विषय-सूची : परिचय - श्रीमती सावित्री नौटियाल काला 3 वर्जना 6 राजनीति 8 विचार 11 रिश्ते 12 कैसी श्रद्धा 14 चाहत की बरसात ...
परिचय - श्रीमती सावित्री नौटियाल काला 3
वर्जना 6
राजनीति 8
विचार 11
रिश्ते 12
कैसी श्रद्धा 14
चाहत की बरसात 15
हम नूतन निर्माण करेंगे 16
नारी तुम महान 17
हिंदी दिवस 18
कील 19
परिचय - श्रीमती सावित्री नौटियाल काला
नाम : श्रीमती सावित्री नौटियाल काला
उपनाम : सवि
जन्म तिथि : १५ अगस्त १९४०
जन्म स्थान : देहरादून
प्रमुख कृतियां : 'यह मेरी नदी है' २००५ में प्रकाशित कविताएँ,
'रिश्ता' २००६ में प्रकाशित कविता संग्रह,
'दिशा' २००८ में प्रकाशित कहानी संग्रह,
'सप्तपदी' कविताएँ
'एक पल' २००७ में प्रकाशित कहानियाँ
‘दरिया’ २००८ में प्रकाशित काव्य संग्रह
'मुश्किल में है बेटियाँ' २००८ में प्रकाशित कविता संग्रह
'नारी' २०१० में प्रकाशित कविता संग्रह
'अर्द्धशती' २०१० में प्रकाशित कहानी संग्रह
'अनुभूति' २०११ में प्रकाशित काव्य संग्रह
'आसक्ति -विरक्ति' २०१२ में प्रकाशित काव्य संकलन
'अधूरा अहसास' २०१३ में प्रकाशित काव्य संग्रह
'अधूरा अहसास' २०१३ में प्रकाशित काव्य संग्रह
परिचय : श्रीमती सावित्री नौटियाल काला ३५ वर्ष राजकीय विद्यालयों में सेवा कार्य के पश्चात वरिष्ठ प्रवक्ता के रुप में केंद्रीय विद्यालय (F.R.I) देहरादून से सेवा निवृत है । देहरादून जनपद की एक जानी मानी चर्चित वरिष्ठ साहित्यकार एवं समाज सेविका है ।आठ कविता संग्रह तथा तीन कहानी संग्रह प्रकाशित है । सावित्रीजी 'सवि' के उपनाम से लेखन कार्य करती है । जनपद की विभिन्न सामाजिक संस्थाओं से आपका जुड़ाव रहा है । आप मूलतः शिक्षक होने के साथ-साथ महिलाओं की विधि सलाहकार भी है ।
आजीवन सदस्यता द्वारा आप का अखिल भारतीय गढ़वाल सभा , यूनिवर्सिटी वूमेन एसोसिएशन , वरिष्ठ नागरिक कल्याण समिति उत्तराखंड , नवाभिव्यक्ति , हिंदी साहित्य समिति , रूल ऑफ़ द सोसाइटी , केदारखंड सांस्कृतिक न्यास मसूरी , अखिल भारतीय महिला आश्रम देहरादून में अमूल्य योगदान है ।
सम्मान : २००४ में वरिष्ठ नागरिक कल्याण समिति द्वारा अपने क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान हेतु सम्मानित ।
२००५ में भारत विकास परिषद्(द्रोण) शाखा द्वारा शिक्षा व कला के क्षेत्र में प्रांतीय स्तर पर सम्मानित ।
२००७ में राष्ट्रिय अपंग विकास संस्था द्वारा ‘सेवरत्न’ की उपाधि से विभूषित ।
२००७ में धर्म स्वरुप रतूड़ी वैद्य सेवा समिति द्वारा शैक्षणिक सेवाओं के लिए ‘सेवा भूषण’ उपाधि से सम्मानित ।
२००८ में आशा मेमोरियल मित्र लोक पब्लिक लाइब्रेरी द्वारा ‘लेखन मित्र’ मानद उपाधि से सम्मानित ।
२००९ में वरिष्ठ नागरिक कल्याण समिति उत्तराखंड द्वारा सात पुस्तको के संपादन व प्रकाशन पर सम्मानित ।
२००९ में आयोजित अखिल भारतीय कवियत्री सम्मलेन के दसवें वार्षिक अधिवेशन में साहित्य की सेवा के लिए विशेष रुप से सम्मानित कर साहित्य अदब से नवाजा गया तथा लेखन में सक्रिय भागीदारी के लिए सम्मानित किया गया ।
२००९ में स्त्री आर्य समाज लक्ष्मण चौक देहरादून के वार्षिक उत्सव में मानव सेवा तथा साहित्य सेवा के लिए सम्मानित किया गया ।
२०१० में भारत विकास परिषद की द्रोण शाखा द्वारा नारी सशक्तिकरण हेतु उल्लेखनीय कार्य करने पर सम्मानित ।
२०१० में ८ मार्च विश्व महिला दिवस पर महिलाओं के उत्थान में सहभागिता निभाने के लिए निर्धन, दुर्बल बच्चों तथा महिलाओं के उत्थान तथा उन्हें सुरक्षा देने वाली संस्था ससा द्वारा सम्मानित किया गया ।
१५ अगस्त २०१० को शैल कला संगम द्वारा 'शैल पुत्री' का सम्मान प्राप्त हुआ ।
६ नवंबर २०११ को भारत विकास परिषद् द्वारा द्वितीय महिला सहभागिता सम्मलेन क्षेत्र ४ में 'व्याख्यान प्रतिभागिता' सम्मान प्राप्त हुआ ।
वर्जना
सदा वर्जनायें झेली हैं जीवन में ।
बोलने की, चलने की, सोने की जगने की ।
देखने की, सुनने की, समझने व न समझने की ।
सुबह से शाम तक वर्जनायें ही वर्जनायें ॥
बाहर निकली तो पड़ोसियों की ।
स्कूल गई तो संग सहेलियों की ।
कक्षा में बैठी तो शिक्षिकाओं की ।
कैन्टीन में सहयोगी छात्र-छात्राओं की ॥
सबकी नज़रों में वर्जनायें ही वर्जनायें ।
धरी रह गई मेरी सारी कामनायें ।
छिद्र-छिद्र होती रही मन की भावनायेँ ।
सहती रही जीवन भर सबकी वर्जनायें ॥
थोड़ी बड़ी हुई तो झेलनी पड़ी नज़रों की वर्जनायें ॥
विवाह होने पर पति द्वारा दी गई वर्जनायें ।
सास, ससुर के तानों की वर्जनायें ।
ननद, देवरों, जेठ, जेठानियों द्वारा भी दी गई वर्जनायें ॥
शिक्षिका बनी सह कर्मियों की झेली वर्जनायें ।
प्राचार्य द्वारा भी दी गई वर्जनायें ।
बच्चों के अटपटे उत्तर न दे पाने की वर्जनायें ।
छात्र-छात्राओं की उत्तर पुस्तिका न जांचने पर ,
अभिभावकों की झेली वर्जनायें ॥
कैसा बिता जीवन वर्जनाओं के घेरे में ।
अब अवसान के समय बहू बेटों की वर्जनायें ।
नाती पोते पोतियों की वर्जनायें ।
बस यूं ही बीत गया, बीत रहा है, बीतेगा ।
जीवन वर्जनाओं के घेरे में ॥
राजनीति
आज राजनीति कुछ मवालियों के हाथ है
जिनका प्रशासन में पूरा साथ है
यहां होने वाले सभी घोटालों में
अपने देश के नेताओं का पूरा हाथ है ।
आज भारत की नैया डूब रही है
धैर्य का बांध भी छूट रहा है
पर वे तो एक दूसरे को ही दूर करने में लगे है
क्योंकि शासन तंत्र की पूरी छूट पा रहे है
करों का तो केवल तमाशा है
भारत की नहीं कोई भाषा है
इसकी प्रगति की भी नहीं आशा है
कैसी छाई घनघोर निराशा है
हर नागरिक ने अपने को ही साधा
अपनी भावनाओं को अपने से ही बांधा
पर प्रशासन ने उनको भी किया आधा
जब उनको टैक्स के पंजे से बांधा
हम ऐसे में क्या कर पायेंगे
कैसे गृहस्थी की नैया पार लगायेंगे
न जाने क्या-क्या खोकर कुछ पायेंगे
क्या ऐसा जीवन हम जी पायेंगे
नेताओं का यहां सरे आम गर्म है बाजार
शासन भी करता उनके द्वारा व्यापार
बेचारी जनता ही पिसती है बार-बार
क्योंकि घोटालों का ही है यहां कारोबार
अब तो डीज़ल व पैट्रोल के बढ़ गए है दाम
करेंगे सैलानी अब घर में ही आराम
बाहर जाने का नहीं रहेगा कोई काम
वे बने रहेंगे अब घर के ही मेहमान
सरकार की कैसी यह नीति है
लोगों में बढ़ गई अब नीति है
अरे यह तो सबकी आपबीती है
सुनते हैं सुनाते हैं यहीं तो नीति है
आवो ऐसा संसार बनायें
राजनीति में न भरमायें
शासन तंत्र में सुधार लायें
अपने प्रदेश को स्वच्छ राज्य बनायें
विचार
आवो बैठो कुछ करो विचार
नारी का कैसा हो रहा है सत्कार
नन्ही बच्चियों पर हो रहा है सामूहिक बलात्कार
नर पिशाचों से भरा है यह संसार
भूल गये वे सब अपने सांस्कृतिक संस्कार
जिनके संरक्षण से पलता था परिवार
आज व्यभिचारी कर रहे है अत्याचार
छोटी-छोटी बच्चियाँ है उनकी शिकार
कैसे संस्कारित करें इन पापियों के संस्कार
कैसा अनोखा आज परिवेश है
सोच में डूबा सारा देश है
हमें रहना तो इसी परविश है
भ्रूण की तो वैसे ही हत्या की जाती है
उसे तो कानूनी सजा भी नहीं मिल पाती है
क्या यही इस देश की थाती है ।
अरे आवो अपनी बच्चियों को बचाओ
बलात्कारिओं को बीच चौराहे में फांसी दिलवाओ
तभी अपनी मासूम बेटियों की इज्जत बचा पावो ।
रिश्ते
रिश्तों की जीवन में अहमियत होती है
जरुरत होती है नियामत होती है
मल्कियत होती है शराफत होती है
नजाकत होती है अदावत होती है
जो रिश्ते शराफत से निभाये जाते हैं
मन मंदिर में बसाये जाते हैं
घरों में सजाये जाते हैं
ईमानदारी व दुनियादारी से निभाये जाते हैं
वही रिश्ते जीवन में महान होते हैं
उन्हीं का सब सम्मान करते हैं
उन्हीं की कथा सब बयान करते हैं
उन्हीं की कीर्ति का सब बखान करते हैं
जब जीव संसार में आता है
वह बहुत से रिश्तों से जुड़ता है
रिश्ते बनाता है उन्हें निभाता है
बड़ी सलीके से जीवन में रिश्ते बढ़ाता है ।
कुछ पूछते हैं रिश्ते कैसे बनायें
उन्हें जीवन में किस सीमा तक निभायें
आज तो मानव स्वछंद रहना चाहता है
किसी प्रकार के बंधन में नहीं बंधना चाहता है ।
फिर भी जीवन में रिश्ते बनते ही है
निभाना चाहो तो निभते ही है
छुटकारा पाना चाहो तो टूटते भी है
पर रिश्ते तो रिश्ते ही होते हैं
रिश्तों की अहमियत वे ही जानते हैं
जो उन्हें अपनी शख्सियत से निभाते हैं
वे रिश्तों को निभाने में कुर्बान हो जाते हैं
कुछ तो रिश्तों में जान की जान भी ले लेते हैं
२००८ में प्रकाशित कविता संग्रह 'मुश्किल में है बेटियाँ' कविता संग्रह में से
कैसी श्रद्धा
यह कैसी श्रद्धा व कैसी आस्था है ।
जिसमें भक्तों का साथ भगवान ने नहीं दिया है ।
यह कैसी अनोखी धार्मिक यात्रा है ।
जिसमें जीवित रहने की मात्रा नही है ॥
कैसे भगवान हैं जो भक्तों से रुठ गये हैं ।
तभी तो भक्त आपदा के शिकार हुये हैं ।
श्रद्धालु कैसी आस्था व विश्वास से चले थे ।
पर भगवान उनकी रक्षा नही कर पाये हैं ॥
आज तो भगवान स्वयं ही खतरे में हैं ।
वे पहले अपनी रक्षा करेंगे तब भक्तों की बारी आयेगी ।
तब तक भक्तों के अरमान पानी के साथ बह जायेंगे ।
तब तो भगवान भी उन्हें नही बचा पायेंगे ॥
मानसून समय से पूर्व आ गया था ।
शासन प्रशासन दैवीय विपदा का अनुमान नहीं लगा पाया था ।
वरना यात्रियों को इतनी कठिनाई नहीं झेलनी पड़ती ।
इतनी असुविधा इससे पूर्व कभी नहीं देखी गई ॥
सरकार की पोल पूरी तरह खुल गई है ।
राहत व बचाव कार्य भी संतोष जनक नहीं है ।
हजारों यात्रियों की मौत हो चुकी है ।
गाँव के गाँव सैलाब में बह गये हैं ॥
केदारनाथ की सारी धर्मशालाओं में हजारों यात्री टिके हुये थे ।
सब के सब जल प्रलय में समा गये ।
सारा कारोबार ठप्प हो गया है ।
लोग भूखे मर रहे हैं, दाने-दाने को तरस रहे हैं ।
ऐसी विभीषिका कभी देखी न सुनी थी ।
यह आपदा अचानक ही आई थी ।
शायद पूजा की विधि में कुछ कमी रह गई होगी ।
वरना केदार नाथ इतनी प्रलय न मचाते ॥
२०१३ में प्रकाशित 'अधूरा अहसास' कविता संग्रह में से
चाहत की बरसात
का से कहूं मैं अपने दिल की बात ।
न जाने कब पूरी होगी मेरे दिल की सौगात ।
मैं भी कर पाउंगी प्रिय से संवाद ।
क्या कभी हो पायेगी दिल से दिल की बात ॥
तुम कब समझोगे मेरे दिल की बात ।
अभी तो नहीं दिख रहे हैं कोई आसार ।
कभी तो फुरसत से मिलो हमें इक बार ।
हमारा दिल पुकारता है तुम्हें बार-बार ॥
अब तो आ जाओ मेरे मन मीत ।
मत उलझो दुनिया की भवभीत ।
अनमोल समय बीता जा रहा है ।
पर हमारा मिलन नहीं हो पा रहा है ।
हम कब चलेंगे प्यार की राहों में साथ-साथ ।
पकड़ कर बिना डर भय के एक दुसरे का हाथ ।
हम कहीं दूर इक आशना बनायेंगे ।
क्या तुम वहां संग साथ रहने आ पाओगे ॥
जीवन की इस सांध्य बेला में ।
डोल रहे हैं हम अकेले अकेले में ।
अब तो साथ निभा जाओ ।
बस एक बार हमारे पास आ ही जाओ ॥
मन की कुण्ठा अब करो तुम दूर ।
जीवन नहीं जी पाये तुम भी भरपूर ।
हमने जीवन भर अपना-अपना फर्ज निभाया है ।
कोई नहीं बन पाया हमारा साया है ॥
२०१२ में प्रकाशित काव्य संकलन 'आसक्ति-विरक्ति' में से
हम नूतन निर्माण करेंगे
हम नूतन निर्माण करेंगे
प्रलय के चाहे घन घिर आयें ।
नभ के तारे धरती पर आये ।
हम अपनी संस्कृति का आह्वान करेंगे ।
युगों युगों से पीड़ित मानवता के
दुख दालान का हम सदा प्रयास करेंगे ।
नव जीवन का हम सब अनुसंधान करेंगे ।
सर्वत्र फैली दानवता का हम संहार करेंगे ॥
चाहे बाधा पर बाधाएं आयें ।
घनघोर निराशा के बादल मंडराये ।
चाहे कितनी विपदा पर विपदा आयें ।
हम नव जीवन संधान करेंगे ॥
चारों ओर कांटे चाहे बिछ जायें ।
पैरों के छाले भी छिल जायें ।
शूलों को भी फूल बनाकर
हम नव पथ का निर्माण करेंगे ॥
विश्व जब रसातल को जायें ।
चाहे विपत्ति के पहाड़ टूट जायें ।
चारों ओर प्रलय ही प्रलय हो जाये ।
हम पुनर्जीवन का सदा निर्माण करेंगे ।
अपने सुमधुर गीतों के द्वारा
पीड़ित जनों का उद्धार करेंगे ।
जन मानस की असीम असह्य पीड़ा का
अब हम सब मिलकर ही निदान करेंगे ॥
नारी तुम महान
नारी ने सहा है अब तक जीवन में अपमान ।
अब न सहेगी अब न झुकेगी बनेंगी वे भी महान ।
जीवन में आयें चाहे कितने तूफान ।
नारी रखेगी अब अपनी आन बान और शान ॥
जीवन तो इक बहती नदिया है ।
इसका तो धर्म ही बहना है ।
हम सबको इसी समाज में रहना है ।
पर रखना तुम अपना मान ॥
इतना तो रखो अपने पर विश्वास ।
अपना मत डिगने दो आत्म विश्वास ।
होगा कभी तुमको भी होगा हम पर अभिमान ।
समझोगे पुत्री को तुम भी महान ॥
नारी में निहित हैं वे तीन रुप ।
सत्यम शिवम् सुंदरम की वह अनुरुप ।
दुर्गा, लक्ष्मी , सरस्वती की वह प्रारुप ।
सभी मानेंगे नारी की महिमा का स्वरुप ॥
नारी अब अबला नहीं सबला है ।
यही तो कमला, बिमला व सरला है ।
अब वे किसी भी प्रकार का दंश नहीं सहेंगी ।
इल्म पाकर वे विदुषी बनेंगी ॥
अब न गुलामी कर पायेंगी ।
वह भी मदरसे पढ़ने जायेंगी ।
अपना भविष्य उज्जवल बनायेंगी ।
तभी समाज का कल्याण कर पायेंगी ॥
२०१० में प्रकाशित 'नारी' कविता संग्रह में से
हिंदी दिवस
आवो हिन्दी पखवाड़ा मनायें, अपनी भाषा को ऊँचाईओं तक पहुंचायें
हम सब करेंगे हिन्दी में ही राज काज, तभी मिल पायेगा सही सुराज
हिन्दी के सब गुण गावो, अपनी भाषा के प्रति आस्था दर्शाओ
जब करेंगे हम सब हिन्दी में बात, नहीं बढ़ेगा तब कोई विवाद ।
हिन्दी तो है कविओं की बानी, इसमें पढ़ते नानी की कहानी
हम सबको है हिन्दी से प्यार, मत करो इस भाषा का तिरस्कार ।
हम सब हिन्दी में ही बोलें, अपने मन की कुण्ठा खोजें
जब बोलेंगे हम हिन्दी में शुद्ध, हमारी भाषा बनेगी समृद्ध ।
हिन्दी की लिपि है अत्यंत सरल, मत घोलो इसकी तरलता में गरल
सबके कण्ठ से सस्वर गान कराती, हमारी भारत भारती को चमकाती ।
यही हमारी राजभाषा कहलाती, सब भाषाओँ का मान बढाती
हम राष्ट्रगान हिन्दी में गाते, पूरे विश्व में तिरंगे की शान बढ़ाते ।
हमारी भाषा ही है हमारे देश की स्वतंत्रता की प्रतिक
यह है संवैधानिक व्यवस्था में सटीक
हम सब भाबनात्मकता में है एक रखते हैं हम सब इसमे टेक
यह विकास की ओर ले जाती सबका है ज्ञान बढ़ाती ।
हिन्दी दिवस पर करें हम हिन्दी का अभिनंदन
इसका वंदन ही है माँ भारती का चरण वंदन ।
२००७ में प्रकाशित 'सप्तपदी' कविता संग्रह में से
कील
मेरे पैर में एक कील चुभी थी ।
वह मुझे सालती रही जीवन भर ।
मैं उसे सहेजती रही पालती रही ।
वह कील मुझे अपने ही रंग में ढालती रही ।
पर जब उसने मुझे और मेरे मन को कर दिया लहुलुहान ।
तब मैंने उसे उखाड़ कर फ़ेंक दिया समझ बेकार समान ॥
मैंने ठीक किया या गलत मैं नहीं जानती ।
झूठे रीति रिवाजों तथा दकियानूसी विचारो को मैं नहीं मानती ।
आज मेरे जैसी न जाने कितनी कील की चुभन सह रही है ।
कुछ तो न जीती है न मरती है न देहरी ही पार करती है ॥
मैं यह भी नहीं जानती कि कीलों को उखाड़कर ।
फैंकने वाली दुखी है या सुखी ।
कुछ ऐसी भी है जो पैरों में कील चुभने नहीं देती ।
अगर चुभ भी जाती है तो उसे उखाड़ कर दूर फ़ेंक आती है ॥
पर जो कील अंदर तक गढ़ जाती है ।
वह जीवन भर बड़ा सताती है ।
जब वह अपने नुकीले पंख फैलाती है ।
तो चाहने पर भी उखड़ नहीं पाती है ॥
आज भी बहुतों के पैरों में कीलें चुभी होंगी ।
उन्होंने भी वह अनचाहा दर्द सहा होगा ।
दुनियाँ में कील चुभाने वालों की कमी नहीं रही ।
सहने वालों की किस्मत में तो गमी ही गमी रही ॥
२०१० में प्रकाशित 'नारी' कविता संग्रह में से
सभी रचनाऐं बहुत सुंदर हैं ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद |
हटाएंसुंदर रचनाएँ
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंआपका बहुत बहुत धन्यवाद | आपने मेरी रचनाएँ पढ़ने के लिए अपना अमूल्य समय निकाला |
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