नैतिक जिम्मेदारी के सवाल ..... हमारे यहाँ हरेक असफलता के बाद नैतिक जिम्मेदारी लेने की परंपरा है। इस परंपरा के निर्वाह के लिए किसी मिशन ,आय...
नैतिक जिम्मेदारी के सवाल .....
हमारे यहाँ हरेक असफलता के बाद नैतिक जिम्मेदारी लेने की परंपरा है। इस परंपरा के निर्वाह के लिए किसी मिशन ,आयोजन या कार्यक्रम का फेल हो जाना जरूरी तत्व होता है। हमारे तरफ इसे बहुत ही संजीदगी से लेते हुए अंजाम दिया जाता है।
किसी मिशन,आयोजन या कार्यक्रम के फेल होने का ठीकरा एक-एक कर किस-किस पर फोडते रहेंगे ये अहम प्रश्न असफलताओं के बाद तुरंत पैदा हो जाता है ?इसके लिए समझदार लोग या पार्टी पहले से पूरी तैय्यारी किए होते हैं। एक आदमी सामने आता है या लाया जाता है, जो पूरी इमानदारी के साथ अपने आप को, ‘हुई गलती’ के लिए ‘मेन दोषी आदमी’ बतलाता है। लोग उस पर विश्वास करके, आने वाले दिनों में भूल जाने का वादा कर लेते हैं। ये बिलकुल उसी तरह की सादगी लिए होता है जैसे एक बड़ी रेल दुर्घटना के बाद एक छोटे से गेगमेन को जिम्मेदार ठहरा कर सस्पेंड कर दिया जावे या शहर में कत्लेआम ,कर्फ्यू के बाद एक थानेदार को लाइन अटेच कर लिया जावे। माननीय मंत्री,सांसदों के किसी लफड़े-घोटाले में इन्वाल्व होने पर एक जांच आयोग बिठा देने का प्रचलन है। यहाँ जिम्मेदारी फौरी तौर पर कबूल नहीं की,या करवाई जाती।
‘नैतिक जिम्मेदारी’ की रस्म-अदायगी सर्व-व्यापी है। दुनिया के हर काम में हर फील्ड में ये व्याप्त है। । आप खेल में है,तो खिलाड़ी, खिलाने वाले कोच ,क्यूरेटर,नाइ,धोबी सब इसके दायरे में आ जाते हैं। बस ‘हार’ होनी चाहिए, कोई न कोई खड़ा होके कह देगा ये मेरी वजह से हुआ।
हमारी नजर में ‘वो’ ऊपर उठ जाता है। ऊपर उठने का अंदाजा यूँ लगा सकते हैं कि अगले मैच में, अगला दिखता नहीं। वो अलग सटोरियों की जमात में शामिल होकर पैसा बानाने की जुगत में चला जाता है। नाटकों में इसे नेपथ्य कहा करते हैं।
अरबों –खरबों के, सेटेलाईट भेजने के अभियान में, कभी-कभी कोई चूक हो जाती है ,ऊपर जाने की बजाय सेटेलाईट धरती में लोट जाता है। हम अमेरिका ,जापान,चीन.या पडौसी देश को दोष देने के लिए खंगालते हैं। भाई आओ ,जिम्मेदारी लो हम अपने अभियान में असफल रहे ,बता दो ये सब तुम लोगों की चाल थी। घटिया माल भेजे, वरना हमारी सेटेलाईट आसमान में बातें करती। अब की बार हमारी लाज बचा लो हम कल आपके काम आयेंगे।
वो सेटेलाईट, जो पुराने फटाकों की तरह फुस्स हो के या जो अनारदाना जलने की बजाय फट जाए वाली की नौबत में समा जाती है। इस मौके को मीडिया वाले हाथ से जाने नहीं देते। वो घेरते हैं ,क्या कारण थे कि सेटेलाईट ‘कक्षा’ में नहीं भेजे जा सके?
वैज्ञानिकों को अगर कारण पता होता तो भला सेटेलाईट फुस्स ही क्यों होता ?
वे अपने राजनैतिक मुखौटे में पहले से तैय्यार जवाब पेश कर देते हैं।
इस अभियान में दरअसल बरसों की मेहनत लगी है। हमारे वैज्ञानिक दुनिया में बेजोड हैं। जो चूक हुई है उसका विश्लेष्ण किया जाएगा। हम मिशन को फेल नहीं होने देंगे। हम छह महीनों के भीतर दुनिया को दिखा देंगे कि हम भी अंतरिक्ष के मामले में किसी से कम नहीं हैं। इस फेल हुए मिशन की नैतिक जिम्मेदारी समय पर वैज्ञानिकों को वेतन न देने वाले बाबुओं की है। आगे क्या कहें ?
अगले दिन पेपर की हेडलाइन बनती है सेटेलाईट मिशन फेल। संपादकीय में खेद के साथ सरकार को समझाइश दी जाती है कि अगर मिशन की सफलता चाहिए तो वैज्ञानिकों को उचित समय पर पारिश्रमिक दिया जावे। ये मनरेगा मिशन नहीं है जिसमें ठेकेदार अपना कमीशन बाधे.... ?
हमारे देश में नहर ,बाँध ,डेम,पुल ,इमारतें ,रोड सब ठेके पर बनवाए जाते हैं। ठेके पर इन्हें देने –लेने की परंपरा कब और कैसे पड़ी इसका कोई प्रमाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। प्रमाणिक चीज तो ये है कि आजादी के बाद बनने वाले नहर ,पुल इमारत ,सड़क-रोड का टिकाऊ होना जरूरी नहीं है। । इस बारे में ,ठेकेदारों का ये मानना है कि, घोडा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या ?इस मुद्दे पर सब ठेकेदार एकमत हैं। वे इतना कमजोर प्रोडक्ट देते हैं कि एक खास मुकाम तक खिच भर जाए बस की सोच रहती है।
किसी अभागे का, बनते ही टूट- गिर जाता है तो उनको तत्काल, नैतिक जिम्मेदारी वाला रोल निभाना जरूरी हो जाता है।
वो बकायदा ,कभी घटिया सीमेंट या कारीगरों की एक रुपिया किलो अनाज मिलने से, काम के प्रति लापरवाही का बम फोड देते हैं। उल्टे सरकार को दोष दे देते हैं कि मजदूरों को इतनी सुविधाएँ दी गई तो वो दिन दूर नहीं जब वे काम के प्रति उदासीन हो जायेंगे। सरकार नैतिक जिम्मेदारी समझे......। कुछ कदम उठाये ....?
अगला ठेका ,इस रस्म अदायगी के निचोड़ से खुश होकर सरकार उनको दे देती है कि एक रुपिया वाला प्रचार,गरोबो की हितैषी ,गरीब रक्षक सरकार का, अच्छी तरह से हुआ।
मुझे मेट्रिक में तीन विषयों में सप्लीमेंट्री आई। तब मैं समझता था, कि मेरी उम्र नैतिक जिम्मेदारियों को समझने-साधने की नहीं हुई है। घर वालों ने दबाव बनाया ,मुझ पर लापरवाही के दोष मढ़े गए। इतनी लापरवाही आखिर हुई कैसे ....?क्या दिन-रात खेलकूद में मगन रहे ..?हम सब तो फस्ट,सेकंड डिवीजन की तरफ देख रहे थे,हमे क्या पता था जनाब सप्लीमेंट्री वाला गुल खिला रहे हैं। मेरी गर्दन तब झुकी रह गई थी। थोड़ी जिम्मेदारी का एहसास हुआ ,निगेटिव विचार कुआ- बावड़ी,सीलिंग़ फेन वाले भी क्षण मात्र को आये ,जिसे झटक दिया। ऐसे समय इन विचारों का झटक देना किसी महाअवतारी ही कर सकता है मुकाबला, आरोप लगाने वालों की तरफ धकेल दिया। सीधे-सीधे नाकामयाबी का सहारा कैसे पहन लेता ...? मैंने प्रतिप्रश्न किया, मालूम है सब दोस्त लोग ट्यूशन-कोचिंग पढ़ते हैं तब जाके पास होते हैं। आप लोग तो कभी बच्चों पर ध्यान देते नहीं ....?वे लोग जवाब-शुन्य थे, मेरी आफत टल गई थी।
आज के जमाने में ,नैतिक जिम्मेदारियों वाले बयानों का कलेक्शन करना,एल्बम बनाना,या वीडियो रिकार्डिग रखना एक पेशेवर काम का नया फील्ड हो सकता है।
जिस किसी को किसी भी मौके पर,किसी भी किस्म की जिम्मेदारी लेनी हो या मुंह फेरना हो उसे अध्ययन –मनन के फेर में पड़ने की बजाय रटा-रटाया,बना-बनाया हल मिल जाए तो इससे बेहतर चीज भला दूसरी क्या हो ....?
आजकल राजनीति में औंधे मुंह गिरने की गुंजाइश जोरों से हो गई है।
संभावित हार के नतीजे ,इधर मीडिया ने एक्जिट पोल में दिखाया नहीं, उधर नैतिक जिम्मेदारी वाला भाषण स्क्रिप्ट तैयार करवा लेनी चाहिए। इससे व्यर्थ तनाव ,अवसाद जैसे घातक रोगों से निजात मिल जाती है।
यूँ तो नैतिक जिम्मेदारी वाली ,सभी स्क्रिप्ट लगभग एक सी होगी। आप अपनी सुविधा के लिए सेफोलाजिस्ट से मिले आंकड़े, भर के, थोड़ी राहत की गुंजाइश अपने लिए देख सकते हैं।
बता सकते हैं कि पिछले चुनाव से ज्यादा वोट अब की बार मिले हैं। वोट प्रतिशत में इजाफा होने के बावजूद ये सीट में तब्दील नहीं हुए ये हमारा, हमारी पार्टी का दुर्भाग्य है।
हमारी हार की वजह पिछडों का मतदान करने न आना ,एक खास जाति के मतदाताओं का झुकाव एक खास पार्टी के पक्ष में हो जाना रहा। हमारी पार्टी ने रहीम को साधा, राम को दरकिनार किया। रोड शो में हमने किराए के लोग नहीं लगवाए। मीडिया को चटकदार जुमले नहीं परोसे, जिसे लेकर दिन-रात वो बहस करवाते रहें। हमने गलत पार्टी से गठबन्धन किया ,जिसका खमियाजा हमें भुगतना पड़ा। हमने टिकट वितरण में गलती की ,जीत सकने वाले लोगों को टिकट नहीं दे सके। अमीर लोगों को टिकट दे दिए ,वे पैसे एजेंटों को दे के, सो गये। बूथ तक झांकने नहीं आये। एजेंट पैसे मतदाताओं को देने की बजाय ,खुद दबा गए। खेल यहाँ हो गया .....। वैसे इन सब के बावजूद हार की सारी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मैं अपने पद से स्तीफा देता हूँ .....।
मैं इस स्क्रिप्ट की कापी राईट का लफडा नहीं रखते हुए, इसे सार्वजनिक प्रापर्टी बतौर एलान करता हूँ। इन शब्दों का इस्तेमाल जिसे जब मौक़ा मिले, पूरी, अधूरी या कोई एक भाग , अपने भाषण में कर लें......। मुझे तमाम असफल लोगों के साथ सहानुभूति है ....। आगामी समय उनका हो .....आमीन ....
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सुशील यादव
ज़ोन १ स्ट्रीट ३ ,न्यू आदर्श नगर ,
दुर्ग (छ ग.)
18.5.14
बहुत ही उम्दा ,सटीक और सारगर्भित व्यंग्य...एकदम ही नया विषय.."आज के जमाने में ,नैतिक जिम्मेदारियों वाले बयानों का कलेक्शन करना,एल्बम बनाना,या वीडियो रिकार्डिग रखना एक पेशेवर काम का नया फील्ड हो सकता है।" कहना बिलकुल सही है..सशक्त व्यंग्य के लिए ढेरों बधाईयाँ...प्रमोद यादव..
जवाब देंहटाएंभाई सुशील जी व्यंग वाकई अच्छा बना है
जवाब देंहटाएंबाकी सब मैं वोही कहता जो प्रमोदजी ने
पाहिले ही कह दिया है मेरी बधाई
श्री प्रमोद व् श्री श्रीवास्तव जी व्यंग के कथ्य की पहुच आप तक हो सकी इसकी प्रसन्नता है ।धन्यवाद।
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