वैसे तो उपरोक्त दोनों ‘वालियां’ एक ही जेंडर की होती हैं तथापि गूढ़ अध्ययन करें तो मालुम होगा कि इनमें विपरीत जेंडर का भी समावेश अलग-अलग प्रत...
वैसे तो उपरोक्त दोनों ‘वालियां’ एक ही जेंडर की होती हैं तथापि गूढ़ अध्ययन करें तो मालुम होगा कि इनमें विपरीत जेंडर का भी समावेश अलग-अलग प्रतिशत में व्याप्त रहता है.. जैसे घरवाली शादी के एक-दो साल तक तो हंड्रेड परसेंट फीमेल रहती है....घरवाली रहती है...फिर धीरे-धीरे उसमे ‘मेल’ के गुण (और अवगुण) परिलक्षित होने लगते है.. एक-दो बच्चों के बाद वह ‘जननी’ से ‘जेलर’ हो जाती है..घर की रानी से – रानी लक्ष्मीबाई बन जाती है..मर्दानी हो जाती है..पूरे एट्टी परसेंट...
अब दूसरे क्रम पर चले- ‘कामवाली’... ये होती तो घरवाली की तरह ‘फीमेल’ ही है पर इनमें भी ‘मेलवाला’ गुण कूट-कूट कर भरा होता है..जैसे भंवरा किसी एक फूल पर नहीं टिकता वैसे ही कामवाली भी एक घर में कभी नहीं टिकती..इन्हें कितना भी कुछ लो-दो, खिलाओ-पिलाओ, पुचकारो..इन्हें तो बस ‘छोड़ बाबुल का घर ‘ की तरह घर छोड़ना है यानी छोड़ना है..हाथ जोड़ो, विनती करो ..इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता…जैसे मर्दों को इधर-उधर ‘मुँह’ मारने की आदत होती है वैसे ही इन्हें नए-नए ठिकानों में बर्तन मांजने की हसरत होती है...लेकिन शाश्वत सत्य यह है की जैसे घरवाली के बिना घर,घर नहीं होता है , वैसे ही कामवाली के बिना घरवाली,घरवाली नहीं होती....बल्कि झाड़ू-पोंछा ,चौका-बर्तन करते खप्परवाली हो जाती है..“ न मांगू सोना-चाँदी, न मांगू हीरे-मोती ” की तर्ज पर उसे किसी दिल की नहीं अपितु एक अदद कामवाली की ही दरकार रहती है.. जिस घर में ये दोनों होते हैं,उसे ही एक आदर्श घर कहा जाता है...घर में घरवाली न हो और सुबह-शाम कामवाली दिखाई दे तो हंगामा..घर में घरवाली हो और कामवाली न हो तो भी हंगामा..कुल मिलाकर दोनों हंगामा ही हंगामा..
अब इन दोनों के ‘स्टेटस’. आचार-व्यवहार, चाल-चलन, क्षमता-अक्षमता, गुण-अवगुण, समानता-असमानता पर भी चर्चा करते हैं..
सबसे पहले ‘घरवाली’ की -
.क्योंकि सबसे पहले यही आती है घर में... घरवाली का चुनाव घर के बड़े बुजुर्ग और नाते रिश्तेदार करते हैं यह काफी देख-परख कर ‘वर’ के मैचिंग की लाई जाती है..अमूमन देखने में देखने लायक होती है.. घरवाली का स्टेटस सबसे ऊपर और वैध होता है..संवैधानिक तौर पर वह घरवाली ही नहीं वरन ‘गृहस्वामिनी’ भी होती है..पूरे नाते-रिश्तेदारों का उस पर वरदहस्त रहता है..उसके सुख-दुःख,आशा-निराशा,जय-पराजय आदि पूरे परिवार और समाज से जुड़े होते है इसलिए वह पूरी तरह ‘सेक्योर’ रहती है. बड़ी ही संस्कारिक होती है...पति की प्रापर्टी- जमीन –जायदाद, का हिस्सेदार होती है..घर की लक्ष्मी होती है..पर बेचारी बहुत बेचारी भी होती है....अमूमन सब घरवालियाँ एक जैसी ही होती हैं..सीधी-सरल ,निष्कपट.और निपट बेवकूफ...पति के वचनों को प्रवचन मान चलती है ..वह फ्लर्ट भी करे तो बर्दाश्त कर लेती है..पति के सारे अशिष्ट कारनामों को शिष्टता से सह लेती है..उसे हमेशा इस बात का संतोष रहता है कि वह परिवार में नंबर वन है और रहेगी..और इसी ग़लतफ़हमी में जिंदगी गुजार देती है
अब बात करते है- कामवाली की -
इनकी उत्त्पति, आदत, हैसियत, जरुरत, चाल-चलन, गुण-अवगुण और कार्य-शैली की--.पुराने ज़माने में यह केवल धनकुबेरों के घरो में पाई जाती थी..जहां घर की आबादी अक्सर तीस-चालीस से ऊपर की होती.. ऐसे घरों में कभी कोई चीज अपने ठिकाने पर नहीं पाई जाती.जैसे बबलू का टेनिसबाल, कालू का कम्पास, टिंकू की टाई, हेमा का हेयरबैंड, चाचा का चश्मा, पायल का पर्स,सोनम की शू..आदि..आदि.. इन सबको ढूँढकर सौपना ही इनका पहला काम होता .इसमें जो प्रवीण होती, वही सालों साल टिकती..यह सर्विस वो फ्री देती..पोंछा लगाने या बर्तन-चौका का ही पैसा लेती..और इतना लेती जितना कि एक स्कूल मास्टर का वेतन.. तीज-त्यौहार में बोनस के तौर पर अच्छे और मंहगे गिफ्ट अलग से..बिलकुल फ्री.. पैसेवाले लोग ही इन्हें ‘एफोर्ड’ कर पाते...
आम घरो में तो घर की माँ -बेटियां ही बर्तन-चौंका, झाड़ू-पोंछा कर लेती हैं .इन्हें इनकी कतई दरकार नहीं होती..यहाँ शादी कर स्थाई कामवाली ले आने का चलन होता है...धीरे-धीरे यह बिमारी उन परिवारों को लगी जहां पति-पत्नी दोनों नौकरीशुदा होते....यहाँ कामवाली एक साथ कई रोल निभाती.. दंपत्ति के आफिस जाने के बाद अंशकालिक गृहस्वामिनी....छोटे बच्चों की पार्ट-टाईम मम्मी..और सबसे आखिर में कामवाली ..कभी-कभी ऐसे घरों में कामवाली घरवाली का फर्ज भी निभाने लगती है....लेकिन भांडा फूटते ही घरवाली द्वारा तुरंत ‘टर्मिनेट’ कर दी जाती हैं फिर वह बिना कोई शर्मों-हया के दूसरे ही दिन मोहल्ले के किसी और घर में ‘सेट’ हो जाती हैं ..नौकरी छूटते ही दूसरी नौकरी हाजिर..ये कभी बेरोजगार नहीं रहतीं...
आज की तारीख में हर परिवार में इनकी दरकार है..क्या अमीर और क्या आम..घरवाली के बिना घर चल सकता है पर कामवाली बिना एक दिन भी भारी पड़ता है , इन्हें ढूँढना दुनिया का सबसे ज्यादा ‘टफ’ काम है..घरवाली तो थोड़े से प्रयास से मिल जाती है पर कामवाली..तौबा-तौबा...इन्हें खोजने में जान निकल जाती है..गाँव के लोग बड़े सुखी होते हैं..ये घर में ‘बहु’ लाकर ‘टू इन वन’ काम करते हैं. बेटे के लिए घरवाली और घर के लिए-कामवाली..ये दोनों भूमिकाएं गाँव की बहुएं बखूबी ‘सीता और गीता’ की तरह निभाती हैं..इसलिए गावों में कामवाली की कोई क़द्र नहीं होती पर शहरों में यह अनमोल होती हैं..’ जाने जां..ढूँढता हूँ तुम्हें....तुम कहाँ..’ जैसी स्थिति रहती है हर घर और घर वाले की..
तरह-तरह की होती हैं ये कामवालियां- कोई काली तो कोई गोरी,..कोई सुन्दर तो कोई डायन,कोई भद्र तो कोई अभद्र, कोई साफ़-सुथरी तो कोई गन्दी, कोई कानी तो कोई खोरी(लंगड़ी)...हर पति की ख्वाहिश होती है कि कामवाली सुन्दर,गोरी,और अच्छे नाक-नक्शवाली हो ..पर पत्नियाँ हमेशा उनके साथ अन्याय कर भद्दी-कानी,कुरूप ही रखती हैं..इसके पीछे उद्देश्य होता है कि पति ‘सेफ’ रहे..दरअसल ऐसा कर ये बड़ी बेफिक्री से बाकी कामों को अंजाम दे पाती हैं.. बड़े घरो की कामवालियां सुन्दर,गोरी और सुशील होती हैं.. ’ऊँचे लोग-ऊँची पसंद’...यहाँ चयन करने का अधिकार पतियों के पास होता हैं..इन घरों की घरवाली ही अधिकतर ‘कामवाली’ की तरह दिखती हैं.. इन घरो में कभी जाएँ तो निश्चित ही ‘कामवाली’ को ‘भाभी’ और ‘भाभी’ को ‘कामवाली’ समझेंगे .पर घर मालिक ऐसा कतई नहीं समझते..बड़े लोग घरवाली और कामवाली को समान दर्जा देते हैं..बल्कि कामवाली को घरवाली से भी ज्यादा महत्व देते हैं...इसलिए कभी कामवाली काकाजी के साथ सिनेमाहाल में दिख जाती है तो कभी भतीजे के साथ ‘माल’ में...ऐसे घरों में कामवाली कई-कई साल टिक जाती है वरना हर किसी को शिकायत रहती है कि ये मछली की तरह होती हैं..कब हाथ से फिसल जाए..पता नहीं चलता..फिर ढूँढते रहो..
कुल मिलाकर कहें तो घरवाली-कामवाली एक दूसरे की पूरक होती हैं..दोनों मिलकर ही परिवार को ठेलती हैं..लेकिन कभी-कभी इन दोनों का स्थानापन्न एक और निरीह प्राणी भी होता है..जैसे फिलहाल मैं....घरवाली तो सुबह से दो-तीन उल्टियाँ कर बिस्तर में कैरी के मजे ले रही है...और अभी-अभी का ‘ब्रेकिंग न्यूज’ है कि कामवाली आज नहीं आने वाली... वह भी अपने घर में उल्टियों का मजा ले रही..अब ऐसी स्थिति में घर का चौका-बर्तन मुझे ही करना है.. तो चलता हूँ दोस्तों.....फिर मिलेंगे...
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- प्रमोद यादव
गया नगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़
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अच्छो रचना।
जवाब देंहटाएंघरवाली और कामवाली क्या विलक्षण तुलना
जवाब देंहटाएंकी है प्रमोदजी आपने एक दम सही द्रश्य दिखाया पर अंत में जब दोनों ही उपलब्ध नहीं
तो भाई मोर्चा तो संभालना ही पड़ता है अच्छी
रचना बधाई
श्री अखिलेशजी...घरवाली हमारे लिए क्या कुछ नहीं करती..कभी-कभार उनका भी काम कर देने में क्या बुराई है..टिपण्णी के लिए शुक्रिया..धन्यवाद...प्रमोद यादव
हटाएंबढिया व्यंग
जवाब देंहटाएंश्री अयंगर जी...धन्यवाद...प्रमोद यादव
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