गुरू बिन ज्ञान - कल्पना और सपना शिष्य - गुरू परंम्परा का पर्याय - व्यास पूर्णिमा भारत वर्ष में गुरूओं की महत्ता युगकालीन कही जा सकती है...
गुरू बिन ज्ञान - कल्पना और सपना
शिष्य - गुरू परंम्परा का पर्याय - व्यास पूर्णिमा
भारत वर्ष में गुरूओं की महत्ता युगकालीन कही जा सकती है। रामायण से लेकर महाभारत और श्रीमद्भगवत्गीता से लेकर गुरू गीता तक में आचार्यों और गुरूओं की महिमा का बखान किया गया है। गुरूकुल की शिक्षा व्यवस्था ने राजकुमारों को धन- संपन्नता के वैभव से दूर रखते हुए गुरूचरणों में वंदना करते हुए जीवन के सार को समझने और महान व्यक्ति बनने में योगदान किया है। प्रतिवर्ष आषाढ़ शुल्क पूर्णिमा तिथि गुरू पूर्णिमा के रूप में मनायी जाती है। अपने गुरूओें के प्रति अगाध श्रद्धा रखने वालों के लिए यह दिन मार्ग- दर्शन प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ अवसर माना जा सकता है। गुरू के जीवित न रहने पर उनकी शिक्षा को चेतन मन में लाते हुए आत्मसात करना ही शिष्य का परम कर्तव्य होना चाहिए। शिक्षा और दीक्षा दोनों ही एक महान गुरू की तपस्या से निखरे मानवीय कल्याण के मुख्य आधार तत्व सिद्ध होते आ रहे है। इस संसार रूपी सागर से कोई भी अपने आप पार नहीं उतर सकता है। फिर चाहे ब्रम्हा जी जैसे सृष्टिकर्त्ता हों या शिवजी जैसे संहारकर्त्ता सभी को गुरू का सहारा लेना ही पड़ा है।
गुरू पूर्णिमा पर्व महाभारत एवं वेदों के रचयिता श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास जी के जन्म से संबंध रखने वाला महान पर्व है। गुरू पूर्णिमा महज एक पर्व ही नही वरन् अपने आराध्य देव के साथ ही हमारा मार्ग प्रशस्त करने वाले प्रभु तुल्य गुरू के स्मरण एवं समर्पण के लिए महत्वपूर्ण दिन है। एक सच्चा शिष्य बनने के लिए जरूरी है कि हम गुरू की आकृ ति पर न जायें बल्कि उनकी दिव्य प्रकृति एवं उनके अन्दर छिपी अतुलनीय प्रतिभा को पहचाने। गुरू कोई भी हो यह सुनिश्चित है कि वह दिव्य प्रकृति का ठोस स्वरूप होता है। दूसरी ओर शिष्य का वास्तविक अर्थ भी गहन विनम्रता से संबंध रखने वाला होना चाहिए। स्वंय को गुरू के आगे झुकाकर हृदय को स्वच्छ और निर्मल बना लेना ही शिष्य का परम् लक्ष्य होना चाहिए। समर्पण की साधना के साथ समस्त आडंबरों का गुरू चरणों में विसर्जन सच्चा शिष्य बनने के मार्ग में प्रथम सीढ़ी मानी जानी चाहिए। साथ ही शिष्य बनने के लिए नितांत जरूरी है जीवन के तत्वों को सीखने क ी ललक का संयोजन आज्ञा पालन की तत्परता, एवं उद्धेश्य में सफलता पाने के लिए प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ने की प्रतिज्ञा। इसी प्रकार के सद्गुणों के विकास की इच्छा, जीवन ज्योति को प्रकाशित और प्रज्ज्वलित रखने सहायक ही नहीं जरूरी भी समझी जानी चाहिए।
जब- जब गुरू महिमा की चर्चा की जाती है, मुझे भारतीय धर्म ग्रन्थों में समाहित महामंत्रो की बरबस ही याद हो आती है। हिन्दू धर्म ग्रंथों में एक-दो और सौ-दो सौ नहीं बल्कि सात करोड़ महामंत्रों का उल्लेख मिलता है। जितने मंत्र उतना अधिक भ्रम की स्थिति निर्मित होती रही है, लेकिन मात्र दो अक्षरों का मंत्र गु+रू (गुरू) हमारे मन की विभिन्न जिज्ञासाओं को शांत करने में सफल होता आ रहा है। यही मंत्र मोक्ष का मुख्य द्वार के रूप में अनेक विद्वानों और शिष्यों द्वारा स्वीकार किया जा चुका है। भारतीय संस्कृति में गुरू का सम्मान जिन ऊचाइयों को छू रहा है। उन्हें स्पष्ट करने मुझे सर्वगीता सार के पन्ने पलटने पड़ रहा है, जिसमें कहा गया है-
शिव रूष्टे गुरूस्त्राता, गुरो रूष्टे न कश्चन् ।
लव्हवा कुलगुरं समयग,गुरू मेव समाश्रयेत ।।
अर्थात् यदि ईश्वर रूठ जायें तो गुरू रक्षा करते हैं, परन्तु यदि गुरू ही रूठ जायें तो कोई भी रक्षा नही कर सकता है। सार रूप में यही कहा जा सकता है कि सर्वगुण संपन्न गुरू की खोज कर उसकी शरण में जाना ही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।
गुरू पूर्णिमा का पर्व व्यास पूर्णिमा अथवा बुद्ध पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। कारण यह है कि यह तिथि व्यास जी के अवतरण की तिथि है। भक्तिकाल के महान संत घीसादास का जन्म भी इसी दिन हुआ वे कबीर दास जी के शिष्य थे। गुरू और शिष्य के लिए इतना महत्वपूर्ण दिन होने के बाद भी वर्तमान समय की विकृतियों ने गुरू-शिष्य परम्परा के टूटने की समस्याओं को जन्म दिया है। आज शिष्य में गुरू- भक्ति का अभाव परिलक्षित हो रहा है। गुरू का धर्म भी शिष्य को शिक्षा देने से भटक कर उसे लूटने के रूप में सामने आने लगा है। येन-केन प्रकारेण एक गुरू भी आज की बदली परिस्थितियों में केवल धनार्जन तक सीमित रहते हुए अपने धर्म को भूल रहा है। हमारी इसी भूल और स्वार्थी भावना ने गुरू और शिष्य के सामीप्य को दूर किया है।
गुरू शिष्य संबंध को लेकर किसी विद्वान ने कहा है- जिन्हे एक अच्छा गुरू नहीं मिला उसके लिए जीवन एक संघर्ष है। जिन्हे गुरू का सान्निध्य प्राप्त करने में सफलता मिली उनका जीवन खेल है, और जो गुरू के बताये मार्ग पर चल पड़ता है वो ही अपने जीवन को उत्सव कहने का साहस जुटा पाता है। अर्थात् एक गुरू के सान्निध्य में रहते हुए पुरूषार्थ करना ही शिष्य का मुख्य कर्तव्य होता है। एक गुरू ही है जो हमें एक अविक सित पौधे के रूप में ज्ञान रूपी जल और खाद प्रदान कर बड़ा बनाता है। गुरू ही हमारा संसार से परिचय कराता है, हमें इस लायक बनाता है कि हम संसार में सिर उठाकर खडे हो सकें। एक गुरू ही हमारा बौद्धिक विकास करने के साथ व्यक्तित्व में निखार पैदा कर दिखाता है। वे ही हमें संसार में संघर्ष करने के लिए ज्ञान रूपी भट्टी में तपाकर खरा सोना होने की स्थिति में ला खड़ा करते हैं।
एक गुरू अथवा आध्यात्मिक संत समस्या से छुटकारा दिलाने वाला विशेषज्ञ होता है। वह बड़ी आसानी से शिष्य की समस्या को समझकर बिना किसी दर्द के उसे दूर करने का प्रयास करता है। मुझे एक लघु कथा का स्मरण इस संबंध में अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। भारत वर्ष के विभिन्न धर्म गुरूओं में से एक धर्मगुरू अपना प्रवचन कई दिनों से दे रहे थे, और अंत में प्रवचन में सम्मिलित लोगों से से एक-एक बुराई का त्याग करने की बात कहा करते थे। उक्त प्रवचन में एक शराब का आदी और चोरी क ी आदत से जकड़ा युवक भी शामिल था। वह संत से कहता न ही मैं शराब छोड़ सकता हूँ, और न ही चोरी की आदत, तब मैं क्या करूँ ? गुरू तो ज्ञान की खान होते हैं- उन्होने उस युवक से कहा न ही तुम शराब छोड़ो और नहीं चोरी, किन्तु मेरी एक बात पर अपना वचन दो कि तुम असत्य कथन नहीं करोगे। उस युवक को यह बड़ा आसान लगा और उसने वचन दे दिया। यही वचन उस युवक के मार्ग सुधारक के रूप में एक औषधि का काम कर गया। शाम होते ही वह शराब पीने निकला और मन में सवाल उठा कि शराब पीकर घर गया तो पिता के पूछने पर क्या कहूंगा झूठ तो बोलना नहीं है, इसलिए आज से शराब को हाथ नहीं लगांऊगा। देर रात चोरी की योजना बनाते भी वही विचार मन में आया कि इतनी रात कहां जा रहे हो, किसी के द्वारा पूछने पर क्या उत्तर दूंगा? झूठ बोलने का तो त्याग कर दिया हूँ, सच बोलने पर समस्या खड़ी हो जायेगी। इस प्रकार का चिन्तन जागते ही भावनात्मक परिवर्तन के साथ दोनों बुरी आदतें छूट गयी। वह दौड़ा-दौड़ा संत के पास गया और अपनी लत को समाप्त करने के उपाय पर उनके चरणों पर गिर पड़ा। यही एक अच्छे और सच्चे गुरू के गुण कहे जा सकते हैं।
प्रस्तुतकर्ता
(डा. सूर्यकांत मिश्रा)
जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
शिव रूष्टे गुरूस्त्राता, गुरो रूष्टे न कश्चन् ।
जवाब देंहटाएंलव्हवा कुलगुरं समयग,गुरू मेव समाश्रयेत ।।
. बहुत बढ़िया सामयिक प्रस्तुति
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