अकेले की नाव अकेले की ओर ओशो को संबोधित मेरे अंतर्भावों का संगुंफन ...
अकेले की नाव अकेले की ओर
ओशो को संबोधित मेरे अंतर्भावों का संगुंफन
अंतर्भावक
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
पार्वतीपुरम, गोरखपुर
यह प्रति : अपने प्रिंटर पर मुद्रित किया
मुद्रण वर्ष : सन् 2012 ई.
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
रचना काल : बीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध
पता :
715 डी, पार्वतीपुरम्, चकसाहुसेन,
बशारतपुर, गोरखपुर, 273004.
पुरोवाक
कृष्ण के बाद ओशो धरती पर पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने जीवन को उत्सव के रूप में माना. कहा- जीवन जी भर जी लेने जैसा है, उत्सव मनाने जैसा है. लेकिन‘यह युग बुद्धि का है, और बुद्धि घाव हो गई है’ (गीता दर्शन-18,भूमिका). . वह एक जाग्रत पुरुष हैं. उनके रहते मैं उनके सान्निध्य का लाभ नहीं उठा सका. किंतु उनकी देशना व करुणा ने मुझे अत्यंत अभिभूत किया. उनके प्रति मेरा मन भावों के अतिरेक से भर उठा. मन में उठे इन भावों को उनके जीवनकाल में ही मैंने कुछ काव्य-पंक्तियों में ढालना शुरू किया. ऐसा कर उनसे अनुभूति-संपर्क बनाने की मेरी कोशिश थी. कुछ अभिव्यकितयाँ उन्हें भेजी भी थीं पर उन दिनों वह मौन में थे. मुझे उनकी सचिव शीला के प्रत्युत्तर से ही संतोष करना पड़ा. उनकी दृटि में हर नई-पुरानी अभिव्यक्तियों में अंतर्हित संवेदनाओं का स्वागत था. इच्छा थी इन्हें एक अलक्ष्य धागे में पिरोकर एक संगुंफन तैयार करूॅ और उन्हें भेंट करूँ. किंतु मेरी यह लालसा पूरी नहीं हो सकी.यह अभी अधूरा ही था कि वह देहांतरित हो गए. उनके देहांतरण के बाद इस संगुंफन को धरती से संपर्क के लिए उनकी माध्यम मा आनंदो को मैंने प्रेमार्पित किया है. मेरी काव्याभिव्यक्त भावतरंगें उन्हें स्पर्शित कर सकेंगी अथवा नहीं मैं नहीं कह सकता.ये भाव मेरे हृदय से उमड़कर मेरे मन में स्वतंत्ररूप से उठे हैं. यह संगुंफन अब विद्वद्जनों के सुपुर्द है, इसमें उनके प्रवेश और उनकी आलोचना के लिए.
अंतर्भावक
∙ मैंने इस संगुंफन की एक हस्तलिखित प्रति मा आनंदो को दिनांक 21.11.1999 ई. को भेज दी थी. मा आनंद साधना ने प्रत्युत्तर दिया कि वह हिंदी नहीं जानतीं अतः उत्तर नहीं दे सकीं......इसकी कुछ प्रतियाँ मैंने डॉ हरिवंश राय बच्चन, डॉ परमानंद श्रीवास्तव, डॉ के.सी. लाल और डॉ नामवर सिंह को भेजी थीं. इसकी दो-एक भावाभिव्यक्तियॉ आचार्य जानकीबल्लभ शास्त्री को भी भेजी थीं. इनमें से केवल शास्त्री जी का उत्तर आया. उन्हें ये अच्छी लगीं थीं.
प्रेमार्पण
देहांतरित ओशोके लिए मा आनंदो को
(25-12-1999 )
अंतर्भावक
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
अनुक्रम
1. हिंदी कविता की चेतना-यात्रा
2. पुरश्चरण
3. प्रतिसंवेदन
4. अकेले की नाव
5. अकेले के पल
6. अकेले की ओर
7. बीज-संवेदन
8. अनुस्मरण
हिंदी कविता की चेतना-यात्रा और यह संगुंफन
हिंदी कविता की चेतनायात्रा में वह सबकुछ समाहित है जो काव्यचेतना से संबंधित है- जैसे, कविता की समझ, उसके समझने की दृष्टि, काव्य के सत्य का स्पष्ट बोध, भाववस्तु का चुनाव, काव्यभाषा में करुणा और संवेदना उँड़ेलने की शक्ति आदि.
हिंदी कविता की यात्रा इसके उद्भव काल से ही प्रारंभ हुई मानी जाती है. महापंडित राहुल सांकृत्यायन यह समय सन् 769 ई मानते हैं. यह वह समय था जब हिंदी अपभ्रंश का केंचुल छोड़कर अपना रूप ले रही थी.
हिंदी के उद्भव से उसके वर्तमान तक के विकास में कवियों की काव्य-चेतना ने कई करवटें ली हैं. ये करवटें अधिकतर काव्यवस्तु और काव्यभाषा में ली गई हैं. काव्य की समझ, दृष्टि और उसका सत्य लगभग एक-सा है. इन काव्यवस्तुओं में भारतेंदु के समय तक भावों की प्रधानता है. छायावाद में कल्पना प्रधान हो गई है. इसके बाद के कवियों की काव्यचेतना बहुत उलझी हुई है. वर्तमान में भी वही स्थिति है. अज्ञेय इसे उलझी हुई संवेदना कहते हैं. मेरा यह संगुंफन इन काव्यचेतनाओं के कितने मेल में है और कितना अलग, इस आमुख में मैं इसे ही समझने का प्रयास कर रहा हूँ.
ंिहदी कविता की यात्रा सिद्धों की काव्यरचना से आरंभ होती है. ये सिद्ध लोक में अपनी वाणी, जिसमें पाखंड का विरोध और लोगों के लिए उनकी सहजवृत्ति के अनुसार चलने का संदेश था, का प्रचार साहित्यिक अपभ्रंश के साथ साथ प्रचलित जनभाषा में भी करते थे. इसमें अपभ्रंश से अलग होते हिंदी के शब्द और भाषारूप अधिक मुखर थे. यह भाषारूप उस समय ‘हिंदी’ नहीं ‘भाषा’ के नाम से जाना जाता था. दोहाकोश और चर्यागीत के रूप में लिखी इनकी रचनाऍ इसी भाषारूप में हैं. ये सिद्धजन सहजयोग के साधक थे. लोगों की सहजवृत्ति पर इनके अधिक जोर देने के कारण समाज में एक स्वच्छंदता व्याप गई. इसकी प्रतिक्रिया में नाथयोगियों ने हठयोग पर जोर दिया. इसके प्रचार के लिए इन्होंने भी जनभाषा में अपनी कुछ काव्यरचनाएँ दीं. ये प्रधानतः उपदेशात्मक हैं. इनका साहित्य दोहों और पदों में मिलता है. यदा कदा चौपाइयों के भी प्रयोग मिल जाते हैं. नाथयोगियों में गोरखनाथ प्रमुख माने जाते है. इनकी कविताएँ ‘सबदी’ में संकलित हैं. इस समय के अपभ्रंश के जैन साहित्य की परंपरा का तब की अपभ्रश से अलग हो रही हिंदी में भी प्रवेश हुआ. जैन साधक भी अपनी वाणी के प्रचार के लिए जन-भाषा में रचनाएँ कर रहे थे. चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने इसे पुरानी हिंदी कहा है. इन लोगों ने अपनी काव्यरचना के लिए प्रबंध, मुक्तक और खंडकाव्य विधा को अपनाया. पदुमचरिउ, भविषयसत्त-कहा आदि इसके उदाहरण हैं.
सिद्ध, नाथ और जैन कवियों की ये काव्यरचनाएँ दसवीं सदी के अंत तक चलती हैं. इनकी काव्य-चेतनाएँ लगभग एक सी हैं और सीमित हैं. इनमें अपनी कविताओं में काव्यगुणों के समावेश का बहुत चाव नहीं था. इनके द्वारा अपनाई गई विधाओं में ही कुछ अंतर है. सभी का एक ही उद्देश्य था अपनी वाणी और साधना का जनभाषा में प्रचार करना. जिन लोगों से इनको अपनी बातें कहनी थीं उनकी समझ और धारिता का ये पूरा ध्यान रखते थे.
सन् 769 ई से सन् 1000 ई के इस काल में अपभ्रंश के कई रूप थे. इसके शौरसेनी, अर्धमागधी और मागधी रूपों की कोखों में अंकुरित होकर हिंदी की विभिन्न बोलियों-खड़ी बोली, अवधी, डिंगल, पिंगल (ब्रजभाषा), मगही, मैथिली और भोजपुरी आदि ने जन्म लिया. दसवीं सदी के अंत तक इनमें से कई के रूप एकदम स्पष्ट हो गए और अलग अलग क्षेत्रों में बोलियों के रूप में रूढ़ हो गए. इनमें काव्यरचनाएँ भी होने लगीं. इन बोलियों में सबसे पहले डिंगल (राजस्थानी) में काव्यरचनाएँ मिलती हैं.
सन् 1000 ई में महमूद गजनवी के आक्रमण के बाद हिंदी कवियों में कुछ काव्यप्रवृत्तियाँ उभरती दिखाई देने लगती हैं. पृथ्वीराज पर मुहम्मद गोरी के आक्रमण (सन् 1199 ई.) के बाद ये प्रवृत्तियाँ बहुत साफ दिखती हैं. इस समय सारा उत्तर भारत युद्धों से आक्रांत था. कवियों ने अपने नायकों के उत्साहवर्द्धन में वीर रस की कविताएँ लिखीं. उनके जीवन चरित लिखे. इसमें युद्धों के जीवंत वर्णन किए, चरित नायकों की नायिकाओं के सरस श्रृंगारिक वर्णन किए. वीरगीत लिखे. इन कवियों की दो प्रमुख विशेषताएँ थीं, इनका राज्याश्रय में जाना और अपने आश्रयदाता राजाओं की अतिरंजित प्रशंसा के गीत लिखना, ये कवि चारण और भट्ट कहे जाते थे. इसीलिए इनके द्वारा प्रस्तुत साहित्य को चारणी सहित्य कहा जाता है. चारणों ने अपने काव्य के लिए पुरानी राजस्थानी भाषा डिंगल को और भट्टों ने पिंगल (ब्रजभाषा) को अपनाया. काव्य विधाएँ प्रबंध और वीरगीत (बैलेड्स) अपनाई गईं. ये रचनाएँ काव्यगुणों से संपन्न हैं. इनकी चेतना में आवेग और आवेश की मात्रा भरपूर है. इस अवधि में हिंदी की काव्यचेतना में भाव-वस्तु बदली हुई थी. भाषा में ओजस्विता थी. रसों में वीर और श्रृंगार की मात्रा भरपूर है. युद्धों का रोमांचक और उत्तेजक वर्णन किया गया है. यह चेतना उस समय के परिवेश और तात्कालिक जीवन-सरणि के अनुकूल थी. कवियों ने अपने काव्यों में काव्य-रूढ़ियों का प्रयोग किया है. लेकिन ये काव्यरूढ़ियाँ अबूझ नहीं हैं.
हिंदी काव्य साहित्य के इतिहास में चारणी साहित्य के उपरांत विद्वानों ने कुछ फुटकर कवियो की चर्चा की है जो अपने क्षेत्रों में बड़े ही प्रतिभाशाली और उच्च कोटि के काव्यगुणों से संपन्न थे. ये थे अमीरखुसरो और विद्यापति. खुसरो ने खड़ी बोली (हिंदवी) में पहेलियाँ और मुकरियाँ लिखीं, जो उस समय की जन-मनोवृत्ति के अनुकूल थीं. विद्यापति ने अपनी प्रसिद्ध पदावली, पुरानी हिंदी के अवहट्ठ रूप में लिखी जिसमें उनके संरक्षक राजा शिवसिंह को लक्ष्य कर लिखी कविताएँ भी हैं. अपनी पदावली को सहज बोधगम्य तथा हृदयगम्य और उत्फुल्ल बनाने के लिए उन्होंने लोक के जीवंत शब्दों का संयोजन कर उनमें करुणा और संवेदना की तरलता पिरो दी. इनके लिए काव्यसत्य था, लोक की हृद्तंत्री पर जीवन के रागात्मक तत्वों और उसकी संवेदना की उंगलियों के पोर रख देना. इन्होंने इसके लिए श्रृंगार की राह अपनाई जो उस समय अभिव्यक्ति की बहुप्रचलित राह थी. कहते हैं, इधर विद्यापति पदावली के पद रचते थे और उधर दूसरे दिन वह पद पूरी मिथिला में गाए जाने लगते थे. ये दोनों ही दरबारी कवि थे.
चौदहवीं सदी के बाद हिंदी काव्यधारा में कवियों की प्रमुख प्रवृत्तियाँ एकदम अलग हो जाती हैं. हालाँकि सिद्ध साहित्य में इसकी जड़ें अवश्य मिलती हैं. कहा जा सकता है कि इस युग में प्रवृत्तियों का एक तरह से संस्कार हो गया. अब काव्य-वस्तु में वे ही कथ्य लिए गए जिसके माध्यम से ये भक्त कवि अपनी भक्ति भावना को व्यक्त कर सकें. इस समय युद्धों से जर्जर इस देश के मनोबल को बनाए रखने के लिए लोगों को उनकी आंतरिक शक्ति से परिचित कराना आवश्यक था. यह कार्य अक्खड़ कबीर ने अपनी साधना से प्राप्त सत्यानुभूति को बेलाग काव्यात्मक दोहों में व्यक्त कर किया. कबीर अपढ़ अवश्य थे पर सत्संग से प्राप्त उनका ज्ञान अनूठा था. काव्य का संस्कार भी उनको सत्संग से ही मिला था. कबीर ने पराजय से जड़ हो चुकी देश की मानसिकता को झकझोर देने के लिए अपने काव्य में अनेक प्रयोग किए जिसकी जड़ें इस देश में ही थीं. योग के प्रतीक और उलटबॅासियों को काव्य में लाना ऐसे ही प्रयोग हैं. जायसी ने इसके लिए सूफी प्रेम को आख्यानक काव्यों में पिरोया. तुलसी ने राम का चरित-काव्य लिखा और सूरदास ने कृष्ण की बाल और युवा छवि तथा गोपी-विरह को अपने काव्य का आधार बनाया. इस काल के भक्त कवियों की काव्यदृष्टि लोकोन्मुख थी. अतः इनके काव्य में लोकमंगल की भावना ही उच्छल है. इन भक्त कवियों ने लोकजन के मन और हृदय तक पहुँचने के लिए अपने क्षेत्रों के अनुसार लोकभाषा को काव्याभिव्यक्ति का माध्यम बनाया. आलोचक कहते हैं कबीर ने भाषा को दरेरा देकर उससे अपनी बातें कहलवाईं और लोकजन तक पहुँचाई.
कबीर ने जो भाषा अपनाई उसमें हिंदी की कई बोलियों का पुट है. विद्वानों ने इसे संधा भाषा कहा है. इसमें भोजपुरी की मात्रा अधिक है. भोजपुरीवाले कबीर को भोजपुरी का प्रथम कवि मानते हैं. सूरदास ने ब्रजभाषा को तथा जायसी और तुलसी ने अवधी को प्रमुखता दी. छंदों में इन लोगों ने प्रमुखता से दोहा, चौपाई और अर्द्धाली का प्रयोग किया है. इनकी काव्यचेतना में इनकी काव्यानुभूतियों और काव्याभिव्यक्तियों के विविध आयाम हैं. इनकी काव्यदृष्टि किसी भी आयाम में संकुचित नहीं है. इन लोगों ने अपनी काव्याभिव्यक्तियों के लिए जिन बिंबों और प्रतीकों का प्रयोग किया है वे जन-जीवन के सामान्य संस्कारों और व्यवहारों से लिए गए हैं. इन लोगों को जिन तक अपने अनुभव, अनुभूति और उद्गार पहॅुचाने हैं उनके प्रति ये बहुत उदार और सहृदय हैं. ये कवि राज्याश्रय से बहुत दूर थे.
सत्रहवीं सदी के अंत तक भक्ति काव्य की सरिता अविच्छिन्न बहती रही. इस सदी का अंत होते होते कदाचित अचानक कवियों की दृष्टि में एक अल्लेखनीय मोड़ आया. भक्ति की काव्यधारा क्षीण हो गई. अब कवियों की दृष्टि में रीति प्रमुख हो गई. ये कवि राज्याश्रयप्राप्त थे. अतः राजाओं की रुचियों ने इनकी काव्यचेतना को प्रभावित किया. युद्धरत राजाओं की प्रसन्नता हेतु इन्होंने नायक नायिकाओं की भावभंगिमाओं और उनके चितवन का ऐसा अनूठा चित्रा खींचा कि राजा तो राजा आमजन भी उसके भावसौंदर्य में डूबकर निहाल हो गया. इन कवियों द्वारा उकेरा गया भाव सौंदर्य अनूठा तो है ही, अद्वितीय भी है. लेकिन इसमें युगजीवन की ध्वनि का अभाव दीखता है. हाँ जहाँ रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध कवि राग रंग में डूबे राजाओं के लिए नायिकाओं का नख शिख वर्णन कर उनका मनोरंजन कर रहे थे वहीं कुछ रीतिमुक्त कवि भी थे जो जनता की युगीन आकांक्षाओं को स्वर दे रहे थे. इसमें भूषण प्रमुख थे. इन्होंने अपनी जनता की स्वतंत्रता के लिए मुगलों से लड़ाई लड़ रहे शिवाजी और छत्रसाल की वीरता के गानों से उनकी सेनाओं के साथ जनता का भी उत्साहवर्द्धन कर रहे थे. इसके लिए वे युद्ध के मैदान में भी जाते थे. रीतिबद्ध कवियों ने काव्यगुणों में नए नए रीतिवादी प्रयोग किए. यह अलंकारों में केशव के विलक्षण प्रयोगों में देखा जा सकता है. उनके इन्हीं प्रयागों के कारण वे आमजन से कट-से गए. आधुनिक प्रयोगवादी कवियों ने भी कुछ इसी प्रकार के प्रयोग कविता के वस्तु-क्षेत्र में किया है. ये कविताएँ भी धीरे धीरे आमजन से दूर होती चली गईं हैं. अज्ञेय के चौथे सप्तक तक आते आते ये कविताएँ चंद बुद्धिजीवियों तक सीमित होकर रह गईं हैं. रीतिवादी कवियो ने अपने काव्य के लिए ब्रजभाषा का उपयोग किया और काव्यरूप में दोहा तथा पद को अपनाया. काव्यालंकारों के प्रति इनकी दृष्टि बहुत रूढ़ थी.
पद्माकर (सन् 1753 ई - सन् 1833 ई) रीति परंपरा के अंतिम कवि थे. इन्हीं के समय में सन् 1800 ई. में हिंदी साहित्य के क्षेत्र में एक नया क्रांतिकारी मोड़ आया. अंग्रेजों ने अपने धर्म के प्रचार के लिए प्राच्य भाषाओं के महत्व को समझकर इनके विकास के लिए कोलकाता में फोर्ट विलियम कॉलेज खोला. इसमें हिंदी उर्दू के विकास के लिए हिंदोस्तानी भाषा विभाग खोला गया. सन् 1803 ई. में इसके अध्यक्ष जब प्राइस हुए तो हिंदी के लिए अलग से हिंदी विभाग खोला. तब के प्रसिद्ध हिंदी उर्दू लेखक मुंशी लल्लू लाल उसमें भाषामुंशी नियुक्त किए गए. इसी समय से तबतक प्रचलित हिंदी साहित्य की भाषा ‘भाषा’ अथवा ‘भाखा’‘हिंदी’ के नाम से जानी जाने लगी. पद्माकर के बाद जो कविताएँ लिखी गईं उनकी भाषा ब्रजभाषा ही रही किंतु गद्य की भाषा हिंदवी से नई चाल की खड़ी बोली हिंदी हो गई. इस समय जो कविताएँ लिखी गईं वे रीति परंपरा से अलग थीं. इनके बाद सन् 1857 में साहित्य के क्षेत्र में भारतेंदु के आने से हिंदी की काव्यचेतना में बुनियादी मोड़ आया. वल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि हिंदी साहित्य के हर विधागत क्षेत्र में चेतनागत क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ. पश्चिमी चेतना की बयार ने साहित्य के प्रति उनकी दृष्टि को नया आयाम और विस्तार दिया.
भारतेंदु का ध्यान युग की चेतना और युग की साहित्यिक आवश्यकताओं की ओर गया. उन्होंने हिंदी साहित्य में एक नए मूल्य ‘स्वाधीनता’ को स्थापित किया. हिंदी गद्य में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित किया. कविता तो वह ब्रजभाषा में ही करते रहे पर उनमें स्वाधीनता के स्वर गूँज उठे. इनके प्रयास से कवियों को आधुनिकता की आहट मिलने लगी. भारतेंदु की कविताओं में भक्ति, रीति और आधुनिक तीनों तरह की चेतनाएँ समाविष्ट हैं.
भारतेंदु के बाद कविता में जातीय चेतना के स्वर ने स्थान पाया. इसी युग में कविता में खड़ी बोली का प्रयोग किया गया. प्रथम प्रयास श्रीधर पाठक ने किया और महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उसे परिपुष्ट कर दिया. द्विवेदी जी कविताओं को सुधारकर और सँवारकर अपनी ‘सरस्वती’ में छापते थे. इस युग में लोगों में जातीय स्मृति जगाने के लिए कवियों ने अपने इतिहास और पुराणेतिहास का आधार लिया. पूर्व के कवियों के द्वारा उपेक्षित पात्रों को इस दौर के कवियो द्वारा सहानुभूति दी गई. प्रबंध और खण्डकाव्य लिखे गए, गीत और चंपू काव्य भी लिखे गए. इन कवियों की काव्यचेतना लोकोन्मुख थी. लोक की चित्तवृत्ति के अनुकूल और चित्ताकर्षक थी. शैली इतिवृत्तात्मक थी. इनका काव्यसत्य भी युग के अनुकूल जन-संवेदना को उभारना था.
इस इतिवृत्तात्मकता में सरल हृदय का स्फोट था, आवेग था, आवेश था. खुरदरी भाषा में ये खूब खिले भी. थी तो इसमें भी कल्पना की उड़ानें पर यह कल्पना के वैभव से लदी फदी नहीं थीं. इसमें हृदय के कोमल भावों की अभिव्यक्ति के अवसर कम थे. रमणीय दृश्यों और रमणीक भावनानाओं को रमणीय बनाकर प्रस्तुत करने की शक्ति कम थी. ऐसे में कुछ कल्पना के धनी कवि साहित्य के क्षितिज पर अवतरित हुए और उन्होंने हिंदी कविता की दशा और दिशा ही बदल दी. उनके प्रयास से इसमें कोमल कांत भावों को अभिव्यक्ति देने की असीम शक्ति आ गई. इस हेतु उन्हें अप्रस्तुत वायवीय कल्पनाओं में भी उतरना पड़ा. उनके सामने एक विवशता भी थी.
इस समय (सन् 1915 ई) गाँधी के भारत आगमन के बाद स्वतंत्राता की माँग जोर पकड़ चुकी थी. देश की जनता आंदोलित थी. गिरफतारियाँ भी होने लगी थीं. पुस्तकें प्रतिबंधित होने लगी थीं. पर कवियों को जनाकांक्षा के स्वर में स्वर मिलाना था. ये कविता में प्रस्तुत को अप्रस्तुत के सहारे अभिव्यक्ति देने लगे. इन अभिव्यक्तियों को काव्य के क्षेत्र में छायावाद के नाम से जाना जाने लगा. इनकी आँखों में कविता का एक विशाल और व्यापक फलक था. अंग्रेजी साहित्य का काव्य-लोक और चिंतन- सरणि भी इनके सामने थी. इनका उपयोग भी इन कवियों ने किया किंतु केवल अपने दृष्टि-विस्तार के लिए (वह भी उन्हें पचाकर), अनुरंजित होने के लिए नहीं. कविता में मुक्त छंद का प्रयोग इन्हीं में से एक निराला ने किया. निराला ने ही कविता के लिए परंपरा से चुने जाते रहे विषयों से अलग विषय चुना ‘कुकुरमुत्ता’. गुलाब के फूल को मार्क्स के शब्द कैपिटेलिस्ट की व्यजना दी. मेरी समझ से इसी ‘कुकुरमुत्ता’ के गर्भ से प्रगतिवाद का बिरवा निकला. छायावादी चेतना में सर्व के साथ व्यक्ति-अनुभूति के स्वर भी मुखर हैं. कदाचित बच्चन जी की व्यक्तिगत भावानुभूतियों के मुखरित स्वर उसकी अग्रिम कड़ी हैं. हालाँकि इन व्यक्तिगत अनुभूतियों में व्यक्ति प्रमुख नहीं है अनुभूतियाँ प्रमुख हैं. ये व्यक्ति में सामान्य अनुभूतियों का प्रतिफलन थीं. यह व्यक्ति -चेतना आगे चलकर व्यक्ति की इयत्ता में सीमित होकर हिंदी कविता में प्रमुख रूप से स्थापित हो गर्इ्र.
हिंदी कविता की इस चेतना-यात्रा में मैंने अनुभव किया कि पुरानी हिंदी के सरहपाद (सरोजभद्रद्ध) से खड़ी बोली हिंदी के सूर्यकांत त्रिापाठी निराला तक के हिंदी कवियों की काव्यचेतना युगानुरूप परिमार्जित और परिवर्तित होती रही है. इसके भीतर अंतर्वर्तित संवेदना की अंतर्धारा सदैव करुणापूरित रही. कविता अपनी जगह पर कविता की तरह रही, कविता की हैसियत में. मेरी समझ में कविता का मूल स्रोत करुणा ही हैे. यही करुणा संवेदनशील सहृदय पाठक या श्रोता के हृदय में प्रतिसंवेदित होकर अकायिक रूप ग्रहण करती है और अनुचेतित शब्दों में पुर कर कविता में बह उठती है. कविता संप्रेषणीय शब्दों की भावतरंगों में होती है जो पाठक को समानुभ्ूति देती है.ये भावतरंगें अनेक तरह की हो सकती हैं.
सरहपाद से निराला तक की कविताओं में भारतीय काव्य परंपरा के झीने तार एक अंतर्धरा के रूप में अनुस्यूत हैं. इनके बाद की कवि-चेतना को ये झीने तार उसकीे स्वच्छंद गति में अवरोध उत्पन्न करते-से लगे. साथ ही इसमें सामाजिक चेतना का न होना उन्हें एक अभाव-सा लगा. मार्क्सवाद से प्रभावित कवि कविता में राजनीतिक चेतना को पिरोने के पक्षधर थे. परिणामतः हिंदी काव्य जगत में प्रगतिवाद का आविर्भाव हुआ. यह वाद मार्क्सवादी चिंतन से प्रभावित था. इसमें कविता भाव-चिंतन से समाज-चिंतन की ओर आगे बढ़ी. इसमें जन-जीवन की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को कविता की काव्य-वस्तु के रूप में अवश्य स्वीकार किया गया, पर कविता समाज की मार्क्सवादी व्याख्या से आगे नहीं बढ़ सकी. मार्क्सवाद प्रगतिवादी कविता के लिए रूढ़ हो गया. लेखकों के प्रलेस, जलेस आदि लेखक-संघ बने. इन लेखक-संघों का कमाल था कि इनमें सम्मिलित कवि एक दूसरे के लिए अप्रगतिवादी थे.
कविता की इस प्रगतिवादी धारा के उपरांत इसकी वह धारा प्रवाहित हुई जिसे आलोचक नंददुलारे बाजपेई ने बैठे ठाले का धंधा बता दिया. इस काव्यधारा को प्रयोगवाद का नाम भी उन्न्होंने ही दिया. पता नहीं यह बैठे ठाले का धंधा था या नहीं, पर अब यह सबने समझ लिया है कि प्रयोगवादी कविता लिखनेवाले कवियों की काव्यचेतना पूर्व के कवियों की काव्यचेतना से एकदम तो नहीं पर बहुत अलग थी. इन कवियों में एक बेचैनी थी, कविता के क्षेत्र में कुछ नया देने की. ये कविता में विश्वचिंता से कदम मिलाना चाहते थे. इनके सामने अपने साहित्य के साथ पश्चिम का साहित्य भी था जिसमें इस चिंता को लेकर नए नए प्रयाोग हो रहे थे. इन कवियों को छायावाद की वायवीय कल्पना भा नहीं रही थी. इनमें जीवन के यथार्थ को काव्य का विषय बनाने की प्रबल ललक थी. इनके सामने प्रगतिवादी काव्य-धारा भी थी पर इनका मार्क्सवाद के ढाँचे तक में ही फिट होकर रह जाना इन्हें अलम नहीं था. ये जीवन और समाज के विस्तृत और यथार्थ फलक को अपनी काव्यचिंता में समोना चाहते थे. पर पूर्व की काव्यपद्धति में इन्हें कोई राह नहीं मिल पा रही थी. ये कवि अभी अलग अलग भी थे. इनका समस्वर अभी नहीं बन पाया था. एक हिंदी सम्मेलन के अवसर पर गए इन कवियों ने अपनी इसप्रकार की कविताओं का एक संकलन निकालने की राह खोजी. इसपर उनमें एक सहमति बनी. फलतः सन् 1943 में अज्ञेय के संपादकत्व में तारसप्तक के नाम से उनका संकलन प्रकाशित हुआ. तारसप्तक के प्रकाश में आते ही हिंदी काव्य के क्षेत्र में एक नए वादिक आंदोलन की धमक सुनाई दी. इस संकलन की राह से लोक-जन तक पहुँचने की उन्हें राह मिल गई.
किंतु इस संकलन में संपादक की काव्यदृष्टि और संकलित कवियों के संबंध में उनका वक्तव्य ही अधिक मुखर हुआ. संपादक ने अपने वक्तव्य में पाश्चात्य काव्यप्रयोगियों के तर्ज पर, वल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि उन काव्य- प्रयोगियों के विचारों और शब्दों में ही संकलित कवियों का परिचय दिया- ‘इनमें किसी बात पर मतैक्य नहीं है’, ‘ये राहों के अन्वेषी हैं’. स्पष्ट रूप से यह कहा जा सकता है कि तारसप्तक के संपादक की काव्य-दृष्टि में पाश्चात्य काव्य-दृष्टि के तत्व अधिक हैं जो सीधे वहीं से उठा लिए गए हैं. सप्तक की कविताओं से यह भी लगता है कि सप्तक के कवि जिन राहों के अन्वेषी हैं वे अभिव्यक्ति की ही राहें हैं. और सरहपाद से सूर्यकांत तक की काव्ययात्रा में जिसे भाव-वस्तु कहा गया था, वस्तु अथवा विषय कोई भी हो-भले ही वश्स्तु में तब विविधता नहीं थी-उसमें प्रमुखता भाव की होती थी. अब उसे काव्य-वस्तु कहा जाने लगा. इसमें भावों के स्थान पर विचार प्रमुख हो उठे. नई कविता में बस्तु की विविधता को स्थान दिया गया. इन नए कवियों में कुछ (अकवितावालों) ने ऐसे वस्तु-क्षेत्र में भी प्रवेश किया जिसमें रीतिकालीन कवि भी प्रवेश करने का साहस नहीं कर सके थे. इसमें बुद्धि और कवि की स्वच्छंद वृत्ति प्रधान हो गई. भाव मनुष्य के अस्तित्व का केंद्र हैं जबकि बुद्धि उसकी परिधि. नई कविता मनुष्य की परिधि पर ही अबतक घूम रही है. इन काव्य-वस्तुओं में उन क्षेत्रों से भी परहेज नहीं किया गया जिनमें भदेस ही भदेस है.
सप्तकों-तारसप्तक से चौथे सप्तक तक-के संपादक ने अपने संपादकीय वक्तव्यों में काव्य-सत्य की भी चर्चा की है. तापसप्तक के कवि मुक्तिबोध ने भी अपनी ‘एक साहित्यिक की डायरी में’ काव्य-सत्य की बात उठाई है. निश्चित ही काव्य का एक अपना सत्य है. मेरी समझ में दुनिया के सभी कवियों के लिए यह एक ही होना चाहिए. जब क्रौंच-जोड़े में से एक नर-क्रौंच के बध से मादा- क्रौच का हृदयविदारक चीत्कार सुनकर वाल्मीकि का हृदय करुणा से भर गया था तब उनके अंतर्जगत में उपजी अनुभूतिसिक्त संवेदना ही उनकी वाणी से कविता बनकर उमड़ पड़ी थी. तो इस करुणापूरित अनुभ्ूति-संवेदना के अलावे काव्य का सत्य और क्या हो सकता है. पर इनके वक्तव्यों से यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि काव्य-सत्य से इनका क्या तात्पर्य है. हाँ काव्यदृष्टियाँ भिन्न हो सकती हैं, काव्याभिव्यक्तियाँ भिन्न हो सकती हैं. ऐसे में सप्तक के कवि जिन राहों के अन्वेषी हैं वे राहें काव्य-सत्य की नहीं हैं. करुणा और संवेदना की राहें नहीं होतीं. ये ही शब्दों से आत्मीय होकर उन्हें काव्य का व्यक्तित्व प्रदान करती हैं. राहें तो दृष्टियों और अभिव्यक्तियों की ही हो सकती हैं. कविता के संबंध में इनकी दृष्टियाँ और उसकी अभिव्यक्ति की राहें पूर्ववर्ती कवियों से नितांत अलग हैं, इनकी कविताओं में यह साफ झलकता है.
सप्तक के कवियों की काव्य-चेतना में उनकी व्यक्ति-चेतना ही उद्बुद्ध है. उनकी अनुभूतियॉ भी व्यक्ति सापेक्ष अधिक हैं समष्टिगत कम. इन लोगों ने अभिव्यक्ति की एक राह या शैली अपनाई है ‘मैं’ की. नए कवियों के लिए यह शैली बहुत उपयोगी है और कदाचित काव्यजगत के लिए भी. अज्ञेय इसे कवि के लिए एक आवश्यक परसोना बताते हैं. वैसे ही जैसे नाटक में वास्तविक पात्र को अभिनीत करनेवाला अभिनेता अभिनेय चरित्र का एक परसोना होता है. तब क्या प्रयोगवादी अथवा नई कविता में ‘मैं’ कवि की अनुभूति का नाट्य कर रहा होता है ? तब जिस अनुभूति की प्रमाणिकता का हौवा खड़ा किया गया था उसकी प्रामाणिकता का क्या होगा. अनुभूति की प्रामाणिकता की बात तो तभी की जा सकती है जब अनुभूति स्वयं ‘मैं’ की ही हो. अभिनेता अभिनेय पात्र का समग्ररूप का साक्षात नहीं होता. वह अपनी सटीक अनुकरण-कला से अभिनेय को प्रत्यक्ष कर रहा होता है. वहाँ अभिनेता अभिनेय पात्र नहीं है और अभिनेय पात्र अभिनेता नहीं है.
मैं यह भी महसूस करता हूँ कि जिस नई तरह की चेतना से संवलित कवियों को सप्तक के मंच पर इकट्ठा कर एक नए तरह के काव्यांदोलन का उद्घोष किया गया था उसका देश, काल, परिवेश और अनुभूत अपने नहीं थे. देखें, सन् 1939 ई में दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ा. भारतीय सेना को भी उस युद्ध में झोंक दिया गया. यहाँ उसका विरोध हुआ पर स्वतंत्राता सेनानियों तथा यहाँ की स्वतंत्राताकामी जनता में इसके प्रति जरा भी विक्षोभ के लक्षण नहीं दिखे. उलटे सन् 1942 ई में स्वतंत्राता के अंतिम वारे न्यारे के लिए ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का पुरजोर नारा लगा. इसकी जबरदस्त धमक सन् 1947 ई तक बनी रही. अंततः हमें आजादी मिली. सन् 1962 ई के पूर्व तक हमें कोई ऐसा धक्का नहीं लगा जिससे हम कुंठित अैर संत्रस्त हों. पर नई धरा के ये कवि अद्भुत रूप से कुंठा और संत्रास का अनुभव करते रहे. वास्तव में ऊसरे महायुद्ध 1939-45 ने पश्चिमी मन, बुद्धि को बुरी तरह झकझोर दिया था. पश्चिम का मन संत्रास और बुद्धि कुंठा से भर गई थी. और राहों के अन्वेषी ये कवि अपने यहॉ के जनमानस की मनोदशा को किनारे कर पर की कुंठा और संत्रास से पीड़ित होते रहे.
इस दौर की काव्य-चेतना में एक और बात उल्लेखनीय है. इस काव्य-चेतना से संवलित कवि अपने अंतर्जगत की अंतर्ग्रंथियों से बुरी तरह पीड़ित दिखते हैं. प्रपद्यवाद या नकेनवाद, अकवितावाद, कविता की वापसी, विचार कविता, कभी कुछ और पूर्वलग्नयुक्त कविता आदि अतिरंजनाएँ समय समय पर स्फोट करती रहीं हैं. ये सारे वाद कवियों के अपने निजी आग्रहों के विस्फोट-से हैं. कविता तो कभी कहीं गई नहीं पर कुछ कवि अपने अंतर को टटोलने के बजाय इसके विस्मृत होने, खो जाने और फिर उसके वापस होने का घोष करते रहे. यहाँ उल्लेखनीय है कि यह सब अज्ञेय की प्रयोगवादी अथवा नई कविता के बाद की स्थिति है जो स्पृहणीय नहीं है.
पर यह भी झुठलाया नहीं जा सकता कि आज की तिथि में आज के कवि इसी नई कविता के दौर में सॉस ले रहे हैं.
यह संगुफन
प्रारंभ से लेकर आजतक की हिंदी की कविता-यात्रा की समीक्षा में मैंने महसूस किया कि छायावाद के पूर्व तक करुणा और उसकी संवेद्यता कविता के केंद्र में रही है. इसमें भावना की प्रधानता रही है. छायावाद में भावनाओं के साथ कल्पना की अनूठी उड़ान भी जुड़ गई है. कथ्य को संवेद्य और संप्रेष्य बनाने लिए कवियों ने काव्यगुणों पर भरपूर ध्यान दिया हे. जिन लोगों में कवियों की अभिव्यक्तियाँ जानी थीं उनकी ग्रहणशीलता, उनकी भावगत और मानसिक स्थिति का उनको पूरा बोध होता था. संस्कृत में जिसे साधरणीकरण कहा गया है आज उसका स्थान संप्रेषणीयता ने ले लिया है. ये कवि अपनी अभिव्यक्तियों के संप्रेषण के लिए पूरी तरह सजग रहते थे. पर मार्क्सवादी कविता से आजतक की कविता के केंद्र से ये तत्व और प्रवृित्त विस्थापित -से हैं. इन कविताओं के केंद्र में बुद्धि बुरी तरह हाबी है. इनमें आयास का श्रम है, अभिव्यक्तियाँ स्फूर्त नहीं हैं. ये कविताएँ जिन आयामों में विचरण कर रही हैं वे कुछ ही बुद्धिशाली लोगों तक अपनी पहुँच बनाती प्रतीत होती हैं. इनकी आलोचनाएँ और समीक्षाएँ भी कुछ इस तरह प्रस्तुत की गई हैं, और की जा रही हैं कि उनमें वायवीयता ही अधिक मिलती है. इधर आलोचना में एक नया स्वर सुनाई दिया है- ‘कविता का अर्थात’. डॉ परमानंद श्रीवास्तव ने कुछ चुनिंदा कवियों की कविताओं में ‘कविता के अर्थात’ को खोजने का प्रयास किया है, गोया ‘कविता का अर्थात’ कविता के लिए कोई नई मूल्य-चेतना हो अथवा कविता स्वयं में आज इतनी दुरूह हो गई है कि उसके अर्थ को स्पष्ट करने के लिए उसका कोई अर्थात खोजना पड़ रहा है.
मेरा यह संगुंफन नई कविता के इसी दौर में लिखा गया है, अभी ही बीती सदी के उत्तरार्द्ध में. मेरी भावाभिव्यक्तियों के केंद्र में करुणा और उसकी संवेद्यता, दोंनों हैं. बुद्धि भी सानुपातिक है. विचार हैं, कल्पना है. इसमें लघु मानव भी है और महामानव भी. पर यहाँ लघु और महा एक झीने अंतर्स्वन से जुड़े हैं. इन्हें संप्रेष्य बनाने के लिए मेरी काव्य-चेतना भी पूरी तरह सजग है. हाँ इनमें कुछ तत्सम शब्दों को लेकर सामान्य पाठकों को समस्या हो सकती है. पर वे इस कठिनाई से आसानी से पार पा सकते हैं क्योंकि इनमें वायवीयता नहीं है.
अपनी भावाभिव्यक्तियों के लिए मैंने कलेवर ‘नर्इ्र कविता’ का, छंद में मुक्त छंद और शैली ‘मैं’ की अपनाई है. यह ‘मैं’ एक अर्थ में परसोना जैसा लगता है क्योंकि यह मेरे अंतर्भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम है. किंतु सत्य यह है कि इसमें स्वयं मैं और मेरे अनुभूत धड़क रहे हैं. मेरे इन अंतर्भावों में मेरी अस्मिता घुली हुई है.
इसमें मैंने हर संभव प्रयत्न किया है कि मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ वह मेरे संबोध्य तक तो एक लय में पहुँचे ही इसके पढ़ने सुनने वाले के हृदय में भी समतरंगों में प्रतिस्वन करे. काव्यभाषा भी मैंने कथ्य के अनुरूप ही अपनाई है.
मेरे लिए कविता न कहीं गई थी न वापस हुई है. कविता के अणु कवि ही नहीं, हर व्यक्ति के अंतर्जगत में विद्यमान हैं. कैसे कुछ कवि यह कह सके कि कविता की अब वापसी हो गई है, मानो वह कहीं चली गई थी. जिस समय यह विचार हमारे सामने आ रहा था उसी समय भिखरी ठाकुर, जिन्हें राहुल सांकृत्यायन महाकवि की संज्ञा देते हैं, अपनी भोजपुरी कविताओं को जनोन्मुख कर रहे थे. भोजपुरी भी हिंदी की
ही एक उपभाषा है. अवधी और ब्रजभाषा की तरह इसका भी हिंदी में स्थान है. लोक के जन अपनी गलियों, खेतों, चौपालों में जत्थे बनाकर अपनी भाषा में गा नाच कर, और अपने हृद-मन में उमड़ती भावनाओं को अपने शब्दों में पिरो कर हवा में तरंगायित करते रहते हैं. यह कविता ही तो है. इन कवियों को इमानदारी से स्वीकार कर लेना चाहिए था कि उनके हृद-सर का करुणाजल सूख गया था. उनके हृद-मन की घाटी में प्रतिसंवेदन की क्षमता छीज गई थी. कविता न कहीं गई थी न कहीं जाती है. उसके अणु हर व्यक्ति के हृदय में अंतर्भूत रहते हैं. इसको उद्बुद्ध करने के लिए व्यक्ति को अपनी संवेदना को घना करना पड़ता है.
मेरी काव्य-चेतना ने इस संगुफन में कुछेक प्रयोग किए हैं. इसे इस संगुंफन के शिल्प में देखा जा सकता है. मैं कविता की गलियों का राही हूँ. इस काव्याभिव्यक्ति में मैंने कमोबेश एक नई राह अपनाई है. काव्यवस्तु के चुनाव में अधुनातन दृष्टि का पोषक हूँ. पर मैं उसे उसके पहले की चेतना का ही विकास मानता हूँ. इस संगुंफन की काव्यवस्तु में तुलसी की विनयपत्रिका की झलक है किंतु इसमें अपने संबोध्य तक पहुंचने के लिए तुलसी के दावपेंच नहीं हैं. इसमें तर्क से तर्कातीत की ओर अग्रसर होते हुए सीधे संबोध्य की समानुभूति में प्रवेश करने की चेष्टा है. इस चेष्टा में मेरी आँखों के तिल में विश्व तरंगित है. विश्व-क्षितिज के कोने कोने से आती अनुभव-तरंगें हमारे पोर पोर का अतिक्रमण कर हमारे उर-मन को कुरेदती हैं.
मैंने अपने हृद-मन की घाटी में इन तरंगों को प्रतिसंवेदित होने दिया है. अपने अकेले के पलों में इनके पलों को निहारा है. फिर अपने अकेले की नाव लिए अपने अकेले के पलों को जीता हुआ अपने संबोध्य की उपस्थिति में अपने अकेले की ओर चल पड़ा हूँ. फिर कुछ पल ठहर कर मैंने अपने अंतस्तल की संवेदना के तंतुओं में उमड़ते करुणाजल को टटोला है. फिर मैं अनुस्मरण में तल्लीन हो गया हूँ, इस परीक्षा के लिए कि जिस राह का मैं राही हूँ उस राह में मेरे संवेदना के तंतुओं में कहीं विखराव तो नहीं हो रहा.
मुझे लगता है आज की सबसे बड़ी समस्या आज का मनुष्य है. मनुष्य की संवेदना मर-सी गई है. कवि भी करुणा और संवेदना को कम महत्व देने लगे हैं. उनकी संवेदना उनकी बुद्धि के भार से बोझिल हो गई है. वे इनकी समाई, उनके आयाम और अस्तित्व को तर्क की धनी बुद्धि से नापने लगे हैं. मेरी दृटि में आज कवियों को अनिवार्य रूप से करुणाप्लावित होकर ऐसी रचनाएँ लोक को देनी चाहिए जो उनकी संवेदनाओं को घना करे. अबतक की कविताओं ने उन्हें केवल सुखाया है. मेरी समझ से व्यक्तिमात्र के अंतर्जगत में बीजरूप में विद्यमान संवेदना के अणुओं को उद्बुद्ध कर उसे घना करना हमारा काव्यधर्म होना चाहिए. इस संगुफन में मेरा यही प्रयास है. अस्तु.
पुरश्चरण
मित्र !
मेरी आँखों के दृष्टिपथ में
जहाँ तक मेरी दृष्टि जाती है
मुझे लगता है यह प्रकृति
किसी रमणीय अवगुंठन में सजी ढँकी
एक अद्भुत सत्य की तरफ
नित्य प्रति
इंगित करती रहती है.
उसकी चिद्प्रतीति से
बोध के स्तर पर
मैं रोज तर बतर होता रहता हूँ
कभी कभी मेरा स्थूल
मुझे किसी सूक्ष्म का
मूर्त प्रतिबिंबन-सा लगता है
इस क्षण रह जाती है
बस अस्तित्व की एक सघनता
अथवा किसी सघनता का सूक्ष्म.
पर हाय
पल दो पल का यह उन्मीलन
स्वप्नों की घड़ियाँ बन जाता है
पुरा अद्य अपरद्य
पुनः संघटित हो जाते हैं
फिर मेरे अंदर घटित होता है एक जन्म
और मैं बन जाता हूँ
जन्मों की एक अटूट श्रृंखला
फिर भी मेरे बोध की गहराई में
मेरी प्रतीति के छोरों को नापता
कहीं कुछ अंकुरित भी होता है
सृजन के अर्घ्य-सा सहज सरल
ढरक जाने को
क्षितिज के खुले संपुट में
उससे छिटकती किरणों के अंतरिक्ष में
एक किरण-सा हो रहने को.
2.
मेरी अनुभूति के किन्हीं क्षणों में
मेरे अस्तित्व के परमाणु
कुछ इतने सघन हो उठे
कि मेरे प्राणों ने
एक वर्तुल बना लिया
उस वर्तुल में कुछ उद्भास जगा
और मेरा अंतःकरण
एक मौन अंतर्ध्वनि से तरंगित हो उठा
सृिष्ट के पल
अपने अंतर्बाह्य विकारों में आपूरित हो उठे
इसी क्षण
भावानुभूतियों के अंकुरण से
मैं भावाकुल हो उठा
मेरे भावापन्न पल
मुझे ठेलकर उस विंदु तक ले गए
जहाँ संवेदना के आकाश ने
ठोस धरती का रूप लिया
सृजन के क्षण अकुला उठे
अभिव्यक्ति को रूप का ढाँचा मिला
और मेरे हृदय की तरंगों ने
अपने को रच-बुनकर
अपनी ही शाखों पर कुछ फूल खिलाए
मैने शाखों से अलग किए बिना ही
इन फूलों को एक तरल सूत्र में गूँथ लिया
यह गुंथन ही
इस संगुम्फन में रूपांकित हो उठा है
एक पुष्पमाला की तरह.
-0-
प्रतिसंवेदन
मित्र !
यह सामान्य सा अनुभव है कि
कोख के अंधेरे में ही
प्रच्छन्न होती है कोई प्रभा
और कोख की ही उष्मा से पोषित हो
किसी माता की गोद में
वह आँखें खोलती है
कोई वपु धारण कर.
वह वपु कभी तुम्हारा होता है कभी मेरा
इस वपु में ही
हमें पूरी करनी होती है
अपनी जीवन यात्रा.
मित्र !
तुमने अपनी यात्रा पूरी कर ली
तुम अब समय और सीमा से अतीत हो
तुम्हारे ठोस वपु के अणु
अब प्रकृति के स्पंदनों के साथ
एकलय हो चुके हैं
किंतु मैंने
जीवन के सूक्ष्म स्पंदनों,
उसके उष्मल पदचापों को
अभी ही सुना है
अभी ही मेरे भीतर कुछ झंकृत हुआ है.
इन झंकारों ने
संपूर्ण जीवन-प्रसंगों की
जीवंत संवेदनाओं से
मेरे पूरे अस्तित्व को
अभी ही तरंगित किया है.
मैं अनुभव कर रहा हूँ
इन तरंगों से तरंगायित मेरा सर्वांग
संसार में संसरित होते हुए भी
मुझे अकेले की अनुभूति से
भरे दे रहा है.
मुझे लग रहा है
मैं अकेले की नाव पर सवार हूँ
मेरे पल अकेले के हैं
यात्रा भी मुझे अकेले की
और अकेले तक की ही करनी है.
मित्र !
मेरी यह अनुभूति
पूरी है या अधूरी, मैं नहीं जानता
पर तमाम अहजहों के होते हुए भी
रुक रुक कर ही सही
मैंने अपने कदम बढ़ा लिए हैं
अब परिणति की चिंता क्या
अनुभव की संपदा ही बटोर लॅू
यही बहुत है.
अकेले की नाव
मित्र !
धरती पर जब मेरी आँखें खुलीं
मिट्टी के स्पर्श ने
मेरे पैरों में बल भरा
ममता भरी आँखों की
उष्मल छुअन ने
मेरे पोरों में जीवन की उष्मा भरी
मैं प्रकृति के नेह से नहा उठा
तब सामने पसरी प्रकृति मेरी थी
मैं प्रकृति का था.
जब मैंने जीवन में प्रवेश किया
मुझे लगा
मिट्टी तो अब भी स्पर्श-मधुर है
पर उन आँखों में
अब दृष्टियों की एकरूपता नहीं है
स्नेह के झीने धागे
अब डोरियों में बदल गए हैं
एक कदम भी आगे चलने पर
उनके कसाव का अनुभव होता है
इनको झिटक देने पर
मुझे लगता है मैं अकेला रह गया हूँ
हाँ अंतरिक्ष का आह्वान
जैसा तब था वैसा अब भी है
आज भी
कुछ उष्मल आँखों के आमंत्रण
मुझे खींचते हैं
पर ये आँखें मेरे समानांतर ही
प्रकृति की कोख में
कहीं स्वतंत्र रूप से खुलीं हैं
जो प्रेमल हैं, उर्जपेाषी हैं
उनके आबद्धन की आकांक्षा
मेरे भीतर से उमड़ी पड़ती है.
इन्हीं के साथ
अनेक अतृप्तियों की एकांत अनुभूतियों से भी
आज मैं अवबोधित हूँ
जिनकी पूर्ति के लिए
कुछ ही पल की टकटकी के बाद
मैं बिलकुल अकेला हो जाता हूँ
और इस यात्रा के लिए
स्वयं मुझे अपने अंतर को
आवेग देना पड़ता है
अर्थ यह कि मुझे अपनी नाव
स्वयं ही खेनी पड़ती है
बिलकुल अकेले अपने अकेले की.
मित्र !
अद्भुत है यह दुनिया
इसमें कसाव भी है और आकर्ष भी
इनकी जड़ें बहुत गहरी हैं
अतः इनके संतुलन में
अकेले की नाव खेना
एक रोमांचक अनुभव है
उसमें बहुत कुछ खोने
और बहुत कुछ पाने का आनंद है
इनके उच्छल अभियान में
मन और शरीर की पीड़ाएँ
जैसे विधि-लेखी हैं
सृष्टि के आकाश में
बहुत सारे कंपन प्रकंपन हैं
जो सहज संवेद्य नहीं है
पर वायु में तरंगित
तुम्हारे प्रखर आमंत्रण ने
मेरी संवेदना के द्वार खोल दिए हैं
और मैंने अपने अकेले की नाव
तुम्हारी तरफ मोड़ ली है
अब मैं
नभवासी चंद्रमा की तरह
तुम्हारी तरफ अग्रसर हूँ
तुम्हें इसका भान अवश्य होगा.
मित्र !
यह अग्रसरण मेरा संकल्प है
पता नही इसका पर्यवसान
तुम्हारे प्रति मेरे समर्पण में होगा
या तुम-सा हो रहने में
जो कुछ भी हो
अभी तो अपनी नौका खेते रहना ही
मेरा ध्येय है
मैं चलता रहूँगा, अपनी नौका खेता रहूँगा
हर पल हर क्षण.
2.
मित्र !
देह और देही के बीच
रच गए आकाश में
जिसे तुमने
अपने अनुभव और अस्तित्व से
तय कर लिया है
मेरे अकेले की नाव संतरण पर है.
अपनी नाव के संतरण के लिए
मैंने कगारों से बल लिया है
उन कगारों से
जहाँ मेरे प्रयाण के पक्ष भी थे, विपक्ष भी
जहाँ समय के प्रवाह में बदलती
संसार की संपूर्ण प्रवृत्तियॉ थीं
और विद्यमान थे
इन्हें केंद्र में लेने के
ज्ञान विज्ञान के सारे प्रयत्न
इससे भी बढ़ चढ़ कर थी
इस अतल और अछोर आकाश के
अंतर्भेदन की
मेरी उन्मुक्त अभीप्सा.
आकाश को बाहों में भर लेने का
उद्दाम आवेग
मैंने अपने स्रोतों से लिया है
अपनी रचना के परमाणुओं को
पोर पोर टटोला है
और मैंने वहॉ पाया है
अपने अभियान का पूर्ण प्रसरण.
अपने पोरों का संसरण
और अपनी स्नायुओं का हौसला नापकर
मैंने अपनी पालें खोल ली हैं
बूँद में दिगंत की यत्रा के लिए.
बड़ी ही सूक्ष्म और
विस्तीर्ण है यह कुक्षि
जिसमें मुझे यात्रा करनी है
इसमें डगमगाती नौका के लिए
कोई टिकाव नहीं है
नौका की संभारित अतियों का संतुलन
मुझे खुद ही रचना है
बड़ा कठिन है यह कार्य.
पुराकाल में इसे रचने
लोग हिमालय जाते रहे हैं
जीवन के कोलाहल से हटकर
जीवन के सूत्र रचते रहे हैं
किंतु आज इसे सरे बाजार रचना है
भीड़ में खड़े खड़े ही
मुझे अंतःप्रवेश करना है
नियति के फैलाव में ही
नियति का अंतःकेंद्र ढूँड़ना है
तभी यह नौका दौड़ते मेघों पर
स्यंदन दौड़ाने जैसी खेई जा सकेगी
अपनी पूरी त्वरा में, अपने पूरे अस्तित्व में.
3.
मित्र !
बड़ी अद्गुत है यह मेरे अकेले की नाव
कोई आभरण नहीं, पर
पूरी लदी फदी लगती है
कोई दिशा नहीं
पर पूरी अभिदिष्ट-सी है.
यह कोई मतिभ्रम है या सत्याभास
मालूम नहीं
पर यह स्थिति
न मुझसे झेली जाती है
न छोड़ी ही जाती है
इसमें टिक रहना बड़ा चुनौतीपूर्ण है
बस यूँ कहूँ कि
सीधे झोंक देना है अपने आप को
उस धधकती आग में
मेरा होना ही जिसकी आहुति है.
पर इस धरती पर उतरा हूँ
तो धरती के अनुशासन
छूटने से तो रहे.
ये झलकियाँ
मुझे आनंदित करती हैं
अपने पौरुष का
उद्भेद पाता हूँ मैं इसमें
दिगंत को ललकारने का
अपार बल महसूस करता हूँ
अपने पोरों में
पर इस विचिकित्सा से
मैं उबर नहीं पा रहा हूँ
कि आँखों की राह
अभ्यंतर में उतरने पर
देही देह का अंतर मिट जाता है
पर आँखें खुलीं तो
देह-सत्य को नकारना कठिन लगता है.
तुम्हारी लौ की विकीर्ण उष्मा से
मैं आंदोलित हूँ
पर मेरे अंतर में
लोक के केालाहल भी
एक आंदोलन रच रखे हैं
धरती का पुत्र होकर धरती की वेदना से
मैं आहत न होऊँ
यह कैसे हो सकता है
आभास और एहसास के पाटों में
ऊब डूब होती मेरी आँखें
तुम्हारी लौ की तरफ अपलक संदिष्ट है
स्नायुओं में किसी अ-पर की आहट
और परे की सनसनाहट लिए.
4.
मित्र !
अपने सामने पड़े दृश्य
अपने अस्तित्व की सरसराहट
और अपने तईं अनुभूत संसार को
अपनी कोख की उष्मा में तपाते
बिंदु में दिगंत की यात्रा पर निकल पड़ा हूँं
अकेले, अकेले की नाव लिए.
मैं इस उन्मुक्त आकाश में
उन्मुक्त यात्रा का आकांक्षी हूँ
राह में
संघर्ष की कौन सी स्थिति होगी
मैं नहीं जानता
क्योंकि यात्रा के लिए
जो मैंने राह चुनी है
वह दृष्टि के प्रतिष्ठानों से नहीं
मेरे अपने प्रतिमानों से होकर जाती है
जो कुछ भी टकराहट या टूटन होगी
वह मेरी ही निर्मिति में
मेरी ही निर्र्र्मिति की होगी
जो प्रतिमाऍ टूटेंगी, खण्डित होंगी
उनकी दरकन की आहट
मैं अभी ही सुनने लगा हूँ.
मैंने अपनी काया में, चिति में
बहुत सारे जंगल
और झाड़ियॉ उगा ली हैं.
इनसे निर्भार होना ही
संघर्ष का पहला मुद्दा बनेगा
लेकिन मुद्दा बनाकर
राजनीतिक जंग मुझे नहीं छेड़नी
मेरी तो दृष्टि
अब सीमा में नहीं अँट रही
काँटों से लहू लुहान होते भी
पर-अपर में
उलझने का संशय लिए भी
मर्मभेदन का संकल्प प्रगाढ़ करते
मैं तिर रहा हूँ
अपने अकेले की नौका पर
अपने अकेले की पतवार खोले.
स्मृतियाँ मेरा पीछा नहीं छोड़तीं
इनसे पीछा छुड़ाने को मैं तत्पर भी नहीं
आकर्षणों को मैं-सा
मैंने इन्हें ध्यान में ले लिया है
विकर्षण मेरे जीवन का प्रेय नहीं है
मेरे पोर-पोर में
संतुलन की कामना है.
मै सृष्टि से विमुख नहीं हूँ
हो भी कैसे सकता हूँ
दृष्ट अदृष्ट के तार तो
मैंने तोड़ लिए हैं
अपनी इस अकेले की यात्रा के लिए
पर हवाओं पर मेरा वश नहीं
वे अपने स्पर्श से
कभी अभिभूत, कभी कातर
करती रहती हैं मुझे
सृष्टि की सुकृतियाँ और विकृतियाँ
मुझ तक लाना नहीं भूलतीं
मैं इनकी वर्जना कर
इनको बलात ठेलकर
अपने से दूर नहीं कर रहा
वल्कि इससे भींग कर
इन्हें भी अपनी चेतना से भिंगो रहा हूँ
और मैं चकित हूँ यह गुन कर
कि तीखे सवाल मुझे विक्षिप्त नहीं करते
वरन एक समझ विकसित करते हैं
मेरे परमाणुओं में
मैं संघर्ष की उत्तुंगता को
भास्वर बनाते
उसी वीणा की लय में समेकित करते
तिर रहा हूँ
अकेले अकेले की नाव लिए.
5.
मित्र !
इस यात्रा अंतर्यात्रा के दौरान
मैं एक तटहीन तट से आ लगा हूँ
बहुत से अन्वेषी
किसी संकल्प की प्रेरणा से
सागर की छाती पर तिरते तिरते
धरती के किसी ठोसपन से
लगते रहे
पर मैं आज जहाँ आ लगा हूँ
वहाँ किसी ठोसपन का अस्तित्व नहीं
चारों तरफ बस तरल ही तरल है
मैं स्वयं भी
एक तरलता का एक हिस्सा-सा
हो रहा हूँ.
पर मेरे बोध में
पृथकता का एहसास अभी भी है
मुझे साफ नगता है
यह कोई तटहीन तट है
पर मेरे तईं यह भी स्पष्ट है कि मैं
किसी नदी का द्वीप नहीं हूँ.
थोड़ी देर के लिए
मुझे दिग्भ्रम-सा हो गया है
मैं तुम तक पहुँचूँगा या नहीं
संदेह के अंकुर उग आए हैं
मेरे मन में
थोड़ा ठिठक भी गया हूँ मैं
पर इस अभियान से विरत
मुझे नहीं होना है.
तुम्हारी दिशा की टोह में
प्रकृति की अंतर्प्रवाही तरंगों को
मै अपना स्पंदन दे रहा हूँ
इन तरंगों के कणों को
मैं अपनी अंतराभिव्यक्ति का
अंकन दे रहा हूँ
ये तुम तक पहुँचेंगीं अवश्य
इनमें बल होगा
तो तुम्हें आंदोलित भी करेंगीं
फिर तुम्हारे बिंदु बिंदु संकेतों पर
मैं परिचालित हो उठूँगा.
यों इन बिंदु-संकेतों के अंतरान्वेषण में
मैं प्रतिपल प्रयत्नशील हूँ
क्योंकि मित्र !
मेरे पोरों के आंदोलन
आकंठ करुणा से आप्लावित होकर
मैं यहाँ ठिठका हूँ अवश्य
पर किंकर्तव्यविमूढ़ नहीं हूँ
न ही तुम्हारे संकेतों की प्रतीक्षा में
मुझे यहॉ रुकना है
मेरे स्पंदन
प्रकृति के पोर पोर में अनुबद्ध
तुम्हारे संकेतों का सान्निध्य पाने को
निरंतर प्रयत्नशील हैं.
6.
मित्र !
मेरी भाव`स्थ्तियों ने
अपने विवेक का दीया लिए
तुम तक जाने की राह ढूँढ़ ली है.
इस क्षण
मुझे अपने गंतव्य की धॅुधली सी रेखा
दिखने लगी है
तुम्हारे आमंत्रणों ने
मेरे पोरों में जो जागृति भर रखी है
उसमें मुझे
आत्माभिमुख होने का संकेत मिला
तुम तक पहुँचने की उत्कंठा में
मैं अपने होने में ही
धँसता चला गया.
पर आश्चर्य
यहाँ से भी एक राह तुम तक जाती है.
पर मेरे मित्र !
जिस भावस्तर में
इस क्षण मेरी गति हो रही है
तुम मेरे गंतव्य प्रतीत नहीं होते
न ही तुम मेरे अर्थ लगते हो
मैं अपने आप को तिलांजलि देकर
भक्ति के आबद्धनों में
समर्पण के लिए उद्यत भी नहीं हूँ
वरन अपना गंतव्य,
अपना अर्थ पाने की चाह में
जितनी भी देशनाएँ
आज हवा में तिरती पाता हूँ
मेरे तईं इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण
तुम्हारी देशनाएँ हैं
मैं चाहूँ या न चाहूँ
ये ठोंक ठोंक कर
मेरे केंद्र तक को हिला देती हैं
मेरे अस्तित्व में
नदी का प्रवाह घोल देती हैं
प्रकृति की लय से संवलित
और मेरे आपूरित पलों से उद्वलित.
मैं इस सदी के अंतिम दशक में
अपने मध्याह्न की साँसें लेता
एक नए मनुष्य के जन्म की
आहट पा रहा हूँ
सदी की उत्त्प्त घड़ियों में
इसके स्वाभाविक प्रसव के लिए
तुम्हारी देशनाओं में
संतुलन की त्वरा है
उच्छल जीवन के उद्भव हेतु
मुक्त गगन का आह्वान है
मैं अपने अंतर की राह
तुम्हारे आह्वान को पकड़कर
तुम तक पहॅुचने ही वाला हूँ
मेरे आने की धमक तो
तुम तक पहॅुच ही चुकी होगी.
7.
मित्र !
बड़ी उत्कंठा के साथ
मैंने अपनी नाव
तुम्हारी तरफ मोड़ ली थी
पर तुम तक पहॅुचने के पूर्व ही
तुम्हारे आंगन के द्वार पर
टँगी तख्तियों ने
दूर से ही मुझे टोका.
मैं ठिठका, उन्हें घूरा
और कुछ सोचना चाहा
कि किसी अंतर्ध्वनि ने मुझे विरत किया
मुझे अपनी ही तरफ
घूरने का संकेत दिया.
तुम्हारे सिंहद्वार पर पहॅुचने के पूर्व
मैं आज भी
अपने को घूर रहा हूँ
और इस घूरने के क्रम में
ढेर सारे प्रश्न
मुझे व्यथित किए दे रहे हैं.
अपनी यात्रा के दौरान
मैं अभिभूत था
तुम्हारे आकर्षक प्रवचन
मेरी चेतना की गाँठें खोलते से लगते थे
कई गुत्थियों के तुम्हारे सुझाए तर्क
मेंरे अपने तर्कों के प्रमाण से लगते थे
आज भी इनमें बदलाव नहीं आया है
किंतु मैं आज अभिभूत नहीं हूँ
आज मेरे पल
मुझे ठेलते से हैं तुमसे पूछने को
कि तुमने
अपने तक पहुँचने के लिए
निर्भार होने की शर्त क्यो लगाई
रामकृष्ण ने तो यह शर्त
विवेकानंद पर नहीं थोपी
वह तो प्रश्नों का भार लिए ही
पहुँचे थे उनके पास.
मित्र ! तुम मुझमें
अपना दीया आप होने की
चेतना जगाते हो
पर अपने दीए की लौ तक आने को
निर्भार होने की शर्त लगाते हो
मैं सच कहूँ तो इस क्षण
प्रश्नों का भार लिए ही
उद्विग्न फिर रहा हूँ मैं.
तुम तक पहुँचने के लिए
यह जो मैं उत्कंठ हूँ
यह भी एक भार ही है
ये भार मुझसे अलग नहीं हो सकते
तुम तो प्रश्नों की खेती करते हो
मैं यहाँ तुम्हारे बहुत निकट
भूमि पर पसरा हुआ हूँ
आकुंचित विकुंचित हो रहा हूँ
कर सको तो करो खेती
वैसे अपने अंतर के तंतुओं में
इन प्रश्नों की राहें ढॅूढ़ रहा हूँ मैं
मेरे दीए का प्रकाश
बहुत मद्धिम है आज
पर जितना ही अंदर धॅस रहा हूँ
प्रकाश की तीक्ष्णता में
कुछ फर्क आता-सा महसूस होता है
शायद कल बहुत फर्क आ जाए.
8.
मित्र !
तुम तक पहुँचने की उत्कंठा
वस्तुतः भौगोलिक दूरी तय कर
श्रद्धाभिभूत
तुम्हें आँख भर देख लेने की
उत्कंठा नहीं थी
न ही दर्शन की सामयिक प्रकृति से
मैं अनुप्राणित था
अपितु मैं तो तुम्हारे चिदस्पर्श को
अभ्यंतर की अनुभूति बनाने की
आकांक्षा से अनुप्रेरित था.
तुम्हारी वाणी में आकर्षण है
तुम्हारे शब्दों में कविता है
और मुझमें काव्यविवेक हो या न हो
भावों के हुलास अवश्य थे
संवेदना भरपूर थी
तुम्हारे निजत्व के निकट से
बहती सरिता में
मैं अपनी संवेदना की धरोहर पाता था.
तुम्हारी तरफ जाने के जिए
न मालूम कितनी बार मेरे कदम उठे
पर मेरे अंदर के किसी अदृष्ट ने
मेरी श्रद्धा को टोका
और टोकता रहा
मेरे कदम रुकते रहे
तुम्हारे सदेह साक्षात के लिए
मैं नहीं आ सका
हालॉकि तुम्हारी अनुभूति को
अपनी बनाने के क्रम में
अपने दोस्तों द्वारा
‘रजनीश’ उद्वोधन से
व्यंगित किया जाता रहा.
इस नामकरण के व्यंग्य से
मैं कभी अभिभूत नहीं हुआ
न ही कभी उद्वेलित
यहॉ तक कि तमाम प्रतिटिप्पणियॉ भी
मुझे आक्रुद्ध नहीं कर सकीं
हॉ ये घटनाऍ
मुझे अपने ही विवेक के केंद्र पर
आरूढ़ होने के लिए
संबल अवश्य साबित होती रहीं.
और एक दिन
मुझे पता भी न चला
और मेरे विवेक ने मुझे धक्का देकर
मेरी नौका को
तुम्हारी तरफ ठेल दिया.
बीच धारा में मुझे पता चला
अपनी नौका पर मैं अकेला हूँ
हालॉकि मेरी दृष्टि में
तुम प्रतिपल संवेदित थे
मेरी सारी खिड़कियाँ खुलीं थीं.
हवा के ताजे झोंके
बाजवक्त मुझे सिहरा जाते थे.
इस पूरी यात्रा के दौरान
अपने विवेक और समझ को
मैंने कभी नहीं छोड़ा
तुम दृष्ट अवश्य थे, मेरी अंतर्दृष्टि
सदा इनसे परिचालित रही
और कुछ इसी का फल है
कि आज तुम्हारे द्वार पर
मैं मोहग्रस्त चिंतन के वशीभूत नहीं हूँ.
आज मैं इस बोध से भींग रहा हूँ
कि प्रकृति की एक ही कोख ने
तुम्हें और मुझे जना है
पर तुम्हारी स्नायुओं में
प्रकृति छलक रही है
पर मेरी स्नायुओं में
अभी यह घुली घुली ही है
कल छलकेगी या परसों
पर एक दिन छलकेगी अवश्य.
अकेले के पल
मित्र !
मेरी ऑखें
प्रकृति के आँचल में खुलीं
आँचल की थपकियों में
मुझे ममत्व मिला
फिर उसकी उँगलियों के सहारे
प्रकृति की विराटता में
मेरे कदम उठे
एक दिन वे उॅगलियाँ अदृश्य हो गईं
स्थूलता ने सूक्ष्मता का बाना पहना
और तब मुझे लगा
इस विराट की यात्रा में
मैं अकेला हूँ,
मेरे पल अकेले के हैं.
मैने यह भी अनुभव किया
कि मेरे पास
मेरी निजता की नाव है
जो अस्तित्व की डोर से बँधी
उससे छिटकी एक इयत्ता है
जिसकी पतवार भी मैं हूँ और पाल भी मैं हूँ
और कितना आश्चर्य है
कि यात्री भी मैं ही हूँ.
विराट की करुणा और विराटता की तरफ
48 : अकेले के पल
साश्चर्य खुली मेरी आँखों ने देखा
कुछ खूँटियाँ भी हैं मेरे गिर्द
जो मेरी ही तरह छिटक कर
रूप-कल्पित है
कुछ विकसित कुछ अंतर्विकसित
जिसका मैं चुनाव कर सकता हूँ
मैंने चुना भी, पर खो गया
जब धुरी पर लौटा
तो हवा में तरंगायित तुम्हारे आमंत्रणों ने
मुझे आकर्षित किया
खूँटी से टिक रहने का भय तो
यहाँ भी था
पर अंतरिक्ष के आह्वान से आंदोलित
बीज के प्राणों में
जैसे विस्फोट हो गया हो
तुम्हारे आमंत्रणों ने
मेरे प्राणों में विस्फोट किया
और मैं अपनी नाव
तुम्हारी तरफ मोड़े बिना
नहीं रह सका.
ये आमंत्रण
मानों पंक्ति पंक्ति में बोलती
अस्तित्व की ताजी रचना हैं
जिसकी अभिव्यंजना के तरंगाघात
मुझे मुकुलित करते हैं
मैं इन आमंत्रणों की तरफ मुखातिब
अपने अकेले की नाव में
अपने अकेले के पलों को साथ लिए
तुम्हारे सिंह-द्वार तक आ पहुँचा हूँ
देख रहा हूँ
यहाँ अनेक तख्तियाँ टँगी हैं
ये मुझे टोकती हैं, टटोलती हैं
मेरी आहट लेती हैं
मेरी संभावनाओं की टोह लेती हैं
सो तुम्हारे सिंह-द्वार तक आकर
मुझे ठिठकना पड़ा है.
संप्रति मैं यहाँ ठिठका खड़ा हूँ
ये तख्तियाँ मुझे टोकें, टटोलें
आहट लें, टोह लें
जो भी इनकी प्रयोगशीलता माँगे
ये करें
मुझे कुछ नहीं करना
मैंने तो बस
इनकी संवेदनशीलता पर
अपनी दृष्टि टिका दी है
मैं भी इन्हें उलटूँगा, पलटूँगा
कान पाते ठोकूँगा
अपनी इयत्ता में पूर्ण हो इन्हें झिंझोड़ूँगा.
अब,
जब मैं यहाँ तक आ ही पहुँचा हूँ
तो मिलने की उत्कंठा को
क्योंकर दबाऊँ.
लो मैंने अपने कदम उठा लिए
दस्तकों के लिए हाथ भी उठ गए
अब इसका साक्षी तो मैं ही हूँ
मैं दस्तकें दे रहा हूँ
इन्हें सुन भी रहा हूँ
इस क्षण
मेरा पूरा अस्तित्व झंकृत है
लहरों के वृत्त बन रहे हैं
देखें इनकी वीचियॉ
कहाँ खोकर
कहाँ अंतर्घ्वनित हेाती हैं.
2.
मित्र !
तुम्हारे खुले द्वार पर
दस्तकों के लिए उठी मेरी उँगलियाँ
उठी ही रह गईं हैं हठात
कुछ अनचाहा देखकर
अनुमान से परे गुनकर
जीवन की पूरी ईकाई को
उसकी पूर्णता से तोड़कर
अंतर्प्रवेश को शर्तों से बाँधतीं
इस तख्ती ने
मुझे टोक दिया है, झकझोर दिया है-
‘‘मस्तिष्क और जूतों को यहीं उतार दें’’.
मित्र !
जूते तो जीवन के साथ
विकसित तत्व नहीं हैं
परंतु मस्तिष्क तो
शरीर के तंतु-विकास का
स्वाभाविक परिणाम है
चेतना के शिखर में
क्या बुद्धि असंस्पर्श्य हो जाती है
विवेक और समझ का आमंत्रण
पर मस्तिष्क का अनामंत्रण
यह गुत्थी मुझसे सुलझती नहीं
मैं इस तख्ती की वर्जना को मानूँ
तो इन पलों को मुझे छोड़ना होगा
जो मेरे रक्त में एकीभूत हैं
‘आनंद’ ने इन पलों को छोड़ा
पर ‘बुद्ध’ का साहचर्य भी उसे
‘महाकश्यप’ नहीं बना सका.
मस्तिष्क को यहीं उतार दूँ
पर भला कैसे
समर्पण तो भक्त भी करते है
गुलाम और बूँधुआ मजदूर भी
मैं अपने मस्तिष्क को उतारकर
यहाँ जूतों की तरह नहीं रख सकता
तुम्हारी ड्यैांढ़ी से पृथक होने पर
उन्हें पहनना ही पड़ेगा
खंडित व्यष्टि से आपूर्य
अस्तित्व की सुगंध के स्वाद में
चेतना के साथ विकसित तथ्य
मस्तिष्क का तर्कानुक्रम
शीला 1 के अनावृत छद्म की
कड़वाहट भर देगा.
तुम्हारे खुले द्वार पर
मैंने अपने को
पूरा का पूरा उतारकर
कुछ क्षणों के लिए
आंगन के पार के द्वार को
लांघने को सोचा अवश्य
पर तब असमंजस ने आ घेरा
पूरा उतारने के बाद
मैं बचूँगा कितना
शून्य होने की कला तो
मुझे आती नहीं
सो बरबस
मुझे यहीं, द्वार पर ही
रुकने को बाध्य होना पड़ा है
बिना दस्तक दिए
अपनी संवेदनाओं में डूबता
मैं यहीं अटका खड़ा हूँ
रिक्त होता, दिशाओं को पीता हुआ.
तमाम स्पंदनों ने
मुझे आ घेरा है
पर एक विशिष्टता है
इनके साथ मैं अपने को भी देख रहा हूँ.
1 ओशो की शिया जिन्होंने रजनीश ( ओशो ) के नाम से एक धर्म चलाना चाहा.
3.
मित्र !
‘अमृता 1’ कहती हैं
‘‘छाती में जलती आग की
परछाईं नहीं होती.’’
संभव है यह सच हो
मैं ही भ्रम में होऊँ
पर मेरे तईं
यह अजूबा ही घट रहा है
कि अपनी छाती में
बलती अग्नि-ज्वाला की
परछाईं के पकड़ने के प्रयास में ही
तुम्हारे सिंहद्वार तक
मेरा आना हुआ है.
पूरी यात्रा में
इस आग की लपलपाती लौ
कभी दिखती
तो कभी लुप्त होती रही है.
दिखती ज्वाल-शिखा के
छितराए प्रकाश में
मैं अपने को पंक्ति दे रहा हूँ
लोप होने पर भी मैंने
किसी पंक्ति की माँग नहीं की है
तुम्हारे सिंहद्वार पर भी
1.प्रसिद्ध कवियित्री अमृता प्रीतम
द्वार खुले हैं
पर जलते बुझते प्रकाश में
तख्तियों के उभरते मिटते अंकन
मुझे ठिठकाए हैं यहाँ
और अंतराग्नि द्वारा रचे द्वंद्व
मेरे अंतर्द्वंद्व से एकाकार हो
मुझे अंचंभे में डाल रखे हैं
सौदामिनी के प्रकाश में
दस्तक देना भूल गया हूँ
तुम्हें मेरी आहट तो मिल ही गई होगी
मैं इन तख्तांकनों में
तुम्हारी आहट ढूँढ़ रहा हूँ.
इस क्षण
मेरी छाती में जलती आग
मुझे ऑच दे रही है
मन के आंगन में उठते धुंध
इस आँच की गरमी से
विरल अवश्य हो रहे हैं
पर तुम्हारी आहट पाने का एकांत
नहीं रच पा रहे हैं
किंतु मैं भी खूब हूँ
तुम्हारी आहट पा लेने को
यहीं जमा पड़ा हूँ.
4.
सुना है मैंने मित्र !
तुम एक अग्नि-कवि हो
तुम्हारे पास एक आग है
जिसे कविताओं के गद्य में समो कर
हवा में उछालते हो
जो फूलों की खिलावट को
तरल क्रांति का प्रकंप तो देती ही है
पत्थर-सी जड़ता को भी
एक झटका दे जाती है
इन झटकों का ताँता
उनकी बौखलाहट को
घना करता जाता है.
यह भी सुना है कि
ऐसी ही एक अग्नि-संवेदित कविता
तुम मेरे लिए भी लाए हो
तुम्हारे सिंहद्वार पर
मैं प्रतीक्षालीन हूँ
अपेक्षित सन्नाटा भी बुन रहा हूँ
और बड़ा गजब है
मुझे एक आहट भी सुनाई देने लगी है
जो निरंतर घनी होती जा रही है.
इस क्षण मेरे अंतर में भी
एक ध्वनि उठने लगी है
जिसकी आहट के प्रति
मेरा अवधान संवेदित है
इन आहटों की प्रतिसंवेदनों से
अभिभूत हूँ मैं
इनके उत्स में उतरने को अनुप्रेरित
तुम्हारे द्वार पर दस्तक देना भूल गया हूँ
क्या मालूम दस्तक देने की भी
कोई सार्थकता है या नहीं.
5.
हे अग्नि-कवि !
तुम मेरे लिए
जो अग्नि-कविता लाए हो
उसे पाने की बड़ी उत्कंठा है
मेरे मन में
किंतु उसके स्वीकरण की
जितनी तैयारी है
मेरी चिद्रचना में
इसके प्रति संचेतित भी हूँ.
इस तैयारी की एक धॅुधली सी
उभरती मिटती प्रतीति
उस कविता की ओर
मुझे लपकाती है
पर पल प्रतिपल
अंतस्तल से उठती कोई टोक
मेरे उठते कदम को
बाधित किए दे रही है.
तुम्हारी अग्नि-कविता
अकम्पित
शून्य तरंगाघातों की तरह
मेरे गिर्द मौन मुखरित हैं
यह एहसास मुझे है
किंतु जान पड़ता है
प्रकृति का संतुलन
मेरे अनुकूल नहीं है जिससे
तुम्हारी कविता मेरी नहीं हो पाती.
कहीं ऐसा तो नहीं
कि तुम्हारी कविता में
जिस रहस्य-खोज का अनुगुंथन है
वह प्रकृति के संतुलन-रहस्य का
जागरित आत्मीकरण ही है
जिससे छिन्न मेरी भटकन के
उद्बोध के लिए
अपने भाविक संवेदन में
अग्निल अंतरर्थों को भरा है तुमने
युगीन संवेदनाओं के अनुकूल
युगीन संदर्भों में.
तब तो
तुम्हारी अग्नि-कविता के
पाने की उत्कंठा
यहीं से यहीं तक के बीच का
अर्थवान आंदोलन होना चाहिए
मेरे अंतरावेगों की टोका टोकी में
कहीं मेरा यही अंतरर्थ तो
उन्मीलित नहीं है.
मित्र !
अब तो तुम्हारे सिंहद्वार से
दस्तकें न देकर
प्रकृति के अचेतन विस्तार में
अपने अंतरर्थ को ही क्यों न ढूँढ़ लॅू
मुझे लगता है
तुम्हारी निकटता से
संस्पर्शित वायु-कणों व
आकाश के परमाणुओं में
यह ढूँढ़ सरल होगी.
यहाँ एक संधि बनती है
जहाँ सार असार के द्वंद्व में
मेरी प्रयोगधर्मिता
जागरण का प्रयोग कर सकेगी
उसके संघातों को झेल सकेगी.
6.
मित्र !
अपने आकाश को घेरकर
मैंने अपना ऑगन बनाया था
जिसके एक कोने में बैठकर
मैंने सोचा था
पक्षियों के स्वरित गान में
किरणों को पसारते
दोपहर के प्रज्वलन में तेज दिखाते
और अपनी सांध्य-अनुभूतियों
के जागरण में
डूबते सूरज को
मैं देख सकूँगा
और प्रकृति के रहस्य में
अपना रहस्य खोज सकूँगा.
पर इसी समय
वायु के अणु-तरंगों ने
एक निमंत्रण दिया था जिसमें
तुम्हारे शब्दों की ध्वनि और
सिहराता स्पर्श था
उसमें इतना तीव्र कर्षण था कि
अपने अकेले की नाव में बैठ
अकेले के पलों को साथ लिए
तुम्हारे सिंहद्वार तक
मैं खिंचा चला आया था.
वहाँ देखा तुम्हारे द्वार खुले थे
खिड़कियों से प्रकृति निकल पैठ रही थी
फिर भी दस्तक देकर ही
तुम्हारे ऑगन में मैं आना चाहता था
पर दस्तक के लिए उठे मेरे हाथ
उठे ही रह गए थे
द्वार पर टॅगी तख्तियों ने मुझे टोका था
और मेरी उमड़ी श्रद्धा
ठिठकी रह गई थी.
यों इस यात्रा के पहले
कितनी ही बार यह श्रद्धा
उभरती मिटती रही है
किंतु तब कुछ अचंभा नहीं लगा था
पर उस दिन देखा
मैं नदी का द्वीप हो गया हूँ
दूर तक दृष्टि दौड़ाया
कहीं कोई छोर नहीं दिखा
लहरें मुझसे टकराती रहीं
फिर पलटकर
दूर दिगंत में अंतर्र्लीन होती रहीं
वहाँ कुछ दिखी तो केवल प्रकृति दिखी
मेरा मैं नहीं दिखा
पर ‘मैं’ का एहसास दिखा.
मेरे अकेले के पल मेंरे साथ थे उस दिन
मैंने सोचा अभी दस्तक न दूँ
थोड़ा ठहरकर
अपने पलों को ढूढ़ूँ
अपने आप को खोजॅू
कहीं मैं खो तो नहीं गया.
अभी मैं
अंतरान्वेषण में ही लगा था
कि फिर एक स्पंदन हुआ
जो जड़ें
अभी मेरी मुट्ठी में नहीं आईं थीं
एकबारगी हिल गई
लगा कुछ टूट गया
और मेरे अंदर एक रिक्ति उतर आई
एक शून्य तिर गया.
इस प्रतीति ने
शायद मेरी स्नायु की
कोई गाँठ खोल दी
मेरा आकाश
मुक्ति की करुणा से नहा गया
पर कौन सी गाँठ खुली
मैं नहीं समझ सका
पर ग्रंथि खुलने पर मुझे भाषा कि
तुम्हारा भी अपना एक आँगन है
पर उसकी सीमाएँ नहीं दिख रहीं
पर तुम जागरित थे
अस्ति नास्ति से दूर
वह घेरा तुम्हें उत्पीड़क लगा
उसे तोड़कर
आखिरकार तुम आकाश हो गए
सारा आकाश.
कल तुम देही वर्तमान थे
आज तुम शून्यक आकाश हो
अपने देहांतरण के अंतिम क्षणों में
तुमने कहाः
‘‘मैं सदैव वर्तमान हूँ
कल सागर बूँद में सिमट कर
स्थूल हो गया था
आज बूँद सागर में मिलकर
विस्तार पा गई.’’
मित्र !
आज तुम्हारी सीमाएँ
नहीं दिख रहीं
पर तुम्हारी उद्स्थिति
मेरी अनुभूति को छेड़ती है
और भी जीवंत और भी ज्वलंत होकर
काश मैं इन पलों का होकर
इन्हें जी पाता
आकाश की शून्यता मेरी हो जाती
पूरी या अधूरी.
7.
मित्र !
चला था मैं अकेले
अकेले की नाव लिए
तुम तक की एक लंबी यात्रा पर
तू है तो
यहीं से यहीं तक की
दूरी जितनी दूरी पर
पर तुम्हें अनुभव बनाने के लिए
जन्मों की यात्रा भी
शायद छोटी पड़ जाए.
मैं इस दुस्सह लोक-गति की
विपरीत यात्रा पर
विलकुल निस्संग चला था
अपने अकेले के पलों को भी ठेलकर
मैंने दूर किया था
पर ये अनामंत्रित पल
न तो मुझसे छूट सके
न मुझे ये छोड़ सके
ये नाक की साँस की तरह
मेरे साथ लगे रहे हैं.
आज मैं महसूस करता हॅू
इन्हें ठेलकर दूर करना
वर्जना की दृष्टि है
यह इन्हें और बल दे गई
वस्तुतः इन्हें अलग
किया भी कैसे जा सकता था
ये ही तो मेरी उपस्थिति के
जीवंत रेखांकन हैं
आकाश की कोख में
मेरे होने के हस्ताक्षर हैं
ये मेरे वर्तमान हैं
मैं इनका वर्तमान हूँ.
लोक-दृष्टि में मैं अकेला हूँ
मेरी नाव भी अकेली है
मेरा साक्षी जानता है
कि मेरा ‘मैं’ भी मेरे साथ नहीं है
तय के अनुसार मैंने
अकेले ही प्रस्थान किया था
पर इन पलों का मैं क्या करूं
मुझे क्षमा करना
फिलहाल मैं जिस स्थिति में हूँ
ये पल ही मेरे निर्माण के
साक्षी रहेंगे
यहाँ मेरे चिदअणुओं में पर्त दर पर्त
स्पंदाघात करेंगे
इन्हीं पलों के मौन में
मैं अभिव्यक्त हेाता रहूँगा
मेरे केंद्र के गिर्द
यही मेरा संघनन करेंगे.
मित्र !
तुम्हारे द्वार तक
इन्हीं पलों की तीव्रता
इन्हीं का ओज
इन्हीं की चुभन लिए
मैं आया हूँ आंगन पार करके
पर यहाँ के संस्पर्शों ने
मुझे यहीे ठिठका दिया है
इन पलों के तनावों ने
मुझे जड़ दिया है सागर की लहरों पर
यहाँ मैं हूँ, मेरे पल हैं
समाने उच्छल सागर है,
सागर का विस्तार है
और इस विस्तार के कंपन में
मेरी अनुभूति के स्पंदन हैं.
8.
मित्र !
तेरे आंगन तक तो
मैं पहुँच गया, पर
लौ से बाती जितनी दूरी
अभी भी बनी हुई है
मेरे और तुम्हारे बीच.
जरा सी दीखती यह दूरी
बड़ी पीड़क है
बुद्धि झनझना जाती है
अनुभूति छोटी पड़ जाती है
पर हिम्मत मैं हारूँगा नहीं
विवेक और अनुभूति को और बड़ा करूँगा
प्रयोग और प्रयत्न के बल
अपनी पूरी इयत्ता को
अपनी पूरी रचना को
झकझोर डालूँगा
अपने समकालीन पलों के साथ
बीते पलों को भी
बींध डालूँगा मैं.
मन की खाई से भी
अब मुझे डरना नहीं है
अनुभव बताता है
मैं डरा
तो मूल्यवान पल छूट जाऍगे
मेरी यात्रा के संवेदन
मन का अवबोधन बन जाएँगे.
मेरे मित्र !
लौ तो बाती का अनुभव है
मुझे बाती की तरफ लपकती लौ को
अपना अनुभव बनाना है.
कुछ पल तक
पृथ्वी ग्रह पर तेरे ठहरने ने
बाती और लौ के बीच के
अंतराल का यात्रा पथ
मुझे समझा दिया है.
देहांतरण के बाद भी
तुम वर्तमान की अभिव्यंजना हो
अपार्थिव
मैं वर्तमान की व्यंजना हूँ
पार्थिव
इस अंतराल-यात्रा की
समस्त पीड़ाओं को
समस्त अनुभवों को
मैं झेलूँगा
कदाचित दूर दीखती वह लौ
इन्हीं तरंगों में उद्भासित हो उठे.
9.
मित्र !
कहते हैं
नदी के साथ रहना आ जाए
तो नदी सब सिखा देती है.
नदी के पास कल कल ध्वनि है
तो गहन मौन भी
अविरल प्रवाह है
तो किनारों की तलस्पर्शिता भी
गति की धरोहर है
तो अवरोधों की वर्जना भी.
नदी अवरोधों के पीड़न से
खीझती नहीं न डरती है
उसे अनागत के आमंत्रण का संज्ञान है
और अंतरिक्ष के आह्वान का
सार्थक भान भी
वह धरती के आलिंगन का
पुलक लिए भी
बूँदों की छलांग से आकाश नापती है
जीवन के सातत्य
और उसके संपुटित अस्तित्व के प्रवेग से
उसका प्रत्यंग झंकृत है
मैं उस अंतराल का हो जाऊँ
अंतराल के साथ रहना सीख लूँ
शायद यह अंतराल
मुझे सब कुछ सिखा दे.
10.
मित्र !
मेरी आकांक्षा बन रही है
कि मैं इस अंतराल को
जो मेरे तेरे बीच रच गया है
जीना सीख लूँ
कदाचित कल
यह मेरा आकाश बन जाए.
मैं समझता हूँ
मेरे ‘मैं’ के दृढ़ संयोजन का तरलीकरण ही
संभवतः अस्तित्व का साक्षात है.
मित्र !
अद्भुत है
इस अंतराल की प्रवाहमयता
इसमें कबीर की उलटबाँसियों की
अनुभूतिशील प्रवणता है
इसमें
कभी बूँद समुद्र में समाती दीखती है
कभी समुद्र बूँद में
कभी शून्य की संवेदना से
मेरा आपाद तरबतर हो जाता है
मेरी इयत्ता की लकीरें
तिरोहण के सुपुर्द होने लगती है.
प्रकृति की सत्ता में
प्रकृति की संज्ञानों का खोना
अद्भुत अनुभव है
अपनी मिट्टी के आधार पर
पैर टिका कर
मैं इस अनुभव की कला
सीखना चाहता हूँ
अपने खट्टे मीठे पलों के साथ
इस अंतराल का
मैं सहयात्री बनूँगा
इसे जीना सीखूंगा
जीवंत होकर.
11.
मित्र !
कल तक मैं बाती था
स्नेह-तरल लौ पर टिकी थीं
मेरी आँखें
बड़ी उत्कंठा थी वह लौ
मेरा अनुभव बन जाए.
उत्कंठा अब भी है
पर अब वह
मेरे तंतुओं का आवेग नहीं
उनकी रसमयता है
वह मेरी कल्पना में,
आठों पहर की कल्पना में,
निरंतर घट रही है
लोक-यथार्थ से बिना कटे.
मेरी ऑखों के एक तिल में
अतींद्रिय घट रहा है
दूसरे में
जगत का व्यापार.
लौ अब भी मुझसे दूर है
एक सूक्ष्म आकाश जितनी दूर
पर अब उसके संस्पर्श की उत्कंठा नहीं
वही हो रहने की ललक है.
मैं बहुत खुश हूँ
कि अब मैं
अपने कदमों की आहट सुन सकता हूँ
मेरे कदम मेरे अनुशासन में हैं
उनके अपने पल हैं
अपने पदचाप हैं
जिनकी थरथराहट में
वे अपने को रचते हैं.
दूर दूर तक मैं देख रहा हूँ
एक सूना सागर
सन्नाटों में लहरा रहा है-
मेरे सन्नाटों में,
मैं खुद भी अपने सन्नाटों में
ऊब चूब हो रहा हूँ.
कभी सूक्ष्म की छुअन
कभी स्थूल का स्पर्श
और फिर
मेरे पोरों में प्रकंपन,
अद्भुत है यह अनुभव.
इस अतिरेक में
कह नहीं सकता
मेरी ऑखें उस लौ पर टिकी हैं
या वह लौ खुद ही अपनी आँखें
मुझपर टिकाए है
मित्र ! मेरे पल
कितने अपने हो गए हैं.
12.
मित्र !
मैं बखूबी जानता हूँ
कि मैं तुमसे
मात्र लौ भर की दूरी पर हूँ
किंतु यह दूरी
अंतरिक्ष की समाई लिए
प्रतीत होती है.
बड़ी उत्कंठा है इसे मैं तिर जाऊँ
सतत प्रयत्नशील हूँ
पर पालें अभी
फड़क कर ही रह गई हैं
पूरी तरह खुलीं नहीं.
प्रस्थान-बिंदु से
तुम्हारी चिति के छोर तक
नाव खे कर आना
मुझे सरल लगा था
हालांकि मैं अकेला था
अकेले की ही मेरी नाव थी
इस यात्रा के पलों से उलझना
उनके सामने
सीना तान कर खड़ा हो जाना
मुझे साहसपूर्ण तो लगा
पर कम परिश्रमसाध्य नहीं.
अपने परिवेश से तारतम्य बिठाती
मेरी स्वतंत्र चिति मेरा संबल थी
पर यहाँ आकर
वह भी अपर्याप्त लगती है
यहॉ तो
बस सर्वांग स्वतंत्र होना ही
मार्ग है.
प्रकृति की स्थूलता से जुड़ा पंक्षी
तभी आकाश में छलांग लगा सकता है
जब परिवेश से वह आवेग तो ले
पर सर्वांग स्वतंत्रता के
पर खोलने का
अंतरावेग पा जाए.
कदाचित यह अंतरावेग
सम्यक रूप से
अभी मैं पा नहीं सका हॅू
पर उत्कंठा मैंने खोई नहीं है.
इस कछार पर थिर होकर
मैं सागर की उठती गिरती
लहरें गिनने में व्यस्त नहीं हूँ
मैं बीत रहे हर एक पल में
पलों का प्रवाह हो जाने के लिए
सतत प्रयत्नशील हूँ.
मित्र !
ये पल बड़े अद्भुत हैं
जिन्हें मैं जी रहा हूँ
मेरी बुद्धि इस दूरी को तय करने की
तरकीबें सोचती है
हृदय भावों से भरा है
इनके अतिरिक्त मेरी अंतर्गुहा में
और भी कुछ है
जो उठती गिरती तरंगों की
गिनती नहीं करता
उनका साक्षी बनकर
स्वयं तरंगें हो जाने को
प्रेरित करता है.
बड़े अद्भुत हैं ये पल
इनमें उलझनें भी हैं सुलझनें भी
नदी के प्रवाह की
बीतती त्वरा है इनमें
मैं पलों की इस त्वरा को
उनकी जीवंत अनुभूति में
नहाता हुआ देखता हूँ.
तुम्हारे मेरे बीच की
लौ भर की दूरी
ज्यों की त्यों बनी हुई है
मैं अपने अस्तित्व की कल्पना में
समो देने का आकांक्षी
और आग्रही हो रहा हूँ.
13.
मित्र !
क्या गजब है
ऑखों की टकटकी तुम्हारी तरफ है
चेतना तुम्हारे मौन से नहाई हुई है
पर दुनिया की ध्वनि
यहॉ भी सुनार्इ्र देती है
तुम्हारी देशना के अनुरूप
ध्यान की एकाग्रता के लिए
मैं इन्हें रोक नहीं रहा
बरसात की बूँदों की तरह
इन्हें बरसने दे रहा हूँ
फिर भी मेरे सीने में यह प्रश्न
धड़क जाता है कि
दुनिया मेरे बाहर है या अंदर
बस्तियों से वीरानों, बीहड़ों
और कंदराओं से होकर
मैं यहॉ पहुँचा हूँ.
यहाँ दूर दूर तक
निसर्ग की एकरसता है
सूरज की किरणों से
न जाने कौन सा संदेश पाकर
कमल पंखुरियों में खुल रहे हैं
पंछियों के कंठ से
प्रकृति गुनगुना रही है
मगर इन सब के साथ
मेरे ध्यान में
दुनिया के गीत भी हैं.
मैं कभी निस्पृह
कभी करुणार्द्र हो जाता हूँ
कैसा रहस्य साधे बैठे हो मित्र
अपने गर्भ में !
इन सारी स्थितियों से
तुम्हें गुजरना पड़ा होगा
पर तुम अपना दीया आप हो गए
मैं लकीरें पीटता रहा
आज भी पीट रहा हूँ.
हाँ इतना अंतर अवश्य पड़ा है
कि मेरी दृष्टि में
मेरे अंतर्बाह्य
अब एकसाथ ही तरंगित होते हैं
मैं उन्हें देखता हूँ
और भरपूर देखता हूँ
खुले मन से, खुली आँखों से.
मैं तरंगें नहीं गिनता
वल्कि बाजवक्त ऐसा लगता है कि
मैं स्वयं तरंगें हो जाता हूँ.
मित्र !
क्षण भर का यह एहसास
मुझे प्रश्नाकुल कर देता है
कि जो मैं देख रहा हूँ वह
मेरा विस्तार है
या सामने पसरे विस्तार का ही
मैं सूक्ष्म प्रतिबिंब हूँ
फिर भी
विस्तार और प्रतिबिंब का भेद
मेरे मन में अभी भी है.
-0-
अकेले की ओर
मित्र !
अंतरिक्ष की समाई हो
या परमाणु की कोख
इनमें मनुष्य का प्रवेश
बड़ी तीव्रता से हो रहा है
लेकिन यह संसार
उसकी मुट्ठियों में नहीं आ रहा
यह प्रतिदिन, प्रतिपल
उसकी उँगलियों के पोरों से
फिसलता जा रहा है
जीवन की धारा
उसकी पकड़ में नहीं आ रही
उसकी आँखों के सामने
उसकी चेतना के साक्षीत्व में
उसके अपने ही आवेग
उसके वश में नहीं.
वह आज का प्रत्येक क्षण
जी लेना चाहता है
पर क्षण का पूरापन
जिसमें आगत अनागत क्षणों का
नैरंतर्य भी गॅुथा है
वह अपनी दृष्टि की समाई में
समो नहीं पाता.
वह प्रत्येक क्षण रचनाशील है
और अपने सृजन को
आंदोलन का प्रकंपन देकर
लोगों के रोंगटे
सायास खड़ा करता है
और आत्मविमुग्ध
उद्वसित होता रहता है.
आश्चर्य
वह चिड़ियों से बात करता है
वनपाखी
उसके चित्त के संकलन में हैं
फिर भी वह प्रकृति से
उतनी ही दूर है
जितना स्वयं अपने आप से.
अपनी रचना में
वह बहुत कुछ रच लेता है
जिसमें उसका बुद्धि-प्रसार
और बहुपठित होने की झलक
टिमटिमाती है
फिर भी उसकी पूरी रचना
उसकी स्नायुओं में फिरते
तरंगाघातों के मेल में
नहीं होती
वह रचता तो है विद्रोह
पर रहता है
सुविधा की लय में लवलीन.
बाहर के आकाश में
उसकी उॅगलियॉ
पूजा की मूरतें उकेर लेती हैं
पर उसका अपना ही आकाश
सूना रह जाता है
वह अपने रीतेपन को
भर नहीं पाता
पर रचनाकार बनने के व्यामोह में
पंक्ति बनाते बनाते
स्वयं पंक्ति बन जाता है.
पंक्ति से हटकर चलना
उसकी अवधारणा में नहीं अॅटता
वह सोचता है-
‘‘चला होगा कोई पंक्ति से हटकर
कम रही होंगी उसकी चुनौतियाँ’’
पर मैं सोचता हूँ
धर दूँ निस्संकोच अपने आप को
आज की चुनौतियों की धार पर
और चल पड़ूँ अक्खड़ता से
पंक्ति से हटकर, कदम दो कदम
अकेले की नाव लिए
अकेले के पलों के साथ
अकेले की ओर.
2.
मित्र !
मैं तुम्हारे द्वार पर
जो मेरी प्रतीतियों में ही अधिक
प्रच्छन्न आभासित-सा है
सृष्टि के पलों को
अपने पलों के साथ जी रहा हूँ
मुझे पूरी तरह भान है
कि इन पलों की
और इन्हें भरपूर जी लेने की
अपनी अपनी सीमाएँ हैं
पर मेरे हृदय के आपूर्य आवेग ने
इन सीमाओं का ख्याल न कर
मेरे इन पलों को लंबाता
मुझे आगे ठेलता रहा है.
मैं अपने व्यक्ति की खिड़कियाँ खोले
हवा के स्पंदनों में
अपने स्पंदनों को ढूँढ़ते
और सर्वदिक बरसते
प्रकृति के करुणाजल से
अपने भीतर बाहर को भिंगोते
निरंतर आगे बढ़ता रहा
अपनी सीमाओं को
समय के प्रवाह में घिसता रहा
अपने ‘मैं’ को
अपने अंतर की चोटें देता रहा
पर मैं निस्पृह नहीं था
अनुकूल परिणाम की स्पृहा
मेरे मन में बनी हुई थी.
अपने पलों के साथ
मैं बहता रहा
पर इतना मैंने जरूर किया
कि इन पलों के प्रसरण
इनकी इयत्ता
और इनमें उद्बुद्ध जीवन-सत्ता को
मैं अपने ध्यान में जीता रहा
मैं इनसे पूरी तरह बाखबर था
फिर भी
न मालूम कब कैसा क्या हुआ
कि एक क्षण मुझे लगा
मेरी सीमाएँ पिघलने लगी हैं
मैं बॅूद बॅूद तिरोहित होने लगा हूँ
और तुम्हारी तरफ ढरकती हुई
मेरी चेतना-धारा
उलटकर मेरी तरफ बहने लगी है.
नाव अब भी मेरे अकेले की है
पल भी मेरे अकेले के हैं
पर वह धारा
अब मेरे अकेले की ओर
बह रही है
और मैं अकेला स्थितिमात्र हुआ-सा
अपने इस अंतःप्रवेश का
साक्षी-सा हो रहा हूँ
सृष्टि के पलों को
अपने पलों में जी रहा हूँ.
3.
मित्र !
अग्रसर हूँ मैं निरंतर
अकेले की ओर
अकेले की तरी व
अकेले का आवेग लिए
मेरे ये आवेग
मेरे भीतर से आपूर्य हैं
पर परिवेश की अंतःप्रकृति से भी
ये अजान नहीं हैं.
आज का परिवेश
कदाचित पर्यावरण कहना
अधिक युक्तिसंगत होगा
एक धुंध से भरा हुआ है
लोग इसी धुंध में
अपने स्वगत लक्ष्य का
संधान कर रहे हैं
उनके भीतर भी एक धुंध है
पर वह उन्हें
कोई दृष्टि नहीं देता
मेरे भीतर भी एक धुंध है
इस धुंध मे ही मैं
अपना अर्थ ढूँढ़ता हूँ
मुझे अपनी दृष्टि का
संधान मिलता है इस धुंध में
पर ऐसा भी नहीं है कि मैंने
अपने परिवेश से अपने को काट लिया है
परिवेश का आकर्षण ही तो
मुझे जीने का संघर्ष देता है
पर मेरा अपने केंद्र पर होना
संघर्षों में मेरे पैरों को टिकाव देता है
मैं अपने अकेले की ओर अग्रसर हूँ
बस अपने केंद्र पर होने के लिए
और अब मैं अपने केंद्र पर
होने लगा हूँ
और सच जानो इस होने में
मेरा हर पल
मेरी अंतर्बाह्य अनुभूतियों से
भावदग्ध है
मित्र ! मैं इन पलों को
भरपूर जी लेना चाहता हूँ
अपने पोर पोर में
इन्हें पी लेना चाहता हूँ.
आज अभिव्यक्ति के मोह का
थोड़ा संवरण करूँगा मैं
मन में एक भाव जगा है
कि मैं कुछ ठहरूँ
और अपनी चेतना के प्रवाह का
साक्षी बनूँ
अकेले की ओर के प्रयाण का
यह पहला पड़ाव है स्यात.
∙बीज संवेदन
पंछी से मैंने
सपनीले पंख माँगे
और मैं दिगंत में उड़ चला
मैं उड़ा और खूब उड़ा
उड़ने के साथ
मैं फैलता भी चला गया.
मेरी अनुभूतियों का दायरा
विराट होता गया
पर मैंने महसूस किया
मेरी बुनियादी उलझनो में
कोई कमी नहीं आई
मैं अशांत का अशांत ही बना रहा.
मैंने समझा
मैं विराट का छोर पकड़ने ही वाला हूँ
मगर देखा
विराट और विराट हो गया है
फिर बुद्धि मुझे टीसने लगी
अंतर का बल
जो मेरे पैरों के टिकाव का संबल था
( यह कविता मैंने ओशो को 24.7.1984 को रजनीशपुरम, ओरेगाँव, अमेरिका भेजी था. ओशो उन दिनों मौन में थे. मा आनंद शीला ने इसे उन्हें न दे स्वयं इसका उत्तर दिया.)
छीजता नजर आया
मेरा फैलाव मेरे अस्तित्व के लिए
संकट-सा लगने लगा
मैं अपनी सीमा को
खोना नहीं चाहता था
अपनी सारी गतिविधियों की
वर्जना न कर
मैंने उन्हें अपने ध्यान में ले लिया
फिर तो जैसे क्रांति घट गई
अगले क्षण अब मैं
दिगंत का विस्तार नहीं था
इस उलट क्रिया में
मैंने एक अजूबा देखा
और देखते ही ठक से रह गया
जितना ही गहरे उतरने लगा
उतना ही मैं ऊपर उठने भी लगा
ठीक एक जीवंत वृक्ष की तरह
तब से लगातार
मैं अपनी ही गहराइयों में
उतरता जा रहा हूँ
मगर ये गहराइयाँ
मुझे भयभीत नहीं करतीं
मेरे अकेले की यह उड़ान
मेरे अकेले तक की दूरियाँ
नापती जा रही है
दूरी बढ़ तो नहीं रही
पर दूरियाँ नप रहीं हैं.
2.
नदी के पुलिन पर पड़ा मैं
एक दिन
उसकी तली में वंकिम लेटे
शांत स्निग्ध जल से खेलती
सांध्य किरणों को देख रहा था
दिन की ढलान सुहानी थी
पलकें कुछ खुली कुछ बंद थीं
तन की शिराओं में
रक्त का प्रवाह
सहज सरल और आकंठ था
सामने
जल के अंतस्तल में
नभ की परतें
एक एक कर बीत रही थीं
इतने में
बादल का एक सफेद टुकड़ा
जो अब पीताभ होने लगा था
एक पत्र की तरह
मेरी आँखों में खुला
मैंने देखा
उसके एक कोने में
केसर रंग का एक पंछी
एक श्वेत पंछी के पंखों से
आशीर्ष आवरित
दिगंत की दिशाओं की टोह में
उड़ान भर रहा था.
मैं नहीं जानता
वह सफेद पंछी
जो एक सहयात्री-सा लहग रहा था
उस केसर पंछी की रक्षा में
कहीं साथ हो लिया होगा
अथवा प्रारंभ से ही उसके साथ था
पर यहॉ जो दीख रहा था
उसे देखकर मैं अचंभित था
बात ही अचंभा की थी
वह पंछी यद्यपि आवरित था
पर उसकी गतिविधि बता रही थी
वह दिगंत की उड़ान में
श्वेत पंछी के आवरण से अनजान
अकेला उड़ रहा था
दिशाऍ उसे लुभा रहीं थीं
इस लुभावन में
खुलती झिंपती दृष्टि लिए
वह आकाश में डोल रहा था
वह आवरण की उपस्थिति से अनभिज्ञ था
पर संकल्प का वेग उसमें पूरा था
उसके मुख पर
थकान के चिह्न नहीं थे
वह खोजी चित्त का
अथक प्रयासी लगता था.
उसकी अस्खलित उड़ान पर
मेरा मन
इतना रीझ गया कि
उसकी उड़ान में साथ हो लेने की
मुझमें भी साध जग उठी
मेरा मन केसरिया नहीं था
पर मेरी साध ने
मुझे भी उस उड़ान से जोड़ दिया
उस पंछी के साथ उड़ान भरने में
मुझे बहुत अतिरिक्त महसूस नहीं होता.
3.
कितना अच्छा होता
जब आकाश मेरी मुट्ठी में होता
और मैं आकाश की मुट्ठी में
मैं फूलों की खिलावट में खिलता
और फूल मेरी खिलावट में.
बैठे ठाले का धंधा लेकर
किसी दिन मैं ध्यान में डूबा
तो देखा
मेरे खिलने के साथ
सारी दुनिया खिल उठी है
ध्यान से जब उतरा
तो फिर से दुनियावी एहसास
मुझे छेड़ने लगे थे
फिर एक बार मैं
चतुर्दिक दबाओं, तनावों में
मुहरबंद हो गया था.
कितना अच्छा होता
जब मेरा खिलना
सहज सरल
और निरंतर हो पाता
मौसम की मारों में विकसनशील
ठीक उस फूल की तरह
जो प्रकृति की क्यारी में
प्रकृति की रसानुभूति पीकर
अंतरिक्ष में किलकारी भरता है.
कितना अच्छा होता
जब मैं भी
अपने गिर्द के मर्म को पीकर
किलकारियों की मर्मानुभूति को
जी पाता.
एक ऐसे क्षण का मैं गवाह हॅू
जिसमें कुंठा, घुटन, त्रास
और उमंगों को तोड़ते तनाव
ग्रंथियों की तरह घुलकर
अंतर्मनस के प्रवाहों को
सहज स्वाभाविक कर देते हैं.
कितना अच्छा होता
जब मैं
सहज सरल और
स्वाभाविक हो पाता.
4.
तुम्हारे और मेरे बीच
एक टुकड़ा दूरी का मुझे भान है.
मगर क्या ही अच्छा हो
यह दूरी
पत्थरों की नहीं फूलों की हो.
पथरीलापन मुझे पसंद नहीं
लेकिन यह सच है
कि मेरी भावनाऍ मेरे अनजाने ही
पथराना शुरू कर देती हैं
जब मेरी ऑखें खुलती हैं
वे पथरा चुकी होतीं.
कुछ अधखिले फूल भी
पंखुरियों में सिमट कर
पत्थरों के बन जाते हैं
क्या ही अच्छा हो
इन पत्थरों में ही फूल खिल आएँ
और पत्थर, पत्थर न रह कर
घाटी की ढलानों की निसेनी बन जाऍ
जो फूलों तक की पहॅुच को
अनिवार जोड़ते हैं.
मैंने सुना है
पुरानी गवाही भी है
कि पत्थरों में भी फूल खिलते हैं
उनके दरारों के पाटों में
कुंठा औंर संत्रास के तनावों को
झेलती दूबें
उनका सीना फाड़ कर
इतरा उठती हैं
और फूलों के यात्रियों की
कठोर यत्राओं में उनके तलवे तर करती है.
क्या ही अच्छा हो
मेरी घाटी के पत्थर ही
मेरी निसेनी बन जाऍ
ताकि पड़ोस के पथरीले तनावों को
मैं कदम कदम पार कर जाऊँ.
5.
ढेर सारे प्रकाश के खंडहर में
मुझे तलाश है
लौ भर प्रकाश की
जो मेरे अस्तित्व को
गतिशील कर दे
और मेरे होने के अर्थ को
उद्भासित कर दे.
मेरे गिर्द की बहती हवाओं ने
मुझे मेरी निजता से
अलग थलग कर रखा है
मैं अपनी स्वाभाविकता खो चुका हॅू
अलग अलग पहचान वाले
इतने सारे प्रकाश
मेरे गिर्द मॅडरा रहे हैं
लेकिन मेरी पहचान तक
मुझे पहॅुचाने वाला
लौ भर प्रकाश मुझे नसीब नहीं है.
उस ठॅूठ ने
लौ भर प्रकाश को पाकर
अपने स्वभाव को पा लिया है
तनावों की नींव पर
उसका इतराना बंद हो चुका है
मैं अपने जिस्म में
तनावों की गहराई बोकर
असहज होता जा रहा हॅू
बावजूद इसके
तनावों के अंश
भले ही पिघलते हैं
पर मेरी सहजता मुझे नहीं मिलती
उस लौ भर प्रकाश को पाकर
मिलने वाली सहजता की झलक
मेरी अनुभूति में
बीज बिंदु की तरह
क्षीण ही सही
पर लगातार उद्भासित है
मेरी तीव्र आकांक्षा है
वह लौ भर प्रकाश मुझे मिल जाए
और मैं
सहज स्वाभाविक
अपने जीवन को पा सकूँ.
6.
मेरे स्वप्नशील मन ने
मुझसे कहा
दूर दिगंत में उड़ते पक्षी-सा
उड़ने की जो आकांक्षा
तुमने पाल रखी है
उसे तुम अब पूरा कर ही डालो
उसकी परतें उघाड़ कर
बस तुम उड़ ही लो.
बात मेरी समझ में आई
थोड़ी देर के लिए
मैं आवेग से भर गया
आकर्षण से विरत अपने में सिमट गया
मेरे दृष्टि-पथ में
अब केवल आकाश ही था.
समुद्रलंघी हनुमान की तरह
मैंने ठोस धरती के
एक टुकड़े का चुनाव किया
और उड़ने की मुद्रा बनाकर
आकाश में छलांग लगा ही दी
लेकिन अफसोस
यह उड़ान भरी न जा सकी.
मैं स्तंभित रह गया
आखिर चूक हुई कहॉ
मैंने धरती को छुआ
94 : बीज संवेदन
उसमें वांछित ठोसपन था
अपने गिर्द को टटोला
मैं किसी भी छोर से बँधा न था
चिंता में मेरे हाथ
मेरे पैरों से छू गए
मैंने महसूस किया
उड़ानों के लिए वांछित ठोसपन
इन पैरों में नहीं था
हृदय से मस्तिष्क तक का गुरुत्व
जो मेरे पोरों को भी जोड़ता है
कहीं लिजलिजा है.
मैंने अपने को रोका
और इस लिजलिजेपन को
एक रीढ़ देने की कोशिश की
मेरी कोशिश अभी भी जारी है
मुझे उम्मीद है
मेरा संकल्प रंग लाएगा
और मैं आकाश में उड़ सकॅूगा
और लोगों को
उड़ने का स्वप्न बाँट सकॅूगा.
7.
चारो ओर से अपने को काटकर
स्वयं में उतरने की
जब मैंने कोशिश की
मेंरे अंगों में थरथराहट उतर आई
अपनी बहिर्मुखी इंद्रियों को
जब मैंने अंतर्मुख हुआ
मेरे प्राण कँप गए
आकर्षणों के मोह ने रुकावट डाली
लेकिन फिर भी
मैंने संकल्प को चुना
और भीतर उतरने की तैयारी में
अधिनिर्मित कपाट पर दस्तक दिया
दस्तक देने के साथ ही
मुझे जैसे विजली छू गई
मेरा रोम रोम सिहर उठा
और अचानक मेरे कदम
कुछेक सीढ़ियॉ उतर गए.
अब मेरे सामने
मेरे करीब का एहसास था
वहॉ मैं था, मेरी घबराहट थी
वे स्मृतियॉ थीं, यह साक्षात था
मेरा दीया था, मेरा अंधेरा था
और मैं इन्हें महसूसता
अपनी पोटेंशियलिटी के करीब था.
मैंने अनुभव किया
सहस्रों सूर्यों के बटोरने
और दीप्तिमान होने की जो लिप्सा
मैंने पाल रखी थी
इस साक्षात के उजाले में
धॅुधला गई थी
यह उतावलापन
उन सूर्यों की चमकार से
कहीं अधिक प्रभावान था
लेकिन यह अनुभूति
अधिक टिक न सकी
क्षण भर की यह कौंध
शीघ्र तिरोहित हो गई
और मैं
अपनी मूल प्रवृत्तियों के आईने में
अपना थथमथाता चेहरा लिए
फिर अपनी पूर्व स्थिति में था
मेरी वह अनुभूति
अब मेरी प्रतीति बन गई थी.
8.
आज मेरा स्व
मुझसे टकरा गया
मुझे लगा
एक अग्नि का गोला
मुझसे छू गया है
कुछ पल के लिए
मैं अपार उर्जा से भर गया
स्फूर्ति ताजगी और संकल्प
मेरे पहलू में उॅड़ल गए
मेरा समूचा अस्तित्व
टटके फूलों के आविर्भावों से
भर गया.
बड़ा प्यारा था वह क्षण
अपने को करीब पाकर
थोड़ी देर के लिए मैं निहाल हो गया
अब मैं
अपने गिर्द के सारे लोगों के
करीब हो गया था
मैं सारे निसर्ग के प्रति
आपाद प्रेम से भर गया
यह दुनिया
मेरे ‘मैं’ और मेरे स्व के
दो पाटों के बीच बह रही थी
और मैं किनारे बैठा
उसकी उभरती मिटती
तरंगों के उभारों से
अपने आपको बुनने लगा था.
9.
चलते चलते
जब किसी पड़ोस से
टकराना होता है
तो एक गॅूज उठती है
कभी चूड़ियों की खनक की तरह
कभी तलवारों की झनक की तरह
एक में जुड़ाव की ध्वनि होती है
एक में द्वंद्व की
ल्ेकिन जब कोई
अपने आप से टकरा जाता है
तो वहॉ ऐसा कुछ नहीं होता
वहाँ चेतना की एक धारा चलती है
जो खुद को ही नंगा करने को
मचल उठती है
वहॉ अपने ही अंधेरे और रोशनी
सामने होते हैं
अंधेरे डराते हैं
और रगों में अपनी गॉठें बुनते है
रौशनी साक्षात के लिए
साहस जुटाती है
उसकी लौ की धारा
उन गाँठों को भिंगोती है.
इस क्षण
मैं अपने ही दीए की लौ लिए
अपने ही अंधेरे से टकरा रहा हॅू
और परत दर परत
नंगा हो रहा हूँ.
ऐसा नहीं है कि नंगा हेाना
मुझे अच्छा लगता है
यह तो एक कड़वा अनुभव है
पर ऐसा होने में
प्रत्येक उधड़न
ओढ़े यथार्थों की कथा सुनाती है
और मेरा होना
इन बोधों से निथर कर
अपने होने के निकट
सरक जाता है.
10.
मौन में बातें कैसे की जाती हैं
मुझे नहीं मालूम
लेकिन मैंने
अपने अंदर उठते आवेगों का
मौन में साक्षात किया है
उसके उद्दाम ज्वार
और उतरते भाटे का
मुझे एहसास है
ऐसे में
फूलों की तरलता से
मेरा हृदय तरल हो उठता है
मेरे रोमों में पुलक जाग गई है
मैं आह्लादित हुआ हूँ
इस तरलता ने
मेरे टूटते रिश्तों को जोड़ा है.
लेकिन फिर भी
तथ्य चाहे जो हो
मॅुदी या खुली ऑखों के
अपलक मौन ने
कितने ही तरल प्रयोग किए हों
इस दुनिया में
मौन को एक चुप्पी माना गया है
एक सुरक्षा माना गया है
लोक में मौन एक ताकत जरूर है
लेकिन यह
अत्यंत संवेदनशीलों को ही
संप्रेषित होती रही है
मुझे तो मौन से भींगे
तुम्हारे शब्दों की
कुछ चोटें चाहिए थीं
जिसकी पगध्वनि
मेरे मन के प्राचीरों को लांघ कर
मेरे समूचे तन को बेध डाले.
11.
सच कहता हूँ
एक सीख घुली थी मेरे लहू में
अकेले चलने, अकेले होने का
एक आवेग था, एक आवेश था
सो मैं अकेले चल पड़ा
अकेले हो लिया.
लेकिन अनुभव का घॅूट पीकर देखा
कितना कठिन है अकेले चलना
इसमें फैलना और सिकुड़ना पड़ता है
जिसकी कशमकश
मेरे होने की सीमा में
गाँठें पुरता है
मैं आमूल थर्रा उठता हूँ
कदम डगमगा उठते हैं
धरती का ठोसपन
एक भ्रम बन जाता है
आकाश का फैलाव, एक छलावा
मेरे होने के टिकावों में
एक पिघलन ठॅुक जाती है
जो मुझे गिर्द के खॅूटों से अलगाती है
जो मुझमें
मिटने का डर पैदा करती है
हालॉकि अनुभव के एक क्षण में
मैं गवाही दे सकता हूँ
मेरे अकेलेपन ने
एक अनूठा एहसास दिया
पर वह मेरा नहीं हो सका.
यूँ तो हूँ मैं
परमाणुओं का एक संघट्ट ही
और इस तरह
अकेले होने का अर्थ नहीं
लेकिन
मेरी देहयष्टि में जो पुरा है
वह मुझे अकेला करता है
मुझे रचना की
एक इकाई बनाता है
मेरी इकाई ही चलती है
लोगों से और अपनों से
यह इकाई ही टकराती है
इन क्षणों में
इसे किसी मूल का
कोई ख्याल नहीं रहता
तो क्या
इसके अकेलेपन का भय
किसी मूल से अपरिचय का भय है
यह तो केवल तुम्हीं जानते हो
मैं भी जान जाऊँ तो बात बने.
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अनुस्मरण
शताब्दी के पूर्वार्द्ध के
अंतिम दशक के प्रारंभ से
शताब्दी के
इस अंतिम दशक के
अंतिम वासर तक के
काल-प्रसार में
जितना मैं स्मरण कर पाता हूँ
मैं अनुभव करता हूँ
मेरी अब तक की यात्रा
निपट मेरे अकेले की रही है.
पहले मुझे इसका भान नहीं था
मित्र! तुम्हारे चिदसंपर्क में आकर
कुछ समझ आने लगा
और तब मेरे पूर्वानुभूत
मेरे बोध में उतरते गए.
आज मैं स्पष्ट देख रहा हूँ
कई उतार चढ़ावों से गुजरता
कभी समय के साथ
कभी समय की धारा से हटकर
मेरा सोचना समझना भी
कुछ इसी तरह का रहा है
मेरे सोच के कई स्तर
अचंभे की हद तक
तुम्हारे सिखावनों से
मिलते जुलते रहे हैं.
पर मेरे लिए वे
गुत्थी-सी पैदा करते रहे हैं
ओर छोर विहीन
कल्पना में औंधे लटकते-से
एकदम न्यारे
परंपरा को चुनौती देते-से ये सोच
कंठ तक आकर भी अमुखर
मेरे अकेले के ही प्रस्फुटन रहे हैं
ये निःसृत होकर भी
युग को चुनौती न देकर
मात्र कल्पना का आवेग बनकर
रह जाते रहें हैं.
पहले पहल
बॉसों से झाँकता सूरज
जब मेरे बोध में उगा था
अपने परिवेश से असंपृक्त
मैं अकेला ही था
अक्षरों के परिचय से लेकर
वाक्यों के सरल तरल अर्थों में
मेरा हृद्-मन जब उलझने लगा
तो पोरों में खिलती अनुभूति
मेरे अकेले की ही थी
मेरे उर मन पर इनके अंकन
फ्लापी की तरह
आज भी संवेदनशील है.
आज मेरा मन
आकुंचन प्रकुंचन के केंचुल छोड़ता
अथ से आज तक के
भावों के उन्मेष को
मुखर वाणी देने लगा है
लोक में संसरित मेरी वाणी
लोक प्रवाह से टकराती
अनमेल और अकेले की है.
ं
तब से अब तक में
फर्क केवल इतना ही पड़ा है
कि तब मेरे प्रयाण की दिशा
अनिर्दिष्ट थी
लोक की उलझनें
मेरी बुद्धि में
राहें खोज लेती थीं
किंतु आज मेरी यात्रा
अकेले की तो है ही
अकेले के पलों के साथ
अकेले के ओर की है.
कल यह संवेदना
मेरी बुद्धि के तल पर थी
आज मैं इसके बोध से
भींग रहा हूँ
आज मेरी अनुभूति साक्षी है
कि प्रकृति का अवयव अकेला है
पर उसकी गति ताल और लय
एक व्यापक छंद में बँधा है
यह अकेले की ओर का चलना
वस्तुतः उस व्यापक छंद को
अपने बोध में लेना है
वल्कि ठीक ठीक कहें तो
प्रकृति का छंद ही बन जाना है.
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