श्वेता मिश्रा १."भीना सा मौसम" एक भीना-भीना सा मौसम यादों की मुंडेर पर आ बैठा है एक पल ख़ामोशी के आँचल में दूजे पल बादलों के...
श्वेता मिश्रा
१."भीना सा मौसम"
एक भीना-भीना सा मौसम
यादों की मुंडेर पर आ बैठा है
एक पल ख़ामोशी के आँचल में
दूजे पल बादलों के संग उड़ पड़ता है
यादों की फुहारों में जीवन बगिया
ख़िल कर ताज़गी से भर उठती है
एक कुम्हलाता सा कमल अपने ही
तालाब के पानी में मुस्कुरा उठता है
ये यादें भी निर्जीव को सजीव कर जाती हैं
कभी नवप्राण नवचेतना से
काया को नव उल्लास दे जाती हैं !!!!!!
2. ''क्यूँ ''
ये बंधन जो तोड़े से भी नहीं टूटते हैं
सपने आसमां के अब आँखों को नहीं मिलते हैं
बेवजह उपेक्षाओं के शिकार हम ही होते क्यूँ हैं ?????
तुमको राह तो मैंने दिखाया हमें अँधेरे क्यूँ मिलते हैं
मीठी बोली से मुलाकात करवाई ज़हर हमारे हिस्से आते हैं
प्यार की फुहारें बरसायी तुम पर इधर उदासियों का सेहरा बस्ता क्यूँ है ?????
‘
हर मोड़ हर राह पर संवारा तुम्हें फिर बिखराव घर मेरे बसती है
तिनका तिनका जोड़ें जहां बनाये बातें ज़ार ज़ार कर मन तोड़ जाती है
खता क्या हमारी बेवजह सजाएं हमारे दामन चमकती क्यूँ हैं ???
ताउम्र बोझ ढोती ये जिंदगी बोझ ही कहलाती क्यूँ है ??????
...................................
3.''ये शाम ''
ये तन्हा उदास दर्द भरी शाम
अलविदा कहती पत्तों की मुस्कान
कल आने के वादे पर होती सुरमई शाम
हाथ हिलाती अलविदा कहती
ज़ख्म एक नया दे ज़ख्म एक दफ़न करती
इंतज़ार के लम्हे सिलती ये शाम
दर्द के भंवर में दर्द के लहर में
अनजाने गम से नाता जोड़ती या तोड़ती
रूठती मनाती खामोश लाल रंग लिए मिटती शाम
अनकहे बोलों में हज़ार लफ्ज़ लपेटे
अश्कों की जुबान खामोश लब
ख़ुदा जाने सुना रही कौन सा गीत ये शाम
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पद्मा मिश्रा
अनेक रूपों में --
जब तुम
थकान से आकुल-व्याकुल ,
पुकारते हो उसे -शांति और सुकून की छाँह ,
अपेक्षित क्षुधा की तृप्ति के लिए ,
तब वह माँ बन जाती है-,
मन में उमड़ते संघर्षों -
विमर्शों के शमन हेतु,
चाहते हो कोई साथ,
वह मित्र बन तुम्हें संभालती है,
कभी बहन बन -तुम्हारे दुखों को ,
आँचल में संभालती ,-
तुम्हारी मुस्कान बन जाती है,,,
अपने नन्हे हाथों से ,मचलती ,
गोद में आने की जिद करती -
बिटिया भी वही ,,,,
दुनिया की भीड़ से अलग,
अपने मधुमय एकांत में -
पत्नी बन तुम्हें दुलारती नारी -
कदम से कदम मिलाती -जिंदगी के --
ऊँचे-नीचे रास्तों पर ,
वह पत्नी,प्रिया,बहन,बेटी -
कितने रूपों में जीती है -एक साथ ,
स्वयं -सिद्धा बन कर ,,,,
-
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क़ैस जौनपुरी
भीड़ में क्या मांगूं ख़ुदा से
रमज़ान का महीना है
भीड़ में क्या मांगूं ख़ुदा से
दुनिया भर के मुसलमान एक साथ रोज़ा रखते हैं
सुना है रोज़े में हर दुआ क़ुबूल भी होती है
अल्लाह मियां के पास काम बहुत बढ़ गया होगा
आख़िर इतने लोगों की दुआएं जो सुननी हैं
और फिर सिर्फ़ मुसलमान ही क्यूं
उन्हें तो पूरी दुनिया का भी ख़याल रखना है
आख़िर पूरी दुनिया उन्हीं ने तो बनाई है
सोचता हूँ अकेले में मांगूं ख़ुदा से
ताकि वो सुन ले
साल में किसी ऐसे दिन रोज़ा रखूं
जिस दिन कुछ न हो
और ख़ुदा फुर्सत में हो
सोचता हूँ हज़ भी तब जाऊं
जब वहां कोई न हो
सिर्फ़ मैं रहूँ
और मेरा ख़ुदा रहे
ताकि अच्छे से मुलाकात हो सके
हर साल इतनी भीड़ जमा हो जाती है
धक्का-मुक्की में भला ख़ुदा कहाँ से मिलेगा
मैं तो तब जाऊँगा जब हज का महीना न होगा
सब खाली-खाली रहेगा
फिर एक सजदा...
और फिर उठने की कोई ज़रूरत नहीं
वहीँ आदम की निशानी पे
जहाँ वो उतरे थे
वहीँ बैठ जाऊँगा
और कहूँगा
इंसान को तुमने यहीं उतारा था
आदम यहीं उतरे थे
मैं आदम के खानदान से हूँ
और मैं आदम की जात से बहुत परेशान हो चुका हूँ
आपने किस काम के लिए भेजा था
और सब क्या कर रहे हैं
बस, अब मैं वापस नहीं जाऊँगा
अब मुझे यहीं से अपने पास बुला लो...
अरसा हुआ
तुम्हें देखा नहीं है
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राजेश विजयवर्गीय
आशा - एक सफर
भार दिल पे था, थोड़ा उतरा नीचे और पाँवों की जंज़ीर बन गया,
लगा सब कुछ रुका-रुका सा, घाव लगता अब एक अमिट पीर बन गया।
सुना था लेकिन मैंने- "चलते रहने का नाम जिंदगी है"
रुका सा लगता था सब, चलती बस कलम, सोचा कलम को ही ज़िंदगी बना लूँ ।
चलती बस कलम थी , लेकिन बनाती चित्र डरावने, दिखाती काली स्याही,
चलती कलम भी डराती अब, मिलवाती मुझ से प्रतिबिम्ब मेरा ही।
सुना था लेकिन मैंने "अपने से आँखें ना चुराओ"
सोचा, जो भरा है गन्दा अंदर,कलम बाहर ही तो निकाल रही है।
आँखें उठी, बाहर देखा, कलम में दिखी हरी स्याही अब,
कलम हो गयी व्यस्त बनाने में, भरे से चित्र, हरे थे सब।
चलती कलम बना रही थी चित्र, परखना भी शुरू कर दिया इसने,
स्याही खत्म होने से पहले, क्यों न मोनालिसा ही बना दूँ।
सोचा फिर मैंने - स्याही का क्या भरोसा, काली अगर हो जाये कल को तो ??
थोड़ी रुकी कलम, थोडी झुकी भी, बनाने लगी कुछ अनजान सा,
कभी बाहर का पेड़ बनाये, कभी कुछ बिन पहचान सा।
सुना था मैंने - "फरा तो झरा"
सोचा फिर मैंने - क्यों न खोलूँ मैं अपनी किताब, काली स्याही के पन्ने भी थे मेरा ही भाग
आज इनका अस्तित्व मैं स्वीकार करता हूँ, पर इन्हें अपना बनाने से इंकार करता हूँ।
चली कलम फिर ऐसी कि, खुदा के वरद हस्त ने जैसे छुआ,
द्वंद्व जहाँ से शुरू हुआ था, वहीं अंत में खत्म हुआ।
- Rajesh K Vijayvargiya
RP 226, BITS Pilani, Pilani
Rajasthan
333031
Cell : +91-7737588985
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मनोज 'आजिज़'
ग़ज़ल
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धरती है तो हम हैं, जहाँ है
वरना ज़िन्दगी में रवानगी कहाँ है
कट-कट कर पेड़ सज रहे मकाँ में
कल को भूल बस आज ही रवाँ है
किसे फ़िक्र है कि सुने जंगलों की आह
दफ़्तरों तक सिमट कर रह गया पैमाँ है
पानी पर भी नज़र रसूख़ की है
बरबाद करने वालों की इन्सानियत कहाँ है
फूल-खुशबू, पेड़-पौधे, नदी-समंदर
जहाँ ये बचे, पैग़ामे -जान वहाँ है
पता- आदित्यपुर, जमशेदपुर (झारखंड)
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रमेश भोजक '' समीर ''
दो कविताएँ
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कहते है
टूटता है
ढहता है
झुकता है
मरता है
आदमी
गलत, गलत
गलत है यह कहना
मैं तो कहता हूं
टूटता, ढहता, झुकता, मरता है
वक्त
कभी दादा के रूप में तो कभी
माँ-बाऊजी के रूप में
कहो
यह सच नहीं है क्या ?
(2)
----*---
मुझे मालूम है
जब मेरे बेटे
बिछा देंगे खाट
ठीक उसी जगह पर
जहाँ सुलाया करता था मैं
अपने पिता को
बिछा देने के बाद खाट
रख दिये जायेंगे पास
एक स्टूल
एक मटकी
एक थाली
एक गिलास
और एक उपेक्षा स्थायी
बेटे मेरे दोहरायेंगे इतिहास
तब मुझे होगा अहसास
कि बुढा गया हूं मैं।
--
प्रस्तुति - Sunil Gajjani
President Buniyad Sahitya & Kala Sansthan, Bikaner
Add. : Sutharon Ki Bari Guwad
Bikaner (Raj.)
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अशोक बाबू माहौर
झाँकती पुलकित होती
झाँकती खिड़की से
पुलकित होती
मंद समीर
न जाने क्यों?
क्या देखकर?
शरमाकर,सिमटकर
हँसती लहराती
उथल पुथल करती बलखाती
परदे हिलाती बतियाती
मासूम,सीधी सी,
कान में कूँ करती
कहानियाँ गढ़ती
बीते जमाने की I
उफ!होंठ चूमकर
धम्म नदी में स्नानकर,
अपना रूप रंग अजमाती
किंतु पल में सिमटकर
दर्पण देखकर,
उदास हीन भावना से
पत्तियों में छिपकर
संगीत छेड़ती I
उथल- पुथल कौन करेगा
उथल -पुथल कौन करेगा
कौन लड़ेगा
सत्य लड़ाई
भ्रष्टाचार तहस -नहस कर
सुख ,शांति और समृद्धि
कौन फैलाएगा
भारत में!
देश मेरा
कुछ बोल रहा है ,
रो रही है
भारत माँ
किंतु निठल्ले ,बेईमानों ने
निर्दई हीन भावनाओं से
चोट जड़ी है
तगड़ी सी,
उदय हुआ सूरज भी
शर्मसार देख रहा है
थूकता भ्रष्टाचारों पर!
ये हवा
ये हवा क्यों चलती?
मरोडती पत्तों को
झकझोरती इमारत को
उडाती धूल को!
शायद ये बनकर थिरकती
गीत गाती
पहेलियां बुझाती
गुजरे जमाने की
या अपने बल से
करती जमाने की नीलामी
आगे जाकर दस्तक देती
मेरे दरवाजे पर
निकल जाती
सुर सुर कहकर
फिर धमाक सी
किसी तालाब में
स्नानकर गायव हो जाती!
बल दिखाती हवा
कच्ची सड़क पर
कंटीली झाड़िआं
न जाने
कब उंगी
कब उड़ाकर ले गयी
झकझोर कर ,
मरोड़कर ,ऐंठकर
सरसराती बल दिखाती
हवा ,
पत्तियों के ढेर
कूड़े ,कचरों के
समेटकर पल में
मानो झोली में भरकर
बहुत दूर गिराती उछालकर
मैं खड़ा निहारता
मटमैले पैर लेकर
खिड़की से ,
पास खड़ी
बच्ची मेरी
नन्हीं आँखें गोल मटोल घुमाकर
देखती नज़ारे
कभी मौन होकर
कभी खिलखिलाकर I
ये हवा
मुझे खदेड़ती
मिटटी उठाकर
आँखें में रगड़ती
मेरी बच्ची को रुलाती
खुद हँसती लहराती
आँखें दिखाती I
हमारी दोस्ती भली
एक हाथी ने
चूहे से कहा -
ओ नटखट चूहे
अब तू हरामी बेईमान
होता जा रहा है
हमारी दोस्ती में
दुश्मनी भरता जा रहा है !
कल जो चोरी की
उसका हिस्सा कहाँ है !
इस पर चूहा गुस्सायां
लात मारते हुए बोला -
बड़े भाई माफ़ करना
मेरी अक्ल खो गई है
उसे ढूँढ रहा हूँ
अगर मिल जाएगी
तो तुम्हारा हिस्सा भी
मिल जाएगा
नहीं तुम भले
हम भले
और सारे जग में
हमारी दोस्ती भली !
अशोक बाबू माहौर
ग्राम-कदमन का पुरा,तहसील-अम्बाह,जिला-मुरैना(म.प्र.)476111
ईमेल-ashokbabu.mahour@gmail.com
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लोकनाथ ललकार
- दो पहलू
एक-
दरिंदगी
ऐ दरिंदों !
तुम्हें पाने के लिए
तुम्हारे अपनों का
कितना अर्ज हुआ होगा,
तुम्हें
श्रवणकुमार समझ
तुम्हारी माताओं का
रतजगा फ़र्ज हुआ होगा,
पर तुमने
स्त्रीत्व का तार-तार कर
अपनी माताओं को
जो दर्द दिया है,
इतना तो तुमको
नौ महीने के बाद
पाने में भी
उनको न दर्द हुआ होगा !
दो-
इतना न लहरो
री !
पंख को
इतना पसारो कि
कल्पना की उड़ान
बन जाए,
आभा को
इतना निखारो कि
आसमाँ का अरमान
बन जाए
फिज़ा की ये चाहत है कि
नदी-सी अविरल धार
बहो तुम
पर
इतना न लहरो कि
ये शान्त हवा,
प्रचण्ड तूफान बन जाए ।
Loknath Lalkar
Balco Nagar, Korba (CG)
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रमाकान्त यादव
गजल (यतीम)
अपनी मँजिल मिले जिससे
नजर आता वो रास्ताँ नहीं!
जो हर आदमी को भा जाये
मेरा दर्द वो दास्ताँ नहीं!
सच झूठ की पहचान है हमेँ
मेरा दिल इतना नादाँ नहीँ!
"रमाकाँत "कैसे यतीम न हो
जब हक में जमीँ आसमाँ नही!
--
शहर अरमानों का
शहर अरमानों का जल रहा था
घर दीवानों का उजड रहा था!
शोले भड़क रहे थे तेज से
शमशान का मँजर ढल रहा था!
बहारों ने मुख मोड लिया
गुलशन मरुस्थल बन रहा था!
नकाब मेँ पहचान न पाए
दोस्त ही दुश्मन बन रहा था!
--
"गुलामी"
आखिर कब तक?
पूरी होगी तुम्हारी
चाह
हम मर्दों के चँगुल से
आजाद होने की
मैं भूख और तुम
भोजन
मैं हर -लम्हा तुम्हेँ
लूटता हूँ
सडकों पर,घरों मेँ
बाजारों मेँ
मैं पूछता हूँ कि
वो कौन सी मजबूरी है?
जो हम मर्दों के
सामने
तुम नि:सहाय बनकर
रह गयी हो
क्या?
तुम औरत जाति मेँ
इतना भी साहस नहीँ
कि अपने हक के लिए
हम मर्दोँ से मुकाबला
कर सको
धिक्कार है ऐसे नारीत्व पर
"रमाकाँत" जो गुलामी मेँ
जी रही हो|
000000000000
• प्रमोद कुमार चमोली
सपने
===========
कभी,
रात के काले केनवास पर
बन जाते थे।
अमूर्त, अनसुलझी
रंगीन, रेखाओं से बने
सपनों के चित्र।
बहुत दिनों से
रात का केनवास उदास है
नहीं बनते हैं,
उस पर कोई चित्र।
आड़ी तिरछी,
कुछ रेखाएं चमकती हैं।
निरर्थक, उत्साहविहीन, महीन रेखाओं के
अमूर्तन को नहीं समझ पता हूँ
सपनों ने छोड़ दिया है मुझे अकेला।
........
और कितना .....
=============
भागती सी नदी सी आकाक्षाएँ,
आकाश के विस्तार सी जरूरतें,
समंदर से धीरज में
ज्वार से उफ़ान ।
सब कुछ
अस्तव्यस्त, असहनीय।
उफ़ !
थकन से दोहरी काया।
बेचैन,
भागते हिरण सा मन
संत्रास, हताश, परेशान।
वक़्त से मुठभेड़ में,
पस्त हौसले
मुक्ति तलाशते, भटकते सन्यासी से
और कितना बाकी है।
३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३ण्
बस .......
===============
उम्मीदों की लम्बी सड़क पर,
सर्दी से ठिठुरते
लू के थपेड़े से जंग करते
कभी बरसात में भीगते
रुके नहीं।
उफ़!
ये लम्बा सफ़र
निरंतर लम्बा होता।
नहीं कहीं शीतल छाया,
सराय नहीं है कहीं।
सुनहरे कल की,
सुनहरी मरीचिका के पीछे
बस.........................
क्या हो तुम
=========
क्यूँ, नहीं आते सामने
तुम हवा हो ?
जो दिखते नहीं हो।
पर तुम्हरे होने का
अहसास हो ही जाता है,
जब,
फूल डाली पर हिल कर
अभिवादन करते है।
जब,
कोई पेड़ सरसराता है,
जब,
दूर जलते लोबान की
खुशबू आनंदित कर देती है।
हाँ,
मैं विलीन होना चाहता हूँ
तुम में।
जैसे,
हवा में खुशबू
समुद्र में नदी ।
अपने अस्तित्व को खोकर
शायद पा लूं तुम्हें,
तुम मौन व्रतधारी
कुछ भी तो नहीं कहते।
बस अहसास करवाते
भर हो अपने होने का।
प्रमोद कुमार चमोली
राधास्वामी सत्संग भवन के सामने
गली नं.-2,अंबेडकर कॉलोनी
पुरानी शिवबाड़ी रोड
बीकानेर
मो
000000000000
देवेन्द्र सुथार
मैँ कि अंधा था....
मैँ कि अंधा था,बेजुबान भी था
और दुनिया का तरजुमान भी था
सायबाँ जब गुबार बन के उडा
"तब लगा सर पे आसमान भी था"
अब बगोले जहाँ पे रकसी हैँ
उस जगह पहले इक मकान भी था
कर रही थीँ हवायेँ सरगोशी
एक सन्नाटा दरमियान भी था
अब तो मैँ रहता हूँ
हां! कभी जेबेँ-दास्तान भी था
तुझ से मिल कर यकीँ नहीँ आता
तू कभी मुझ से बदगुमान भी था
आइना लेके चुप खडे हैँ 'तलब'
जिन को खुद प कभी गुमान भी था
मेरा दुश्मन था....
मेरा दुश्मन था मेरी जान भी था
वो मुहब्बत का तरजुमान भी था
सब उसे सरबुलन्द कहते थे
उसके माथे ऐ इक निशान भी था
मैँ उसे क्योँ समझ नहीँ पाया
हम सफर था वो हमजुबान भी था
तेरा दिल ही नहीँ मिरा हमदर्द
मेरे हक मेँ तिरा बयान भी था
दिल की जागीर बख्शा दी उसको
मेरा मेहमान मेजबान भी था
ये बताओ वो....
ये बताओ वो मिले थे तो फजा कैसी थी
जिस तरफ रुख था उधर शाखे-हिना ! कैसी थी
हम समझ जायेँगे बस इतना बता दे कासिद
कूचा-ए-यार से पलटी तो हवा कैसी थी
यह तो मौजोँ का तसादुम ही बता सकता है
दोस्तोँ ! सूरते-महताबनुमा कैसी थी
इससे अंदाजा करो अब्र का आलम क्या था
सहने-जाना से उठी थी वो घटा कैसी थी
ये तो आगाज था रुदादे-शबे-मकतल का
दिल से जो बाद मेँ निकली वो दुआ कैसी थी
मैँने अपने आप....
मैँने अपने आप से धोका किया
तुमने अपनी ख्वाहिशोँ का क्या किया
जगमगाते आसमानोँ से परे
एक बादल देर तक बरसा किया
रास्तोँ पर घास लम्बी हो गयी
दिल की बातोँ ने बहुत रुस्वा किया
लग गये लोग अपने-अपने काम मेँ
और मैँ तेरा पता पूछा किया
मैँने जो सोचा था गारत हो गया
तुमने जो चाहा उसे पूरा किया
खुद लिखा खुद ही मिटा डाला उसे
अब कोई पूछे कि क्योँ ऐसा किया
ख्याब सारे रेजा-रेजा कर दिये
जागने वाले ने क्या अच्छा किया
पीठ पर जख्म का....
पीठ पर जख्म का निशान भी था
और सर पर चढा लगान भी था
आसमां देखती रही धरती
मिन्नतेँ मांगता किसान भी था
भूख ने बेच खाये सब बर्तन
जिसमेँ दादी का पानदान भी था
उसको दो गज जमीन भी न मिली
जिसके कदमोँ मेँ आसमान भी था
कद हमारा बढा दिया उसने
कुछ हकीकत थी कुछ गुमान भी था
गर्क वो हो गया लबे-साहिल
जिसकी कशती मेँ बादवान भी था
सबने मुश्किल मेँ साथ छोड दिया
यूं तो कहने को खानदान भी था
बोलता भी था....
बोलता भी था,बेजुबान भी था
लफ्ज दर लफ्जे दास्तान भी था
किस जगह दफ्न कर दिया तुमने
इस जमीं पर तो आसमान भी था
हमने कातिल से कुछ कहा ही नही
वर्ना कातिल तो मेहबान भी था
जिसकी दुश्मन ये कायनात1 हुई
तने-तन्हा वा इक जहान भी था
दश्त को पास से जो देखा तो
दश्त गुलरेजो-गुलफिशान भी था
रहते हैँ वो घाट....
रहते हैँ वो घाट न घर के
चस्के होँ जिन को बाहर के
आज के इन्सानोँ की खूबी
कांच के पैकर,दिल पत्थर के
रोटी दाल ने जिन्दा रक्खा
मार गए खर्चे ऊपर के
तन्हा जीवन काट रहा हूँ
दो दो बेटे पैदा कर के
रुह मेरी लरजा देते हैँ
पीले पत्ते एक शजर के
शाम न हो जाए जीवन की
तकते तकते ख्वाब सहर के
एक तरफ ईमान है 'अंजु म'
दूसरी तरफ सुख दुनिया भर के
आईना जीनते....
आइना जीनते मकान भी था
रुबरु होना इम्तिहान भी था
गर्दिशोँ से नजर मिला ली है
मुंह छुपाना खिलाफे-शान भी था
पैर जिसके जमीन पर थे यहाँ
उसकी मुट्ठी मेँ आसमान भी था
पासबाँ भी थे पासबानी भी
जाल वाले भी थे मचान भी था
क्या गुजर जायेगी मुहब्बत पर
जाने वाले तुझे गुमान भी था
हँसने वाले पे आ गया रोना
हँसने वाला लहुलुहान भी था
टूट जाती सितम की जंजीरेँ
सरफिरा कोई नौजवान भी था
वो जब भी...
वो जब भी तसव्वुर मेँ आने लगेँगे
रुलाने लगेँगे हंसाने लगेँगे
मेर घर जब वो आने-जाने लगेँगे
ये दीवारोँ-दर अगमगाने लगेँगे
ना होना जुबा मुझसे तुम वरना घर के
ये दीवारोँ-दर मुझको खाने लगेँगे
हंसेगा हर एक गुभ्चा ओ गुल चमन मेँ
यकीनन जब वो मुस्कराने लगेँगे
जौ हैँ मेरे अपने 'शाकिर' यकीकन
हंसी मेरी वो ही उडाने लगेँगे
-देवेन्द्र सुथार
गांधी चौक,आतमणावास,बागरा,जिला-जालौर,राजस्थान।
000000000
मुकेश जगमालपुरीया
मैं इन राहों में
गाता चलता गया मैं इन राहों में
मिटते गये रास्ते करीब आती गई मंजिल
और करीब
कभी गुनगुनाते कभी कवितायें लिखते
पता नहीं मंजर का कब आ गई
कांटे भी आये कभी फूलों की चादर
कभी बैठता कभी चलता इन राहों में
मंजर के करीब और आते देखा मैंने
खुद को करीब
आते देखा जाते देखा राहों में
मुसाफिरों को़
Mukesh jagmalpuriya
Radha kishan pura
Sikar, (Rajasthan) INDIA
332001
E-mail: mukeshjagmalpuriya@gmail.com
00000000000
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