दीपक शर्मा 'सार्थक' का व्यंग्य - यथार्थ का बलात्कार

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अभी  हाथ में न्यूज़ पेपर लेकर बैठा ही था कि  दरवाज़ा जोर जोर से पीटने की आवाज़ आई, मैं समझ गया कि द्विवेदी जी आ गए हैं क्योंकि वही दरवाज़े पर ...

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अभी  हाथ में न्यूज़ पेपर लेकर बैठा ही था कि  दरवाज़ा जोर जोर से पीटने की आवाज़ आई, मैं समझ गया कि द्विवेदी जी आ गए हैं क्योंकि वही दरवाज़े पर इस तरह दस्तक देते हैं।  वो अलग बात है कि उनकी ऐसी खतरनाक दस्तक मेरे मन में दहशत भर देती है कि वे कहीं दरवाज़े सहित ही अंदर न आ जाएँ अतः मैं भाग कर दरवाजा खोलने के लिए उठा और दरवाज़े के  स्वतः खुलने से पहले ही उसे खोलने में कामयाब रहा।

दरवाज़ा खोलना था कि द्विवेदी जी ने राकेट के जैसे कमरे में प्रवेश किया और सोफे को हिरोशिमा समझ कर  उस पर परमाणु बम की तरह धम्म से गिर पड़े। मैंने दरवाज़ा बंद किया और उनके पास पहुंच कर ज़बरदस्ती मुस्कुराते हुए पूंछा, " कहिये कैसे आना हुआ द्विवेदी जी ?"

उन्होंने मेरे खिचड़ी नुमा इस साधारण से प्रश्न का  मटन कोरमानुमा स्वादिष्ट उत्तर देते हुए कहा, "अजी इधर से गुज़र रहे थे तो सोचा तुमसे मिलते चलें इसी बहाने कुछ गपशप हो जाएगी और चाय पानी भी हो जायेगा। "

अच्छे मेजबान का फ़र्ज़ अदा करते हुए मैं उनके चाय पानी और गपशप की  मांग पूरी करने में लग गया तब तक वो मेज पर रखे पेपर को उलट पलट कर अपनी पसंदीदा खबरे खोज कर पढ़ने लगे।

बहुत सी हेडलाइंस पर अपनी दिव्य दृष्टि दौड़ाते हुए वे एक हैडलाइन पर रुके, हैडलाइन  का शीर्षक था, "शौच को जाती किशोरी से हुआ बलात्कार।" उन्होंने इस खबर को बड़ी ही तन्मयता और रसास्वादन करते हुए पढ़ा और ऐसी ही अन्य खबरों को निपटाने के बाद पेपर एक तरफ रख दिया और चाय उठाकर सिप करते हुए मुझसे बोले, " देश की हालत बड़ी ख़राब है, क्या हो गया है लोगों को?"

मैं समझ गया कि चाय के साथ अब वे गपशप के मूड में हैं अतः सहयोग के लिए बात आगे बढ़ाते हुए बोला, " देश को क्या हुआ द्विवेदी जी?"

इतना पूछना था कि बस उन्होंने कश्मीर से कन्या कुमारी तक और गुजरात से लेकर पूर्वोत्तर तक देश की राजनीतिक व्यवस्था को अपने दस मिनट के भाषण में दही की तरह मथ दिया, जिसका मक्खन की तरह यह निष्कर्ष निकला कि देश की ऐसी दुर्दशा इसलिए है क्योंकि वे राजनेता नहीं हैं और परम्पराओं  व संस्कारों का महत्व ख़त्म होता जा रहा है। हालाँकि मैंने उनके इस प्रवचन का मात्र इतना ही निष्कर्ष निकाला कि उनकी राजनीतिक पिपासा जो पूरी न होने के कारण पीड़ा में बदल गयी, के कारण वे व्याकुल हैं।

उन्होंने कई छोटे मोटे चुनाव लड़े थे लेकिन वे हार गए, जबकि उनमें नेता वाले सारे गुण हैं।  वैसे तो एक नेता निर्गुण, निराकार,निर्विघ्न, निर्भीक और समस्त कलाओं से युक्त होता है लेकिन फिर भी कुछ गुण ऐसे होते हैं जो उसके सफल होने और महान बनने में आवश्यक होते है। जैसे एक अनुभवी नेता, अनुभवी बलात्कारी की तरह होता है जिस तरह एक अनुभवी बलात्कारी बलात्कार के समय अपने अनुभव के  दम पर पीड़िता से भी सहयोग प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार एक सफल अनुभवी नेता जनता के शोषण के समय उसका सहयोग प्राप्त कर लेता है।

एक सफल नेता का चरित्र रुपये के जैसा होता है जो डॉलर के मुकाबले गिरता ही जाता  है और साथ ही निज स्वार्थ के कारण सेंसेक्स की तरह संवेदनशील होता है जो अगर विदेशी बाजार को  छींक भी आ जाये तो चारो खाने चित्त हो जाता है और सबसे बड़ी बात देश में उसकी स्थिति पांच सौ के नोट के जैसी होती है जिसे हर कोई शक की नज़र से देखता है फिर कलेजे से लगा के रख लेता है।

इन सब गुणों के होते हुए भी द्विवेदी जी क्यों सफल नहीं हुए ये शोध का विषय है।  मैं इस शोध में व्यस्त ही था कि  उन्होंने मुझे झझकोरते हुए कहा, " अरे कहाँ खो गए भाई, चलो कहीं टहल के आते हैं "

उनके इस अनुरोध की चासनी में लिपटे आदेश के कारण मैं उनके साथ चल पड़ा।  हम लोग टहलते हुए शहर के एक पार्कनुमा ऐतिहासिक स्थल पर पहुँच कर वहां का नज़ारा लेने लगे, जहाँ की रमणीयता केवल प्राकृतिक वातावरण के कारण ही नहीं बल्कि वहां आने वाले नवयुवती व युवकों के कारण भी आकर्षक थी जो इस ऐतिहासिक स्थल पर पहुंच कर,  खोह खंडहरों में घुसकर, झाड़ियों और पेड़ों के पीछे छुपकर एक दूसरे के भूगोल  को समझने में लगे रहते हैं।  कभी कभी तो भूगोल का प्रयोगात्मक ज्ञान लेने तक बात पहुँच जाती है अतः यह स्थान द्विवेदी जी को बहुत आकर्षक लगता है।  झाड़ियों के पीछे ऐसे ही रिसर्च वर्क में लगे एक जोड़े को  वे ध्यान से देखने  लगे जिससे उनकी आँखों पर हवस के लाल डोरे तैरने लगे, दृश्य का पूरा अवलोकन करने के बाद वो मेरी ओर पलटे फिर मैंने उनकी आँखों पर पड़े हवस के लाल डोरों को क्रोध के लाल डोरों में बदलते देखा जो शायद इसलिए था कि  वे उस  युवक की जगह क्यों नहीं हैं परन्तु अचानक उन्हें समाज पर ग़ुस्सा आ गया और मुझसे बाले, " देखो समाज कैसे विकृत होता जा  रहा है। स्त्रियां बेशर्म होती जा रही हैं।  उनमे लज्जा व शर्म ख़त्म होती जा रही है।  देश इसीलिए निश्तेज हो गया है क्योंकि यहाँ की स्त्रियों का सतीत्व समाप्त होता जा रहा है।"

उन्होंने आगे बताया की इस देश में फैले अनेक संक्रमण रोगों और बीमारियाँ जैसे- पीलिया, एनीमिया, हैजा, डायरिया, मलेरिया के कारण मौतें इसलिए हो रही हैं क्योंकि व्यक्ति संस्कारी नहीं हैं।

मुझे लगा की यदि ये बात सत्य है तो भारत सरकार को बिना मतलब इतना धन टीकों पर खर्च करने की क्या जरुरत है, अगर संस्कारों का टीका चल जाये तो समस्त परेशानियों से मुक्ति मिल सकती है।

वैसे भी हम भारतीय जन्म संस्कार से लेकर मृत्यु संस्कार और ऐसे ही हजारों संस्कारों और परम्पराओं से घिरे हुए हैं अतः ऐसा टीका लगवाने में किसी को कोई परेशानी नहीं होगी।

वैसे तो हमारा देश परम्पराओं और संस्कारों का धनी  है लेकिन द्विवेदी जी की बातों से मुझे लगा कि देश में संस्कारों और परम्पराओं की हो रही कमी को दूर करने के लिए इसका दूसरे देशो से आयात किया जाना चाहिए, जिसके लिए कुछ ख़ास करने की जरुरत नही है बस जो लोग संस्कारों और परम्पराओं को नहीं मानते हैं उन्हें इसी परम्पराओं के कोल्हू में पेर कर और उनके अंदर भरी मौलिकता तथा नवाचार की एक एक बूँद निचोड़ कर उसे  उन देशो में निर्यात किया जाये जहाँ मौलिकता और नवाचार की मांग है और उसके बदले संस्कारों और परंपराओं का आयात  किया जाना चाहिए और भविष्य में परम्पराओं की रक्षा के लिए नए विचारों पर बांध बनाना चाहिए जिससे संस्कार रुपी बिजली पैदा हो सके।

ख़ैर द्विवेदी जी मुझे परम्पराओं और संस्कारों के मजबूत संरक्षक दिखने लगे, जो इसकी रक्षा के लिए हर तरह से प्रयास कर रहे थे।  मैंने उन्हें श्रद्धा भरी नज़र से देखा और उनके द्वारा किये गए बलिदानों को याद करने लगा।  जैसे परम्पराओं और संस्कारों की खातिर उन्होंने भाभी  जी को बच्चा पैदा करने वाली मशीन बना दिया जिससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हो सके और आखिरकार छह बेटियों के बाद उन्हें ये सौभाग्य प्राप्त भी हुआ।  ऐसा इसलिए क्योंकि पुत्र और गुरु ये दोनों संस्कार के दो स्तम्भ हैं।  इनकी आवश्यकता बहुत से संस्कारों और परम्पराओं को पूर्ण करने में होती है। जैसे यदि पुत्र नहीं होगा तो अंतिम संस्कार कौन करेगा , गया हांड लेकर कौन जायेगा, मरने के बाद भी क्षुधा शांत करने के लिए श्राद्ध कौन करेगा और रही गुरु की बात तो प्रथम संस्कार से अंतिम संस्कार तक तो उसकी आवश्यकता है ही और वो गुरु ही है जो  ईश्वर के निवास स्थान से पहले पड़ने वाले भवसागर को पार कराने का ठेका लेता है।  दूसरे लोक में दिव्य व्यवस्था जैसे स्वर्ग में कैब्रे करती अप्सराओं का आनंद, सोमरस के आनंद की व्यवस्था गुरु के माध्यम से ही संभव है।

ऐसे ही विचारों में मग्न और द्विवेदी जी के अद्वितीय सांस्कृतिक व्याख्यानों को सुनता हुआ मैं घर आ गया।

द्विवेदी जी की दार्शनिक बातों के बारे में सोचते सोचते और पूरे दिन की हलचल व थकान के कारण मुझे नींद आ गयी।  फिर मैंने एक स्वप्न देखा जिसमें मेरी मृत्यु हो गयी है और देवदूत मुझे लेकर जा रहे हैं फिर उन्होंने फुटबॉल की तरह उठाकर मुझे भवसागर में फेंक दिया लेकिन वहां मैंने ईश्वर की एक विशेष कृपापात्र जानवर की पूँछ पकड़ ली जिसने मुझे वो सागर पार करा दिया उसके उस पार मैंने ईश्वर का निवास स्थान देखा।  मैंने देखा कि भगवान हजारों दलालों और लाखों दासों के बीच घिरा बैठा है। वहां सभी को उनके स्टेटस के हिसाब से आसन  प्राप्त है।

मैंने देखा कि ईश्वर के निकट बैठे एक देवता, जिसके हाथ में कई सारे रजिस्टर थे, ने कहा, " प्रभु इस रजिस्टर में पृथ्वी लोक के आय-व्यय का लेखा  जोखा है, आज्ञा हो तो पढ़कर सुनाऊँ !!"

ईश्वर ने आज्ञा दे दी, उसने पढ़ना शुरू किया, " प्रभु, लगातार व्यय बढ़ने और आय की प्राप्ति घटने के कारण 'भुगतान संतुलन' बिगड़ गया है।  इसके बहुत से कारण हैं जैसे बहुत से भक्त टैक्स चोरी करने लगे हैं, वे उतना चढ़ावा नहीं चढ़ाते जितना उनको चढ़ाना चाहिए और आज कल तो कुछ भक्त नकली सोना चांदी भी चढाने लगे हैं, प्रभु इसके कारण राजकोषीय घाटा बढ़ता जा रहा है। "

ईश्वर क्रोध में कांपने लगा और बहुत से सामाजिक कल्याणकारी कार्यक्रमों जैसे अंधे को आँख देने, निसन्तानों को संतान देना, कोढ़ियों को काया देना और निर्धनो को माया देने जैसी योजनाओं को तत्काल प्रभाव से निरस्त करने का आदेश दिया।

किसी  दूसरे देवता ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा ,"प्रभु , ये भारत वासी बड़े ही कृतघ्न(अहसानफरामोश) हैं, आपने हमेशा जन्म लेने के लिए यही स्थान चुना तथा इस देश में न जाने कितनी कल्याणकारी योजनाएं चलायीं, लेकिन कुछ दुष्ट भारतीय अब दास बनकर या भक्त बनकर नहीं रहना चाहते, वो हर चीज का क्रेडिट आपको नहीं देना चाहते, इन दुष्टों को अब दास बनकर रहना अच्छा नहीं लगता और दबी जुबान से ये स्वतंत्रता की बात करने लगे हैं आपकी पूजा पाठ को कर्म काण्ड कहने लगे हैं अतः प्रभु इससे पहले कि ये लोग आपके द्वारा स्थापित संस्कारों और परम्पराओं को पूरी तरह नकारना शुरू कर दें, आपके जो सचमुच भक्त और दास हैं उन्हें बहला फुसला लें, आप इन दुष्टों को उचित दंड दें। "

फिर एक अन्य देवता खड़ा होकर उत्तेजना में बोलने लगा, " प्रभु , भारतियों में परम्पराओं के बंधन शिथिल होते जा रहे  हैं, खान-पान में तो यह जातिगत बंधन समाप्त ही होने वाला है और अब ये लोग अंतरजातीय विवाह भी करने लगे हैं जबकि आपने सम्भुक का वध करके जातीय व्यवस्था की नींव को मजबूत किया था लेकिन अब ये आदर्श ख़त्म होते जा रहे हैं और प्रभु, सबसे बुरी बात ये है कि आपका डर कुछ मानवों के ह्रदय से समाप्त होने लगा है।  कुछ तार्किक लोग आपके अस्तित्व को तार्किकता और सार्थकता के मानदंडों पर तौलने लगे हैं जो शुभ संकेत नहीं हैं।"

फिर मैंने देखा कि ईश्वर क्रोध में सर्प की तरह फ़ुफ़कारने  लगा, स्वार्थ और क्रोध से भरे ईश्वर ने भयानक गर्जना की जिससे उसी समय मेरा ये भ्रम टूट गया कि ईश्वर निर्विकार अर्थात विकारों से रहित है, मुझे उसमे हजारों बुराइयां दिखने लगीं अतः मैं वहां से आगे बढ़ गया। मैं कुछ दूर आगे बढ़ा था की किसी की चीखने की आवाजें सुनाई पड़ने लगी, मैं भाग कर उस तरफ गया तो एक भयानक दृश्य देखा। वहां मैंने द्विवेदी जी और उन जैसे हजारों लोगों को देखा, इन सभी ने 'यथार्थ' को पकड़ रखा था, वस्त्रविहीन यथार्थ की चीखें निकल रही थीं फिर सभी ने उसे परम्पराओं के बिस्तर पर ज़बरदस्ती लिटा दिया और संस्कारों से यथार्थ के हाथ पैर बांध दिए फिर बारी बारी से यथार्थ का बलात्कार करने लगे। ये हृदयविदारक दृश्य देखकर मैं भाग खड़ा हुआ, मुझे खुद  में बहुत ही हीनता और लघुता की अनुभूति हो रही थी। मैं  एक जगह खड़े होकर अपनी उखड़ी हुई साँसे दुरुस्त करने लगा  तभी वहीं दूर मुझे फक्कड़, यायावर सा एक व्यक्ति दिखा जो मुझे देख कर हंस रहा था।  मैंने उस व्यक्ति को  पहचान लिया। ये वही व्यक्ति था जिसने छह  सौ वर्ष पहले ही खुद को  सभी बंधनो व आसक्तियों से मुक्त कर लिया था। वो  हँसते हुए बार बार एक ही बात दोहरा रहा था,

                                                "कर का मनका डार दे, मनका मनका फेर"

उसके बार बार यही दोहराने के कारण मैं बहुत ही विचलित हो उठा, मेरे अंदर छटपटाहट होने लगी और मेरी आँख खुल गयी मैं पसीने से नहाया हुआ था, मेरी धड़कन बहुत तेज चल रही थी फिर धीरे धीरे सब ठीक होने लगा लेकिन न जाने क्यों मन बहुत भारी है, न जाने क्यों वातावरण में ऑक्सीजन ख़त्म सी हो गयी है, ना जाने क्यों बंधनों से आज़ाद होने के लिए मन छटपटा रहा है, न जाने क्यों …???

                                                                          --- दीपक शर्मा 'सार्थक'

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव7:28 am

    श्री सार्थक जी का व्यंग "यथार्थ का बलात्कार"
    एक गूढ़ सारगर्भित व्यंग है जो आम व्यक्ति की
    भावनाओं की अभिव्यक्ति का ही वर्णन करता है
    रचना अच्छी बन पड़ी है लेखक को हमारी बधाई

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: दीपक शर्मा 'सार्थक' का व्यंग्य - यथार्थ का बलात्कार
दीपक शर्मा 'सार्थक' का व्यंग्य - यथार्थ का बलात्कार
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