बहुलतावादी भारत और भारतीय भाषाओं का विकास प्रोफेसर महावीर सरन जैन मैंने हिन्दी के एक दैनिक समाचार पत्र में, दिनांक 23 जून,2014 के अंक में...
बहुलतावादी भारत और भारतीय भाषाओं का विकास
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
मैंने हिन्दी के एक दैनिक समाचार पत्र में, दिनांक 23 जून,2014 के अंक में पत्रकार और ´नरेन्द्र मोदी – द मैन, द टाइम्स' के लेखक श्री नीलांजन मुखोपाध्याय का 'पुरानी सोच से बाहर आएँ´ शीर्षक लेख पढ़ा। मैं लेख की इस अवधारणा के प्रति अपनी सहमति व्यक्त करता हूँ कि ´नई सरकार संस्कृति, भाषा और धर्म के मामले में बहुलतावाद को जितना अधिक महत्व देगी, उतना ही वह देश के लिए भी अच्छा होगा और खुद सरकार की छवि और उसकी स्थिरता के लिए भी'।
इस सहमति का कारण यह है कि भारत में भाषाओं, प्रजातियों, धर्मों, सांस्कृतिक परम्पराओं एवं भौगोलिक स्थितियों का असाधारण एवं अद्वितीय वैविध्य विद्यमान है। विश्व के इस सातवें विशालतम देश को पर्वत तथा समुद्र शेष एशिया से अलग करते हैं जिससे इसकी अपनी अलग पहचान है, अविरल एवं समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है, राष्ट्र की अखंडित मानसिकता है। “अनेकता में एकता” तथा “एकता में अनेकता” की विशिष्टता के कारण भारत को विश्व में अद्वितीय सांस्कृतिक लोक माना जाता है।
मैं भाषा का विद्यार्थी हूँ।भाषिक दृष्टि से भारत बहुभाषी देश है। यहाँ मातृभाषाओं की संख्या 1500 से अधिक है (दे0 जनगणना 1991, रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इण्डिया) । इस जनगणना के अनुसार दस हजार से अधिक लोगो द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या 114 है। (जम्मू और कश्मीर की जनगणना न हो पाने के कारण इस रिपोर्ट में लद्दाखी का नाम नहीं है। इसी प्रकार इस जनगणना में मैथिली को हिन्दी के अन्तर्गत स्थान मिला है। अब मैथिली भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची की एक परिगणित भाषा है।) लद्दाखी एवं मैथिली को सम्मिलित करने पर दस हजार से अधिक लोगो द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या 116 हो जाती है।
भाषिक दृष्टि से भी भारत में एक ओर अद्भुत विविधताएँ हैं वहीं दूसरी ओर भिन्न भाषा-परिवारों की भाषाओं के बोलने वालों के बीच तथा एक भाषा परिवार के विभिन्न भाषियों के बीच भाषिक समानता एवं एकता का विकास भी हुआ है। भाषिक एकता विकसित होने के अनेक कारण हैं। कारणों का मूल आधार विभिन्न भाषा-परिवारों तथा एक भाषा-परिवार के विभिन्न भाषा-भाषियों का एक ही भूभाग में शताब्दियों से निवास करना है, उनके आपसी सामाजिक सम्पर्क हैं एवं इसके फलस्वरूप पल्लवित सांस्कृतिक एकता है।
भारत की सामाजिक संरचना एवं बहुभाषिकता को ध्यान में रखकर विद्वानों ने भारत को समाज-भाषा वैज्ञानिक विशाल, असाधारण एवं बृहत भीमकाय (जाइअॅन्ट) की संज्ञा प्रदान की है।
हमने भारतीय भाषाओं की समानता एवं एकता की अपनी अवधारणा एवं संकल्पना की अन्यत्र विस्तार से विवेचना की है। यह पुस्तक का विवेच्य विषय है। सम्प्रति, हम यह कहना चाहते हैं कि भारत में भिन्न भाषा परिवारों की बोली जाने वाली भाषाएँ आपस में अधिक निकट एवं समान हैं बनिस्पत उन भाषा-परिवारों की उन भाषाओं के जो भारतीय महाद्वीप से बाहर के देशों में बोली जाती हैं। उदाहरण के लिए आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ आधुनिक भारतीय द्रविड़ भाषाओं के जितने निकट हैं उतने निकट वे भारोपीय परिवार के अन्य उपपरिवारों की भाषाओं के नहीं हैं जो भारतीय महाद्वीप के बाहर के देशों में बोली जाती हैं।
जो स्थिति भाषाओं की है वही स्थिति संस्कृति और धर्म के क्षेत्र में भी है। भारत बहुलतावादी देश है। संकीर्ण सोच के आधार पर भारत की व्यवस्था कायम नहीं की जा सकती।
मैं सन् 1958 से लेकर सन् 1962 तक इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का विद्यार्थी था। यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार मेरे पिता जी के मित्र श्री के. एल. गोविल थे। उनके घर पर मेरी संघ के रज्जू भैया से अनेक बार मुलाकात हुईं। उनकी सोच यह थी कि हमारे राष्ट्र की मूल धारा एक है और वह धारा अविरल एवं शुद्ध रूप में, प्रवाहित है। जो धाराएँ हमारे देश में आक्रांताओं के द्वारा लाई गयीं हैं उन्होंने हमारी राष्ट्र रूपी गंगा को गंदा कर दिया है। हमें उसे निर्मल बनाना है।
मेरे दिमाग में उस समय से लेकर अब तक दिनकर की पंक्तियाँ गूँजती रही हैं कि भारतीय संस्कृति समुद्र की तरह है जिसमें अनेक धाराएँ आकर विलीन होती रही हैं। एक दिन हमने रज्जू भैया से निवेदन किया कि आप जिन आगत धाराओं को गंदे नालों के रूप में देखते हैं, हम उनको इस रूप में नहीं देखते। उन समस्त धाराओं को जिन्हें आप गंदे नालों एवं ´मल' के रूप में देखते हैं उनको हम 'ऐसे मल´ की श्रेणी में नहीं रख सकते जो हमारी भाषा, धर्म, एवं संस्कृति रूपी गंगा को ´गंदा नाला' बनाते हैं। आगत धाराएँ हमारी गंगा की मूल स्रोत भागीरथी में आकर मिलने वाली अलकनंदा,धौली गंगा,अलकन्दा, पिंडर और मंदाकिनी धाराओं की श्रेणी में आती हैं। हमारी सोच आज भी यही है। उदाहरण के लिए, भाषा के मामले में, हमारी सोच यह है कि बोलचाल की सहज, रवानीदार एवं प्रवाहशील भाषा पाषाण खंडों में ठहरे हुए गंदले पानी की तरह नहीं होती। पाषाण खंडों के ऊपर से बहती हुई अजस्र धारा की तरह होती है। है।नदी की प्रकृति गतिमान होना है। भाषा की प्रकृति प्रवाहशील होना है।है, संस्कृति में परिवर्तन होता है, हमारी सोच तथा हमारी आवश्कताएँ परिवर्तित होती हैं उसी अनुपात में शब्दावली भी बदलती है। स्थिर होना जड़ होना है। बहुलतावाद को स्वीकरना गतिमान होना है। देश के यथार्थ को स्वीकारना है। मैं लेख की बहुलतावाद की प्रासंगिकता के प्रति इसी कारण अपनी सहमति व्यक्त करता हूँ।
इसी लेख में यह टिप्पण एवं विचार भी व्यक्त किया गया है कि वर्तमान सरकार का हिन्दी के प्रयोग से सम्बंधित आदेश सरकार की 'संकीर्ण सोच´ का परिचायक है। इस विचार से हम अपनी असहमति व्यक्त करते हैं। लेखक ने सन् 1964 के अंत और 1965 की शुरुआत में तमिलनाडु के हिन्दी विरोधी आन्दोलन की याद दिलाई है। मैं उससे परिचित हूँ। मैंने उसके बाद से तमिलनाडु की अनेक बार यात्राएँ की हैं और उनकी तथाकथित हिन्दी विरोधी मानसिकता को समझने की कोशिश की है। उस समय हिन्दी विरोधी आन्दोलन होने के अनेक कारण थे। यहाँ उनकी विवेचना का अवकाश नहीं है। उस विरोध के कारणों में, सबसे बड़ा कारण यह था कि उस समय के कांग्रेस के कुछ ऐसे तथाकथित हिन्दी प्रेमी नेताओं ने तमिलनाडु में जाकर यह वक्तव्य दे दिया कि जो हिन्दी का विरोध करेगा, उसे समुद्र में फैंक दिया जाएगा। वे नेता भूल गए कि हिन्दी को एकमतेन राजभाषा बनाने को जो निर्णय संविधान सभा ने लिया उसका कारण दक्षिण भारत के हमारे राष्ट्रीय नेता थे।
लेखक ने इतिहास का संदर्भ दिया है। मैं पाठकों का ध्यान इतिहास के उस काल खण्ड की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ जब अंकों के स्वरूप के सम्बंध में हुए लम्बे विवाद के बाद राजभाषा सम्बंधी भाग के पारित होने के बाद सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने राजभाषा हिन्दी को सर्वसम्मति से बनाए जाने में दक्षिण भारत के योगदान को रेखांकित करते हुए अपने उद्गार व्यक्त किए थे। उनके उद्गार तत्कालीन सभा के सदस्यों के मनोभावों को आत्मसात करने का लिखित दस्तावेज है-
“अब आज की कार्यवाही समाप्त होती है, किंतु सदन को स्थगित करने से पूर्व मैं बधाई के रुप में कुछ शब्द कहना चाहता हूँ । मेरे विचार में हमने अपने संविधान में एक अध्याय स्वीकार किया है जिसका देश के निर्माण पर बहुत प्रभाव पड़ेगा। हमारे इतिहास में अब तक कभी भी एक भाषा को शासन और प्रशासन की भाषा के रुप में मान्यता नहीं मिली थी। हमारा धार्मिक साहित्य और प्रकाशन संस्कृत में सन्निहित था। निस्संदेह उसका समस्त देश में अध्ययन किया जाता था, किंतु वह भाषा भी कभी समूचे देश के प्रशासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त नहीं होती थी। आज पहली ही बार ऐसा संविधान बना है जब कि हमने अपने संविधान में एक भाषा लिखी है जो संघ के प्रशासन की भाषा होगी और उस भाषा का विकास समय की परिस्थितियों के अनुसार ही करना होगा ।
मैं दक्षिण भारत के विषय में एक शब्द कहना चाहता हूँ । 1917 में जब महात्मा गाँधी चम्पारन में थे और मुझे उनके साथ कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था तब उन्होंने दक्षिण में हिन्दी प्रचार का कार्य आरम्भ करने का विचार किया और उनके कहने पर स्वामी सत्यदेव और गाँधी जी के प्रिय पुत्र देवदास गाँधी ने वहाँ जाकर यह कार्य आरम्भ किया। बाद में 1918 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इंदौर अधिवेशन में इस प्रचार कार्य को सम्मेलन का मुख्य कार्य स्वीकार किया गया और वहाँ कार्य चलता रहा। मेरा सौभाग्य है कि मैं गत 32 वर्षो में इस कार्य से सम्बद्ध रहा हूँ, यद्यपि मैं इसे घनिष्ट सम्बंध का दावा नहीं कर सकता । मैं दक्षिण में एक सिरे से दूसरे सिरे को गया और मेरे हदय में बहुत प्रसन्नता हुई कि दक्षिण के लोगों ने भाषा के सम्बंध में महात्मा गाँधी के अनुरोध के अनुसार कैसा अच्छा कार्य किया है। मैं जानता हूँ कि उन्हें कितनी ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ा किंतु उनमें इस मामले में जो जोश था वह बहुत सराहनीय था। सदस्यों को यह सुनकर प्रसन्नता होगी कि मैंने एक ही समय पर दो पीढ़ियों को पारितोषिक दिए हैं। शायद तीन को दिए हों अर्थात दादा,पिता और पुत्र हिन्दी पढ़कर,परीक्षा पास करके एक ही वर्ष पारितोषिकों तथा प्रमाणपत्रों के लिए आए थे। यह कार्य चलता रहा है और दक्षिण के लोगों ने इसे अपनाया है। आज मैं कह नहीं सकता कि वे इस हिन्दी कार्य के लिए कितने लाख व्यय कर रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि इस भाषा को दक्षिण के बहुत से लोगों ने अखिल भारतीय भाषा मान लिया है और इसमें उन्होंने जिस जोश का प्रदर्शन किया है उसके लिए उत्तर भारतीयों को उन्हें बधाई देनी चाहिए, मान्यता देनी चाहिए और धन्यवाद देना चाहिए'।
सरकार के हिन्दी प्रयोग सम्बंधी आदेश का करुणानिधि और जयललिता ने विरोध किया और सरकार के गृह मंत्रालय ने नहीं (जहाँ से प्रयोग का आदेश निकला था) अपितु पीएमओ के दफ्तर ने स्पष्टीकरण जारी कर अपनी भयाक्रांत मानसिकता जाहिर कर दी। अटल जी के जमाने में भी ऐसा ही हुआ था। उस पर टिप्पण बाद में कभी प्रसंग आने पर।
मैं यह बात जोर देकर कहना चाहता हूँ कि तमिलनाडु के करुणानिधि और जयललिता की हिन्दी विरोधी राजनीति न केवल हिन्दी का विकास अवरुद्ध कर रही है अपितु बांग्ला, मराठी, तेलुगु, तमिल, कन्नड़, मलयालम आदि सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं की प्रौद्योगिकी के विकास में बाधक बन रही है।
मैं सूत्र शैली में, अपनी बात स्पष्ट करूंगा।
आने वाले समय में वही भाषायें विकसित हो सकेंगी तथा ज़िन्दा रह पायेंगी जिनमें इन्टरनेट पर न केवल सूचनाएँ अपितु प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित सारी सामग्री उपलब्ध होगी। भाषा वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इक्कीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक भाषाओं की संख्या में अप्रत्याशित रूप से कमी आएगी।
हमें सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं के प्रौद्योगिकी विकास के सम्बंध में विचार करना चाहिए। इसका कारण यह है कि आने वाले युग में वही भाषाएँ टिक पायेंगी, जिनका व्यवहार अपेक्षाकृत व्यापक क्षेत्र में होगा तथा जो भाषिक प्रौद्योगिकी की दृष्टि से इतनी विकसित हो जायेंगी जिससे इन्टरनेट पर काम करने वाले प्रयोक्ताओं के लिए उन भाषाओं में उनके प्रयोजन की सामग्री सुलभ होगी।
भारतीय भाषाओं के प्रौद्योगिकी विकास में अंग्रेजी के प्रति हमारा अंधा मोह किस प्रकार सबसे बड़ी रुकावट है इसका अनुभव मुझे मेरी अमेरिका प्रवास की अवधि में हाल में ही हुआ। मैं अपने अनुभव को पाठकों को बाँटना चाहता हूँ। व्यापार, तकनीकी और चिकित्सा आदि क्षेत्रों की अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने माल की बिक्री के लिए संसार की अरबी, ग्रीस, चीनी आदि कम से कम 30 भाषाओं में भाषा के पैक बनाती हैं मगर वे हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में पैक नहीं बनाती। उनके प्रबंधक इसका कारण यह बताते हैं कि हम यह अनुभव करते हैं कि हमारी कम्पनी को हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के लिए भाषिक पैक बनाने की जरूरत नहीं है। हमारे प्रतिनिधि भारतीय ग्राहकों से अंग्रेजी में आराम से बात कर लेते हैं अथवा हमारे भारतीय ग्राहक अंग्रेजी में ही बात करना पसंद करते हैं। यह स्थिति कुछ उसी प्रकार की है जैसी मैं तब अनुभव करता था जब मैं रोमानिया के बुकारेस्त विश्वविद्यालय में हिन्दी का विजिटिंग प्रोफेसर था। मेरी कक्षा के हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थी बड़े चाव से भारतीय राजदूतावास जाते थे मगर वहाँ उनको हिन्दी नहीं अपितु अंग्रेजी सुनने को मिलती थी। हमने अंग्रेजी को इतना ओढ़ लिया है जिसके कारण न केवल हिन्दी का अपितु समस्त भारतीय भाषाओं का अपेक्षित विकास नहीं हो पा रहा है। जो कम्पनियाँ संसार की ग्रीक जैसी 30 भाषाओं में सॉफ्टवेयर बनाती हैं, वे हिन्दी, मराठी, बांग्ला, तेलुगु, तमिल जैसी भारतीय भाषाओं के लिए भाषा-पैक एवं सॉफ्टवेयर केवल इस कारण नहीं बनाती क्योंकि उन कम्पनियों के प्रबंधकों को पता है कि भारतीय ग्राहक अंग्रेजी मोह से कितना जकड़े हुए हैं। भारतीय भाषाओं में जो सॉफ्टवेयर सहज और स्वाभाविक ढ़ंग से बन जाते, वे हमारे अंग्रेजी को ओढ़ने के कारण नहीं बन रहे हैं। हमारी इस मानसिकता में जिस गति से बदलाव आएगा उसी गति से हमारी भारतीय भाषाओं की भाषिक प्रौद्योगिकी का भी विकास होगा।
इसी संदर्भ में, हम भारतीय विद्वानों से यह निवेदन करना चाहते हैं कि उन्हें अपनी अपनी भाषा में अपने अपने विषय की सामग्री अधिक से अधिक इन्टरनेट पर डालनी चाहिए। मशीनी अनुवाद को सक्षम बनाने के लिए यह जरूरी है ।जब प्रयोक्ता को भारतीय भाषाओं में डॉटा उपलब्ध होगा तो उसकी अंग्रेजी के प्रति निर्भरता में कमी आएगी तथा अंग्रेजी के प्रति हमारे उच्च वर्ग की अंध भक्ति में भी कमी आएगी। इसके बाद सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं की भाषिक प्रौद्योगिकी का अपेक्षित विकास हो सकेगा। भारतीय भाषाओं में परस्पर मशीनी अनुवाद सक्षम और कारगर ढ़ंग से काम कर सकेगा।
मशीनी अनुवाद सूचना निष्कर्षण ( Information Extraction) पद्धति पर आधारित होता है अर्थात मशीन किसी भाषा में जो डॉटा उपलब्ध होता है उसे याद कर लेती है और स्मृति क्षमता के आधार पर अनुवाद करती है। उसे जिन भाषाओं की जितनी अधिक सामग्री मिलती जाती है वह उन भाषाओं में अनुवाद करने के अपने मॉडल को उसी अनुपात में बदलती जाती है। सीखने एवं याद करने की प्रक्रिया सतत जारी रहती है। इस कारण जिन भाषाओं की जितनी सामग्री इन्टरनेट पर उपलब्ध होगी, उन भाषाओं में परस्पर मशीनी अनुवाद उतना ही प्रभावी और सक्षम होगा।
अंग्रेजी के प्रति अपनी अंध भक्ति में हमे कमी लानी होगी, विदेशी लोगों से अपनी अपनी भाषा में बोलने की आदत विकसित करनी होगी जिससे बहु-राष्ट्रीय कम्पनियाँ अपना माल बेचने के लिए भारतीय भाषाओं के सॉफ्टवेयर एवं पैक बनाने के लिए विवश हो जाएँ तथा इन्टरनेट पर अधिक से अधिक सामग्री का डॉटा अपनी भाषा में डालना होगा जिससे भारतीय भाषाओं का प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अपेक्षित विकास हो सके।
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प्रोफेसर महावीर सरन जैन
सेवा निवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, भारत सरकार
123, हरि एन्कलेव
बुलन्द शहर
203001
सहमत
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