हमने लिखना छोड़ दिया हमें लगता है कि हर लिखने वाले के लेखन का कोई न कोई विरोधी होता है । सबसे पहला विरोधी उसकी पत्नी ही होती है । यदि लिखने ...
हमने लिखना छोड़ दिया
हमें लगता है कि हर लिखने वाले के लेखन का कोई न कोई विरोधी होता है । सबसे पहला विरोधी उसकी पत्नी ही होती है । यदि लिखने वाला शादी-शुदा है तो । शादी-शुदा न होने पर कोई दूसरा विरोध करेगा । कुछ को छोड़कर बाकी का कोई न कोई तो विरोध करता ही है । यदि कोई न करे तो लिखने वाला उपेक्षित होकर धीरे-धीरे ही सही पर खुद अपना ही विरोधी बन बैठता है । यहाँ मैं जान-बूझकर लेखक के स्थान पर लिखने वाला लिख रहा हूँ । क्योंकि लिखने वाला कोई भी बन सकता है लेकिन लेखक हर कोई नहीं बन पाता । समझने की बात दूसरी है । वैसे अपने मुँह मिया मिट्ठू बनने से किसी को कौन रोक सकता है ? पते की बात यह है कि आजकल ज्यादातर लोग लिखने वाले ही हैं । लेखक तो गिने-चुने ही हैं ।
वैसे साहित्य में रूचि तो बचपन से ही थी लेकिन यह पता नहीं था कि एक दिन लिखने वाला बन जाऊँगा । और व्यंग्य भी लिखूँगा । यदि लिखने वाला व्यंग्य लिखने लगता है तो पत्नी कुछ ज्यादा ही विरोधी बन जाती है । एक दिन पत्नी ने कहा क्यों लिखते हो ? और कोई काम नहीं है । फालतू समय क्यों बरबाद करते हो ? मैंने कहा हर लिखने वाले के साथ ऐसा ही होता है । हर कोई उसके लेखन को फालतू ही समझता है । मन में इच्छा होती है, बिचार आते हैं, लिखना अच्छा लगता है । अच्छा लिखता हूँ । इसलिए लिखता हूँ । पत्नी ने कहा तुम्हारे अच्छा लगने से क्या होगा ?
मैंने कहा तुम्हें भी अच्छा लगेगा । पढ़कर तो देखो । पत्नी बोली नहीं पढ़ना है । मेरे पास फालतू समय नहीं है । मैंने कहा चलो हम पढ़कर सुना देते हैं । पत्नी बोली मुझे दुनिया भर की बकवास नहीं सुनना है । मैंने कहा कि यह बकवास नहीं है । व्यंग्य है । उन्होंने कहा रखो अपना व्यंग्य अपने पास । और खुद पढ़कर सुन लो एक साथ दोनों काम हो जाएगा ।
उन्होंने आगे कहा आजकल लिखने वालों की तरह गीत गाने वाले भी बहुत अधिक हो गए हैं । ये लोग भी खुद गाते हैं और खुद सुनते हैं । मैंने कहा जब पत्नी ही नहीं सुनना चाहती तो दूसरे कहाँ सुनेगें ? तुम्हें हमारे लेखन से इतनी जलन क्यों होती है ? कहीं यह तो नहीं कि तुम हिंदी में एम ए होकर भी नहीं लिखती हो और मैं गणित में पीएचडी होकर भी अच्छा लिखता हूँ ।
उन्होंने पहले तो गणित और पीएचडी पर सुनाया फिर अच्छा पर और उसके बाद बोलीं क्यों लिखूँ ? लिखकर क्या करूँ ? खुद लिखूँ और खुद पढूँ । लिखकर अपने स्वाभिमान को गिराऊँ। यह मैं नहीं कर सकती । और कहती हूँ कि लिखना छोड़ दो नहीं तो किसी दिन ये सब बटोकर किसी कबाड़ी के हाथ बेच दूँगी । मैंने कहा कि ऐसा मत करना क्योंकि ये सब रद्दी नहीं है । वो बोलीं कि यह तुम्हारा वहम है, जो हर लिखने वाले को होता है, यह रद्दी से ज्यादा और कुछ नहीं है । और तो और उन्होंने यह भी कहा कि यदि नहीं माने और लिखते रहे तो एक दिन यह लैपटाप भी गिरा दूँगी । न रहेगी बांस और न बजेगी बासुरी । वे आगे बोलीं आजके समय में न लिखने वालों का और न ही उनके साहित्य की कदर कोई करता है । और प्रकाशक लिखने वालों को सबसे बड़ा उल्लू समझते हैं और ऊपर से और उल्लू बनाते हैं ।
मैंने कहा कि यदि तुम्हें इतनी समस्या है तो चलो आज से हमने लिखना छोड़ दिया । अब नहीं लिखूँगा । वैसे सोचा था कि लिखकर एक किताब छपवा दूँ । और जब किताब छप जायेगी तो तुम्हें भी अच्छा लगेगा और अगर मैं किताब नहीं भी दूँगा तो तुम चुरा कर पढोगी । क्योंकि छपने के बाद रचनाएँ अच्छी हो जाती हैं । तुम भी सोचोगी कि सही में अच्छा लिखते हैं तभी तो किताब छप गई । फिर बखान करना शुरू कर दोगी ।
वो बोलीं कितने ख्याल आते हैं । मैंने कहा बहुत सारे तभी तो लिखता हूँ । बिना ख्याल आए तो लेखन होता ही नहीं । वैसे ख्याल तो बहुतों को बहुतों का आता है लेकिन लिख नहीं पाते । लिखने के लिए ख्याल आना चाहिए ।
उन्होंने कहा कि गोस्वामी तुलसीदास जी को बहुत पढ़ते हो और यह नहीं पता कि उन्होंने लिखा है कि कलयुग में लिखने वाले तो बहुत होंगे लेकिन उनके लेखन को सम्मान नहीं मिलेगा । मैंने कहा पढ़ा भी है, पता भी है और देख भी रहा हूँ । कहाँ करती हो मेरे लेखन का सम्मान ? वे हँसने लगीं और बोलीं किताब छपाने के बारे में मत सोचो । पहली बात तो जल्दी कोई छापेगा नहीं और दूसरी बात यदि छाप भी देगा तो आपको क्या मिलेगा ? फायदा तो छापने वाला उठाएगा और तुम्हें ठेंगा दिखायेगा । और तुम्हारी मेहनत और मूर्खता पर मुस्कराएगा ।
आज के समय में छापने का सबसे सही तरीका यही है कि जैसे खुद लिखते हो और खुद पढ़ते हो ठीक वैसे ही खुद छाप लिया करो । आजकल लिखने वाले यही तो करते हैं । लेकिन यह नहीं जानते कि अंतरजाल पर छपने और छपाने वाले लिखने वाले ही होते हैं । वे लेखक नहीं होते । उन्हें लेखक होने का भ्रम हो सकता है । और उन्हें वुद्धिजीवी कभी भी लेखक नहीं समझते ।
मैंने कहा कि मैं अच्छा लिखता हूँ मेरी किताब छप जायेगी । वे बोलीं कि अच्छा सुन-सुनकर मेरे कान पक गए हैं । मैंने कहा एयर ड्रॉप तो रखा है । डाल लिया करो । वे बोलीं कि लिखने वाले हो इसलिए तुम्हें कुछ पता नहीं है । मैंने हिंदी में एम ए किया है और इसलिए मुझे पता है कि आजकल किताब छपाने के लिए पैसा देना पड़ता है । और लोग पैसा देकर किताब छपाते हैं । ताकि लिखने वाले से लेखक बन सकें । कई लोग कर्ज लेकर प्रकाशक को देते हैं और लेखक बनकर गर्व महसूस करते हैं ।
मैंने कहा कि ऐसा है तो कितना मनोबल गिरता होगा ऐसे लेखकों का । आगे फिर ये कैसे लिख पाते होगें ? क्या आत्मग्लानि नहीं होती होगी, अपने लेखक बनने पर ? इससे तो बेहतर है कि लेखन ही न करें अथवा लिखने वाले ही बने रहें ।
वे बोलीं आजकल कुकुरमुत्ते की तरह प्रकाशक जहाँ-तहाँ निकल आए हैं । जहाँ देखो वहीं लोग प्रकाशन खोलकर बैठ गए हैं । काम एक ही है पैसा ऐंठने का । लेखक से भी मिल जाये तो लेते ही हैं । किताब बेचकर मुनाफा ऊपर से कमाते हैं । रोयल्टी देने के नाम पर रोते हैं । सौ किताबें बेचकर दस बताते हैं । कोई पढ़ता ही नहीं क्या करें ? हिसाब नहीं करते । चाहते हैं लेखक और दे दे तो ठीक रहे ।
ये कुकुरमुत्ते कुछ दिन बाद लिखने वालों को लेखक बनाने के लिए रोयल्टी भी देने के बजाय लिखने वालों से रोयल्टी लेंगे । न लेखक और न ही कोई अन्य इनके खिलाफ मोर्चा खोलने वाला है । कोई क्यों नहीं प्रश्न करता कि जब किताबें बिकती नहीं हैं और प्रकाशन में घाटा ही होता है तो आए दिन नए-नए प्रकाशन कुकुरमुत्ते की तरह क्यों बढ रहे हैं ? बिना फायदे के ही । बिना वारिश के कुकुरमुत्ते नहीं पनपते ।
उन्होंने आगे कहा कि लेखक बनाने के लिए ये कुकुरमुत्ते कई योजनाएँ चलाते हैं । जैसे पाठकों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने की योजना, इसमें लेखक को रोयल्टी भी नहीं दी जाती । जो राशि प्रकाशक रो-रो कर और लेखक को रुला-रुलाकर देते हैं वह रोयल्टी होती है । और रायल्टी का तो जमाना ही नहीं रहा, अब लगभग बंद हो चुकी है ।
एक और योजना है जिसमें छपवा सकते हो । लेकिन नौकरी छोड़कर किसी चौराहे पर बैठकर अपनी लिखी किताबें बेचना पड़ेगा । क्योंकि इस योजना में दो सो से तीन सो प्रति लिखने वाले को खरीदना पड़ता है । और इतनी प्रति रखोगे कहाँ ? घर में तो रखने नहीं दूँगी । और खरीदने में जो पैसा लगाओगे वो कहाँ से आएगा ? इसलिए चाहे दुकान खोलकर चाहे फेरी लगाकर अपनी लिखी किताबें खुद बेचना पड़ेगा । और तब लोगों को बताते रहियेगा कि हम भी लेखक हैं ।
मैंने कहा कि तुम्हें तो बहुत जानकारी है । उन्होंने कहा कि इसलिए हमने भी लिखना छोड़ दिया । मैंने कहा कि तुम लिखती कहाँ हो ? बिना लिखे ही, लिखना छोड़ दिया । वे बोलीं शादी से पहले मैं भी लिखती थी । लेकिन लिखने वालों की दुर्दशा देखकर हमने लिखना छोड़ दिया ।
अपने स्वाभिमान को गिरवीं रखने से बचाने के लिए अपने हाथों से अपना लिखा जला डाला । प्रकाशक से लिखने वाले को जो जलालत मिलती है उससे बेहतर यही है कि खुद अपने ही हाथों अपनी रचनाएँ जला दो । अथवा किताब छपवाने का ख्याल निकाल दो । लेकिन यह ख्याल बिना आए नहीं रहता इसलिए हमने लिखना छोड़ दिया । कम से कम अपना स्वाभिमान तो आहत नहीं होगा । बड़ी-बड़ी बातें करने वाले और देश-समाज में क्रांति लाकर बदलाव का संदेश देने वाले, लिखने वाले प्रकाशक के सामने क्रांति नहीं कर पाते बल्कि शांत हो जाते हैं । इससे बेहतर है कि यह दिन क्यों देखा जाय ? इसी से मैंने तुम्हारे लेखन का शुरू से ही विरोध किया है ।
हमें कहाँ पता था कि हमने तो लिखना छोड़ दिया लेकिन फिर लिखने वाले से ही पाला पड़ जाएगा । फिर से कहती हूँ कि जैसे हमने लिखना छोड़ दिया वैसे तुम भी लिखना छोड़ दो । पत्नी शादी से पहले लिखती थी यह जानकरी हमारे लिए किसी राज से कम नहीं थी ।
उन्होंने एक और राज की बात बताई की उनकी सहेली के घर वाले एक प्रकाशन चलाते हैं । मैंने कहा कि तुमने पहले कभी यह बात क्यों नहीं बताई ? वो बोलीं कि तुम पीछे पड़ जाते । मैंने कहा शादी तो हम से ही हुई है । खैर उससे बात न कराओ तो भी खुद तो करो । वे बोलीं एक शर्त पर । मैंने बिना पूछे मंजूर कर लिया । उन्हेंने कहा कि अब लिखना छोड़ना पड़ेगा । किताब छपवाने की अनेकानेक समस्याओं से रूबरू होने के बावजूद किताब छपवाने के लालच में बहरहाल हमने कह दिया कि चलो आज से हमने लिखना छोड़ दिया ।
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डॉ. एस. के. पाण्डेय,
समशापुर (उ.प्र.)।
ब्लॉग: श्रीराम प्रभु कृपा: मानो या न मानो URL1: http://sites.google.com/site/skpvinyavali/
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बहुत सुंदर गुदगुदाने वाली रचना.....
जवाब देंहटाएंसादर
अच्छा व्यंग लेखको और लिखनेवालों पर
जवाब देंहटाएंये सही है कि लिखना और बात है और पढना दूसरी जो छपता है और पढ़ा भी जाता है वोह ही
लेखक का सम्मान पाता है बाकी सब लिखनेवाले बनकर रह जाते हैं उम्दा व्यंग लेखन के लिए बधाई