एस. के. पाण्डेय नगदेश्वर की माया (हास्य/व्यंग्य कविता) (१) नगदेश्वर की राह निहारूँ देख के आहें भरता हूँ । नगदेश्वर जब तक न मिलते फाइल रोके...
एस. के. पाण्डेय
नगदेश्वर की माया (हास्य/व्यंग्य कविता)
(१)
नगदेश्वर की राह निहारूँ देख के आहें भरता हूँ ।
नगदेश्वर जब तक न मिलते फाइल रोके रखता हूँ ।।
नगदेश्वर जब मिल जाते तो काम फटा-फटा करता हूँ ।
नगदेश्वर ही मेरे ईश्वर नगदेश्वर को भजता हूँ ।।
(२)
नगदेश्वर को समझे ईश्वर, ईश्वर को जग भूल गया ।
जिसको मिले नगदेश्वर भैया उसका मन ही फूल गया ।।
नगदेश्वर की महिमा न्यारी सूल को भी फूल किया ।
नगदेश्वर को पाकर देखो इज्जत ने इज्जत धूल किया ।।
(३)
ईश्वर घट-घट वासी हैं नगदेश्वर कहाँ न मिलते हैं ।
मंदिर में जगदीश्वर रहते नगदेश्वर वहाँ भी चलते हैं ।।
नगदेश्वर को लेकर देखो चेला गुर से लड़ते हैं ।
नगदेश्वर को पाने खातिर लाख जतन जन करते हैं ।।
(४)
जगदीश्वर कहाँ नगदेश्वर आए इनके बिना सारा जग सूना ।
नगदेश्वर को लोग खोजते बाम्बे से देलही पूना ।।
नगदेश्वर जो पास बिठाते नहीं कहें आए तूँ ना ।
नगदेश्वर के लिए लगाते अपनों को अपने चूना ।।
(५)
नगदेश्वर ने पहुँच बढ़ाया बचा नहीं कोई कोना ।
काम करा दें सारे ये हो जाये जो भी न होना । ।
इनके बिना जग बात न पूछे रो लो हो जितना रोना ।
नगदेश्वर से मिलते देखो हीरे, मोती, चाँदी, सोना ।।
(६)
मछली भी माँगे नगदेश्वर चाहे जल से नाता छूटे ।
नगदेश्वर पाऊँ किस्मत कहती चाहे किस्मत ही फूटे ।।
रिश्ता भी माँगे नगदेश्वर रिश्ता ही क्यों न टूटे ।
नगदेश्वर को पाकर देखो अमृत भी बिष को घूँटे।।
(७)
नगदेश्वर का मद ही ऐसा सारे जग को भरमाया है ।
लोग न चाहें करना जो भी नगदेश्वर ने करवाया है ।।
नगदेश्वर ने ही जग में कितनों का ईमान डिगाया है ।
जग वाले सब नाचनहारे सबको नाच नचाया है । ।
(८)
घर हो बाहर सभी जगह नगदेश्वर ही छाया है ।
साधु संत वैरागी को भी इसने ज्ञान भुलाया है ।।
नगदेश्वर को सभी संभालें ऊपर से कहते माया है ।
सच पूछों तो बात सही सब नगदेश्वर की माया है ।।
(व्यंग्य ‘नगदेश्वर की महिमा’ का संक्षिप्त काव्य रूपांतरण ।)
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डॉ. एस. के. पाण्डेय,
समशापुर (उ.प्र.)।
ब्लॉग: श्रीराम प्रभु कृपा: मानो या न मानो URL1: http://sites.google.com/site/skpvinyavali/
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विजय वर्मा
ग़ज़ल
तस्वीरें देखकर वहाँ के हालात पता चलते है
उनकी आँखों से उनके दिन-रात पता चलते है।
रेशम के चिलमन से ढ़क दी मुफ़लिसी, मगर
रेशम में पैबंद,और पैबंद के टाट पता चलते है।
ये वो जहाँ तो नहीं जिसे खुदा ने बनाई थी
ये तेरे खुद के बनाए कायनात पता चलते है।
ज़ायज़ा लेने को एक झलक काफी है,बस एक
झलक से डाल -डाल ,पात-पात पता चलते है।
नाने-खुश्क के इंतजाम में गुज़रती है जिनकी उम्र
उन्हें कहाँ ईद ,कहाँ सब-ए बरात पता चलते है।
उनके झूठें वायदों पर क्या कोई इत्मीनान रखे
उनकी हरकतों से उनके ख़यालात पता चलते है।
बेज़ार से लोग है; उन्हें कभी बेकार मत समझो
वक़्त पे जनता के शह -औ-मात पता चलते है।
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जीवन
नदी है
नाँव है
हिचकोले तो होंगें ।
सूरज है
झाड़ियाँ है
शोले तो होंगें
यूँ भी नहीं है
आप सिर्फ श्रोता रहें हों
आप भी जरूर कुछ
बोले तो होंगें।
माना सब बातें
तुम्हें पता नहीं,पर
कुछ राज़ उसने
खोलें तो होंगें ।
इतनी तपन
और इतने अंगारे
झुलसाये भले ना
फफोले तो होंगें ।
जरा भी माधुर्य
बाकी रहा ना !
कुछ तो मिठास उसने
घोले तो होंगे ।
सच कहो ,
गलत कह रहा हूँ ?
दिल आप अपना
कभी टटोले तो होंगें ।
आज दुनियाँ ने
सीखा दी दुनियादारी
हम भी कभी बच्चे
कभी भोले तो होंगें ।
V.K.VERMA.D.V.C.,B.T.P.S.[ chem.lab]
vijayvermavijay560@gmail.com
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सुशील यादव
हो सके तो ....
हर निगाह चमक, हरेक होठ, हँसी ले के आओ
हो सके तो, कमजर्फो के लिए, जिंदगी ले के आओ
इस अँधेरे में दो कदम, न तुम चल सकोगे, न हम
धुधली सही ,समझौते की मगर , रोशनी ले के आओ
कुछ अपनी, हम चला सकें, कुछ दूर तुम चला लो
सोच है ,कागज़ की कश्ती है ,नदी ले के आओ
चाह के, ठीक से पढ़ नहीं पाते, खुदगर्जों का चेहरा
पेश्तर किसी नतीजे, हम आये , रोशनी लेके आओ
सिमट गए हैं, अपने-अपने दायरे, सब के नसीब
‘पारस’ की जाओ, कही ढूँढ के, ‘कनी’ ले के आओ
खुदा तेरे मयखाने, जाने कब से, प्यासा है ये ‘रिंद’
किसी बोतल ,किसी कोने ‘बची’, ज़रा-सी ले के आओ
१५ जून १४
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लुकेश कुमार वर्मा
गजल 1.......
अश्कबार होता रहा
अश्क बार होता रहा गर्दिशे दौरा सताता रहा मुझको
यकीनन चिरागो अश्क बुलाता रहा मुझको।
कुछ वहशत थी तबस्सुमो में नवाए-दर्द में
उलझा रहा मैं भी वो उलझाता रहा मुझको।
दश्तों की भीड़ में तन्हा फिरता रहा मैं भी
यूं देखकर शबे फिराक में तड़पाता रहा मुझको।
सुकूं मिलता मुझे कभी इस जहां में
हर वक्त अपनी तसन्नो से सहलाता रहा मुझको।
गैरतमंद हुए थे हम भी महफिल में उनकी
पर अब गैरों में शामिल कर रहा मुझको।
सरेराह गुजर गए यूं आशियाने से उनको
क्यूं आशियानों में बुलाता रहा मुझको।
गजल 2......
खयालात तेरे पुराने
खयालात तेरे पुराने रकीब से कुछ मिला करे
पास मेरे आओ कि दिल मेरा खिला करे।
कही शरारत सी निगाह से न देखना
कि यादों में तुमसे हम मिला करे।
चॉद सी शीतलता सी रहे अब भी
कि गुस्से से ना इशारा कोई किया करे।
दम भरते थे वो मोहब्बत का कभी
गैरों से लिपट कर हमसे मिला करे।
गजल 3.....
रात का ख्वाब
अनजान ख्वाहिशें मद्धम मद्धम चला करती है
यादों के समंदर में लहरो सी लहराती है।
ऑखों की कशिश जान न ले मेरी,
ये काजल भी ऑखों की नींद चुराती है।
है यादों के भंवर में फैला आंसू
कभी कभी और भी तन्हा कर जाती है।
होता हूं और कही गुम मैं,
उनकी याद उनकी ओर ले जाती है।
गजल 4....
मेरे दिल में है
हो न सकी जो बात मेरे दिल में है,
अजीब सी खयानात मेरे दिल में है।
टूटता तारा आसमां का जमीं हकीकत की,
ठहरा हुआ मंजर और कश्मकश मेरे दिल में है।
कौन आया था मेरे ख्यालों में इस तरह,
बस हर तरफ अंधेरा मेरे दिल में है।
उसका इंतजार रहेगा अब हर शू
तन्हा तन्हा उसकी तस्वीर मेरे दिल में है।
जुल्फ उलझी उलझी इस जिंदगी की,
और टूटते जज्बात मेरे दिल में है।
गजल 5....
न करार मिला
न कही दिल को सुकूं न करार मिला
हर तरफ उलझन तार तार मिला।
फैसले उनकी भी रहे कुछ इस तरह,
न ही खुशी और न ही गम मिला।
रूखसत ही थी मेरी जिंदगी से,
लम्हा लम्हा वो मेरे दिल के पार मिला।
कौन रोक देता था उस पल को,
जिसे चलने में एक जहां और मिला।
खयालात ही नहीं मिलते थे उसके,
एक चमकता खंजर उसके पास मिला।
गजल 6....
यूं दामन खो गया
यूं दामन खो गया चॉद अब सितारों में दूरी बढ़ी,
इक हसीन ख्याल के लिए एक और सोच बढ़ी।
निगाहे हसरत भरी उनकी नजरों में हम,
राह भटका भी और मंजिल की तरफ बढ़ी।
उम्मीद न थी आज उनसे बिछुड़ने की,
अब तो दूर जाने की भी हसरत बढ़ी।
कुछ चंद मुलाकातों में किस्से खत्म हुए,
सफर के अनजान यादों की चाहत बढ़ी।
गजल 7.....
जिंदगी के सफर
चलते रहे सफर में मंजिल की तलाश में
जो बहते चले किनारों से वो हम थे।
मिलके मंजिल से हम इतने करीब से
करीब आके दूर जाने वाले हम थे।
समझौता उनकी जिंदगी का शायद मैं
है हुस्न पे गुरूर उनको इतना
लफ्जों से कह देते कुछ तो शायद
पर कहने वाले वो न थे सुनाने वाले हम थे।
मैं न जख्म दबा पाया अपने
न वो मोहब्बत निभा पाई हमसे
जख्म देने में आता है उनको मजा
और जख्म सहने वाले हम थे।
गजल 8...
क्यूं हो
ऑखों की कशिश से बुलाते क्यॅू हो
पास आके दूर जाते क्यॅू हो।
है रकीब तेरे और भी बहुत इस जहॉ में
उनके साथ आके मुझे जलाते क्यॅू हो।
करती है आईना तुम्हारी जिंदगी को बयॉ
हर रात फिक्र करती है तुम्हारी ऑखों का
नींद से जाग के कर न बैठे कुछ
ऑखों की नींद चुराते क्यॅू हो।
मैं न एक ख्वाब न हकीकत
चंद मुलाकातों में सजाये सपने
सपनों में उसको बुलाते क्यॅू हो
गैरों को अपना बनाते क्यॅू हो।
समझ न पाया मै ताकीद तेरी
हर अधूरी सॉस की ख्वाहिश तेरी
लम्हा लम्हा गुजरती तुम्हारी याद
हर यादों में मुझसे टकराते क्यॅू हो ।
कुछ जीवन की गहराई समझता मैं
या समझती मेरे दिल की हालत
अपना बनाके मुझको एक पल में
अपने रकीब के साथ जाते क्यॅू हो ।
गजल 9....
और भी है
पलको के सिरहाने में आंसू और भी है
जहां में प्यार के बाद कुछ और भी है।
बेचैन समंदर भी रहता है किसी के लिए
लहरो का इंतजार उसे और भी है।
ये दर्द का अहसास होगा उसे भी
उसका इंतजार किसी और को भी है।
एक चेहरा नहीं वो खूबसूरत इस जहां में
इस जहां में आईने और भी है।
गजल 10.....
हकीकत चंद ख्वाबों की तरह
हकीकत चंद ख्वाबों की तरह होते हैं
यूं रात के आईने अजीब होते हैं।
बहला लेते हैं सूरत अपना देखकर
ये उजालो में और भी रंगीन होते हैं।
तमन्ना की भी उन्हें पाने की
जमाने के सितम करीब होते हैं।
होता रहा उनकी अदा से कायल
ये अदा भी धोखे की उम्मीद होते हैं।
कर रहा जमाने से परदा वो भी
उनके दामन में परदे भी शरीफ होते हैं।
लुकेश कुमार वर्मा
ग्राम गोढ़ी, तहसील- आरंग
जिला - रायपुर (छ.ग.)
पिन- 492101
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अंजली अग्रवाल
हम सब दौड़े जा रहे हैं.....
रास्तों को देखे बिना , मंजिल की ओर बढ़े जा रहे हैं....
जो रास्ते ना मिले तो , इंसानों को ही सीढ़ी बनाते जा रहे हैं....
आगे क्या होगा इसकी फ्रिक किसको है , सब आज में जिये जा रहे हैं....
सही और गलत के तो , मायने ही भूलते जा रहे हैं......
रूकने की फुरसत कहाँ है किसी को इस दौड़ में , हम अपनों को ही पीछे छोड़े जा रहे हैं....
क्या पाया ये सोचा किसने है , और क्या पाने के लिये दौड़े जा रहे हैं....
एक बार तो पीछे मुड कर देखो मेरे दोस्तों , हम जिन्दगी तो पीछे छोड़े जा रहे हैं....
हम सब दौड़े जा रहे हैं.....
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-- मनोज 'आजिज़'
ग़ज़ल
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दिल में नफ़रत लिए अमन की बात करते हैं
हाथों में कटार लिए चमन की बात करते हैं
वो खफ़ा हैं मुझसे पूरे होश ओ हवास में
बात उस पर हो तो वहम की बात करते हैं
दिन-रात लगे हैं लोग ख़ुद की ख़िदमत में
मुश्किल से दो दिन वतन की बात करते हैं
ख़ुद की ज़िंदगी में कोई खास लहज़ा नहीं
लोगों से महफ़िलों में जतन की बात करते हैं
आज ज़िंदगी में ज़िन्दगी की तिश्नगी है यार
जीते जी अक्सर हम कफ़न की बात करते हैं
( शायर बहु भाषीय युवा-साहित्यसेवी हैं, अंग्रेजी शोध-पत्रिका 'द
चैलेन्ज' के संपादक हैं और अंग्रेजी भाषा-साहित्य के अध्यापक हैं । इनका
८ कविता-ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुका है )
पता- इच्छापुर, ग्वालापाड़ा, पोस्ट- आर आई टी
जमशेदपुर- १४ , झारखण्ड
mail- mkp4ujsr@gmail.com
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राजेन्द्र भाटिया
कविता
‘‘टैंशन (परिभाषा, कारण व समाधान)''
प्राब्लम जब बने उलझन, होता है तब टैंशन।
जो हो रहा है, और होना चाहिए, में का फर्क, जब व्यक्ति को करे बेचैन,
होता है तब समस्या का जन्म, और शुरू होता है तब टैंशन।
जब समस्या हो व्यक्ति के बस में,
तब हो सकता है खतम, टैंशन।
पर जब समस्या न हो व्यक्ति के बस में,
और निर्भर हो दूसरों के सहयोग पर,
तब वक्त लग सकता है, दूर करने में टैंशन।
जब समस्या किसी भी व्यक्ति के बस में ना हो।
तब सिर्फ ईश्वर की प्रार्थना ही, दूर कर सकती है टैंशन।
समय पर समस्या को दूर ना करने पर भी, होता है टैंशन,
जितनी पुरानी समस्या, उतना बड.ा होता है टैंशन।
समस्या को टालने की बजाए, इसे फेस कर,
दूर करने में होता है खत्म टैंशन।
समस्या को सही समझना जरूरी है,
ताकि उचित प्रयासों से खत्म हो टैंशन,
अगर समस्या को सही समझने में हो काई कनफ्यूजन,
तब लिखकर समस्या को बयां करें, फिर पढ़े, कनफ्यूजन दूर करें,
जल्द होगा खत्म तब टैंशन,
यही है, प्रोवन जापानी तरीका, खत्म करने का टैंशन।
चाहतें यदि जरूरतों से ज्यादा हों,
तब लेता है जन्म टैंशन।
व्यक्तिगत जरूरतों को, करें हम कम,
घए जाएगा तब टैंशन।
सच का पकड़े रहे दामन,
नहीं रहेगा, तब टैंशन,
अच्छी हैल्थ से होता है, अच्छे विचारों का जन्म,
हैल्थ पर भी पूरा हो ध्यान, व्यायाम का हो जीवन में उचित ध्यान,
नहीं होगा तब टैंशन।
कठिन परिस्थिति में भी, रखे चेहरे पर मुस्कान,
आसान होगा तब टैंशन का समाधान।
वाणी पर रखो पूरा नियंत्रण, जब हो टैंशन,
नहीं बढ़ेगा तब टैंशन।
अपने हितकारी को, खुलकर बताएं टैंशन,
सलाह और सहयोग से, करें खत्म टैंशन।
विषय के विशेषज्ञों की जरूरत ले सलाह, और करें इसका पूरा पालन,
जल्द खत्म होगा तुम्हारा टैंशन।
क्रमश․․․․․2
- 2 -
बचे औंरो की करने से आलोचना,
यदि चाहते हो दूर रहे टैंशन।
औरों के अच्छे काम व गुणों का, खुले दिल से करो एप्रीसिएशन,
नहीं पनपेगा तब कोई टैंशन।
यदि कर दे तुम्हारा कोई नुकसान,
तो तुरंत क्रोध की बजाए, करो विश्लेषण,
और खोजों कारण एवं इन्टेशन,
यदि इन्टेशन ना हो दूसरे का तुम्हे करने का नुकसान,
तो हो सके तो कर-दो उसे माफ,
दो उचित ज्ञान, ताकि ना हो सके दोबारा नुकसान,
तो धैर्य से उसे समझाओं, और दोबारा ना हो सके नुकसान,
इसका करो इतमिनान,
हो सके तो दूसरे के इन्टेशन का कारण ढूंढो,
और करो उस कारण का भी निदान,
ताकि वो बने तुम्हारा हितैषी, और ना करे कोई नुकसान,
और यदि सभी प्रयत्न हो जाए विफल, तो उस व्यक्ति से कर लो अपने को दूर,
या फिर, उसके बुरे इरादों का करो मुंह तोड़ जवाबे ऐलान,
लड़ाई का भी हो रास्ता कानूनन,
ताकि आ ना सके कोई अनड्यू टैंशन।
रिश्तों में ना पड़े दरार,
निभा ना सको, करो मत ऐसा इकरार,
रखो मत ज्यादा किसी से एक्सपेक्टेशन,
चाहते हो यदि ना पनपे टैंशन।
रचयिताः राजेन्द्र भाटिया
27, फ्लेट नंबर 202, सीता रेजीडेन्सी,
रामगली नंबर 8, राजापार्क,
जयपुर-302004 (राज․)-भारत
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अमित कुमार सिंह
आत्म-कारावास
हम कुशल अभिनेता हैं, बस सुखी दिखने का सामाजिक-अभिनय करते हैं,
अन्यथा,दुख हमारी आत्मकथा है,
अहंकार इसकी पाण्ड़ुलिपि,
शिकायत पृष्ठभूमि, और प्रेमशुन्यता, इसका बदरंग कलेवर,
हमारी अदृश्य-दृष्टि एक ऐसा रेश्मी-कारावास बुनती है
जिसमे हम घुट,टूट और रूठ कर जीते और मरते हैं,
यद्यपि,आशा हमे सांत्वना देती है, और कल्पना भी एक महीन मायालोक रचती है, जिसमें वर्तमान का कोई ठौर- ठिकाना नहीं होता, बस आने वाले कल का, कोई हसीन स्वपन होता है, या फिर, अतीत का,
कोई नुकीला चुभने वाला अफसोस.,
ईश्वर हमारा एक मानसिक सौदा है भय और लालच का, धर्म हम-बेचारों का एक आध्यात्मिक नशा होता है फौरी- राहत का, स्वर्ग और नरक भी बस एक ख्याली पुलाव है, अन्यथा स्वीकार-भाव तो स्वंय, स्वर्ग की मस्ती है ही,
और नरक, अस्वीकृति के अतिरिक्त, भला,और क्या है?
मोबाइल,टीवी और लैपटॉप जैसे
वस्तुओं की, विवाह जैसे अंतरंग संगति में, हम यंत्रवत-आदत में जीते हैं,
सदा, बाहर सुख तलाशते हैं, किसी व्यक्ति,वस्तु,विचार,
स्थान,दृश्य या अनुभव में, अंतस के आनंद के, सुख से वंचित, परंतु,बाहर सुख की हमारी तलाश, सदा जारी रहती है, इस अंतहीन,निरूद्देश्य और उमंगहीन यात्रा में, कब थके-हारे जीवन को, अनायास,अलविदा कहने का डरावना वक्त आ जाता है, हमे इसका इल्म ही नहीं होता, अमूमन यही हमारी जिंदगी का, दुखद उपसंहार होता है.,
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देवेन्द्र सुथार
शपथ-ऊर्जावान
अब मैँ जाग गया हूँ और
आज से ही नए जीवन की
शुरुआत करनी है।
अब मैँ कर्म क्षेत्र मेँ
उतरकर संघर्ष करुंगा।
और किसी विजेता की तरह
संसार के सुख-ऐश्वर्य पर
अधिकार जमाऊंगा।
यह मोटर-कारेँ,बंगले,हीरे-मोतियोँ मेँ
परमात्मा ने मेरा हिस्सा भी रख छोडा है।
और मुझे कर्म करके
कठोर मेहनत करके
सूझ-बूझ से अपनी शक्तियोँ को जगाकर
मुझे अपना हिस्सा हक हासिल करना है।
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अशोक बाबू
धूप में
धूप में
खड़े
अनमने
पेड़ बबूल के
नीम के I
झाड़-झकूटे लताएँ
हरी घासें
समेटे हाथों को I
तनिक लहराती
सजाकर
सिर पर नुकीले
तीरों को I
हवाओं के पथ पर
अडिग होकर
मनचले नन्हे पोधे,
दिखाते छाती को
आँखों को
गुस्से से I
शहरों में
शहरों में
इमारतें
सीना तान खड़ी
चूमती गगन को
रवि को
चाँद को I
गाँव में
कच्ची दीवालें
मिट्टी के ढेर
सूखी घास के
छप्पड़
गली में
मौहल्ले में I
सूमसाम घने
जंगल में
आवाजें जानवरों की
डराती,
रुलाती,
चबूतरे पर बैठे इंसान
फूँकते हुक्का
नादान से
धुआँ
अनगिनत छल्लों में I
ग्राम-कदमन का पुरा,तहसील-अम्बाह,जिला-मुरैना(म. प्र.)476111
ईमेल.ashokbabu.mahour@gmail.com
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बजरंग यादव
हवायें कुछ कह जाती हैं
बहती तेज हवायें अक्सर कुछ कह जाती हैं,
सरसराती हुई वो कितने करीब से गुजर जाती हैं,
ठंडे-गरम एहसासों को अपने में समेटकर,
रिमझिम सी फुहारें धरा पर ले आती हैं,
बहती तेज हवाएं अक्सर कुछ कह जाती हैं...
बूंदों की तरंग, सोंधी मिट्टी की महक
एक अलग एहसास मन में बसा जाती है
थोड़ी खुशी थोड़े गम के बूंद, वो पलकों पर छोड़ जाती है,
नमीं इन एहसासों की आंखों में बिठाकर वो जाने कहां खो जाती है,
बहती तेज हवाएं अक्सर कुछ कह जाती हैं,
गांव के खेत, बचपन की ठिठोली,
वो कागज की नाव और बच्चों की टोली,
नंगे पांव दौडऩा और भोली सी हंसी,
बचपन की बीती वो सारी बयां कर जाती है,
बहती तेज हवाएं अक्सर कुछ कह जाती हैं,
कभी पर्वत के पल्लू पर कोहरे का डेरा,
वो हरी-हरी घांस और वो सुनहरा सवेरा,
मूंगफली के खेत में माली का पहरा,
नीली चादर को वो ढंकता अंधेरा,
और कड़कती बिजलियां मन को विचलित सी कर जाती है
बहती तेज हवाएं अक्सर कुछ कह जाती हैं,
बजरंग यादव
बेलादुला खर्राघाट रायगढ़ (छ.ग.)
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रमाकांत यादव
नसीहत
तेरी आँखों मेँ हर लम्हा
मेरे ख्वाबोँ का डेरा हो!
जब-जब भी आँखें खुले मेरी
सामने तेरा चेहरा हो!
जिँदगी मेँ बहुत चल चुके हम
अँधेरी राहोँ मेँ,
अब कोई राह ऐसी भी चुनो
जिसमेँ कहीँ तो सबेरा हो!
तुम शौक से रचाओ अपने हाथोँ मेँ
गैरों के नाम की मेँहदी
बस मेरी एक नसीहत याद रखना,
जब होने लगे बंद मेरी आँखें
तेरे हाथों में हाथ मेरा हो!
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1 लोग कहते हैँ मुझे पागल
क्योँकि मैं दर्द की किताब लिखता हूँ!
दिल की गहराईयोँ मेँ पनपते दर्द का
सारा हिसाब लिखता हूँ!
गमगीन आँखोँ की पलकों पर सजे
खूबसूरत सितारोँ के,
हर प्रश्नोँ का जवाब लिखता हूँ!
रमाकाँत की नजरोँ मेँ न कोई पत्थर न कोई शूल है,
मैं हर किसी को गुलाब लिखता हूँ!
2 जिसको भी दिल से मैंने अपना माना
आज वही बेगाने हो गये!
कल तक जो पूछते थे रास्ता मुझसे अपनी मँजिल का,
आज वो हमसे भी सयाने हो गये!
हम उनकी यादोँ मेँ जलेँ तो क्योँ न जलेँ,
जब वो शमा और हम परवाने हो गये!
यह जमाना मुझे मजनूँ कहे या पागल इसका कोई गम नहीँ,
अब तो खुदा की भी नजरोँ मेँ
हम दीवाने हो गये!
3 आजकल खुद को देख रहा हूँ
मैं इतना बेचैन,
आँखोँ मेँ हमेशा आँसू
दर्द मेँ आनन्द,
अकेले मेँ मुस्कुराना और
उनके दीदार की चाहत,
लेकिन मुलाकात पर नजरेँ चुराना
ऐसा लगता है जैसे मुझे---------
किसी से प्यार हो गया है!
4 रास्ते का काँटा
अब वक्त हो चला है मेरा
इस जहाँ से जाने का,
और मैं तैयार भी हूँ!
लेकिन तुम्हारी आँखोँ से
क्योँ झरने बहे जा रहे हैं!
क्योँ तुम खुद को इतना तन्हा
महसूस कर रही हो,
क्योँ तुम्हारे होठोँ पर मुस्कुराहट के बदले
खामोशी की घटा छायी है!
अरे! तुम्हें तो खुश होकर उठानी चाहिये मेरी मैय्यत,
क्योँकि आज तुम्हारे रास्ते का काँटा साफ हो गया!
रमाकान्त यादव ,क्लास 12
नरायनपुर,बदलापुर ,जौनपुर, उ¤प्र¤
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अमित कुमार गौतम ‘स्वतंत्र‘
मेरा बचपन
मेरा बचपन
कितना सुन्दर था
हर कोई
प्रेम करता था
कितना सुन्दर
लगता का जब
उन खिलौनों से
खेलता था
न जिन्दगी की
फिक्र थी
ना ही
दुनिया की जिक्र थी
मेरा काम
खाना और खेलना था
क्योंकि मैं
अबोध बालक था
देर शाम तक
राह देखता
दादा जी के
आने का
उनके आते ही
मॉ के गोद से
उछलना
फिर दादा के
कन्धों में चढ़ना
दादा का वह प्रेम
वह दुलार
देखने लायक होता
मैं भी
कम शरारती ना था
रोज उनकी
कुर्ती को
गन्दा कर देता
दादा जी तो थे
कड़क स्वभाव के
लेकिन वो
कुछ ना कहते
शायद मेरा बचपना
अच्छा लगता था
मेरा बचपन तो
मॉ के पास
कम ही गुजरा होगा
क्योकि मैं
सभी का
नन्हा सा
यारा था
अपने दादा का
तारा था
कब ये
मेरा बचपन
किताबों से
मित्रता कर लिया
और इन्हीं
चार किताबों का
हो गया
किताबें मरे बचपन
को छीना है
लेकिन
एक अच्छा
इंसान तो भी
बनाया है
कितना खूब
सूरत था
मेरा बचपन
दादा-दादी
का वह प्यार
दुलार
जिसे याद कर
आज
अपनी आँखें
नम हो गई।
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bahut khoob manmohak kavitaye hai! dhanybad
जवाब देंहटाएंnagdeshwere bahut hi sundar rachana hai: Shankar
जवाब देंहटाएंसुंदर सुंदर कविताओ का संकलन | सभी कवियों को बहुत बहुत आभार ...
जवाब देंहटाएंTHANKS RAVI SIR JI
जवाब देंहटाएंDhanyavad Umesh ji, Amit ji
जवाब देंहटाएंManoj Aajiz
Jamshedpur
सभी रचनाकारों की कविताएं तारिफ-ए-काबिल हैं.... आप सभी का आभार.....
जवाब देंहटाएंSabhi kavitayein bahut achchhi hai
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