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आधुनिक काल में साहित्य की विविध विधाओं का प्रादुर्भाव हुआ और उनके उत्तरोत्तर विकास की नींव रखी गई और इसी मजबूत नींव पर गद्य की विधाएं पुष्पित और पल्लवित हुई । इन्हीं विधाओं में व्यंग्य भी एक है । आधुनिक युग में व्यंग्य-साहित्य की सृजनात्मक पृष्ठभूमि वृहत-साहित्य के रूप में हिंदी साहित्य की धरोहर बन गई है । व्यंग्य का व्युत्पत्ति की दृष्टि से आशय है ‘शब्द का वह निगूढ़ अर्थ जो व्यंजना वृत्ति के द्वारा सांकेतिक या प्रतीकात्मक रूप में व्यक्त हो ।' व्यंग्य का गद्य-साहित्य तो आधुनिक युग की देन है परंतु व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति की परंपरा प्राचीन साहित्य, काव्य-साहित्य में किसी न किसी रूप में प्रचलित रही है । कबीर ने समाज की धर्मांधता पर व्यंग्यपूर्ण उक्ति कही-
मुंड-मुडाये हरि मिले सब कोई लेय मुंडाय ।
बार-बार के मूंडते भेड़ न बैकुंठ जाए ॥
इसी प्रकार अनेक साहित्यकार व्यंग्योक्तियों में अपनी बात कहते आए हैं । तुलसीदास, भारतेंदु, निराला, नागार्जुन, बालकृष्ण भट्ट जैसे मूर्धन्य साहित्यकार अपने साहित्य में परिस्थितियों के अनुसार व्यंग्यों का प्रयोग करते रहे हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र का अंधेर नगरी चौपट राजा, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति जैसे नाटकों में व्यंग्योक्तियों का भरपूर प्रयोग मिलता है। बालमुकुंद गुप्त के शिवशंभू के चिट्ठे, निराला जी की कुकुरमुत्ता जैसी कविताओं में व्यंग्यात्मक अभिव्यक्तियों ने साहित्य में व्यंग्य की उपस्थिति दर्ज कराई। परंतु संपूर्ण रचना का व्यंग्य पर आधारित हो, इसका सूत्रपात साहित्य की प्रगति के आधुनिक काल में ही हुआ है । इस व्यंग्य साहित्य को समृद्ध बनाने और व्यंग्य-साहित्य को लोकप्रिय बनाने में हरिशंकर परसाई का विशेष योगदान है तभी तो हिंदी का व्यंग्य-साहित्य हरिशंकर परसाई के सृजनात्मक पक्ष का हमेशा ऋणी रहेगा । हरिशंकर परसाई व्यंग्य की विषय वस्तु के संबंध में विचार व्यक्त करते है कि ‘‘आज सारी दुनिया में, व्यंग्य, साहित्य का मूल स्वर है । बुर्जुवा समाजों में बेहद विसंगतियाँ हैं, परिवार से लेकर राष्ट्र के मंत्रीपरिषद तक भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण, मिथ्याचार, पाखंड विद्यमान है । व्यंग्य इन सबमें अन्वेषक और उद्घाटन का माध्यम है ।''[1]
हिंदी की व्यंग्य-विध को समृद्ध करने में हरिशंकर परसाई के साथ-साथ शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी, श्रीलाल शुक्ल, नरेंद्र कोहली, लतीफ घोंघी, रघुनंदन चिले, ज्ञान चतुर्वेदी, शंकर पुणतांबेकर, के. पी. सक्सेना, डॉ. बरसानेलाल चतुर्वेदी, इंद्रनाथ मदान, सुदर्शन मजीठिया, प्रेम जनमेजय, बालेंदु शेखर तिवारी, लक्ष्मीकांत वैष्णव, हरीश नवल आदि का योगदान सराहनीय है ।
हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त 1924 को मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के जामनी गांव में हुआ । आपको अल्पायु में ही पारिवारिक कष्टों को सहने की शक्ति और विषम परिस्थितियों में जीवन-यापन के लिए जूझने की सकरात्मक उर्जा मिली और इस उर्जा से ऊर्जस्वित होकर आपके व्यक्तित्व में ऐसी संचेतना का संचार हुआ जिसका प्रस्फुटन कलम के माध्यम से सृजन कर्म के रूप में साहित्य में स्थापित हुआ । ‘गर्दिश के दिन' आत्मकथ्य में परसाई जी ने अपने व्यक्तित्व के संदर्भ में लिखा है- ‘‘इन्हीं सब परिस्थितियों के बीच मेरे भीतर लेखक कैसे जन्मा, यह सोचता हूँ । पहले अपने दुखों के प्रति सम्मोहन था ...... पर मैने देखा, इतने ज्यादा बेचारों में मैं क्या बेचारा । इतने विकट संघर्षों में मेरा क्या संघर्ष । मेरा अनुमान है मैंने लेखन को दुनिया से लड़ने के लिए एक हथियार के रूप में अपनाया होगा । दूसरे इसी में मैंने अपने व्यक्तित्व की रक्षा का रास्ता देखा । तीसरे, अपने को अविशिष्ट होने से बचाने के लिए मैंने लिखना शुरू कर दिया ...... पर जल्दी ही मैं व्यक्तिगत दुख के इस सम्मोहन से निकल गया ..... मैंने अपने को और विस्तार दिया ? दुखी और भी हैं । अन्याय पीड़ित और भी हैं । अनगिनत शोषित हैं । मैं उनमें से एक हूँ । पर मेरे हाथ में कलम और मैं चेतना संपन्न हूँ । यहाँ कहाँ व्यंग्य लेखक का जन्म हुआ ।''[1] परसाई जी ने इतिहास, समाजविज्ञान, राजनीति और संस्कृति का गहन अध्ययन किया, साथ ही समय मिलने पर पाश्चात्य चिंतकों की विचारधराओं को भी अपनी मेध शक्ति में शामिल किया । अध्ययन और अनुभवों के भंडार से परसाई जी ने मानव-समाज के विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त विसंगतियों और विकृतियों पर बड़ी गंभीरता से व्यंग्य लेखन का कार्य किया । आपने समाज में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक धार्मिक आदि सभी क्षेत्रों में व्याप्त ढोंग, ढकोसलों, आडंबर, पाखंड, अन्याय, भ्रष्टाचार और मानवीयता के दूषित चरित्र का चिंत्राकन अपने साहित्य में किया है ।परसाई जी मानवीयता के पोषक हैं। इस संबंध में आपकी यह स्वीकारोक्ति विचारणीय है कि - मैं इसलिए लिखता हूँ कि कि एक तो मैं स्वयं मनुष्य को अपने समाज,स्वयं आत्मलोचन और आत्म साक्षात्कार करे और अपना कमजोरियाँ, बुराइयाँ, विसंगतियाँ, विवेकहीनता, न्यायहीनता त्याग कर जैसा वह है,उससे वह बेहतर बने। अंध्विश्वासों, झूठी मान्यताओं, अवैज्ञानिक आग्रहों और आत्मघाती रूढियों से वह मुक्त हो। वह न्यायी,दयालु, संवेदनशील हो! दासता और मुखापेक्षिता से मुक्त हो। मानव गरिमा की प्रतिष्ठा हो। परसाई जी का सृजनात्मक साहित्य प्रचुर मात्रा में कविता, कहानी, निबंध, रेखाचित्र, व्यंग्य, स्तंभ लेखन के रूप में उपलब्ध है । यह पूरा साहित्य हरिशंकर परसाई रचनावली के छह खंडों में संकलित है,जो राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है । परसाई जी की कुछ रचनाएँ हैं-
ü हँसते हैं रोते हैं, क्रांति हो गई, तब की बात और थी, जैसे उनके दिन फिरे, सदाचार का ताबीज, निठल्ले की डायरी, एक लड़की पांच दीवाने,
ü तट की खोज, ज्वाला और जल, रानी नागफनी की कहानी
ü भूत के पांव पीछे, बेईमानी की परत, सुनो भाई साधे, पंगडंडियों का जमाना, उल्टी सीधी, अपनी-अपनी बीमारी, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, और अंत में, शिकायत मुझे भी है, तिरछी रेखाएँ, वैष्णव की फिसलन, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं, माटी कहै कुम्हार से, विगलांग श्रद्धा का दौर, पाखंड और अध्यापन, काग भगोड़ा, हम इस उम्र से वाफिक हैं, दो नाक वाले लोग, तुलसीदास चंदन घिसें
ü बोलती रेखाएँ
इन सभी रचनाओं में हरिशंकर परसाई ने लोकजीवन के समसामयिक सभी पक्षों को सरल भाषा में समाज में पल रहे ढोंग, कुरीतियों, व्याभिचार, भ्रष्टाचार, विसंगतियों, सांस्कृतिक पतन जैसे विविध प्रसंगों को तीक्ष्ण, कटु और मार्मिकता के साथ व्यंग्यों में प्रस्तुत किया है । परसाई जी ने व्यंग्य की अर्थवत्ता और उसके सामाजिक सरोकार के संदर्भ में ‘मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं' की भूमिका में लिखा है- ‘‘लेखक का संबंध उस दर्शन से है जिसमें उसका बुनियादी विश्वास है, प्रश्न और उत्तर का है । लेखक दर्शन से प्रश्न करता है । समाधान चाहता है समाधान नहीं मिलता तो चिंतन आगे बढ़ता है । इसलिए दर्शन को अनुभव से जोड़ना जरूरी होता है । अनुभव ही लेखक का ईश्वर होता है । अनुभव, बेकार होता है यदि उसका अर्थ न खोजा जाए, उसका विश्लेषण न किया जाए और तार्किक निष्कर्ष न निकाला जाए । यह कठिन कार्य है । पर इसके बिना, अनुभव केवल घटना रह जाता है । वह रचनात्मक चेतना का अंग नहीं बन पाता ।'[1] परसाई जी के उक्त कथन के आधार पर कहा जा सकता है कि परसाई जी की रचनात्मक चेतना आत्माभिज्ञान, अनुभवों के तार्किक विश्लेषण से परिपक्वता की ओर अग्रसर हुई है । इसी संदर्भ में कांतिकुमार जैन का उद्बोधन परसाई जी की सतत् सामाजिक सरोकार के प्रति दृढ़ता और समर्पण भाव को लक्षित करता है-‘‘परसाई एक खतरनाक लेखक हैं, खतरनाक उस अर्थ में कि उन्हें पढ़कर हम ठीक वैसे नहीं रह पाते जैसे उनको पढ़ने से पहले रहते हैं । वे पिछले अनेक वर्षों से हमारे राजनैतिक-सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन के यथार्थ के इतिहासकार है ।''[1]
हमारा वर्तमान सामाजिक परिदृश्य अनेक प्रकार की विसंगतियों के कारण विकृत हो चुका है । हरिशंकर परसाई युगीन मानव-समाज के सभी पक्षों में व्याप्त कुरीतियों पर बेवाक प्रहार करते हैं और लोक कल्याण की भावना से समाज में नई चेतना का संचार करना चाहते हैं । परसाई जी की संवेदनापूर्ण निष्पक्ष और विवेकोचित अभिव्यक्तियां व्यंग्य को आम जन से जोड़ती हैं और प्रभावशाली अभिव्यक्ति का माध्यम बनती हैं ।
समाज में व्याप्त स्वार्थ के साम्राज्य पर परसाई जी ने व्यंग्य का विषय बनाया है। स्वार्थपरस्ती के कारण ही लोग अपना ईमान, इज्जत, प्रतिष्ठा सब दांव पर लगाकर भी स्वार्थपूर्ति के लिए तत्पर रहते हैं । बार-बार ऐसा करने पर भी वे निर्लज्य हो गए हैं कि भांडा फूटने पर भी ग्लानि का अनुभव नहीं करते । इसी भावना को लक्षित करते हुए परसाई जी ने ‘सम्मान और फ्रैक्चर' नामक रचना में तिलमिला देने वाली अभिव्यक्ति की है- ‘‘गिरने के बड़े फायदे हैं । पतन से न मोच आती है, न फ्रैक्चर होता है । कितने ही लोग मैंने कितने ही क्षेत्रों में देखे हैं जो मौका देखकर एकदम आड़े हो जाते हैं । न उन्हें मोच आती है, न उनकी हड्डी टूटती है । सिर्फ-धूल लग जाती है, पर धूल कपड़ों में लगती है, आत्मा में नहीं । आदमियों की रीढ़ की हड्डी नहीं होती । वे बहुत लचीले होते हैं । उन्हें चाहें तो आप बोरे में डालकर ले जा सकते हैं ।''
आज स्थिति यह है कि हर व्यक्ति बेईमानी की तलाश में है और हर आदमी चिल्लाता है, बड़ी बेईमानी है । वह अपनी बेईमानी छिपाने के लिए दूसरों के ईमान की निगरानी रखता है । ‘दूसरे के ईमान के रखवाले' रचना में हरिशंकर परसाई ने मनुष्य की इसी वृत्ति पर सीध मार्मिक व्यंग्य किया- ‘‘देखता हूँ हर आदमी दूसरे के ईमान के बारे में विशेष चिंतित हो गया है । दूसरे के दरवाजे पर लाठी लिए खड़ा है- क्या कर रहे हो ? पूछने पर कहता है- ‘‘इसके ईमान की रखवाली कर रहा हूँ । मगर तुम तो अपना दरवाजा खुला छोड़ आए? तो कहता है- तो क्या हुआ, हमारी ड्यूटी तो इधर है ।'' ‘निंदा रस' व्यंग्य में परसाई जी ने लिखा है-‘‘निंदा का उदगम हीनता और कमजोरियों से होता है, मनुष्य अपनी हीनता से दबता है। वह दूसरों की निंदा करके ऐसा अनुभव करता है कि वे सब निकृष्ट हैं और वह उनसे अच्छा है।''
समाज में जातिप्रथा, वर्ग भेद का प्राचीन इतिहास है और आज भी आधुनिकता की दौड़ में इसके वर्चस्व में कमी नहीं आई है । इसी स्थिति पर परसाई जी ने ‘हरिजनों का ब्राह्मण भोजन' में व्यंग्य किया है-‘‘समाचार यह है कि केरल के एक मंदिर में ब्राह्मण भोजन में हरिजनों को शामिल किया गया । यह बहुत बड़ा समाचार बना है । मगर यह शर्मनाक समाचार है । किसी भी हिंदू को इस समाचार को पढ़कर अपने सिर पर पांच जूते मारना चाहिए कि मैं कितना पतित हूँ कि स्वामी दयानंद के जाति-भेद विरोधी आंदोलन, गांधी जी के हरिजन उद्धार आंदोलन, अछूत प्रथा विरोधी कानून के बावजूद आजादी के 36 साल के बाद भी कहीं हरिजन ब्राहमणों के साथ बैठकर खा लें तो यह चमत्कारी समाचार बनता । यह साधारण आम बात नहीं है ।''
‘भोलाराम का जीव' रचना में परसाई जी ने सरकारी संस्थानों, दफ्तरों तथा राजनैतिक क्षेत्र के व्याप्त भ्रष्टाचार, नौकरशाही, लाल-फीताशाही का उद्घाटन किया है । साथ ही भ्रष्टाचार के कारण आम आदमी की पीड़ा मानसिक क्लेश अभावों से भरी जिंदगी की त्रासदी को भी उद्घाटित किया है। भोलाराम के जीव की तलाश में नारद पृथ्वीतल जाते हैं और अनेक स्थानों पर भटकने के बाद दफ्तर पहुँचते हैं और वहाँ के कर्मचारियों की रिश्वत लेकर काम करने की पद्धति से हैरान हो जाते हैं तब उन्हें पता चलता है कि पेंशन पाने के लिए भोलाराम ने रिश्वत नहीं दी थी इसलिए उसकी आत्मा फाइलों में ही जकड़ी है । चित्रागुप्त भ्रष्टाचार की स्थिति बयां करता है- ‘‘महाराज आजकल पृथ्वी पर इस प्रकार का व्यापार बहुत होता है, लोग दोस्तों को फल भेजते हैं और उसे रास्ते में ही पार्सल वाले उड़ा लेते हैं । होजरी के पार्सलों के मोजे रेलवे के अफसर पहनते हैं मालगाड़ी के डिब्बे के डिब्बे रास्ते में कट जाते हैं । एक बात और हो रही है । राजनैतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उड़ाकर कहीं बंद कर देते हैं । कहीं भोलाराम के जीव को किसी विरोधी ने, मरने के बाद भी खराबी के लिए तो नहीं उडा दिया ।''
परसाई जी ने ठेकेदारों, इंजीनियरों, ओवरसियरों के काम के आधार पर व्यवस्था पर तीक्ष्ण व्यंग्य किया है । वे कहते है- यह समस्या तो कभी की हल हो गयी । नरक में पिछले सालों में बडे गुणी कारीगर आए है । कई इमारतों के ठेकेदार हैं, जिन्होंने पूरे पैसे लेकर रद्दी इमारते बनायीं । बड़े-बड़े इंजीनियर भी आ गए है, जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर भारत की पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया । ओवससीयर हैं, जिन्होंने उन मजदूरों की हाजिरी भर कर पैसा हड़पा जो कभी काम पर आए ही नहीं ।''
देश के राजनैतिक मंच पर सक्रिय राजनेताओं पर रानी नागफनी की कहानी की टिप्पणी उल्लेखनीय है जिसमें परसाई जी ने बताया है कि देश, समाज, नीति, धर्म, प्यार को रद्द करते हुए आत्मकेंद्रित लोगों पर एक बड़ा वर्ग ही अब नेतृत्व को व्यवसाय की तरह संभालने लगा है ।‘‘इन राजनीतिक पुरुषों की बनावट ही अलग होती है । इन लोगों में कुछ तो अपनी आत्मा को शरीर में या शरीर के बाहर कहीं भी रख सकते हैं । कुछ नेताओं का हृद्य पेट में होता है, किसी-किसी का टांग में । एक नेता को मैं जानता हूँ जो अपना हृद्य नाबदान में रखता है और एक नेता है जिसकी आत्मा तलुए में रहती है, जब चलता है तो आत्मा को कुचलता चलता है ।'' वर्तमान में राजनैतिक प्रतिनिधि/नेता/मंत्री सभी अपने अधिकार, सत्ता और पद का दुरुपयोग करते है और इसके पीछे सिर्फ स्वार्थपरकता है । यहाँ तक कि व्यापार में चुंगी चोरी और कालाबाजारी के लिए राजनीति में दीक्षित होने का गैरकानूनी कार्य करते हैं, परिवार में सभी पार्टियों के नेता, प्रतिनिधि होते हैं । परसाई जी ने ‘राजनीति का बँटवारा' में उक्त कटु सत्य को प्रस्तुत किया है- ‘‘भैया जी ने कहा- ‘‘मेरी पवित्र आत्मा से समस्या का समाधान निकल आया । तुम में से हर एक-एक पार्टी के सदस्य हो जाओ । . . . .भैया जी खुश थे । कहने लगा, देखो तुमने ? राजनैतिक ज्ञान इसे कहते हैं। अब अपने घर में सब पार्टियाँ हो गई । किसी का भी नगर-निगम हो, चुंगी-चोरी पक्की । इसने सारी पार्टियों को तिजोरी में बंद कर लिया है।'' माटी ‘कहे कुम्हार से' में परसाई जी जनता की ओर से राजनैतिक पैरोकारों के लिए लिखते है-‘‘राजनीतिज्ञों के लिए हम नारे और वोट हैं,बाकी के लिए हम गरीब,भूख,बहमारी और बेकारी हैं। मुख्यमंत्रियों के लिए हम सिरदर्द हैं और उनकी पुलिस के लिए हम गोली दागने के निशाने हैं।''
राजनीति में गांधी जी के नाम का उनके सिद्धांतों का चारों ओर दुरुपयोग होता है उनकी नीतियों एवं खादी को दंभी, धूर्त एवं भ्रष्ट नेताओं ने अपना कवच बना लिया है जो सभी प्रकार की बेईमानी से उनकी रक्षा करता है । ‘परछाई भेदन' नामक व्यंग्य का अंश देखिए- ‘‘खादी के थान की आरती करके हल्दी अक्षत चढ़ाने से गांधीवादी अर्थव्यवस्था कायम हो जाती है । सड़क का नाम गांधी मार्ग रख दिया सो गांधी जी के रास्ते पर तो आसानी से चलते रहेंगे । हाथ का पिसा आटा और शुद्ध घी हम खाते हैं और उसे पचाने के लिए पदयात्रा करते हैं । नीम की दातौन करते हैं तो सर्वोदय क्रांति हो जाती है ।'' राजनीति में व्याप्त दुराचार और भ्रष्टाचार को ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता' में मंत्री, नेता, विधायक सबके भ्रष्टाचरण और बेईमान होने पर करारा व्यंग्य है-‘‘इस व्यवस्था में कोई भी अकेला पैसा नहीं खाता, सब मिलकर खाते हैं, खाने वाले भी और पकड़ने वाले भी । इसलिए वास्तविक भ्रष्टाचारी कभी पकड़े नहीं जाएंगे । पकड़े जाने लगे तो इस देश के तीन चौथाई मंत्री, सांसद, विधायक जेल में होंगे ।'' समाज में नेताओं/राजनीतिज्ञों की हैसियत इतनी बढ़ जाती है कि प्रशासन उनके इशारे पर ही संचालित होता है । नेता भी अपनी शक्तियों की कीमत आम जनता या फरियादी से शुल्क के रूप में वसूलते हैं। ‘विधायकों की महँगी गरीबी' नामक व्यंग्य रचना में परसाई जी ने भ्रष्ट और स्वार्थी नेताओं का यथार्थ चित्र खींचा है - ‘‘तबादले का सीजन विधायक के लिए बसंत है । बसंती बयार बहती है । सुंदर फूल खिलते हैं । उद्दीपनकारी वातावरण होता है । विधायक स्वर्ग-सुख में होता है, शिक्षा-विभाग तो लीद करने वाला मुकदमा है । कुछ ऐसे विभाग है जो सोने और हीरे के दस्त करते है । इन विभागों में जब तबादले कराने या रुकवाने का काम विधायक करता है, तब उसे सोने से तौलने की इच्छा होती है। किसी मुख्यमंत्री ने तो हर विधायक को अधिकार दे दिया था कि तुम पांच तबादले करवा या रुकवा सकते हो । कितना भावात्मक कार्य था वह । ‘‘(परसाई रचनावली-4 पृ. 259) नेताओं के साथ उनके समर्थक अन्याय में अपने नेता का भरपूर सहयोग करते हुए नेता की जिंदाबाद में लगे रहते हैं और इन समर्थकों को मुफ्त खाना और जूठन से ही संतोष का अनुभव होता है । समर्थकों की इसी खुशामदगिरी प्रवृत्ति पर हरिशंकर परसाई जी ने ‘भेडें और भेडिए' नामक रचना में तिलमिला देने वाला व्यंग्य किया है- ‘‘हर भेडिए के आस-पास दो-चार सियार रहते हैं । जब भेड़िया अपना शिकार खा लेता है तब ये सियार हड्डियों में लगे मांस को कुतर-कुतर कर खाते हैं और हड्डियां चूसते रहते हैं । ये भेडिए के आसपास दुम हिलाते चलते हैं, उसकी सेवा करते हैं और मौके-बेमौके ‘हुआ-हुआ' चिल्लाकर उसकी जय बोलते हैं ।''
‘ग्रीटिंग कार्ड और राशन कार्ड' नामक रचना में परसाई जी ने सरकारी कामों में धन के अपव्यय व्यवस्था, अकर्मण्यता को व्यंग्य का लक्ष्य बनाया है- ‘‘सरकार को ठगना आसान है, नाबालिग है । मैंने नए बने हुए मकान मालिक से पूछा कितना किराया है- इस खंड का ? उसने कहा- ये तो हमने सरकार के लिए बनाए है । तुम लोग तो इस एक खंड का ज्यादा से ज्यादा 125 रुपए दोगे । सरकार हर खंड का 250/- रुपए दे रही है । बेचारी सरकार की तरु से कोई मोलभाव करने वाला नहीं है, कोई भी उसे ठगता है ।''
आज न्याय-प्रणाली भ्रष्ट और घृणित हो चुकी है । न्याय महँगा और विलंबित हो गया है । सिविल मुकदमे जीवन के अंतिम पड़ाव तक निपट जाए तो बडे पुण्य की बात है । दांडिक मामलों में प्रायः अभियुक्त पूरी सजा भुगत चुका होता है । इस न्यायिक विद्रूपता को परसाई जी ने पौराणिक कथ्य एवं कल्पना के सहारे न्याय की भ्रष्टता, महँगापन एवं विलंबिता को निर्वस्त्र करने के लिए ‘कचहरी जाने वाला जानवर' रचना की । इसका एक उदाहरण देखिए- ‘‘अर्जुन युद्ध नहीं करता तो क्या करता ? कचहरी जाता । जमीन का मुकदमा दायर करता । लेकिन वन से लौटे पांडव अगर जैसे-तैसे कोर्ट फीस चुका भी देते तो वकीलों की फीस कहाँ से देते गवाहों के पैसे कहाँ से देते ? और कचहरी में धर्मराज का क्या हाल होता ? वे क्रॉस एक्जामिनिशन के पहिले ही झटके में उखड़ जाते । सत्यवादी भी कहीं मुकदमा लड़ सकते । कचहरी की चपेट में भीम की चर्बी उतर जाती । युद्ध में तो 18 दिन में फैसला हो गया, कचहरी में तो 18 साल भी लग जाते और जीतता दुर्योधन ही क्योंकि उसके पास पैसा था । सत्य सूक्ष्म है पैसा स्थूल है । न्याय देवता को पैसा दिख जाता है सत्य नहीं दिखता । पांडवों के बाद उसके बेटे लड़ते फिर उनके लड़के । बड़ा अच्छा किया कृष्ण ने जो अर्जुन को लड़वाकर 18 दिनों में ही फैसला करा लिया । वरना आज कौरव-पांडव के वंशज किसी दीवानी कचहरी में वही मुकदमा लड़ते होते ।'' भारतीय न्याय तंत्र में किसी भी अभियोग को सिद्ध करने के लिए गवाह की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । न्यायालयों के परिसर में काले कोट वाले आप ऐसा व्यवसाय कर रहे हैं जिनके पास स्थाई गवाह होते है जो हमेशा वकील के अनुसार बयान देने को तैयार होते हैं अर्थात गवाहों का जो घृणित और कुत्सित व्यवहार है उस पर परसाई ने ‘न्याय का दरवाजा' में लिखा है-‘‘मैं तो हैरान हूँ कि बाहर तो सच्चा आदमी ढूँढे नहीं मिलता, मगर अदालत में इतने सच्चे किन अनजान कोनों से निकल कर इकट्ठे हो जाते हैं । झूठ बोलने के लिए सबसे सुरक्षित जगह अदालत है । वहाँ सुरक्षा के लिए भगवान और न्यायाधीश हाजिर होते है ।''
इस प्रकार वर्तमान संदर्भ में परसाई जी का व्यंग्य साहित्य जीवंत, शाश्वत और कारगर प्रतीत होता है । अपने समकालीन समाज के सभी पक्षों को व्यंग्यों में शामिल कर परसाई जी ने साहित्य के लोक कल्याणकारी परंपरा का निर्वहन किया है । अंत में परसाई जी के व्यंग्यों में व्याप्त तीक्ष्णता और प्रहारात्मक गुणों के संदर्भ में डॉ. भगवान सिंह का कथन सत्य है कि- ‘‘परसाई तंत्रभंजक कलाकार हैं । शायद प्रतिबद्धता, लेखकीय साहस और दृष्टि के खुलेपन के ख्याल से स्वातंत्रयोत्तर भारत के सबसे सशक्त व्यंग्यकार । उनकी रचनाओं में एक खुला प्रहार है । यथास्थिति पर, व्यवस्था पर, प्राचीन रूढ़ियों और रूढ़ियों पर और प्रायः सभी रचनाओं में बदलते मूल्यों और क्रांतिकारी शक्तियों और संभावनाओं के प्रति गहरा सम्मान भाव है, उपेक्षित और शोषित वर्गों के प्रति सहानुभूति और ढोंग का उद्घाटन है ।''
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परसाई जी के व्यंग्य- संदर्भ में विद्वानों की बातें
सुरेश कुमार वर्मा का मत - ‘‘पहली बार कोई लेखक बड़े व्यापक स्तर पर पाठक वर्ग से जुड सका है । पहली बार कोई लेखक पाठकों को कॉन्विंस करा सका है कि वे कुटिल खलों, शोषकों के शिकार हैं और पहली बार कोई लेखक पाठकों से तादात्म्य स्थापित कर उनके धरातल पर चिंता और सोच को धरण कर सका है । सभी स्तरों पर लेखक और पाठक की आनुभूतिक समानता और एकता परसाई के लेखक की जबरदस्त विशेषता है ।'' (सदाचार का ताबीज- भूमिका)
डॉ. बापुराव घोंडू देसाई - ‘‘परसाई के समूचे साहित्य में यह दृष्टिगोचर होता है कि उनका विशाल जीवनानुभव, अध्ययनशीलता, चिंतन-प्रक्रिया, वैज्ञानिक दृष्टि, सामान्य के प्रति करुणा, व्यष्टि से समष्टि की टीस आदि का सुदर्शन स्वरूप व्यंग्य से उभरा है । व्यंग्य के आंतरिक बुनावट में परसाई ने वैदग्ध्य का कुशलता से प्रयोग किया है । परसाई के व्यंग्य में मानवीकरण द्वारा आलंबन पर प्रहार, हल्के-फुलके प्रसंगों द्वारा गहराई से व्यंग्य भी दिखाई देता है ।'' (हिंदी व्यंग्य विध- शास्त्र और इतिहास पृ. 142)
शंकर पुणतांबेकर - ‘परसाई के लिए व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार है, ऐसा साक्षात्कार जो तीखा कटु होते हुए भी जीवन के प्रति निष्ठा या दायित्व पर जरा भी आंच नहीं आने देता । उसने व्यवस्था की विसंगतियों, मिथ्याचारों, पाखंडों को धारदार लेखनी से नंगा किया है ।'' (एक व्यंग्य यात्रा- शंकर पुणतांबेकर पृ. 65)
‘‘परसाई का सबसे बड़ा सामर्थ्य संवेदनात्मक रूप से यथार्थ का आकलन है, चाहे वह राजनैतिक प्रश्न हो या चरित्रगत, हमारे यहाँ की साहित्यिक संस्कृति ने सच्चाई के प्रकटीकरण पर जो हठबंदी करके रखी है, उसे देखते हुए परसाई जी की कला सहज ही वामपंथी हो जाता है।'' (पृ. 138)
सुदर्शन मजीठिया - ‘‘परसाई जी की व्यंग्य चेतना के निर्माण में मार्क्स के विचारों एवं व्यापक जीवनानुभवों के साथ-साथ अनेक सफल भारतीय एवं पाश्चात्य व्यंग्यकारों की रचना-दृष्टि का बहुत बड़ा हाथ है । एक ओर भक्ति-आंदोलन के शीर्षस्थ व्यंग्यकार कबीर के सरल व्यक्तित्व एवं निर्मम निर्भीक वाणी ने उन्हें बहुत गहराई तक प्रभावित किया तो दूसरी ओर चेखव की करुणा केंद्रित व्यंग्य दृष्टि उनका आदर्श रही । इसके अतिरिक्त, माक्टेवेन, गार्डनर, गोगोल, डिकंस, हेनरी शॉ, गोर्की आदि की व्यंग्यात्मकता ने उनकी सूझ-बूझ को समृद्ध बनाया तभी तो व्यंग्य विषयक हर पहलू को लेकर वे दो टूक बात करते नजर आते हैं ।'' (समकालीन हिंदी व्यंग्यः एक परिदृश्य पृ. 37)
विश्वनाथ त्रिपाठी - परसाई मूलतः साहित्यकार थे । वे राजनीति से कहीं ज्यादा सक्रिय साहित्य के क्षेत्र में थे । सिर्फ लेखक के रूप में ही नहीं वे साहित्यिक कार्यकर्ता (नेता) थे । ‘पहरी' के स्तंभ लेखक परसाई ने ‘वसुधा' का संपादन किया । ‘वसुधा' के ऐतिहासिक महत्व का आकलन इसी तथ्य से किया जा सकता है कि उसे बंद होने के अनेक वर्षों बाद पुनजीर्वित किया गया और वह आज भी निकल रही है ।'' (भारतीय साहित्य के निर्माता : हरिशंकर परसाई पृ. 11-11)
डॉ. महीप सिह - ‘परसाई की व्यंग्य चेतना स्वातंत्रयोत्तर भारतीय परिवेश की उपज है । सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में फैले विविध रंगो, छल-प्रपंचों से देश के कराहते इंसान की पीड़ा ही उनकी प्रेरण का स्रोत है । टूटते मूल्यों की कचोट से उत्पन्न विद्रूपता की वह फलक है जिस पर परसाई ने तिलमिला देने वाली सच्चाई को उभारा है । वर्तमान जिंदगी के दोनों छोरों - संपन्नता-विपन्नता, सुख-दुख, अस्ति-नास्ति, प्रेम-घृणा के बीच दबे सत्य की कड़वाहट ही उनके व्यंग्य का आधार है । राजनैतिक नैतिक समस्या, अपराध एवं पाप-बोध के घिनौनेपन की पपड़ी के नीचे अकुवाती जिंदगी की सच्चाई की परसाई के व्यंग्यों की जानी पहचानी जमीन है, जिसके भीतर छुपे हुए झूठ, पाखंड, अंतर्विरोध को उन्होंने बड़े निकट से देखा ही नहीं, उसे जाना और भोगा भी है । उनका व्यंग्य किसी राजनीतिक मतवाद से प्रेरित या निर्देशित नहीं है, वह स्वतंत्रता के बाद देश में जन्म लेने वाली सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक उपलब्ध्यिों की जड़ता का जीवंत इतिहास है ।'' (संचेतना, सितंबर 1977 पृ. 75)
डॉ. भगवान सिंह - परसाई के प्रतिबद्ध एवं प्रहारात्मक गुण के बारे में लिखा ‘‘तंत्रभंजक कलाकार हैं, वे । शायद प्रतिबद्ध्ता, लेखकीय साहस और दृष्टि के खुलेपन के ख्याल से स्वातंत्रयोत्तर भारत के सबसे सशक्त व्यंग्यकार । उनकी रचनाओं में एक खुला प्रहार है । यथास्थिति पर, व्यवस्था पर, प्राचीन रूढ़ियों और संस्कारों पर और प्रायः सभी रचनाओं में बदलते मूल्यों और क्रांतिकारी शक्तियों और संभावनाओं के प्रति गहरा सम्मान भाव है, उपेक्षित और शोषित वर्गो के प्रति सहानुभूति और ढोंग का उद्घाटन है ।'' (सर्वनाम, दिसंबर 1972 पृ.19)
विश्वनाथ त्रिापाठी -
परसाई का रचनाकार एक इतिहास पुरुष है जो सब कुछ देख रहा है,अपने युग का चित्र बना रहा है, विवेक के साथ । इसमें यथार्थ की विषमता है और यथार्थ का प्रवाह है। (देश के दौर में -विश्वनाथ त्रिापाठी पृ. 10)
‘परसाई के लेखन में कुछ लोगों के प्रति तीव्र घृणा और धिक्कार का भाव है । समाज के एक ऐसे समुदाय का चित्रण है जो गर्हित, हिसंक और मैलाखोर पशुओं का बाड़ा है । प्रगतिशील साहित्य के सौंदर्य बोध का एक महत्वपूर्ण अवयव घृणा, व्यंग्य, तिरस्कार है । व्यंग्य में इस तीव्र घृणा एवं तिरस्कार के अनेकानेक रूप सर्वाधिक रूप से परसाई के यहाँ मिलते है । उनके लेखन का एक अंश ऐसा भी है जो विवादी या निषेधात्मक नहीं है और सौंदर्य का आदर्श या विधेयात्मक रूप प्रस्तुत करता है । किंतु वह अपेक्षाकृत कम है । (पृ. 99-100)
परसाई का व्यंग्य स्वातंत्रयोत्तर भारत की नैतिक धर है । वह करुणा से कर्म की प्रेरणा देता है । वर्तमान की समझ से उत्पन्न संवेदना ही करुणा है । समझ से उत्पन्न संवेदना ज्ञानात्मक संवेदन है जो सकर्मकता की मांग करती है ।(देश के दौर में -विश्वनाथ त्रिापाठी पृ. 106)
‘‘परसाई का व्यंग्य असहज असुंदर को उद्घाटन करके सहज सुंदर गढ़ने का प्रयास करता है । उनसे साहित्य का एक स्वप्न है । यह स्वप्न स्वातंत्रयोत्तर भारत के इतिहास का है । जिस तरह पराधीन भारत का स्वप्न स्वाधीनता, भ्रष्टाचार विज्ञापनी मानसिकता, दिखाये । संक्षेप में असहज का वर्चस्व है, एक स्वप्न पल रहा है । परसाई का व्यंग्य उस स्वप्न का प्रवक्ता है ।'' (पृ. 109)
कांतिकुमार जैन - ‘‘परसाई एक खतरनाक लेखक है, खतरनाक उस अर्थ में कि उन्हें पढ़कर हम ठीक वैसे नहीं रह जाते जैसे उनको पढ़ने से पहले रहते हैं । वे पिछले तीस वर्षों से हमारे राजनीतिक, सांस्कृतिक जीवन के यथार्थ के इतिहासकार है ।‘‘ (काग भगोड़ा-भूमिका कांतिकुमार जैन)
त्रिभुवन पांडे - ‘‘परसाई जी का व्यंग्य साहित्य विशाल है । उन्होंने हर स्थिति और अवसर पर व्यंग्य लिखा है । उनकी सैकड़ो रचनाएँ भारतीय समाज को उसकी संपूर्णता में जानने समझने का प्रयास करती हैं । उन्होंने सत्य को प्रिय सत्य का रूप देने का यथा-साध्य प्रयास किया है लेकिन जब कभी स्थिति की मांग हुई उन्होंने निर्मम और बेबाक सत्य लिखा । वे इस मामले में कबीरपंथी हैं । सत्य की जलती हुई लुकाठी सदैव साथ लेकर चलते हैं । परसाई के होते हुए किसी झूठ में यह हिम्मत नहीं कि वह चैन से बैठ सके । मुखौटों से उन्हें चिढ़ है । वे मनुष्य को उसके वास्तविक रूप में देखना और जानना चाहते हैं । उनमें व्यंग्य की प्रवृत्ति ओढी हुई नहीं है । व्यंग्य उनके जीवन तथा व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है । (व्यंग्य विधा और विविध- सं. मधुसूदन पाटिल पृ. 150)
डॉ. बापूराव देसाई - ‘‘व्यंग्य के बादशाह हरिशंकर परसाई की लेखनी का एक ऐसा अमोध ब्रह्मास्त्र है जिसने अपने कालखंड के प्रायः सभी उच्चास्थ शिखरों को आमूल तया हिलाकर रख दिया है । आज की कोई ऐसी असंगति नहीं बच पायी होगी जो उनके तीक्ष्ण व्यंग्य वाणों का लक्ष्य न बन पाई हो । परसाई ने समग्र साहित्य में सर्वाधिक रूप से राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, प्रशासनिक विद्रूपों के रहस्यमयी तिलस्मों का रहस्योद्घाटन किया है । जैसे हिंदी साहित्य में कथाकार प्रेमचंद को कलम का सिपाही कहते है वैसे परसाई को कलम का तोपची कहा जा सकता है । (हिंदी व्यंग्य एवं व्यंग्यकार, पृ. 23)
धनंजय वर्मा - ‘‘परसाई की व्यंग्य कहानियों के आक्रामक स्वरूप पर टिप्पणी करते हुए कहते है- ‘‘वो हमारे इतने रूबरू तीखी चोट करने वाली, तिलमिला देने वाली, अपनी आत्मीय सीधी और सहज है कि सारी आलोचना उनके सामने निहत्थी और असहाय खडी रह जाती है । अपनी इस बेचारगी के असहाय से भरकर ही शायद कुछ समकालीन आलोचकों ने पलट कर इन कहानियों पर वार किया था कि वे तो कहानियाँ ही नहीं हैं उन्हें हल्के पफुल्के व्यंग्य लेखन के खाते में डालकर, विधाओं के अपने बने बनाए सांचों की पवित्रता और शुद्ध्ता की रक्षा करते हुए चंद आलोचकों ने उन्हें रचनात्मक साहित्य से खारिज करना चाहा था । विधाओं की शुद्ध्ता और पवित्रता की इन आलोचकों की मांग उतनी की रचना एवं कल विरोधी है, जितना कि जातीय शुद्ध्ता का नारा मानव विरोधी और संस्कृति विरोधी है और इतिहास में हम दोनों का हश्र देख चुके है।'' (परसाई रचनावली भूमिका भाग-1, पृ.सं.9)
‘‘परसाई की कहानियों में से उभरती शबीहें किनकी हैं व्यक्ति की, समकालीन समाज की,प्रवृत्तियों की, युगात्मा की, एक साथ सबकी।----परसाई की कहानियाँ एक प्रतिवाद और प्रतिवाद की कहानियाँ हैं।----उनमें आदमी की चौतरफा आजादी के लिए क्रांतिकारी चेतना स्पंदित है। समाज का क्रांतिकारी परिवर्तन, मनुष्य की मुक्ति, एक बेहतर संसार की रचना-यही वो परिप्रेक्ष्य है जिसमें ये कहानियाँ लिखी गई हैं। उनके पीछे एक जीवन-दर्शन और मूल्य दृष्टि है,एक विचार धारात्मक विवेक और विश्व दृष्टि है।(परसाई रचनावली भूमिका भाग-3, पृ.सं.45)
‘‘सन 50 के आसपास हिंदी कहानी में जो नया उभार आया वह खासा अहम था कि कहानी सारी-साहित्य चर्चा के केंद्र में आ गई लेकिन उस नई कहानी के भी अपने अंतर्विरोध थे जो जल्दी ही उभरकर सामने आ गए । जब अधिकांश नए कहानीकार मध्यवर्गीय कुंठाओं के दायरे में सरगोशियाँ कर रहे थे, बूढ़े माँ-बाप से विद्रोह और अतीत मोह के सायों से लगभग आक्रांत थी, प्रणय और परिणय की ग्रंथियों में उलझे या तो टूटे पुरुष और बिखरी नारी के आंसू समेट रहे थे या फिर संवेदनहीनता की खोल में दुबके अनुभूतिवाद के नाम से एवं नए रहस्यवाद की शरण चले गए थे जब भोगे हुए यथार्थ और अनुभव की प्रामाणिकता के नारे पर उनमें अकेलेपन और अजनबीयत, संत्रास और मृत्युबोध का जाप हो रहा था तब परसाई ने अपने चौतरफा समाज की बनंत और रंगत, तात्कालिक राजनैतिक साजिशों, प्रशासन की अमानवीयता और धर्म और अध्यात्म के पाखंडों से छले जाते, समकालीन आदमी की रोजमर्रा की तकलीफों को जबान दी । उन्होंने स्वप्न भंग और स्वप्न हीनत्य के समकालीन परिवेश की महज तफलीश पेश नहीं की, बल्कि उनके पीछे निहित शक्तियों के संघर्ष का भी खुलासा दिया ।'' (परसाई रचनावली भाग-1 भूमिका पृ.12)
विश्वनाथ त्रिापाठी - ‘‘परसाई का व्यंग्य लेखन स्वातंत्रयोत्तर भारत की नैतिक आवाज होने के साथ-साथ बहुत-बहुत दूर तक आचरण संहिता भी है । व्यक्तिगत सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और साहित्यिक आचरण की संहिता । यह बात शुरू-शुरू में चाहे अजब लगे लेकिन उनके निबंधों को पढ़कर आप सहमत होंगे । व्यंग्य के माध्यम से उन्होंने हर प्रकार के अनौचित्य पर प्रहार किया है ।'' (देश के इस दौर में पृ. 39)
‘‘परसाई के निबंधों का आकार बहुत छोटा होता है लेकिन निबंध पढ़ने पर एक झटका जरूर लगता है । कुछ ऐसा हो रहा है जो विक्षुब्ध् कर जाता है । विक्षुब्ध करने का गुण ही परसाई को रचनाकार बनाता है- गंभीर रचनाकार । गंभीर रचनाकार मानवतावादी होगा । उसकी रचना का प्रधान तत्व करुणा होगा । लेकिन इन निबंधों को आप एक साथ पढें तो ये परस्पर संबद्ध लगेंगे। पूरा निबंध साहित्य का एक वृहत युग गाथा लगेगा । वह एक विशद असमाप्त महाकाव्य लगेगा । यह स्वातंत्रयोत्तर भारत की युग गाथा है । व्यंग्य निबंधों का यह महाकाव्यात्मक प्रभाव हिंदी की नयी उपलब्धि है । वर्तमानता मामूलीपन की अनिवार्यता, महत्ता इन सबके साथ परसाई के निबंधों के शिल्प और विधा के नयेपन का अन्योन्याश्रित संबंध है । स्वातंत्रयोत्तर भारत का यथार्थ बनता बिगड़ता हुआ सक्रिय यथार्थ, परसाई के निबंधों में चित्रित है । इस सक्रियता, विकासमानता को रेखांकित करने के लिए ही उसके वास्ते ‘वर्तमानता' शब्द का प्रयोग किया जा रहा है ।'' (भारतीय साहित्य के निर्माता, पृ. 24)
धनंजय वर्मा - ‘‘परसाई की कहानियों की अंतर्वस्तु जिस समाज और आदमी से आती है । भाषा भी उसी को बोलचाल की, उसके रहन-सहन और रीति-रिवाजों की है । उसमें सड़कों-गलियों, आफिस-कारखानों, खेतों खलिहानों के जनजीवन की खालिस देसी बोली के तेवर हैं, उसी के कहावत और मुहावरे हैं और उनकी इस भाषा ने न केवल हिंदी गद्य का मिजाज बदला है, बल्कि पूरे तेवर और मुहावरे को जिंदादिल और मर्दाना बनाया है । हिंदी गद्य के देसी मिजाज और तेवर के लिए जिस तरह भारतेंदु हरिशचंद और बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुंद गुप्त और प्रतापनारायण मिश्र, प्रेमचंद और पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी याद किए जाते हैं, उसी तरह परसाई का गद्य भी अपनी अनुगूंजों और आद्यातों के लिए याद किया जाता रहेगा ।'' (परसाई रचनावली भाग-2, पृ. 20)
श्याम कश्यप - ‘‘परसाई जी की भाषा विविध स्तरों और अनेक पर्तों के भीतर चलने वाली किसी करेंट की अंतर्धारा की तरह है । यह भाषा सहज, सरल और अत्यंत धारदार तो है ही, साथ ही इसमें विभिन्न प्रकार की वस्तुओं, स्थितियों, संबंधों और घटनाओं के यथार्थ वर्णन की भी अद्भुत क्षमता है । उनकी रचनाओं में प्रसंगानुकूल भाषा के इतने रूप मिलते हैं कि अन्यत्र ऐसा वैविध्य दुर्लभ है । कबीर-तुलसी आदि संत कवियों और खुसरो, मीर, गालिब से लेकर आज तक ठेठ हिंदी-उर्दू के जितने रूप हमारी भाषा में हो सकते है, परसाई के गद्य में उन सभी का स्वाद मिलता है । बोलियों, खासकर बुंदेली का हल्का सा शेड उसमें और भी गजब की चमक ला देता है । लेकिन साथ ही उनकी अपनी बोलचाल की सहज भाषा का निजी वैशिष्ट्य भी नहीं छिपता, बल्कि इस संपन्न पृष्ठभूमि में और भी उभर आता है ।'' (परसाई रचनावली भाग-2 पृ.1)
धनंजय वर्मा - ‘‘लोगों को परसाई की भाषा में व्याकरणहीनता, गाम्यत्व-दोष और किसी-किसी को भदेसपन भी नजर आता है, लेकिन परसाई की कहानियों की अंतर्वस्तु जिस समाज और आदमी से आती है, भाषा भी उसी बोल-चाल की उसके रहन-सहन और रीति रिवाजों की है । उसमें सड़कों-गलियों, अॉफिस-कारखानों, खेतों-खलिहानों के जन-जीवन की खालिस देसी बोली के तेवर है । उसी के कहावत और मुहावरे है और उनकी इस भाषा ने न केवल हिंदी गद्य का मिजाज बदला है । बल्कि पूरे तेवर और मुहावरे को जिंदादिल और मर्दाना बनाया है ।'' (परसाई रचनावली भाग-2 पृ. 19-20)
मधुसूदन पाटिल - ‘‘हिंदी व्यंग्य को जिस एक व्यक्ति ने विश्व व्यंग्य साहित्य के समांतर खड़ा कर दिया, हास्य और विद्रूपता के दायरे से निकालकर उसे सामाजिक चेतना का प्रतिनिधि बनाया समकालीन सामाजिक सांस्कृतिक राजनैतिक तथा मानवीय असंगतियों की अभिव्यक्ति के लिए सक्षम बनाया, हिंदी व्यंग्य साहित्य अपने उस निर्माता का सदैव ऋणी रहेगा । जिस तरह चेखव ने समकालीन रूस का यथावत् चित्रण किया उसी तरह हरिशंकर परसाई ने भारतीय समाज का यथातथ्य चित्रण किया । उनकी व्यंग्य रचनाओं में भारतीय समाज के हर एंगल से लिया गया चित्र मौजूद है । उन्होंने व्यंग्य की रचना प्रक्रिया तथा उसके सामाजिक दायित्व को लेकर बड़ी गंभीरता के साथ विचार किया है ।'' (व्यंग्यःविधा और विविध, सं. मधुसूदन पाटिल पृ. 149)
डॉ. सुरेश आचार्य - ‘‘अपनी जगकल्याणकारी रचनाधर्मिता और प्रगतिशील समाज दर्शन के कारण परसाई विशिष्ट हैं । विशिष्टों में विशिष्ट । वे इस अर्थ में शाश्वत साहित्यकार हैं कि मनुष्यता शाश्वत है और वे मनुष्यता की रक्षा और उसके कल्याण के लिए समर्पित रचनाधर्मिता के हामी लेखक है ।'' (व्यंग्य का समाज दर्शन पृ. 149)
मुक्तिबोध - ‘‘परसाई जी का सबसे बड़ा सामर्थ्य संवेदनात्मक रूप से यथार्थ का आकलन है, चाहे वह राजनैतिक प्रश्न हो या चरित्रगत । हमारे यहां की साहित्यिक संस्कृति ने सच्चाई के प्रकटीकरण पर जो हदबंदी करके रखी है, उसे देखते हुए परसाई की कला सहज ही वामपंथी हो जाती है ।'' (सारिका, जनवरी 1986 पृ. 39)
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[1] हिंदी विधएं ः स्वरूपात्मक अध्ययन - डॉ. बैजनाथ सिंहल पृ. 218
2 परसाई रचनावली पृ. 452 खंड-4
3 मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं, पृ. सं. 7
4 दूसरे के इमान
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डॉ. दीपक पांडे
केंद्रीय हिंदी निदेशालय
पश्चिमी खंड-7] रामकृष्णपुरम
नई दिल्ली 110066
ईमेल dkp410@gmail.com
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