अनुभवों का पिटारा – व्यतिक्रम साहित्य-सृजन परंपरा में कहानी अत्यंत प्राचीन विधा है। इस विधा की समृद्धि में अनेक कहानीकारों ने रचनात्म...
अनुभवों का पिटारा – व्यतिक्रम
साहित्य-सृजन परंपरा में कहानी अत्यंत प्राचीन विधा है। इस विधा की समृद्धि में अनेक कहानीकारों ने रचनात्मक सहयोग दिया है। इसी क्रम में उमाकांत खूबालकर का ‘व्यतिक्रम' कहानी संग्रह शिवांक प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में कुल आठ कहानियाँ हैं। इन कहानियों के कथानकों में नवीनतम और वर्तमान सामाजिक परिदृश्य की अभिव्यक्ति हुई है। कहानीकार ने अनुभवों को शब्दों के जाल में ऐसे बुना है जिससे ये कहानियाँ रोचक, समकालीन और आस-पास व्याप्त समाज के आधुनिक यथार्थ से पाठकों का साक्षात्कार कराती हैं। आधुनिकता का प्रभाव कहानी के पात्रों में परिलक्षित होता है। लेखक ने परिस्थितियों के साथ पात्रों की मनोवृत्तियों के परिवर्तन को प्रस्तुत करने में सफलता भी पाई है। इन कहानियों में व्याप्त सामाजिक मूल्यों के साथ आधुनिकता के संघर्ष का चित्रण मार्मिकता से हुआ है। इस संदर्भ में परमानंद श्रीवास्तव का कहानी के संबंध में यह कथन सत्य प्रतीत होता है कि वस्तुतः आधुनिक कहानियों में व्युत्पन्न आधुनिकता कोई सतही विवरणों की वस्तु नहीं है, वह संस्कार से उत्पन्न है विकास से नहीं। वह रचनाकार और उसके परिवेश की आभ्यंतर संबंधों में निहित एक संभावना है जो रचनात्मक प्रक्रिया के प्रति सचेष्ट कथाकारों की कृतियों में ही मूर्तिवान हो सकती है। यही कारण है कि आधुनिक कहानीकार मूल्यों पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहता है बल्कि मूल्यों के संघर्ष पर। (हिंदी कहानी की रचना प्रक्रिया, पृ․ 257)
‘चक्रवात' कहानी सरकारी कार्यालयों की दुराव्यवस्था, नैतिकता के अवमूल्यंन और भ्रष्टाचार को उजागर करती है। सरकारी कार्यालयों में पदोन्नति के लिए किए जाने वाले हथकंडों का पर्दाफाश कहानी में किया गया है। जहाँ विनीता, अनीता, राधा और माधुरी पद की लालसा में अपना स्वाभिमान, आत्मा, इज्जत को दांव पर लगाने के घिनौने हथकंडों को अपनाती हैं और इन्हीं दुराचरणों के कारण आसन्न अधिकारियों की कृपापात्र बनी रहती हैं वहीं त्रिखा जैसी साहसी नारी अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए दुराचारी अधिकारियों का उनकी ही भाषा और कार्य-शैली से प्रतिरोध करती है क्योंकि उसे मालूम है कि ‘घपलेबाज आदमी का क्या भरोसा ? कब सांप की तरह पलटी खा जाए।‘त्रिखा पात्र के माध्यम से कहानीकार ने नारी सशक्तिकरण का पक्ष भी सामने रखा है। यहाँ वह दुराचारी प्रशासन अधिकारी के मंसूबों को भांपकर सुरक्षा संसाधन के साथ उसके कक्ष में जाती है और वार्तालाप को टेप कर लेती है तथा सिद्ध करती है कि ‘मुझे औरों की तरह मजबूर और बेबस मत समझना।‘ कहानीकार ने नारी को सशक्त बनाने के लिए जो उपादान दिए हैं वे नारी सुरक्षा और सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण हैं। कार्यालयी-व्यवस्था में भष्टाचार की इतनी पराकाष्ठा हो गई है कि शोषक और शोषित दोनों ही नैतिकता को दांव पर लगाकर स्वार्थ सिद्धी में ही अपनी जीत समझते हैं। जहाँ कार्य की एवज में धन का लेन-देन होता है वहीं स्वाभिमान इज्जत भी नीलाम होती है इसका प्रत्यक्ष प्रस्तुतीकरण कहानी की उपलब्धि है।
‘अमंगल' कहानी में कहानीकार ने दांपत्य जीवन की असफलताओं के साथ दमित भावनाओं को प्रेम के माध्यम से प्रस्तुत किया है। यहाँ लेखक अपने जीवनानुभवों के साथ वर्तमान परिस्थितियों के तार मिलाता है और दांपत्य जीवन की अधूरी ख्वाहिशें नामिता के साथ साझा करने को आतुर रहता है। इसके पीछे चाहे सृजनात्मक सहयोग की अपेक्षा,कुछ और अकांक्षा ही क्यों न हो। दूसरी तरफ पारिवारिक तनाव को कुछ पलों के लिए दूर करने के लिए दूसरी स्त्री का सानिध्य प्रकरण पुरुषोचित प्रवृत्ति को उजागर करता है। नामिता द्वारा जगत सिंह की अवहेलना और लेखक के प्रति विशेष लगाव आधुनिक नारी के मानसिक द्वंद का चित्रण है।
‘जिंदगियाँ ऐसी भी होती हैं' बहुत ही मार्मिक कहानी है। यह कहानी आधुनिक परिदृश्य में मानवीय संबंधों की अहमियत अर्थ तक सीमित होने की स्थिति का बखान करती है साथ ही आनंदिता पात्र के रूप में नारी सशक्तिकरण की पहल को सार्थक अभिव्यक्ति देती है। यह संग्रह की सबसे सशक्त,गंभीर और आज के जीवंत दस्तावेज की कहानी है। देबू वर्तमान परिदृश्य में सरकारी कर्मचारी की आर्थिक परिस्थिति का प्रतीक है जो माँ, भाई की मदद करते करते-करते खोखला हो जाता है। एक बार माँ,भाई की आर्थिक मांग पूरी न करने पर वह उनके गुस्से का शिकार होकर दुनिया से विदा हो जाता है। इतना होने पर भी फिर माँ, भाई की संवेदनाएं सिर्फ अर्थ पर ही केंद्रित रहती हैं। कहानी का यह परिदृश्य आधुनिक समाज में मानवीय संबंधों की भावनाओं और संवेदनाओं के ह्रास की ओर ध्यानाकर्षित करता है। कहानी में आनंदिता के माध्यम से लेखक ने समाज में नारी सशक्तिकरण का स्वर बुलंद किया है और नारी को दूसरों पर निर्भरता से दूर रहने की, आत्म सुरक्षा की तथा स्वालंबी बनने की प्रेरणा दी है। आनंदिता परंपरागत, रूढीगत, मान्यताओं के प्रति विद्रोह कर आत्म संघर्ष को प्राथमिकता देती है।तभी तो आनंदिता की सास कहती है ‘आनंदिता जैसी भीगी बिल्ली भी कभी शेर बन सकती है।
‘व्यतिक्रम‘ में समाज की भिन्न-भिन्न स्थितियाँ में उलट पुलट, और अव्यवस्थित व्यवहार की कहानी है। सुमेध जैसे सुव्यवस्थित जीवन यापन करने वाले व्यक्ति की जीवन-शैली आधुनिकता से प्रभावित हो जाती है उसकी पत्नी अन्य लोगों की तरह दिखावे में विश्वास कर अपना काम बिगा़ड़ लेती है और पूरे परिवार को संकट में डाल देती है। यह कहानी रेल विभाग में पुलिस के संरक्षण से दलालों की दादागिरी और शिक्षित लोगों के अराम तलब होने की पोल खोलती है, साथ ही यह भी याद दिलाती है कि- जीवन का नियम है कि जैसी कमाई होती है वह उसी तरह खर्च भी होती है ‘स्साले इतना कमाते हैं फिर भी इनके पास कुछ नहीं बचता हराम की रकम हराम में डूब जाती है।''
‘तमाशा‘ कहानी साहित्यिक समाज में सृजन-सम्मान के लिए चाटुकारिता के प्रश्रय को अभिव्यक्त करती है तथा स्त्री-जीवन के विविध पक्षों को उजागर करती है। कहानी का पात्र उमेश जीवन को उच्च स्तर पर ले जाकर ‘नई उर्जावान पीढ़ी तैयार करना चाहता था जो साहित्य- सृजन के अलावा तकनीकी एवं मूल वैज्ञानिक लेखन कर सके ? साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में मूल्यों के होते ह्रास को, गुटबाजी से अवांछित परिणाम की पीडा को शब्दों में बांधने का प्रयास किया है। इस कहानी में स्त्री के पत्नी रूप की विभिषिका का अनुभवों के आधार पर बारंबार उल्लेख किया है,जैसे- ‘पत्नी ने कर्कशता से दो बार आवाज लगाकर---; एक नौकरी वाली पत्नी हमेशा सर पर नाचती रहती है---; पत्नियां अंदर से पूरी जल्लाद होती हैं---नारी-जीवन के उलट-पटल तमाशे को स्वर देती है।
‘पुरवाई' कहानी सामाजिक दृष्टि से वैध और अवैध संबंधों के ताने-बाने, स्त्री सशक्तीकरण, पारिवारिक संबंधों में दरार को स्वर देती है। जहाँ समाज को शिक्षा बांटने वाला प्रोफेसर अपनी शिष्याओं के प्रति विशेष आकर्षण महसूस कर अपनत्व भाव से सभी सीमाओं को लांघकर अनैतिक संबंधों की ओर अग्रसर होता है, वहीं प्रार्थना जैसी छात्राएँ भी स्वार्थ के वशीभूत प्रोफेसर का साथ देकर स्त्री की कमजोरी को प्रदर्शित करती हैं। प्रार्थना आत्मरक्षा में पारिवारिक सदस्यों का विरोध कर घर के ही व्याक्ति द्वारा इज्जत लूटने के प्रयास को असफल कर दंडित कर स्वाभिमानी स्त्री की व्यथा बताती है।
‘पड़ाव‘ कहानी पारिवारिक संबंधों पर आधारित है। पारिवारिक संबंधों में दरार का मुख्य कारण आर्थिक वैषम्यता तथा स्वार्थपरकता है। सेठ मोती सागर जैसे लोग स्वार्थ में अंघे होकर परिवार के सदस्यों को (मां,भाई) को नजर अंदाज करते हैं और संपन्नता में दूसरों को दान आदि कर प्रायश्चित करते हैं। मोती सागर और उज्जवला अपने-अपने अहं और स्वार्थ के कारण दांपत्य जीवन को कसैला बनाकर पारिवारिक सुख शांति से विमुख हो जाते हैं। इस कहानी में कहानीकार इस ओर भी इशारा करता है कि वृद्धावस्था में माता-पिता अर्थात बुजुर्गों को सम्मान और स्नेह देकर उनके जीवन को सुखद बनाने का प्रयास करना, हर व्यक्ति को अपना कर्तव्य मानना चाहिए। इस प्रकार यह एक सशक्त सामाजिक कहानी है।
‘लडकियां नहीं चीखतीं' कहानी वर्तमान समय में नारी के असुरक्षित होने की दास्ता को बयान करती है। कहानीकार का इस कहानी में स्त्री के निर्णय लेने की क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगाकर बहुत कुछ सोचने पर विवश करता है।
कुल मिलाकर व्यतिक्रम कहानी संग्रह सम-सामयिक विषयों पर आधारित जीवनानुभवों का पिटारा है। आशा है संग्रह की कहानियाँ पाठकों को नई दिशा देने और साहित्य-पठन का स्वाद देने में सफल होंगी।
डॉ․ दीपक पांडे
केंद्रीय हिंदी निदेशालय
पश्चिमी खंड-7,रामकृष्ण पुरम
नई दिल्ली 110066
दीपकजी,प्रथमतः आपका आभार... आपकी समीक्षा पढ़कर 'व्यतिक्रम' पढ़ने का निर्णय मन ने ले लिया है...उमाकांत खूबालकरजी का रचना संसार छात्रजीवन से पढ़ता आया हूँ...
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