‘वायदा' के खेल पर रोक की जरुरत प्रमोद भार्गव केंद्र की नई सरकार और उसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने सबसे बड़ी और मुंहबाए खड़ी चु...
‘वायदा' के खेल पर रोक की जरुरत
प्रमोद भार्गव
केंद्र की नई सरकार और उसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने सबसे बड़ी और मुंहबाए खड़ी चुनौती ‘मंहगाई' है। वैसे तो वैश्विक स्तर पर रुपए की मजबूती से सोना और व्यावसायिक गैस सिलेण्डरों के दाम घटे हैं, लेकिन आम आदमी को राहत तब मिलेगी जब खाद्य वस्तुओं के दाम घटें। ऐसी आम धारणा है कि इन वस्तुओं के दाम इसलिए बढ़ते रहते हैं, क्योंकि ‘वायदा कारोबार' के बहाने कृषि उत्पादों पर बड़े पैमाने पर सट्टा खेला जाता है। इस सट्टेबाजी पर रोक लगाना मोदी के लिए इसलिए जरुरी है, क्योंकि वे खुद इसे मंहगाई बढ़ने का कारण मान चुके हैं। दरअसल वायदा कारोबार से आशय वस्तुओं के भावी भावों का अनुमान लगाकर भविष्य की सौदेबाजी की जाती है। ये आभासी अनुमान वस्तु की अनावश्यक कीमत बढ़ाने का काम करते हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सप्रंग सरकार ने 2011 में नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में मंहगाई पर नियंत्रण के उपाय तलाशने के नजरिए से एक समिति का गठन किया था। इस समिति ने 64 उपाय सुझाए थे, जिनमें एक कृषि उत्पादों को वायदा व्यापार से अलग करना भी था। सप्रंग सरकार ने तो इन सुझावों में से किसी पर भी अमल नहीं किया, किंतु अब बारी मोदी की है, वे खाद्य वस्तुओं को वायदा कारोबार की सूची से बाहर करके अपना दिया वचन भंग न होने दें।
दरअसल वायदा के सटोरिए इसे कृषि वस्तुओं के वास्तविक दाम जानने के बहाने जारी रखे रहना चाहते हैं। जबकि हकीकत में यह बहाना शगूफा भर है। दुनिया में गेंहू की पैदावार जितनी होती है, उससे 46 गुना ज्यादा व्यापार होता है। जो फसल या वस्तु जितनी मात्रा में है ही नहीं, तब वस्तु की आभासी उपस्थिति दर्ज कराने से वास्तविक मूल्य का पता कैसे चल सकता है ? अभी भी किसानों को गेहूं या अन्य फसल के वास्तविक मूल्य का पता सरकार द्वारा समर्थन मूल्य की घोषणा के बाद ही चलता है, वायदा से नहीं। वायदा कारोबारी वायदा के पक्ष में एक दलील यह भी देते हैं कि इस खेल से मूल्यों में वृद्धि नहीं होती है। जबकि मोदी की अध्यक्षता वाली समिति और वाणिज्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट वायदा को मंहगाई बढ़ने का प्रमुख कारण मान चुके हैं। यही नहीं संयुक्त राष्ट का खाद्य व कृषि संगठन भी यह मान चुका है कि वायदा कारोबार के चलते मंहगाई पर अंकुश संभव नहीं है। बल्कि 2007 में जब विश्व के 37 देशों में खाद्यान्न संकट गहराया था और लोग अनाज लूटने लग गए थे, तब भी संयुक्त राष्ट ने स्वीकार किया था कि 75 फीसदी मंहगाई कृषि वस्तुओं का वायदा से जुड़ा कारोबार है। इसलिए भारतीय सटोरियों का यह तर्क बेबुनियाद है कि वायदा से मंहगाई नहीं बढ़ती है।
पूरे देश में खाद्य वस्तुओं की बनावटी कीमतें नागरिकों को आर्थिक मोर्चे पर कमजोर कर रही हैं। वायदा के सट्टे में दर्ज खाद्य सामग्रियों में पिछले एक साल के भीतर 25 फीसदी मंहगााई दर्ज की गई है। उपभोक्ता मामलों के कार्य समूह ने अप्रैल 2010 में देश के चार प्रमुख स्टॉक एक्सचेंजों में 40 खाद्य वस्तुओं के चल रहे वायदा कारोबार का अध्ययन किया था। इसके मुताबिक इन एक्सचेंजों में गेहूं, चना, चावल, सोयाबीन, सरसों, मक्का, चीनी, इलायची, सोना व चांदी का सट्टा खेला जा रहा था। इस अध्ययन से पता चला कि खाद्य वस्तुओं के दामों में वास्तविक दामों से 4-5 गुना अधिक दाम पर सट्टा खेला जा रहा है, जो अनैतिक व अव्यावहारिक है।
संप्रग सरकार में शरद पवार के कृषि मंत्री रहने के दौरान वायदा कारोबारी इतने ताकतबर थे कि खाद्य नीतियां बनाने तक में उनका दखल था। यहां तक कि वस्तु का दाम चार - पांच गुना ज्यादा बढ़ जाने के बावजूद भी वे वस्तु को सट्टे की सूची से बाहर नहीं आने देते थे। इसीलिए वायदा व्यापार को कृषि मंत्रालय से हटाकर पहले उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय के अधीन किया गया और अब यह वित्त मंत्रालय के अधीन है। बावजूद हालात जस के तस हैं। क्योंकि वायदा का वैध-अवैध कारोबार अपनी जगह यथावत है। मध्यप्रदेश में 8000 करोड़ का वैध कारोबार होता है, जबकि 5000 करोड़ का अवैध व्यापार होता है। इसी तरह छत्तीसगढ़ में 10,000 करोड़ का वैध और 5000 करोड़ का अवैध कारोबार चलता है। कमोबेश खुद मोदी के गुजरात में कपास और अरंडी का बड़े पैमाने पर जायज-नाजायज कारोबार होता रहा है। कमोबेश सभी राज्यों में एक जैसी स्थिति है। वायदा में घाटा, किसान और व्यापारियों की आत्महत्या का भी एक कारण बन रहा है। मध्यप्रदेश में जितनी आत्महत्याएं होती हैं, उनमें से 50 फीसदी आर्थिक परेशानियों के कारण की जाती हैं। इनमें से करीब पांच फीसदी मामले सीधे वायदा से जुड़े होते हैं। बहरहाल लोगों को कृत्रि़म व आभासी आत्मनिर्भरता से दूर करके वास्तविक रुप से स्वावलंबी बनाया जाए।
दुनिया में खाद्य वस्तुओं के कारोबार से जुड़े वायदा व्यापार की शुरुआत ‘वयापार मंडल' ने 1848 में की थी। भारत में 1913 में, हापुड़ मंडी में पहली बार खाद्य वस्तु के रुप में गेहूं का वायदा व्यापार शुरु हुआ था। आजादी के बाद 1950 में इसे सूचीबद्ध किया गया और एक-एक कर फसलें जोड़ी जाने लगीं। जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी गांधी ने इसके किसानों पर पड़ते बुरे असर और मंहगाई बढ़ने के कारणों के रुप में देखा तो उन्होंने 1970 में इस कारोबार पर प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन 1980 के बाद यह फिर चल पड़ा। उदारवादी आर्थिक अर्थव्यवस्था के बहान वायदा का विस्तार हुआ और 2003 तक इसने लगभग सभी कृषि वस्तुओं को अपने दायरे में ले लिया। नतीजतन सट्टा कारोबारियों के पौ-बारह हो गए। 2007-08 में तो खाद्य वस्तुओं के दामों में इतना उछाल आया कि कई वस्तुएं लोगों की खरीद के दायरे से ही बाहर हो गई। यानी, आम आदमी से जुड़ी एक बड़ी आबादी पेट भर भोजन से ही वंचित हो गई। इस छलांग मारती मंहगाई की पड़ताल के लिए तत्कालीन सप्रंग सरकार ने 2008 में बहुदलीय संसदीय समिति का भी गठन किया। समिति ने सिफारिश भी कि वायदा कारोबार के चलते वस्तुओं के दामों में कृि़त्रम वृद्धि हो रही है। लिहाजा इस पर फौरन रोक लगाने की जरुरत है। लेकिन यह सिफारिश रद्दी की टोकरी में डाल दी गई। इसके बाद 2010 में जब रोम में खाद्य संकट गहराया था तो संयुक्त राष्ट के खाद्य एवं कृषि संगठन ने एक आपात बैठक बुलाई थी। इस बैठक के निष्कर्षों से ख्ुालासा हुआ कि खाद्य वस्तुओं के मूल्यों में लगातार वृद्धि दर्ज की जा रही है, इसके कारणों में जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाओं के साथ वायदा कारोबार का प्रबल हस्तक्षेप भी है।
वायदा के चालाक व्यापारी कृषि वस्तुओं को वायदा से जोड़े रखने की दृष्टि से यह भी बहाना गढ़ते रहे हैं कि इससे बड़े पैमाने पर जुड़कर किसान भी लाभ उठा सकते हैं। लेकिन यह सरासर भ्रम है। मौजूदा हालात में अव्वल तो गांव में इस सट्टे के खेल की सुविधाएं हैं ही नहीं। वायदा से जुड़ा साहित्य और इंटरनेट पर इसका खेल खेले जाने की सुविधाएं हैं, वे अंग्रेजी में हैं और देश का 90 फीसदी ग्रामीण अंग्रेजी और इंटरनेट से आज भी अछूता है। जिस फसल उत्पादक किसान की फसलों पर सट्टा खेला जाता है, उनमें से 82 फीसदी किसान जानता ही नहीं कि वायदा आखिरकार क्या बला है ? इस लिहाज से इसका लाभ सीधे-सीधे सटोरियें उठा रहे हैं। पिछली सरकार में विपक्ष में रही भाजपा का मानना था कि हर साल 125 लाख करोड़ का वायदा व्यापार होता है, जो देश के आम बजट से कई गुना अधिक है। देश के पांच फीसदी बड़े पूंजीपति वायदा बाजार की बदौलत ही रातोंरात धन-कुबेर बने हैं। स्वयं नरेंद्र मोदी बढ़ती मंहगाई के लिए सप्रंग सरकार की गलत आर्थिक नीतियों और वायदा कारोबार को दोष-करार देते रहे हैं। जाहिर है अब स्पष्ट बहुमत वाली भाजपा सरकार और उसके प्रधानमंत्री का प्राथमिक दायित्व बनता है कि वह अपने वायदे पर अमल करते हुए इस सट्टेबाजी पर विराम लगाएं। जिससे मंहगाई की रफ्तार पर ब्रेक लगे और आम आदमी वाकई अच्छे दिन आने का अनुभव करे।
प्रमोद भार्गव
लेखक/पत्रकार
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म․प्र․
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