सुनील कुमार ''सजल''' के 2 व्यंग्य

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व्यंग्य - भाई :घर से अंडरवर्ल्ड तक इधर कुछ दिनों से देख रहा हूँ अंडरवर्ल्ड पर आधारित फ़िल्में कुछ ज्यादा ही आ रही है हैं। ऐसी फिल्मों को तीन...

व्यंग्य - भाई :घर से अंडरवर्ल्ड तक

इधर कुछ दिनों से देख रहा हूँ अंडरवर्ल्ड पर आधारित फ़िल्में कुछ ज्यादा ही आ रही है हैं। ऐसी फिल्मों को तीन घंटे तक सांस देने का काम 'भाई ' करता है। भाई न गुजरात में लिखे जाने भाई सरनेम वाला होता ,न पड़ोसी या रिश्ते का भाई या अंग्रेजी का शब्द - ब्रदर। वह सिर्फ 'भाई होता है। अंडरवर्ल्ड का कुख्यात खलनायक। जिसकी डिक्शनरी में प्रेम ,संयम ,ब्रम्हचर्य व दया के विरुद्धार्थी शब्द होते हैं।

जब से भाई लोगो का धमाका लाइट में आया है। फिल्म निर्माताओं ने भी चोर उचक्के व डाकुओं को विलुप्त प्राणी समझ लिया। मान लो इन पर फ़िल्में आती भी हैं तो 'नटवर लाल जैसी चालाकी व चम्बल के डाकुओं जैसा जोश ख़रोश नहीं होता। और न ही आवाज़ में वह दम कि सीधा सादा आदमी देखते ही मूत मारे।

अंडरवर्ल्ड का भाई ब नना व पनामा नहर को तैर कर पार करना एक समान है। बही बनने के लिए गुर्गा गिरी करते हुए अपने वर्ल्ड के भाइयों को सुलटाना पड़ता है मेरे भाई। गद्दारी और भाई का वही सम्बन्ध होता है जैसे सावन के साथ बरसाती झड़ी का। बारूद ,नशा ,हथियार ,कीमती धातुयें भाई के लिए 'लक्ष्मी ' होती हैं और गुर्गे उल्लू।

भाई की अर्थव्यवस्था भारत सरकार के घाटे के बजट से मजबूत होती है। भाई का क़ानून बेहद सख्त होता है। आयकर विभाग की आँख में धूल झोंक कर टैक्स चुराने वाली रईसजादी जनता उसे बड़े प्रेम व आदर सहित हफ्ता बंधा व महीना बँधा स्वरूप टैक्स देती है। आप ही तो हमारे यमों से बचाने वाले देव हैं भाई। भला आपको भोग -प्रसाद चढ़ाए बगैर क्या हम प्रगति की सांस ले सकते हैं। '

यूँ तो फिल्मों में भाई लोगो की कुछ किस्में दिखाई जाती हैं। मसलन गाँधीवादी भाई या हिटलरवादी या फिर दोनों का सम्मिश्रणवाद। कुछ फिल्मों में भाई का कलेजा लगभग ढाई घंटे तक हिटलरी होता है। फिर ज्यों फिल्म अंत की ओर बढ़ाती है। वह देश प्रेमी होता जाता है। जो पहले देश के साथ गद्दारी करता रहा था ,अब देश प्रेमी होता है। कभी -कभी वह हीरो के संग मिलकर अपने ही गैंग का सफ़ाया अपनी गद्दारी का परिचय देकर करता है। मगर अंडरवर्ल्ड के असली भाई ?उनके बारे में तो आप भी जानते हैं मेरे भाई !

एक बार हमारे मित्र ने कहा -''अगर इस देश में भाई लोगों का अंडरवर्ल्ड न होता बड़ी शांति रहती। '

''पागल हो गए हो क्या ?'' हमने कहा

''क्यों ?''

''सुरक्षा एजेंसियों में देश के बेरोजगारों को क्या नौकरी मिल पाती। बेचारे इधर उधर

भटकते हुए सड़क नापते। फिल्म निर्माताओं के लिए नई फ़िल्मी कहानियों का अकाल हो जाता। वैसे भी आप घिसी पिटी मुम्बईयां फार्मूले वाली फिल्मों का हाल तो जानते ही हैं। ''इधर भाई लोगों ने अपने वर्ल्ड में भटके युवकों को गुर्गे के रूप में रोज़गार भी दे रखा है। फिर आप रोज़गार प्राप्ति का सकारात्मक पक्ष क्यों नहीं देखते। ''

फिल्म में भाई की एक से अधिक अश्लील आव भाव व वेषभूषा वाली प्रेमिकाएं होती हैं। जो भाई को तन-मन इ मनोरंजन करती हुई अपने रोमांटिक दृश्यों से सीरियस दर्शकों में भय कुलबुलाहट पैदा करती है।

भाइयों के नाम आम नामों की तुलना में अजीबो -गरीब होते हैं जो उनके वजनदार व्यक्तित्व को स्पष्ट करते हैं। जैसे मूसा। काउच ,मुगेम्बो ,टल्लू।

भाई अंडरवर्ल्ड के हों या फिल्मों के। उनमें पुलिस व नेता को खरीदने के पूरे तानाशाह गुण होते हैं। जो समयानुसार भाई के दरबार में हाजिरी देते हैं। अगर ईमानदार सुरक्षा अधिकारी होता है तो वह फिल्मों में हीरो। जो सुरक्षा एजेंसी के कुछ ईमानदारों का फोटो स्टेट होता है।

असली भाई लोगों को तो पूरी दुनिया जानती है। जिनका अनैतिक कारोबार एक देश तक सीमित नहीं रहता।

हमारे यहाँ 'भाई जी 'शब्द सम्मान स्वरूप प्रचलित है। ''भाई'' के साथ'' ''जी '' इसलिए जोड़ा गया। ताकि ''भाई'' को ''भाई'' न समझ लिया जाए। हालांकि जो भैया या भाई साब होते हैं ,वे भी मुखौटे में ''भाई '' ही गए हैं।

पिछले दिनों एक घटना है। दो भाई साहबों में प्रॉपर्टी को लेकर ''भाईगिरी''आ ही गई। मसाला प्रॉपर्टी में हक़ मारने का था। भाई ने अपने भाई साब को धमकी देते हुए कहा था -''देखो यार भैया , तुम हमारो हक़ न मारो।तुम हमरे संग गद्दारी कर रहे हो। '' बहस ठेठ बुंदेलखंडी अंदाज़ में चल रही थी।

''नई दें। का कर सकत हो। ''-भाई साब

''हम ओई करवा देहें। जो मुम्बईयाँ गुर्गे गद्दारों के संग करत हैं। ''

''मतलब तुम हमआव मर्डर करवान की सोच रहे हो। ''

''येई समझ लो। ''

''देखो हमें लल्लू न समझो। हम भी चार जबलपुरिया गुंडों को सुपारी देके तुम्हें भी निपटान में पीछे न रेंहेन वारे। समझे कि नई। ''

''चलो देखत हैं। कौन का कर सकत है। ''

अंततः हुआ वाही। मर्डर। बड़े भाई साब का। तो भाई (साब )हमारे रिश्तों में भी आधुनिकता आ चुकी है। यानी भाईगिरी …।

 

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व्यंग्य-प्याज और हम

जब से प्याज के भाव आसमान छू रहें हैं। भाई , मेरे सपने में प्याज ही प्याज दिख रही है। वैसे मैं कच्चा प्याज खाने का शौक़ीन हूँ। एक रात मैं सपने में प्याज लाना -प्याज लाना बडबडा रहा था। पत्नी ने सुना। मुझे हिलाया। ''क्या बात है नाक से खून निकल रहा था ?या फिर शरद आगमन मौसम में'' लू''लग गयी थी ? जो सपने में प्याज् लाना बडबडा रहे थे। घर में महीने भर से आई है जो प्याज लाकर देती ?''आधी रात में ही पत्नी ने शब्दों के तीखे बाण से हम पर प्रहार किया। हम हडबडाकर उठे। शरम से भींगे हम पत्नी से नजरें चुराए। हमारी फिरती नज़रों को पत्नी ने गौर किया। बोली -''किसी और को रेस्टारेंट में प्याज वाली रेसिपी खिलाकर खुश तो नहीं कर रहे हो इन दिनों। '' पत्नियाँ और पत्रकारों में एक समानता है । जैसे पत्रकार मूतने गए आदमी के पीछे लग जाते है। मसलन यदि कोई अचानक उठ कर मूतने गया तो क्यों गया। क्या आसपास वालों को बताकर गया ?यदि नहीं तो क्यों ?टायलेट में गया या खुले मैदान या फिर किसी मकान की आड़ में ?पेशाब को कितनी देर से दबा कर रखा था दबाकर रखने के पीछे कारण क्या था। कहीं उसे डायबिटीज या बहुमूत्र की बीमारी तो नहीं। या नशे की गोली तो नहीं खा रखी है। ऐसे कुछ प्रश्नों से मीडिया आम आदमी की फोटो खीचते रहते हैं। पत्नियों के समक्ष पति भी ऐसे ही दौर से गुजरते रहते हैं। .उस  रात मेरे साथ भी ऐसा दौर था सपने की तस्वीर को छाप तो नहीं सकता था। अत: प्रूफ क्या देता। सो चुप रहा।

मैंने के प्रश्नों के भय से टीवी देहन बंद कर दिया है। ताकि प्याज जैसे मसलों के समाचार मेरी उपस्थिति में वह न सुन सके।

मैंने इंटरनेट पर एक चिटठा ''प्याज पर विचार मंच '' बना रखा है। जिसके अंतगर्त मै आम पाठकों ,लेखकों ,सब्जी विक्रेताओं जमाखोरों से विचार आमंत्रित करता हूँ। मसलन सस्त� �� प्याज कैसे खरीदें ?कहाँ से खरीदें ?प्याज न सकने के कारण पत्नी के सवालों से कैसे बचें ?प्याज के स्वाद का विकल्प सुझाएँ

एक सुखद घटना यह है की विचार आना शुरू हो गएँ हैं।

एक सार्थक विचार यह आया की सदी प्याज बाज़ार में फ्री में मिल जाएगी ,कृपया बीन -छांटकर ले आयें। .

,साब प्याज का घर में आना ही सुखद घटना है इन दिनों। प्याज की खुशबू या बदबू पडोसी की नाक तक जरूर पहुचनी चाहिए। ताकि पडोसी को पता चले कि फलां जी के घर इतनी महँगी प्याज बाकायदा आ रही है। स्टेटस के जमाने में दिखावा तो जरूरी है साब।

मई उस दिन सब्जी बाज़ार में खड़ा था। सब्जियों के भाव पता कर रहा था। इसी बीच मुझे ध्यान आया। पत्नी ने दफ्तर से लौटते वक्त प्याज लाने को कहा था। यूँ तो मै प्याज के आसमान छूते भाव से अनभिज्ञ नहीं था। फिर भी मैंने एक सब्जी विक्रेता से प्याज का भाव पूछा। वह बोला -''अस्सी रूपये किलो साब। कितना तौल दूं। एक छटांक या एक पाव। ''

शायद वह मेरी शक्ल पर उभरी औकात को पहचान चूका था।

''रहने दो। ''मैंने कहा। वह तुरंत बोला -लहसुन रख लीजिये चालीस रुपये किलो है। दस में पाव भर मिल जाएगी। मैंने न कहा तो वह मुंह बिचकाया और कुछ बुदबुदाया सा। मानो मैंने औकात न होते हुए भी उसका वक्त बरबाद किया।

अभी मै सब्जी खरीदने ही वाला था कि वर्मा जी मिल गए। चंद चर्चा के बाद बोले -''प्याज खरीदने आये हो। ''

''अरे कहाँ यार। सब्जी ही ले जायेंगे। ''

''प्याज भी तो सब्जी का अंग है। थैला अभी तक खाली है ,मतलब प्याज खरीदने ही आये हो। खरीदो भैया आप लोग ऊपरी कमाई वाले ठहरे। 'इतना कह कर वे हंसते हुए आगे बढ़ लिए। इधर कलेजा आँख में पड़े रस की तरह जल उठा। साला ,सब्जी मार्केट में खड़ा होना ही गुनाह है। सब्जी विक्रेता ने छटांक भर प्याज में औकात नाप दिया ,और ये ऊपरी कमाई में।

मन शांत हुआ था कि श्याम जी मिल गए। थैले में झांककर देखा। ''क्या बात है ,थैला खाली रखा है। हम समझ गए आज मुर्गे खाने का मन होगा इसलिए प्याज लेने आये हो। कहो आज रात का भोजन आपके यहाँ हम भी…। ''

''यार आपने मुझे कभी मुर्गा खाते देखा है। ''

भैया जब से महंगाई बढ़ी है लोग कथरी ओढ़कर घी खाने लगे हैं। ताकि पडोसी माँगने न लगे। ''एक करारा -सा व्यंग ये भी जड़ कर आगे बढ़ लिए।

आज प्याज की औकात इतनी बढ़ गयी कि उसके सामने इंसान की औकात शेयर मार्किट की तरह बदत्तर होकर रह गयी है।

अब किसे दोष दें। एक प्याज के लिए इतने कठोर व्यंग सुनने पड़ रहे हैं। जो पहले माटी मोल बिकती हुई गोदामों में सड़ती -गलती रहती थी। '

घर पहुंचे तो पत्नी ने थैला देखा। ''यह क्या पाव् भर प्याज । ''

''तुम्हें मालूम नहीं प्याज क्या भाव बिक रही है ?आसमान छू रहे हैं।''

''छूने दो …तुम्हें तो जमीन पर खड़े होकर ख रीदना है। ''

''देखो यार प्याज मात्र के लिए हमपर यूं ताने न मारो.... अभी बाज़ार में दो लोग मारकर गए हैं। ''

क्यों न मारें ?.''

''अब बकवास बंद करो। ''

क्यों करूँ। आपको मालूम है कि मैं ऐसे परिवार से रही हूँ जहां प्याज को देखना तो क्या सूंघना तक पसंद नहीं करते। तुम्हारी प्याज खाने की आदत ने हमें भी प्याज का आदी बना दिया। ''

प्याज को लेकर पत्नी के ताने से हम ऊब चुके थे। अत:हमने एक दी एक रास्ता सुझाया।

''देखो रानी ,एक नेक काम में तुम मेरा सहयोग दो। ''

''कहिए। ''

''अपन उस बाबा के पास चलकर गुरु दक्षिणा लेते हैं जो प्याज -लहसुन को तामसी भोजन का द्योतक बताते हैं। ''

'''इससे क्या होगा। ''

''गुरु दक्षिणा लेने के बाद अपन लोग प्याज खाना बंद कर देंगे। फिर वह महँगी रहे या सस्ती। अपने क्या लेना -देना। ''

''पहले क्यों नहीं आज माये यह सब। ''

''पहले प्याज इतनी कीमती वस्तु नहीं थी। ''

''देखो जी ,तुम्हारे ये नखरे उस नकली मेकअप के सामान है ,जो पहले पसीने में धार बन कर बह जाते हैं। प्याज जिस भाव मिले आपको लाना होगा। ''

''क्यों ?''

''आपने घर बड़े लोगो का आना जाना लगा रहता है। उनके सामने अपनी इज्जत की मिटटी पलीद करवाओगे।''

मैं चुप रहा। वह तुरंत बोली -''चुप्पी न साधो। वरना.........। ''

''

वरना क्या ।''

''तुम्हें ही पानीदार सब्जी परोसूंगी। ''

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सुनील कुमार ''सजल''

 

बंजर -481771,जिला -मंडला म. प्र.

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव3:06 pm

    दोनों ही व्यंग अच्छे लगे सजल जी बहुत बहुत
    बधाई

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रचनाकार: सुनील कुमार ''सजल''' के 2 व्यंग्य
सुनील कुमार ''सजल''' के 2 व्यंग्य
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