सौन्दर्य की अखण्डता में समर्पित होकर उनकी “असाध्य वीणा” बजती है. (डा.श्रीराम परिहार)
“अज्ञेय खुद ही रस सिद्ध थे और जब वे “असाध्य वीणा” सुनाते तो हमारे अंधियारे अंतस में आलोक जगा देते थे. स्मृति का और श्रुति दोनो का. ( डा. राजेन्द्र उपाध्याय”)
*“छायावादोत्तरकाल में आधुनिक भावबोध के प्रवर्तक-रुप में अज्ञेय के व्यक्तित्व के कई पक्ष हमारे सामने आते हैं. वे एक उत्कृष्ट कोटि के मौलिक कृतिकार हैं, प्रभावशाली समीक्षक हैं और उनके द्वारा आयोजित तथा पुर्स्कृत नये साहित्य का रुप आगामी महत्वपूर्ण सम्भावनाओं कॊ विवृत्त करता है.अज्ञेय उन विरल रचनाकारॊ में से है जिनका व्यक्तित्व कलागत और ऎतिहासिक दोनो ही प्रकार के प्रतिमानों पर खरा उतरता है. वे एक ओर रचनाकार हैं तो दूसरी ओर आयोजक. ( रामस्वरुप चतुर्वेदी)
“अपने जीवन के प्रारम्भ से ही वे जो कुछ थे,अपने समाज को अर्पित थे. जेल से छूटकर वे आश्रम खोलना चाहते थे. पिताजी ने मना किया, जो कुछ करो खुद कमाकर करो,चन्दा मांगकर नहीं. और उन्होंने जो कुछ किया, “प्रतीक” चलाया, आन्दोलन चलाए, अपने को पूरी तरह झोंकर आग में (विद्दयानिवास मिश्र)
‘महान साहित्यकार अज्ञेय व्यक्तित्व के अनेक पहलू हैं. प्रतिभा संपन्न कवि, शैलीकार, नई कहानी के सशक्त हस्ताक्षर, ललित निबन्धकार, अच्छे संपादक,सफ़क उपन्यासकार, यात्री और महान अध्यापक ऎसे पहलुओं से अज्ञःएय का व्यक्तित्व समृद्ध है. आज की हिन्दी कविता पर अज्ञेय की अद्वितीय काव्यप्रतिभा की गहरी और अमिट छाप है. अज्ञेय का काव्यसंसार ही इतना विस्तृत है जिसका परामार्श इस आलेख में लेना संभव नहीं( डा. विजय महादेव गाडॆ)
“श्री अज्ञेय की कविताओं में पिछले कुछ दिनों से एक नवीन आध्यात्मिक अनुभूति का संचार हो रहा है,जिसे वे बडी ईमानदारी के साथ व्यक्त करने लगे हैं (आचार्य नंददुलारे वाजपेयी)
“ अज्ञेय का हिन्दी में होना, शब्द के अस्तित्व का होना है, वाक्य के व्यक्तित्व का होना है. तो वे हर समय, हर स्थिति और हर अनुभव के बीच कुछ ऎसा कहते हैं कि शब्द उनका साहस हो जाता है, शब्द उनकी अस्मिता हो जाता है. शब्द उनका आचरण हो जाता है. वे तो शब्द की अनुपस्थिति करके भी कहना जानते हैं ( डा. रमेश दवे.)
“ अज्ञेय अधुनिकता के संवेदन के क्षेत्र में इसलिए ले जाना चाहते हैं क्योंकि आधुनिकता की समूची संरचना संवेदन में ही निर्मित होती है, जो बाद में जीवन के विविध क्षेत्रों मे रुपायत होती है.. आधुनिकता आकस्मिक रुप से घटित नहीं होतीं बल्कि वो संस्कारों को परिवर्तित करके समय के साथ ऎसा संबंध बनाती है जो विकासोन्मुख होती है. (रमेश ऋषिकल्प)
अज्ञेय बीसवीं शताब्दी के हिन्दी साहित्य के नवोदय के सूत्रधार हैं. कवि और गद्ध्यकार दोनो रुप में उन्होंने नयी दिशाओं का आविष्कार और परिष्कार किया. ( कुमुद शर्मा)
सार्वदेशिक दृष्टि एवं घुमक्कडी प्रवृत्ति के महान पुरुष महा पण्डित राहुल सांस्कृत्यायन.
भागो नहीं दुनिया को बदलो
(9अप्रैल1893-----14अप्रैल1963)
*वह किसी एक विचार को पकड़कर रहने वाले नहीं थे। उनके अंदर परिवार का सनातनी संस्कार था।
*विश्व भ्रमण के दौरान उन्हें ज्ञान हुआ कि भागने से काम नहीं चलेगा। 'भागो मत, बदलो' उनकी यह पुस्तक चर्चित है। उन्होंने चिंतन किया कि वह कौन सा विचार और दर्शन है, जिससे दुनियां बदली जा सकती है। इसके लिए उन्हें बुद्ध दर्शन उपयुक्त लगा।
*राहुल जी की खास बात यह थी कि वे पूर्णतया नास्तिक होने के बाद भी दूसरों के विचारों का आदर करते हुए पक्के राष्ट्रवादी थे।
*रांगेय राघव का रचना संसार इतना विस्तृत है कि उनकी तुलना सिर्फ राहुल सांस्कृत्यायन से की जा सकती है। रांगेय राघव की तुलना हिंदी संसार में सिर्फ राहुल जी (राहुल सांकृत्यायन) से की जा सकती है लेकिन उन्हें तो उम्र भी बहुत मिली थी। रांगेय राघव ने मात्र 39 साल की उम्र में उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक, रिपोर्ताज जैसी विविध विधाओं में करीब 150 कृतियों को अंजाम दिया।'' ( राजेन्द्र यादव)
*वे एक दार्शनिक के साथ ही चिन्तक भी थे.उन्हें घुमक्कडपन और संघर्षों की जमीन मिली थी. इनके लिए कोई देश पराया नहीं था. खोज और सृजन की भूख ने उन्हें हमेशा देश-दुनिया में घूमने के लिए प्रोत्साहित किया. वे खूब घूमे,और जमकर लिखा. “वोल्गा से गंगा” की यात्रा की.वे कभी भूटान गए तो कभी रूस, तो कभी श्रीलंका और बहुत सारे ग्रंथ खच्चर की पीठ पर लाद कर लाए.
गणेश शंकर विद्धार्थी का अद्भुत “प्रताप”
श्री गणेश शंकर विध्यार्थी (26 अक्टूबर 1890—25 मार्च 1931)
*क्रांतिकारी भगत सिंह सरकार की आंख की किरकिरी थे । क्रांतिकारियों के मन में भी यह भय था कि खूनी और अंग्रेजों की सरकार कब उनको गिरफतार कर फांसी पर लटका दे ।प्रताप के सम्पादक गणेश शंकर विद्यार्थी ने क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह को अपने समाचार पत्र में कार्य करने हेतु नियुक्ति पत्र दिया जहां उन्होनें सरदार बलवंत सिंह के नाम से वर्षों तक कार्य किया।
*पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी ऐसे मूर्धन्य व्यक्तित्व थे जिन्होनें स्वच्छ एवं देषभक्ति पूर्ण पत्रकारिता का बीडा उठाया जिसके लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया।
* कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेशशंकर विद्यार्थी भी ऐसे ही पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेज़ी शासन की नींव हिला दी थी।
अभी जिन्दा है कमलेश्वर की क्रांतिधर्मी रचनात्मक बैचेनी
श्री कमलेश्वर ( 6 जनवरी 1932—27 फ़रवरी 2007)
(संस्करण)
*”सारिका”के संपादक श्री कमलेश्वरजी का 15 मार्च 1970 को “संगायन संस्था” छिन्दवाडा”में आगमन हुआ था. .कार्यक्रम “कहानी पाठ” पर आधारित था, जिसमें श्री(स्व.) संपतराव धरणीधर,दामोदर सदन,हनुमंत मनगटे,कैलाश सक्सेना आदि कहानीकारों ने बडी संख्या में भाग लिया था.
छिन्दवाडा ---सन 1978 में अखिल भारतीय समानान्तर लेखक सम्मेलन में आपका आगमन हुआ था. दो दिवसीय कार्यक्रम स्थानीय टाउन हाल तथा ई.एल.सी हास्टल में समारोह पूर्वक संपन्न हुआ. इस अवसर पर आपका नागरिक-अभिनन्दन भी किया गया.
27 नवम्बर 1978 में छिन्दवाडा के प्रख्यात साहित्यकार स्व.बाबा.संपतराव.धरणीधर व्याख्यान-माला में आपने आने की सहमति प्रदान कर दी थी. लेकिन एक दिन पहले अर्थात 26-11-1978 की रात्रि को आपको दिल का दौरा पडा और स्थानीय बत्रा हास्पिटल में आपको भर्ती कराया गया. इस आशय की सूचना उनके ड्रायवर श्री नरेन्द्र ने हमें दी. वे तीसरी बार छिन्दवाडा आते.लेकिन वक्त को शायद यह मंजूर नहीं था. --०--
*1995 में कमलेश्वर को 'पद्मभूषण' से नवाज़ा गया और 2003 में उन्हें 'कितने पाकिस्तान'(उपन्यास) के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वे 'सारिका' 'धर्मयुग', 'जागरण' और 'दैनिक भास्कर' जैसे प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं के संपादक भी रहे। उन्होंने दूरदर्शनके अतिरिक्त महानिदेशक जैसा महत्वपूर्ण दायित्व भी निभाया। कमलेश्वर ने अपने 75 साल के जीवन में 12 उपन्यास, 17 कहानी संग्रह, और क़रीब 100 फ़िल्मों की पटकथाएँ लिखीं।
*उन्होंने फिल्मों के लिए पटकथाएँ तो लिखी ही, उनके उपन्यासों पर फिल्में भी बनी। `आंधी', 'मौसम (फिल्म)', 'सारा आकाश', 'रजनीगंधा', 'छोटी सी बात', 'मिस्टर नटवरलाल', 'सौतन', 'लैला', 'रामबलराम' की पटकथाएँ उनकी कलम से ही लिखी गईं थीं। लोकप्रिय टीवी सीरियल 'चन्द्रकांता' के अलावा 'दर्पण' और 'एक कहानी' जैसे धारावाहिकों की पटकथा लिखने वाले भी कमलेश्वर ही थे। उन्होंने कई वृतचित्रों और कार्यक्रमों का निर्देशन भी किया।
*कमलेश्वर का जाना मेरे लिए हवा-पानी छिन जाने जैसा है. साहित्य जगत में कमलेश्वर जैसे बहुमुखी और करिश्माई व्यक्तित्व के लोग कम ही हुए हैं. "( राजेन्द्र यादव.सं-हंस)
*उनकी पहली कहानी 1948 में प्रकाशित हो चुकी थी परंतु 'राजा निरबंसिया' (1957) से वे रातों-रात एक बड़े कथाकार बन गए। कमलेश्वर ने तीन सौ से ऊपर कहानियाँ लिखी.
*कमलेशवरजी ने अपने उपन्यासों के माध्यम से नारी शिक्षा और स्वातंत्र्य संबंधी अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए नारी मुक्ति की पहल की.
उत्तर आधुनिकतावादी थे मनोहर श्याम जोशी
मनोहर श्याम जोशी (9 अहस्त 1933---30 मार्च 2006)
आधुनिक हिन्दी साहित्य के श्रेष्ट गद्यकार, उपन्यासकार, व्यंग्यकार, पत्रकार, दूरदर्शन धारावाहिक लेखक, जनवादी-विचारक, फिल्म पट-कथा लेखक, उच्च कोटि के संपादक, कुशल प्रवक्ता तथा स्तंभ-लेखक थे। दूरदर्शन के प्रसिद्ध और लोकप्रिय धारावाहिकों- ' बुनियाद' 'नेताजी कहिन', 'मुंगेरी लाल के हसीं सपने', 'हम लोग' आदि के कारण वे भारत के घर-घर में प्रसिद्ध हो गए थे। वे रंग-कर्म के भी अच्छे जानकार थे । उन्होंने धारावाहिक और फिल्म लेखन से संबंधित ' पटकथा-लेखन' नामक पुस्तक की रचना की है। दिनमान' और 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' के संपादक भी रहे।
*भाषा के मामले में उनका कोई मुकाबला नहीं है। बिना जोशी जी को पढ़े कोई भी भारतीय संस्कृति और साहित्य को नहीं समझ सकता। जोशी हमेशा खुद से संवाद करते थे, जो अपने आप में अनूठा और सृजनात्मक था। ( मृदुला गर्ग)
*“इस समय हमने जो कुछ भी लिखा है, उसमें संतोष नहीं है. मरने के पहले संतोष वाला कुछ लिखना चाहता हूँ) मनोहर श्याम जोशी)
*-‘‘मैं विद्वान नहीं हूँ। मेरी विद्वता मात्र पत्रकारिता के स्तर की है। थोड़ा यह भी सूँघ लिया, थोड़ा वह भी सूँघ लिया। मैं तो प्रिन्ट मीडिया का आदमी हूँ।‘‘ ( मनोहर श्याम जोशी) ‘
इस नए लेखक की खोज से मुझे इतनी खुशी हुई है, जितनी कि फैजाबाद में पुरानी अयोध्या के अवशेष मिलने से।‘‘ ( अमृतलाल नागर)
*‘वस्तुतः जिन चीजों को लेकर हम निकले थे वह तो इस सदी में हुई नहीं। अगली सदी में क्या होगा हमें समझ में नहीं आता?‘ ‘ (मनोहर श्याम जोशी)
कभी-कभी उनकी साफ़गोई एवं यथार्थ को उसी कटू रुप में परोसने के चलते कई आलोचकों ने “सिनिस्सिज्म”(मूल्यहीनता) जैसे आरोपों से भी उन्हें नवाजा पर “कसप” जैसे संवेदनशील प्रेम-आख्यान जिसका शुमार हिन्दी के दो-तीन श्रेष्ठ उपन्यासों में होता है, के लेखक पर यह आरोप लगाना स्वयं में विरोधाभास लगता है.
*वे हमारे समय के नायक हैं, झिन्हें पढकर हमारी पीढी साहित्य में तैयार हुई है और हमारे बाद की पीढी भी (सूरज पालीवाल)
Death can conquer a life that too in worldly sense but not the essences of life” जो कमलेश्वर जी अपने शब्दों के रुप में छॊड गए हैं और जिस तरह शब्द अमर हैं. उसी तरह कमलेश्वर भी और उनकी उपस्थिति भी हमारे बीच है और भी मुखरता के साथ और भी प्रखरता के साथ ( केशव )
“ मेरे लिए उनके पत्र उनका अपार स्नेह है.अपनापन है. एक भाई का प्यार है. उनका यह प्यार किसी मीठे फ़लदार और छायादार वृक्ष की तरह था जिसकी छांव में बैठकर हमेशा बहुत चैन और सुख मिला—अन्यथा आज की साहित्यिक ग्लोबल वार्मिंग के जमाने में हम जैसे साहित्य में नए-अपढ व्यक्तियों को कौन इतना स्नेह देता है. (एस.आर.हरनोट)
साहित्य की अनुपम दीपशिखा;अमृता प्रीतम
अमृता प्रीतम ( 31 अगस्त 1919---31 अक्टूबर 2005)
· यह अमृता प्रीतम है, अपनी तरह की कलम, किसी से राह न मांगती हुई, किसी के कंधे पर हाथ न धरती हुई,स्वाधीन. उसकी कोई रचना उठा कीजिए-आप कह देंगे कि यह अमृता प्रीतम है. ( प्रभाकर श्रोत्रिय)
· एक बहुमुखी प्रतिभा से भरी, संवेदनशील, विस्तृत फ़लक की मार्मिक सर्जक के उठ जाने का गम पाठक और लेखक समाज को सालता रहेगा. वे जितनी पंजाबी की थीं उतनी ही हिन्दी की थीं. उन्हें मौलिक लेखक की तरह हिन्दी पाठक ने पढा और उनसे अभिभूत हुआ. वे अपनी रचना-देह में इस वक्त भी मौजूद हैं (प्रभाकर श्रोत्रिय)
· अन्त में इतना ही कि वे बीसवीं सदी की पंजाबी की महान “कवियित्री”थीं, जो तब तक याद की जाएंगी, जब तक पंजाबी काव्य रह पायेगा. ( गुरुदयाल सिंह)
· अमृता नहीं रहीं...खबर ने यूँ आक्रान्त किया गोया मेरी पसलियों पर किसी ने हतौडॆ की चोट कर दी हो ( अजीत कौर)
· ये 1957 के अन्तिम दिन थे.....अमृता के कहानी-संग्रह “आखिरी खत” का कवर-डिजाईन बनाना था, अमृता आर्टिस्ट की तलाश कर रही थी. एक सांझे दोस्त ने मुझे इस काम के लिए अमृता से मिला दिया. कवर०डिजाईन भी बन गया और अमृता से मेरी वाकफ़ियत भी. और धीरे-धीरे यह वाकफ़ियत दोस्ती बनने लगी. और दोस्त चलते-चलते हमसफ़र बन गई ( इमरोज)
· अमृता खुद भी खूबसूरत है, ख्याल की भी खूबसूरत थी...उसने मेरी जिन्दगी भी खूबसूरत बना दी.अमृता प्यार ही प्यार है- मैं लफ़्जों में बता नहीं सकूँगा कि उसने मुझसे कितना प्यार किया है. मेरी सोच से भी कहीं ज्यादा..... (इमरोज)
· अमृता प्रीतम एक हसीन अऔरत थीं. उससे भी ज्यादा हसीन साहित्यकार ( कर्त्तारसिंह दुग्गल)
· जितनी सदियाँ पंजाबी नारी लोक गीतों की ओट में छिपकर अपना दुःख सुख बेनाम रुप से गाती रहीं. ओडक बीसवीं शताब्दी में अमृता प्रीतम का चेहरा पंजाब उफ़क पर उदय हुआ. आमृता से पहले पीरो और हरनाम कौर का भी नाम लिया जाता है पर उनकी रचनाएँ अपनी संभावनाओं की संपूर्णता तक नहीं पहुँचतीं ( सुरजीत पातर)
· अमृता प्रीतम पंजाबी साहित्य की एक ऎसी शख्शियत रहीं,जिन्होंने राष्ट्रीय तथा अन्तराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति हासिल कीं. ( करमजीत सिंह)
· एक ऎसा विकास या गति अमृता की कविता में दृष्टिगोचर होता है, जबकि उसके गलपा में बहुत ज्यादा विकास नजर नहीम आता, बाल्कि उसके पहले के कुछ उपन्यास अधिक प्रभावशाली हैं. इसलिए अमृता के बारे में भविष्य में भीऊ भी विशेष चर्चा कविता के आधार पर ही होगी ( सुतिन्द्रसिंह कौर)
· आज अमृता प्रीतम होने का अर्थ है....नरी यातना के इतिहास का विखण्डन और “शब्दार्थ” की बहुलार्थक सांस्कृतिक गरिमा की पुनर्प्रतिष्ठा.
· (कृष्णदत्त पालीवाल)
· अमृता अन्तिम वर्षों तक तक बहुत सक्रीय होकर लिखती रहीं. पंजाबी के युवा पीढी के लेखक-लेखिकाओं के लिए उनका घर किसी तीर्थ से काम नहीम था. लगभग पांच दशकों तक उनकी छाया बनकर लिए इमरोज किसी समर्पित साथी के जीवन्त उदाहरण हैं (महीप सिंह)
( 20जनवरी 1927—20 अगस्त 2007)
साझी विरासत की कडी थीं कुर्रतुल ऎन हैदर.
* मोहम्मद अली जिन्ना ने हिन्दुस्तान के साढ़े चार हज़ार सालों की तारीख़ (इतिहास) में से मुसलमानों के १२०० सालों की तारीख़ को अलग करके पाकिस्तान बनाया था। क़ुर्रतुल ऎन हैदर ने नॉवल 'आग़ का दरिया' लिख कर उन अलग किए गए १२०० सालों को हिन्दुस्तान में जोड़ कर हिन्दुस्तान को फिर से एक कर दिया। ( निदा फ़ाजली)
कैफ़े आजमी उर्फ़ अतहर हुसैन रिजवी( 19 जनवरी 1919---10 मई 2002)
*उत्तरप्रदेश सरकार ने सुल्तानपुर से फूलपुर सड़क को कैफी मार्ग घोषित किया है। दस मई 2002 को कैफी यह गुनगुनाते हुए इस दुनिया से चल दिए : ये दुनिया, ये महफिल मेरे काम की नहीं...।
*कैफी की भावुक, रोमांटिक और प्रभावी लेखनी से प्रगति के रास्ते खुलते गए और वे सिर्फ गीतकार ही नहीं बल्कि पटकथाकार के रूप में भी स्थापित हो गए। ‘हीर-रांझा’ कैफी की सिनेमाई कविता कही जा सकती है। सादगीपूर्ण व्यक्तित्व वाले कैफी बेहद हँसमुख थे, यह बहुत कम लोग जानते हैं।
*हिन्दी फिल्मों के लिए भी कई प्रसिद्ध गीत व ग़ज़लें भी लिखीं, जिनमें देशभक्ति का अमर गीत -"कर चले हम फिदा, जान-ओ-तन साथियों" भी शामिल है।
*वे समाजवादी विचारधारा के पक्के समर्थक थे और उनकी रचनाओं में मज़लूमों का दर्द पूरी शिद्दत से उभर कर सामने आता है।
फ़राज आओ सितारे साफ़र के देखते हैं
अहमद फ़राज (14जनवरी 1931—25 अगस्त 2008)
*फ़राज हमेशा से तानाशाहों के विरुद्ध और लोकतंत्र के हिमायती रहे. जनरल जिया का विरोध करने की वजह से उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड और कुछ सालों के लिए वे निर्वासित भी हुए
( खालिद हसन-पत्रकार)
* वे कालेज के जमाने में एक आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे.( इफ़ितखार अली)*प्रेम को जिस शिद्दत के साथ उन्होंने अपनी शायरी का विषय बनाया उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है.* फ़राज किशोरावस्था में कश्मीर के 47-48 के युद्ध में स्वेच्छा से सम्मिलित हुए थे.
कश्मीर की सूफ़ी परम्परा का “राही”
अब्दुल रहमान राही.(16 मई 1925 )
*कश्मीर के प्रख्यात कवि-पत्रकार और आलोचक श्री अब्दुल रहमान राहीजी राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार चर्चा में आए जब उन्हें 1961 में “साहित्य अकादमी” पुरस्कार प्राप्त हुआ.
*1980 में जम्मू-कश्मीर सांस्कृतिक अकादमी अवार्ड, 1889 में भारत सरकार की फ़ेलोशिप,2000 में पद्मश्री से नवाजा गया.
*साहित्य का भले ही तात्कालिक एवं प्रत्यक्ष प्रभाव न पडता हो.पर उसका दूरगामी असर होता है.(डा.मनमोहनसिंह पूर्व प्रधान मंत्री)
इतिहास और मिथक के जरिए वर्तमान्को देखते कवि कुँवर नारायण
कुँवर नारायण (19 सितंबर 1927)
*“ जो लेखक सत्ता के साथ रहते हैं उन्हें देखना चाहिए कि सत्ता जनता के प्रति प्रतिबद्ध है या नहीं,क्योंकि एक लेखक के लिए आम जनता का हित सर्वोपरि है. लेखक को जनता का प्रतिनिद्धि होना चाहिए. राज्य सत्ता तभी तक जब तक वह जनता के पक्ष में है.अगर राजसत्ता जनता से जुडॆ अपने सरोकारों से पीछे हट जाती है तो लेखक को भी सत्ता से नाता तोड लेना चाहिए.एक सच्चे लेखाक के लिए सबसे पहले और जरुरी चीझ है “आजादी”. वह अपने पक्ष बदल सकता है,क्योंकि वह समाज आआउर जनता का चौकीदार है. (कुँवर नारायण )
*इस बात में कुछ सच्चाई है कि आज कुछ लेखक सत्ता और बाजार का समर्थन कर रहे हैं.मैं साहित्य और कला के उत्सवों के आयोजन के खिलाफ़ नहीं हूँ लेकिन ऎसे मौकों पर हमारा द्ध्यान साहित्य और कला से जुडॆ विषयों और मुद्दों पर केन्द्रीत रहना चाहिए. ऎसेव उत्सव यदि लेखकों और पाठकों का द्ध्यान खींचते हैं और उन्हें एक दूसरे के साथ संवाद का मौका देते हैं तो ऎसे साहित्यिक उत्सव जरुर आयोजित होने चाहिए,. मैं साहित्य उत्सवों को एक अवसर के रुप में देखता हूँ (कुँवर नारायण)
हिन्दी की वीणा; “नीरज”
श्री गोपालदास सक्सेना “नीरज”( 4 जनवरी 1925)
*उस वक्त मेरी उम्र करीब 17 बरस रही होगी. हम लोग बांदा में एक कवि सम्मेलन में शिरकत के लिए बस से जा रहे थे. बस खचाखच भरी थी और मुझे सीट नहीं मिली. उस वक्त बच्चन ने मुझे अपनी गोद में बैठने को कहा था. मैं बहुत खुशकिस्मत हूँ कि मुझे उनसे इतना स्नेह मिला ( नीरज)
*’ हम कितना जीवित रहे,इसका नहीं महत्व = हम कैसे जीवित रहे, यही तत्व अमरत्व. (नीरज)
(संस्मरण)
अपने सदाबहार गीतों के लिए जगप्रसिद्ध और मधुर कंठ के धनी सम्मानीय नीरज जी से मेरी एक बार मुलाकात हुई थी. संभवतः यह सत्तर के दशक की बात थी. उस समय मैं बैतूल प्रमुख डाकघर में कार्यरत था. कविताएँ लिखा करता था. समय-समय पर आयोजित काव्य-गोष्ठियों मे जाना होता था. उस समय जिला पुलिस अधीक्षक श्री पटोरियाजी थे. वे भी अक्सर इन गोष्ठियों में आया करते थे. इसी समय एक आयोजन कोठीबाजार में आयोजित किया गया,जिसमें नीरजजी के अलावा बहुत से ख्यातलब्ध कवियों को भी आमंत्रित किया गया था. यह वह दौर था जब नागपुर के कवि श्री मधुप पाण्डॆय के कुशल मंच संचालन में शहर-दर-शहर कवि सम्मेलन आयोजित किए जाते थे. संभवतः सारे कवि मुम्बई में आयोजित कवि-सम्मेलन के बाद बैतूल पधारे थे.
प्रबुद्ध श्रोताओं की भीड खचाखच भरी थी. यह वह समय था जन नीरजजी फ़िल्मॊं में गीत लिख रहे थे और अपने प्रसिद्धि के चरम पर थे. सारे कार्यक्रम के केन्द्र बिंदु में वे ही थे. मधुपजी अपने काव्यकौशल और सिद्धहस्त संचालन का जादू बिखेर रहे थे.जब नीरजजी का क्रम आया. उन्होंने अपना गला साफ़ किया और कुछ गुनगुनाते हुए रचना-पाठ करना प्रारंभ किया. वे अपने गीत का एक अंतरा पूरा भी नहीं कर पाते कि संचालक महोदय वाह...वाह कह उठते. नीरजजी को उनकी वाह...वाह रास नहीं आ रही थी. जब भी वे गीत पढते है,इनकी अपनी एक खास. शैली और विशेषता यह होती है कि वे पूरी तनमयता के साथ-पूरी मस्ती के साथ उसमें खो जाते है. मधुपजी का इस तरह बीच में खलल डालना शायद उन्हें पसंद नहीं आ रहा था. वे अपनी जगह से चुपचाप उठे और संचालक के माईक को उठाते हुए अपने स्थान पर आकर बैठ गए .इस समय उनका गुस्सा चरम पर था. लगभग मधुपजी कॊ डांट लगाते हुए बोले-“मधुप इसके पहले भी मुम्बई में मैंने तुम्हे इस हरकत के लिए मना किया था ,लेकिन तुम हो की बाज नहीं आते” कुछ देर मौन रहे.फ़िर अपना सुर साधने लगे. (नीरजजी की अपनी कैसी शैली है, इसे प्रायःसभी जानते हैं.) फ़िर उन्होंने तनमयता से अपना गीत पढे..फ़रमाइशों पर फ़रमाइशें होती रहीं और वे गीत पढते रहे.
कार्यक्रम के समापन के पश्चात हम लोगो ने उनसे भेंट की और निवेदन किया कि हम केवल और केवल आपको ही सुनना चाहते हैं, इसके लिए कोई तिथि निश्चित करने का आग्रह भी हमने किया.
बैतूल म्युनिसिपल के हाल में कार्यक्रम आयोजित हुआ. नीरज जी आए. उन्होंने देर रात तीन बजे तक अपनी पसंद के गीत सुनाए. और सुनाए ढेरों सारे संस्मरण. उन संस्करणॊं में से एक यह भी था कि किस तरह फ़िल्म निर्माता-निर्देशक श्री राजकपुर ने उन्हें अपनी “जोकर” फ़िल्म में गीत लिखने के लिए मुम्बई बुलाया और किस तरह उन्होंने अपने गीतों की धुन तैयार करने में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल में मदद की.आदि-आदि., चार-पांच बजे के बीच बैतुल से गुजरने वाली जी.टी. मे उनका आरक्षण था, वे उससे रवाना हो गए.
समय बीत जाता है और उसकी यादें मन-मस्तिस्क पर अंकित हो जाती है. जब भी कभी उन क्षणॊं को याद करता हूँ तो एक पछतावा सा होने लगता है कि काश उस समय मेरे पास कैमरा होता तो मैं उनकी तस्वीरों में उतारकर अपने पास सजोंकर रख पाता.
गोवर्धन यादव
103,कावेरी नगर ,छिन्दवाडा (म.प्र.) 480001
(*संयोजक राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,जिला इकाई)
सम्मानीय श्री रविजी
जवाब देंहटाएंसमीक्षा प्रकाशन के लिए हार्दिक धन्यवाद