व्यंग्य वन महोत्सव वीरेन्द्र ‘सरल‘ जून-जुलाई का महीना आ गया था। आसमान पर काले-काले बादल मंडराने लगे थे। कहीं-कहीं से गरज चमक के साथ बौछ...
व्यंग्य
वन महोत्सव
वीरेन्द्र ‘सरल‘
जून-जुलाई का महीना आ गया था। आसमान पर काले-काले बादल मंडराने लगे थे। कहीं-कहीं से गरज चमक के साथ बौछारें पड़ने की खबरें भी सुनाई देने लगी थी मगर जंगल का चेहरा अभी कुम्हलाया हुआ था। छोटे-छोटे पौधे अभी मुरझाये हुये थे। लेकिन वन विभाग के कर्मचारी और अधिकारियों के चेहरे पर रौनक आ गई थी। चेहरे चमकने लगे थे। आँखे सीपी के मुख के समान स्वाति नक्षत्र के बूंद की आस में वन मंत्री की ओर निहारने लगी थी और निहारें भी क्यों नहीं पिछले वनमहोत्सव में अच्छा ‘पुण्य‘ मिल गया था। छोटे पौधों की सुरक्षा के लिए जंगल के बड़े-बड़े कीमती पेड़ काटे गये थे। इमारती लकड़ियां साहबों के घर पर सोफा-सेट बनकर अपने भाग्य पर इतरा रही थी और बेकार लकड़ियां अभी भी वन विभाग के डिपो पर पड़े-पड़े अपने भाग्य पर आँसू बहा रही थी। डिपो पर पड़ी लकड़ियां सोच रही थी कि पिछले वर्ष कुछ समय के लिए ही उन्हें गड़ाया गया था और उन पर फेसिंग तार लगाकर सुरक्षा घेरा बनाया गया था। पर देख-रेख के अभाव में लगाये गये सभी छोटे पौधे नष्ट हो गये और उन्हें निकालकर फिर से इस नरक पर सड़ने के लिए डाल दिया गया। फेसिंग तार भी लपेट कर रख दिये गये। अब की बार फिर से उनके लिए नया बजट आयेगा। उनके नाम पर इस अमले से जुड़े लोग फिर से ‘पुण्य‘ कमायेंगें और कुछ समय के लिए उन्हें फिर कहीं लगा दिया जायेगा। हमारी नियति तो बस यही है कि जब तक जिन्दगी है कहीं लगो और उखड़ो।
इधर साहब और मंत्री जी की भेड़-बकरियां तक वन महोत्सव के नाम पर काफी खुश नजर आ रही थीं। अहा! अब वनमहोत्सव के नाम पर फिर से अरबों रूपये के बजट से करोड़ों पौधे रोपे जायेंगें। नरम-नरम मुलायम पौधे पेट भर खाकर डकारने का आनंद ही कुछ और है। हे भगवान! जितनी जल्दी हो सके वनमहोत्सव का आदेश हो जाये तो मजा आ जाये।
आखिर सबकी मुरादें पूरी हुई। वन महोत्सव का आदेश मिल गया। वन विभाग को लगा मानों उन्हें कुबेर का खजाना मिल गया हो। खूब ताम-झाम के साथ वन महोत्सव की तैयारी शुरू हो गई। नर्सरी से नन्हें पौधे उखाड़े जाने लगे। पथरीली जमीन पर उन्हें रोपने के लिए गडढे खोदे जाने लगे। पौधों को लग रहा था मानो ये गड्ढे नहीं उनकी कब्र हो।
वन महोत्सव की तैयारी पूरे जोर-शोर से शुरू हो गई। इस बार बजट तगड़ा मिला था। हर कोई पेड़ लगाकर ‘पुण्य‘ कमाना चाह रहा था। ‘पुण्य‘ कमाने की होड़-सी लग गई थी।
अन्ततः वह शुभ दिन भी आ गया । जब मंत्री जी के करकमलों से वनमहोत्सव का शुभारंभ होने वाला था। एक शानदार मंच बनाया गया था। भारी पंडाल की भी व्यवस्था थी। निर्धारित समय पर मंत्री जी अपने काफिले के साथ पधारे। मंत्री जी के साथ उनकी पर्सनल बकरियां और भेड़ें भी थी। वृक्षारोपण के लिए पहले से ही तैयारी कर ली गई थी। मंत्री जी के हाथों से पेड़ लगाते हुए लाइट, कैमरा, एक्शन के अंदाज में मनमोहक तस्वीरें ले ली गई। जो कल अखबारों की सुर्खियां बनने वाली थी। इस बार एक नई बात जो दिखलाई दी वह यह थी कि मंत्री जी अपने मिट्टी सने हाथो से जब फोटो खिंचवा रहे थे। उसी समय ही उनकी पर्सनल बकरी रोपे जा रहे पौधे को ललचाई नजरों से देखती हुई आसपास मंडरा रही थी और मौका देखकर बस मुंह ही मारने वाली थी पर मंत्री जी आँखो-ही-आँखो में उसे समझा रहे थे ‘जरा इंतजार का मजा लीजिए।
स्वागत-सत्कार की रस्म अदायगी के बाद मंत्री जी का भाषण शुरू हुआ। उपस्थित भाइयों एवं बहनो! जैसे जल है तो कल है वैसे ही वन है तो जीवन है। हमें अधिक से अधिक मात्रा में पेड़ लगाना चाहिए और उसे आम भेड़-बकरियों से बचाना चाहिए। मगर ध्यान रहे खास भेड़ बकरियों के लिए ये बात लागू नहीं होती। वृक्षारोपण के अभाव और पेड़ो की अंधाधुंध कटाई के कारण जंगल कम हो रहे है। आप देख ही रहे हैं बढ़ती महंगाई के कारण वन्य जीव भी आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। मुझे पता चला है कि अभी-अभी जंगल में मरे हुए वन्य जीवों के पोस्टमार्टम रिपोर्ट में जहर खुरानी की बातें सामने आई है। यदि ध्वनि विस्तारक यंत्र के माध्यम से मेरी आवाज जंगल के भीतर तक जा रही हो तो मैं वन्य जीवों से भी अपील करता हूँ कि आप इस तरह निराश होकर आत्महत्या ना करें। आत्महत्या करने के ये तरीके ठीक नहीं है। हम आपके स्पेशल ट्रेनिंग के लिए एक प्रोग्राम तैयार करने जा रहे हैं। ताकि आप प्रशिक्षित होकर जो भी करे जरा ढंग से करे। मेरा मतलब है आप प्रशिक्षित होकर समझ सके कि किस आहार में जहर मिला और किसमें नहीं। साथ-ही-साथ हम जंगल के भीतर बड़े-बड़े बोर्ड लगवाने वाले है जिस पर लिखा होगा ‘सावधान शिकारी शिकार पर है‘। आप बोर्ड पर लिखी ऐसी सूचना पढ़कर सचेत हो जायेंगें और शिकारियों से अपनी रक्षा कर पायेंगें। यदि हो सका तो मैं आपको मोबाइल पर मैसेज भेजकर भी सचेत करने का प्रयास करूँगा। इस तरह भाषण की समाप्ति के साथ ही वन महोत्सव का शुभारंभ हुआ। मंत्री जी मंच से उतर कर सीधे रेस्ट हाऊस पहुँच गये।
वहाँ कुछ पत्रकार लोग भी पहुँच गये और मंत्री जी से कुछ प्रश्न करने लगे। एक ने पूछा-‘‘आज आपने अपने भाषण में कहा कि मंहगाई के कारण वन्यपशु आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे है जबकि हमारा मानना है कि भ्रष्ट्राचार के कारण या तो उन्हें बेमौत मरने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है या किसी साजिश के तहत उनकी शिकार किया जा है। इस बारे में आप क्या कहना चाहते हैं?‘‘ प्रश्न सुनकर मंत्री जी भड़क कर बोले-‘‘आप लोगों को दुनिया में भ्रष्ट्राचार के सिवाय क्या कुछ और दिखाई नही देता। भ्रष्ट्राचार क्या केवल आप लोगों को ही दिखाई देता है। हमारी आँखों को क्या मोतियाबिन्द हुआ है जो वह हमे दिखलाई नही देता या उसे हमें दिखने में शरम आती है। जंगल के ये बेजुबान जानवर क्या भ्रष्ट्राचार करेगें बेचारे। उनकी आत्म हत्या का कारण मंहगाई है तो बस मंहगाई ही है। इसके सिवाय कुछ भी नहीं। हमने कह दिया सो कह दिया, समझ गये?‘‘ अब उस पत्रकार की कुछ और पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई। वह चुप रह गया। मगर दूसरे पत्रकार ने हिम्मत दिखाते हुये पूछा-‘‘पिछले कई वर्षो से वनमहोत्सव के नाम पर अरबों रूपये के लागत से करोड़ों पौधे लगाये जाते हैं। यदि लगाये गये सभी पौधों की देख-रेख सही ढंग से की जाती तो आज पूरा देश हरा भरा होता। मगर व्यवहार में ऐसा कुछ दिखाई तो नहीं देता। अभी तक आपने जितने पेड लगाते हुये तस्वीरें खिंचवाई है यदि वे ही सुरक्षित रहते तो शायद इससे ही एक छोटा-मोटा जंगल तैयार हो जाता पर ऐसा आज तक नहीं हो पाया।‘‘
मंत्री जी ने कहा-‘‘देखो भई! ऐसा है हमारा काम पेड़ लगाना है उसकी देख रेख करना नहीं। लोग पेड़ लगाते हुये ही फोटो खिंचवाते हैं। किसी पेड़ के देख-रेख करते हुये आपने किसी की तस्वीरें देखी है, नहीं ना?‘‘ दूसरी बात है कि अपने यहां एक कहावत है कि जो बोता है वही काटता है‘। यह कहते हुये मंत्री जी थोड़ा हड़बड़ाये और सम्हलते हुये बोले-‘‘मेरा मतलब है कि आज कल यह कहावत बदल गई है अब तो यह हो गया है कि बोता कोई और है और काटता कोई और है।‘‘ मंत्री जी की बात का मतलब समझकर उनकी पर्सनल बकरियां मंद-मंद मुस्कुरा रही थी। पर पत्रकार को यह गोल मोल जवाब समझ नहीं आ रहा था। वह मंत्री जी को अपलक देख रहा था। मंत्री जी आगे बोले-तीसरी बात यह कि कौन कहता है कि हम लाखों पेड़ लगाते हैं उसमें गिनती के पेड़ ही सुरक्षित रह पाते हैं। मैने अपने जीवन में जो दो-चार पेड़ लगाये हैं वह हजारों पेड़ के बराबर है। पत्रकार समझा की कोई बहुत ही कीमती पेड़ होगा इसलिए पूछ बैठा ऐसा कौन-सा कीमती पेड़ है भई जो हजारों के बराबर है। मंत्री जी ने तर्क दिया सवाल कीमती का नहीं बल्कि पेड़ का है। अच्छा आप ही बताइये जब जमीन के टुकड़े को जमीन, लोहे के टुकड़े को लोहा, सोने के टुकड़े को सोना और पत्थर के टुकड़े को पत्थर कहा जाता है तो पेड़ के टुकड़े को पेड़ कहेंगें कि नहीं? इस हिसाब से मैने जो दो-चार पेड लगाये हैं। उसका तना ,शाखाएं, पत्तियां, फूल और फल सब को टुकड़ो में बांट दिया जाय तो हजारों क्या लाखों के बराबर होगे कि नहीं? पत्रकार मंत्री जी के इस कुतर्क से निरूत्तर हो गये और वहाँ से चलते बने। मंत्री जी मंद-मंद मुस्कुराने लगे और सारे शार्गिद ठहाका मार कर हँस पड़े। एक ने कहा-इसे कहते हैं नहले-पे-दहला। भैया जी ने ऐसा दाँव मारा कि सब की बोलती ही बंद हो गई। अब मजा आयेगा वनमहोत्सव मनाने में। वहां एक बार फिर से सामूहिक ठहाका गूंजा। पुण्य कमाने की तैयारी शुरू हो गईं।
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वीरेन्द्र ‘सरल‘
बोड़रा (मगरलोड़)
पोष्ट-भोथीडीह
व्हाया-मगरलोड़
जिला-धमतरी (छत्तीसगढ़)
पिन-493662
सरकारी कार्प्रनाली पर एक सुन्दर हास्य व्यंग्य |
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