सीमा असीम की कहानी - कैसा स्वागत

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सीमा असीम , बरेली कैसा स्‍वागत लम्‍बा सा घूंघट काढ़े और लाल साड़ी में लिपटी सुनयना ने अपना पहला कदम बढ़ाकर देहरी पर रखा ही था , कि खुसु...

सीमा असीम, बरेली

कैसा स्‍वागत

लम्‍बा सा घूंघट काढ़े और लाल साड़ी में लिपटी सुनयना ने अपना पहला कदम बढ़ाकर देहरी पर रखा ही था, कि खुसुर-फुसुर शुरू हो गई। औरतें आपस में एक दूसरे से कह रही थीं, ‘‘कितनी मोटी दुल्‍हन लाई हैं ललुए की अम्‍मा, कुछ तो सोचती लड़का सींक सलाई और लड़की पूरी मोटी जट्‌ट।''

वह यह सब सुन रही थी, पर वह कुछ भी नहीं कह सकती थी। कहती भी कैसे? वह तो नई नवेली दुल्‍हन थी और आज उसका अभी पहला ही दिन तो था इस घर में, अपनी ससुराल में, अपने पति के घर में।

वह सोचने लगी, वह इतनी तो मोटी नहीं है, फिर ऐसा क्‍यों कह रहे हैं सब लोग।

वह अपने घर में थी, तो माँ-पापा उसे हमेशा कमजोर ही समझते थे। कभी हल्‍का सा भी बुखार आ जाता या थोड़ी सी भी तवियत खराब हो जाती तो माँ कहती, ‘‘देखों आज इसको बुखार आ गया है।''

तो फौरन पापा बोल पड़ते, ‘‘वैसे ही इतनी दुबली पतली है ऊपर से बुखार आ गया और कमजोर हो जायेगी।''

उसने तो आज तक कभी भी मोटा शब्‍द ही नहीं सुना था, अपने लिए, परन्‍तु ससुराल में तो पहला कदम पड़ते ही ताने शुरू हो गये थे। वह अचानक से मोटी हो गयी, उसने अपने को निहारा, वहाँ पर खडी अन्‍य सभी औरतों से तो वह पतली ही है फिर वे सब उसे मोटा क्‍यों कह रही हैं।

vब उसने जाना कि ससुराल के नाम से ही आखिर लड़कियॉ क्‍यों डरती हैं। जिसमें ससुराल वाले तो कम परन्‍तु बाहर वाले, पास पड़ोसी, रिश्‍तेदार ज्‍यादा बातें बनाते हैं।

विदा के समय उसकी माँ ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘‘बेटा कोई कुछ कहे पर तुम पलट कर जवाब मत देना, बस चुप रहना।'' यह याद कर ही, वह चुप रही थी।

तभी उसकी छोटी ननद उसे अपने साथ लेकर गईं, और एक जगह चौकी पर ले जाकर बैठाते हुए कहा, ‘‘भाभी आप यहाँ बैठो, कुछ पूजा होगी फिर कमरे में ले जायेंगें, और सुनो कोई कुछ कहे आप किसी की बात पर आप ध्‍यान न देना। यह सब महिलायें तो ऐसे ही कहती रहती हैं। इन्‍हें तो बस मौका मिलना चाहिए।''

ननद की बात सुन उसका मन कुछ हल्‍का हुआ। चलो कोई तो है, जो अपनी जैसी है, कुछ तो ध्‍यान रखने वाली है इस घर में।

जो घर उसके लिए अभी नितांत अजनबी है। यही सब सोंचकर उसका रूअॉसा सा हो आया चेहरा कुछ खिल गया और ननद की बात मान वह चुपचाप उसी चौकी पर बैठ गई।

पति भी साथ ही बैठ गये थे। वह हाथ में उसकी चुन्‍नी से बँधे एक कपड़े के कोने को पकड़े हुए थे, और उसकी गोद में उसी चुन्‍नी में बँधा हुआ फल, मिठाई, मेवा आदि ढ़ेर सारा सामान था, जिसे वह विदा होने के बाद पूरे रास्‍ते अपनी गोद में दबाये बैठी रही थी, जो शादी में भॉवरों (फेरों) के समय उसके जेठ जी ने गोद भराई की रस्‍म के तहत, उसकी गोद में डाली थी।

उसके हाथ उस सामान को पकडे हुए काफी थक चुके थे। परन्‍तु वह वहाँ किसी से कुछ

कह भी नहीं सकती थी, क्‍योंकि कहीं कोई बात गलत ना कह बैठे या किसी को कुछ बुरा न लग जाये। आखिर वह अभी नयी नवेली दुल्‍हन है, फिर माँ की सीख जो उसने ध्‍यान से अपनी गाँठ में बाँध ली थी।

माँ ने विदा के समय कहा था, ‘‘बेटा! अभी तुम बहुत कम उम्र की हो, तुम्‍हारे अन्‍दर बचपना भी भरा हुआ है। अतः वहॉ चुप रहने में ही तुम्‍हारी भलाई है।''

पर जब वह बहुत छोटी है, और अभी अल्‍हड़ है, तो माँ क्‍यों इतनी जल्‍दी उसकी विदाई करवा रही हैं। यह सब सोंचा था उसने, फिर चाहकर भी वह यह सब नहीं पूछ सकी थी, क्‍योंकि वह तो स्‍वयं भी बहुत उत्‍साहित थी, आह्‌लादित थी। जब शादी होगी तो नया नया सब कुछ मिलेगा। कपड़े लत्‍ते सब नये मिलेंगे, नये नये जेवर भी मिलेगें, साथ ही नये रिश्‍ते-नाते और पति का प्‍यार भी तो। यह सोच कर ही वह रोमांचित हो उठी थी।

उसी समय रिश्‍ते की एक भाभी आकर पास में बैठ गइंर् और पूजा आदि करवाने लगीं। वह बस उनकी हर बात को ध्‍यान से सुनती और प्रत्‍येक कार्य को वैसे ही करती जाती। भाभी बोली, ‘‘सब पूजा हो गई है बस ‘‘छड़ी कंगन'' रह गया है।‘‘

एक रस्‍म जो अगले दिन होनी थी, क्‍योंकि आज बृहस्‍पतिबार है, इस दिन मण्‍डप उखाड़ कर सिराया (बहाया जाना) नहीं जाता। अतः कल शुक्रवार है, तो कल ही मण्‍डप नदी में या तालाब में उखाड़ कर सिराया जायेगा और छड़ी कंगन ( शादी के बाद होने वाली अन्‍य रस्‍मों की तरह एक रस्‍म ) खेला जायेगा वह अभी भी अपने स्‍थान पर ही बैठी थी और अन्‍य औरतें बातें करने में लगी थी।

‘‘बहू है सुन्‍दर'' एक ने कहा।

दूसरी बोली, ‘‘अरे सुन्‍दर क्‍या बहुत ही खूबसूरत है। उम्र भी बहुत कम लग रही है।''

तभी तीसरी बोली, ‘‘हाँ ललुए की तो अच्‍छी खासी उम्र है, पर बहू बहुत कम उम्र की ढूँढ कर लाई हैं ललुए की अम्‍मा।'' यह सुन उसने अपना सर उठाकर उनकी तरफ देखा तो उसे उस क्षण, वे पहली बार बहुत उम्रदार लगे थे। वैसे उसने पहले उन्‍हें देखा ही कब था। देखने दिखाने की रस्‍म के समय में भी कहाँ देख पाई थी, अपने संकोच के कारण।

शान्‍त, निःश्‍चल, निर्भाव से बैठे हुए कितने सीधे और सरल लग रहे थे। तभी उसकी छोटी ननद आई और बोली, ‘‘भाभी चलो कमरे में थोड़ा आराम कर लो थकी हुई हो।''

कमरे में बड़ी ननद के पास छोड़ कर छोटी ननद बाहर चली गई। शायद किसी काम में लग गई होगीं। सारे घर का काम वही करते हुए दिख रही थीं। वह बड़ी ननद के साथ कमरे में बैठ गई। उसे अपनी छोटी ननद बड़ी अपनी सी लग रही थी।

वह बैड के एक कोने में सिकुड़ी, सिमटी सी बैठ गई, और बाहर बैठी उन महिलाओं के बारे में सोचने लगी जो पल पल रंग बदल रही थी ,क्‍या ऐसी ही होती हैं ये महिलायें, बाल की खाल निकालने में बड़ी माहिर, और थोड़ी सी भी कमी देखी नही कि शुरू हो जाती हैं। या फिर बिना बात के भी बात बनाना कोई इनसे सीखे।

उसी कमरे में सोफे पर उसके बड़े नन्‍दोई व देवर आदि भी बैठे थे। छोटी ननद की तो अभी शादी नहीं हुई थीं। ससुर जी नहीं थे, और सासु माँ रिश्‍तेदारों की आवभगत में लगी थी आखिर पहले लड़के की शादी है, अगर जरा सी भी कमी रह गई तो यह रिश्‍तेदार न जाने कितनी बातें बनायेंगे।

वहीं पास में बैठा, बड़ा वाला देवर, उसके पास आया और सिर पर पड़ा घूँघट थोड़ा सा उपर उठाकर देखने लगा, वही पास में ही बैठे नन्‍दोई जी यह सब देख बोल पडे, ‘‘अरे! नहीं नहीं ऐसे क्‍यों कर रहे हो, चलो हटो यह तो भाई साहब करेंगें।''

यह सुन कर वह थोड़ा और शरमा गई। शाम हो चली थी, वह घबराई हुई और कुछ रोमांचित होकर रात का इंतजार कर रही थी क्‍योंकि सहेलियों ने जो कुछ बताया था। उससे वह काफी उत्‍साहित थी। अपने प्रिय का साथ पाने को।

जब वह उसे बाँहों में भरकर उससे कहेंगें, ‘‘मेरी डार्लिंग! तुम इस दुनिया की सबसे सुन्‍दर लड़की हो और मैं तुम्‍हें दिलों जान से चाहता हॅूं।'' वह सोचमग्‍न ही थी कि छोटी ननद आकर बोली, ‘‘भाभी चलो फे्रश हो लो, कपड़े बदल लो, फिर खाना लगा दिया है। सब के साथ बैठकर खालो।''

वह उठी और फ्रेश होने को उनके पीछे-पीछे चल दी। वह देवर जो उसका घूँघट ऊपर कर रहे थे वह पास आकर बोले, ‘‘अरे भाभी कहाँ चलीं।'' उनका लहजा मजाकिया था।

उसे अच्‍छा तो लगा, पर वह उनके मजाक को समझ न पाई। उसने पहले कभी किसी से न मजाक किया था न उससे किसी ने। उसे ऐसा माहौल कुछ अजीब लगा था।

दो भाइयों के बाद सबसे छोटी और सबकी लाडली, ईश्‍वर ने रूप सरूप भी जी भर कर दिया था, अतः जो उससे मिलता या उसे पहली बार भी देखता, तो बड़े प्रेम से, कोमलता के साथ बात करता था।

वह अभी कालेज में पढ़ाई ही कर रही थी, कि घर में उसकी शादी की चर्चांऐं होनी शुरू

हो गई थीं। पापा की तबियत खराब रहने लगी थी। जिस कारण वह चाहते थे, कि जल्‍दी ही लड़की के हाथ पीले करके कन्‍यादान कर दिया जाये। अपने जीतेे जी वे इस जिम्‍मेदारी को भी निबटा देना चाहते थे।

भाइयों को भला क्‍या एतराज होता, हालाँकि माँ नहीं चाहती थीं, कि उनकी दुलारी की अभी शादी हो। पर किस्‍मत में क्‍या लिखा है। कब क्‍या होगा, कोई नहीं समझ पाया और उसकी शादी अच्‍छा घर परिवार ढॅूंढ़कर तय कर दी गई।

पापा तो बीमार थे। अतः पूरी जिम्‍मेदारी भाइयों पर आ पड़ी और उन्‍होंने अपने हिसाब से खूब अच्‍छा पढ़ा लिखा लड़का ही ढ़ूँढ़ा था अपनी बहन के लिए, लेकिन वह क्‍या चाहतीं है, उसके क्‍या अरमान हैं, यह किसी ने जानने की कोशिश ही नही की थी।

उन लोगों ने तो अपनी जिम्‍मेंदारी भर निभा दी थी। अब आगे की सारी जिम्‍मेदारियों को तो उसे अकेले ही निभाना था।

हाँ तो रात का खाना टेबल पर लग गया। सब लोग खाने की मेज पर ही थे। छोटी ननद ही सबको खाना खिलबा रही थी । उसने भी थोड़ा बहुत खाना खाया क्‍योंकि थकान की बजह से या फिर अपना घर परिवार छोड़कर आने के कारण उससे खाया ही नहीं गया। न जाने यह कैसी रीत बना दी है समाज ने, कि नाज नखरों से पाली बेटी को गैरों के हाथ सौंप देते हैं और फिर वे ही उसके अपने बन जाते हैं। जो अब तक अपने थे, जिनके साये में पल-पुस कर बड़ी हुई होती है, वे पल भर में ही पराये हो जाते हैं। यही तो दुनिया की रीत है, दस्‍तूर है।

एक कहावत भी है कि, ‘लड़की को तो राजा महाराजा भी अपने घर में नहीं रख पाये हैं।'

हाँ तो खाना खाकर वह कमरे में आकर लेट गई और थकान की वजह से न जाने कब उसकी अॉख लग गई, उसे पता भी न चला । वह सो गई। जब आँख खुली तो देखा, वह एक कमरे में अपनी ननद के साथ में सो रही है।

वह सोचने लगी, कि उसके साथ की सहेलियों ने तो कुछ और ही कहा था, लेकिन वह यहाँ ननद के पास कैसे? वह काफी थकी हुई थी, इस कारण कमरे में लेटते ही नींद आ गई होगी। शायद उसके सो जाने के कारण किसी ने जगाना उचित न समझा होगा।

अगले दिन सुबह वह सोकर उठी, तो उसकी वही छोटी वाली ननद सभी रिश्‍तेदारों को चाय देकर आ रही थीं। उसे लगा, कि यह कितना काम करती हैं, उसके सोने के बाद सोयीं और उससे पहले ही उठ गईं।

उसे जगा देख, वह चाय लेकर उसके पास आईं और बोलीं, ‘‘भाभी चाय पीकर नहा धोकर तैयार हो जाओ, कुछ पूजा आदि होनी है, जो कल होने से रह गयी थी।''

वह बोलीं, ‘‘दीदी मैं चाय तो पीती नहीं हूँ।''

उसकी बात सुन वह बोलीं, ‘‘भाभी हमारे यहाँ तो बिना चाय पिये किसी की आँख भी नहीं खुलती। अब आप भी चाय पीने की आदत बना लो।'' कहकर वह चाय लेकर वापस चली गईं तथा अन्‍य कार्यों में लग गई।

वह सोच रही थी कि उसके घर में सिवाय पापा और मम्‍मी के कोई चाय नहीं पीता था,

यहाँ तक कि उसका बडा भाई भी नहीं। जब कभी बुखार या जुकाम हो जाता था, तो माँ जबरदस्‍ती उसे चाय पिलवा देती थीं, यही हाल भाइयों का भी था।

अब वह अपनी ननद का इंतजार कर रही थी क्‍योंकि वे ही उसे हर बात बता रही थीं। कल से लेकर आज तक सिर्फ उनसे ही बात हो पाई थी। वे अन्‍य कार्यों के साथ उससे बात भी कर रही थीं और उसका ध्‍यान भी रख रही थीं। बाकी तो सब अपने-अपने कार्यों में लगे हुए थे। सास व दोनों बड़ी ननदों की तो बोली भी उसने अभी तक नहीं सुनी थी।

जब छोटी ननद आईं, तो उनसे पूँछकर समस्‍त कार्य निपटा के (नहाने धोने का) कमरे में आईं। तब तक चाय नाश्‍ता लग गया था। फिर उसे मण्‍डप के नीचे लाकर बैठा दिया गया, क्‍योंकि कल जो कार्य बृहस्‍पतिवार की वजह से नहीं हो पाये थे, वह अब पूर्ण करने थे।

जब छड़ी कंगन रस्‍म होने की बारी आई, तो उसे और उसके पति दोनों को पेंड़ से टूटी ताजी हरी एक एक डंडी दी गई, जिससे दोनों को एक दूसरे को सात-सात बार मारना था। पहले उससे मारने को कहा गया तो उसने हल्‍के हल्‍के से सात बार पति की पीठ पर मारा।

अब बारी थी पति की। अब उन्‍हें मारना था। उन्‍होंने जैसे ही ड़डी उठाई, फौरन बुआ जी बोल उठीं, ‘‘बेटा! जरा सही से मारना, ताकि इस छड़ी का डर आजीवन बना रहे।''

वह उसे छड़ी मारने को हाथ उठाते, उससे पहले ही सब उनका हौसला बढ़ाने लगे, किन्‍तु उससे तो किसी ने भी कुछ नहीं कहा था, जब उसने यह रस्‍म निभाई थी।

जब वह अपने घर में थी, तो सब कुछ उसके अनुसार ही होता था, और यहाँ सब उल्‍टा था। उसे कोई भी अपना नहीं लग रहा था। अब उसे अहसास हुआ कि सच में वह पराये घर में  आ गई है। पराये घर जाना है। यह बातें तो वह बचपन से ही सुनती आई थी। लेकिन कभी इन बातों का अर्थ नहीं समझी जब खुद पर बीती तो समझ पाई कि क्‍या होता है ‘‘पराया घर''। अब इसे अपना घर बनाना है, क्‍योंकि मरते दम तक अब यही घर तो है, जहाँ उसे रहना है। यह कैसी रीत है, जो अपनों से दूर कर, परायों को अपना बनाने को मजबूर कर दे।

पति ने छड़ी उठाकर उसे छड़ी से मारने की रीत निभानी शुरू की एक, दो, तीन बहुत धीरे-धीरे, फिर सबकी हौसला अफजाई से चौथी, पाँचवी, छठी कुछ तेजी से मारी उसे दुखने लगा और सातवीं' वह तो बहुत तेज।

वह डर गई और रोने लगी उसके पति ने उसका ऐसे ही स्‍वागत किया था। न जाने कितने रोमांचक ख्‍यालों से भरा हुआ उसका दिल, पल भर में ही टूट गया था और सपने वे तो एक ही पल में बिखर गये थे हाथों से फिसलती रेत की मॉनिंद। उसके आँसू बह कर गालों पर ढुलक आये थे। कभी भी उसकी माँ ने उसे एक थप्‍पड़ भी नहीं मारा था और इस घर में पहले ही दिन यह सब क्‍या है? यह कैसी रस्‍म है जो तन मन दोनो को घायल कर दे।

उसके दिल में अपने पति के प्रति कितने अरमान थे। कितनी कोमल भावनायें थीं। वह सब कहीं दम तोड़ने लगी थी। उसके सपने टूट चुके थे। बचे थे तो सिर्फ आँखों में आँसू और शरीर पर महसूस होते दर्द से ज्‍यादा मन का दर्द। अब यही सब तो उसे महसूस हो रहा था।

ऐसे में उसे अपने घर की बहुत याद आ रही थी। जहाँ मम्‍मी पापा ने उसे नाजों से पाल पोसकर इस घर में विदा कर दिया था। यही तो दुनियाँ की रीत थी, किन्‍तु उसे यह रीत पसन्‍द नहीं आई। वह वापस घर लौट जाना चाहती थी, लेकिन अब वह घर उसके लिए पराया हो गया था जो कल तक अपना था, किन्‍तु जो अभी तक पराया था, वह अपना हो गया था, बिना किसी के अपनेपन वाला अपना घर या पति का घर। यह कैसी विडम्‍बना है। वह समझ ना सकी थी। अब कैसे उम्र भर इनका साथ निभा पायेगी। जिन्‍होंने उसका स्‍वागत ही दर्द और आँसुओं से

करवाया है। क्‍या सच में महज रीतिरिवाज है छडी से मारना या फिर इस तरह से इन रिवाजों की आड़ में स्‍़त्री जाति को प्रताडित करना पुरूषों की मानसिक रूग्‍णता। वह समझ न सकी।

COMMENTS

BLOGGER: 4
  1. मैं तो इस रस्म के बारे में पहली बार सुन रही हूँ. पाषाण युग की यह रस्म बंद कर दी जानी चाहिए.
    घुघूतीबासूती

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  2. अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव8:16 pm

    सीमा असीम जी की की कहानी एक नव विवाहिता कमउम्र की सुन्दर लड़की के
    मनोभावों को व्यक्त करती सुंदर ह्रदय स्पर्शी
    कहानी शादी की रस्में तो ठीक हैं पर जोर से
    मारकर पतिदेव नितांत नासमझी और मूर्खता
    का ही परिचय जो सर्वथा अनुचित था और
    नव विवाहिता के कोमल हृदय को स्थाई आघात
    इस अच्छी कहानी के लिये मेरी बधाई और आशीर्वाद

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  3. Clear hai bilkul... bilkul planned tareeke se aurato ko unki jagah batayi jati hai.. kyu bevakoof bante rehte hain hum log... faltu ki ummeed aur sapne paale hue.. sirf sahi ko sahi bolna aur galat ko galat kehna hi shuru kar de to badane lage cheeze..

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  4. फूल-छड़ी की रस्म हमारे यहाँ भी होती है .बेटे बहू को लेकर माँ दोनों को फूल छड़ी देकर कहती है - लो गलत करे तो मारना इसे और पांँच-पाँच बार दोनों एक दूसरे को फूल छड़ी छुआते हैं - आस-पास खड़े लोग दोनों को उकसाते रहते हैं . हास्यविनोद से भरे और खेल भी होते हैं .
    हाँ, पति की मूर्खता है ,लोगों के कहने से चढ़ गया .

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: सीमा असीम की कहानी - कैसा स्वागत
सीमा असीम की कहानी - कैसा स्वागत
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