बेमौसम की बारिश में कहते हैं अफसर की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी से जहां तक हो सके, बचना चाहिए । बचता मैं भी हूं लेकिन क्या करूं, कि यह सिर...
बेमौसम की बारिश में
कहते हैं अफसर की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी से जहां तक हो सके, बचना चाहिए। बचता मैं भी हूं लेकिन क्या करूं, कि यह सिर पर आ ही पड़ी है। अब हुक्मउदूली की हिम्मत मुझमें है नहीं। ऐसा नहीं कि अठारह साल की नौकरी के दौरान मैं ऊंचे आधिकारियों से मिला हूं। मिला हूं और मानता हूं कि ऊंचे अधिकारियों से मिलने का एक तरीका, ढंग और अंदाज होता है। एक कायदा होता है, एक करीना होता है। ऐसा नहीं कि मुंह उठाए इस तरह पहुंच गए जैसे ससुराल जाते हैं। बड़े अधिकारियों की निगाह पैनी और पसंद-नापसंद बहुत पक्की होती है। पसंद कर लिया तो पौबारह और अगर आपकी किसी बात पर चिढ़ गया तो बस काला पानी।
बड़े अधिकारियों को लगना चाहिए कि उनसे मुलाकात की खातिर आपने अपने आपको ‘प्रजेंटेबुल’ बनाने की कोशिश बड़ी मेहनत से की है। लेकिन उसी के साथ ये नहीं लगना चाहिए कि आप अपने-आपको इतना हसीन समझते हैं कि बड़े घर की बहू-बेटियां खुशी-खुशी आपके आगे बिछ जाएंगी। यह भी लगना चाहिए कि आप सभ्य होने की चरम सीमा पर पहुंच चुके हैं, यानी थोड़े डरपोक भी हैं, पर इतने भी नहीं कि अफसर की हां में हां भी न मिला सकते हों। बातें कहीं इतनी ज्यादा न करें कि आप गप्पी साबित हो जाएं या इतना चुप भी न रहें कि घुन्ने करार दिए जाएं और आप पर तरक्की के रास्ते बंद समझे जाएं। मतलब यह कि अफसर के आगे जाना और बात करना एक ऐसी कला है जिसके बिना पत्ता तक नहीं हिल सकता। पर अफसोस कि यह कला किसी कॉलेज-विश्वविद्यालय में पढ़ाई नहीं जाती।
आपको अक्सर ऐसी सूखी, दुबली-पतली लड़कियां मिली होंगी जो प्रायः हाईस्कूल या इंटर करने के बाद टाइप और शार्ट हैंड सीखकर कहीं लग जाती हैं और अपने काम को ‘सेक्रेट्रियल वर्क’ कहती हैं। प्राइवेट सेक्रेटरी भी आजकल कोई सम्मानजनक पद नहीं समझा जाता। अधेड़ उम्र, तोदिंयल, सफारी सूटधारी सेक्रेटरी भी आपने देखें होंगे। लेकिन यहां जिक्र है भारत सरकार के मंत्रालय के एक सेक्रेटरी का। जो लोग अनाड़ी हैं और नहीं जानते की भारत सरकार क्या है, वे यह भी समझ नहीं पायेंगे कि भारत सरकार के मंत्रालय का सेक्रेटरी क्या होता है पर भई जो लोग भारत सरकार की ताकत, सामर्थ्य, शक्ति, उसके तंत्र, उसी निमर्मता, उसकी प्रशासकीय व्यापकता और उसकी उदारता, उसकी सहिष्णुता, उसकी कृपाओं, उसकी इनायों से परिचित हैं, वे इस शब्द को सुनते ही चौंक ही नहीं, डर जाएंगे। घबरा जाएंगे। शायद खड़े ही हो जाएं। या प्रफुल्ल हो जाएंगे। नतमस्तक तो जरूर ही होंगे। हो सकता है हाथ भी जोड़ लें। सरकार को चलाने की नहीं, अपनी उंगलियां पर नाचने वाले न भारत सरकार के सचिवों के हाथ में इतनी ताकत होती है कि किसी से खुश हो जाएं तो उसे निहाल कर दें, किसी पर नाराज हो जाएं तो उसके जीवन को नरक बना दें। ये सर्वशक्तिमान होते हैं। उनके हाथ लंबे होते हैं। इनके निर्णय अंतिम होते हैं। इनके वाक्य वेदवाक्य होते हैं....तो जनाब ये जिक्र है कि भारत सरकार के मंत्रालय के एक सचिव का, जो मंत्री से अधिक शक्तिशाली होता है, क्योंकि मंत्री तो आते-जाते रहते हैं, पर ये स्थाई होते हैं।
कहते हैं किसी चीज़ की अधिकता आदमी पर अजीबो-गरीबो प्रभाव डालती है। अथाह धन या अथाह ख्याति या अथाह शक्ति आदमी को कुछ-से-कुछ बना देती है। ऐसे लोगों में सबसे लोकप्रिय बीमारी ‘सनक’ हो जाती है।
जिन सचिव महोदय का मैं जिक्र कर रहा हूं वे भी ‘खिसके’ हुए यानी सनके हुए है। उनके बारे में अक्सर अधिकारियों में कानाफूसी होती रहती है कि बुड्ढा कभी तो गोली देने पर इनाम देता है, कभी प्रशंसा करने पर बड़ी सख्त सजा देता है। कभी उलटे-पुलटे काम कर देता है। कभी याद रखने वाल चीजों को भूल जाता है और कभी गैरजरूरी चीजों को गिरह में बांध लेता है। मतलब यह है कि वह कब कैसे, किस तरह तरह करेगा, यह कोई सोच नहीं सकता। और इसीलिए लोग उससे खौफ खाते हैं। उसक पास जाने से थर्राते हैं।
अब जरा गौर कीजिए मेरे ऊपर। उम्र यही कोई चालीस के आसपास। कद कुछ मंझोला। व्यक्तित्व में ऐसा कुछ खास नहीं जो अपनी ओर आक`िर्षित को। भारत सरकार का एक अदना-सा अफसर। लेकिन अदना होते हुए भी गजेटेड, यानी राजपत्रित। अंडर में एक बड़े बाबू, सात क्लर्क और दो चपरासी और दो डेलीवेजर। बड़े ठाट से चाय बनवाता हूं। जाड़े में हीटर और गर्मी में कूलर की बेपनाह हवा खाता हूं। काम जितना कम-से-कम और जरूरी-से-जरूरी हो सकत है, उतना ही करता हूं। वैसे भी काम में मेरी दिलचस्पी जैसे-जैसे उम्र बढ़ रही हैं, उसी रफ्तार से कम होती जा रही है। इसमें मेरी कोई गलती नहीं है।
मैं गृहस्थ आदमी हूं। पत्नी एक गैर सरकारी स्कूल में टीचर है। बच्चे गैर सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। बूढ़ी मां खाना वगैरा पकाती है और फालतू समय में गुप्ता जी के यहां गपशप मार आती है। दिल्ली में रहते मेरी उम्र बीत चली है। सिर के बाल सफेद हो गए हैं। दिन-भर दफ्तर में बेकार बैठे-बैठे कनपटियों तड़पने लगती है। फिर भी मैं दिल्ली में पूरी तरह रच-बस गया हूं। मेरे पास किस्तों पर खरीदे गए एक स्कूटर, एक कलर टी.वी. फ्रिज, एक म्यूजिक सिस्टम, एक वाशिंग मशीन के अलावा टेलीफोन और कुछ दीगर कीमती सामान भी हैं। मुझे सरकारी मकान मिला हुआ है। डी.डी.ए. का फ्लैट मेरे नाम निकल आया है।
उसकी किस्तें लगातार ठीक वक्त पर दे रहा हूं। इस तरह आप मुझे खुश तो नहीं, बस ठीक-ठीक कह सकते हैं। आज से लेकर रिटायरमेंट तक मैंने पूरा हिसाब लगा लिया है। कम-से-कम इनकमटैक्स देता हूं। ज्यादा-से-ज्यादा पी.एफ.में पैसा कटाता हूं।
आज, यानी सात तारीख और बुधवार के दिन मेरा ग्यारह बजे एप्वाइंटमेंट है। सुबह जब बच्चे स्कूल चले गए, पत्नी पढ़ाने चली गई, नाश्ते के बाद माताजी गुप्ताजी के यहां चली गई तो मैं गुनगुनाने लगा। मैं चाहता था कि मेरे अंदर कुछ ताजगी पैदा हो, ताकि सुबह के सारे काम मैं एक विशेष प्रकार के उल्लास के अंतर्गत करूं और मनहूसियत ने छोने पाए। गुनगुनाने से फायदा हुआ।
आप यह तो नहीं कह सकते कि मैं गंदा रहता हूं, लेकिन यह सच है कि मैं लापरवाह होने की वजह से सजने पर ज्यादा विश्वास नहीं करता। सोचता हूं वक्त क्यों बर्बाद किया जाए। एक दिन गोल करके शेव बनाता हूं। तीसरे-चौथे ही नहाता हूं। विशेष रूप से जाड़ों में तो नहाने की बड़ी बेवकूफी समझता हूं। लेकिन सर्दी होने के बावजूद आज मैं गुसलखने में इस तरह घुसा जैसे यह मेरा रोज का काम हो जाहिर है यह गुनगुनाने का असर था। नहीं तो मैं गुसलखाने में घुसने से पहलें दस-पांच मिनट सिगरेट आदि पीने के बहाने ‘होने वाली’ को टालता रहता। नहाने से पहले नाखून देखे। अचानक ख्याल आया कि नाखून थोड़े से भी बड़े हों तो बहुत बुरा समझा जाता है। सुनते हैं अंग्रजों के जमाने में तो साहब के मुलाकातियों के नाखून चेक किए जाते थे....ये हमारे सेक्रेटरी साहब भी तो आई.ए.एस. हैं। इनकी भी तो वही ट्रेडीशंस हैं जो आई.सी.एस. की हुआ करती थीं। ये सोचते ही मैं नेलकटर की तरफ लपका और नाखूनों पर पिल पड़ा। वे बेचारे सोच रहे होंगे-ये आज कौन-सी आफत आ गई, जो हमें इस बेबर्दी से काटा जा रहा है। शेव इतनी होशियारी से बनाई कि नाई देख पाते तो दांतो तले उंगली दबा लेते। इत्मीनान हुआ कि चलो दो काम, यानी दो नाजुक काम तो पक्के हो गए। फिर मैं नदी में कूद पड़ा। यानी इस तरह नहाया जैसे नदी किनारे बसे वाले रंगीले छैले घंटों नदी में नहाया करते हैं-फरागत से।
आइने के सामने खयाल आया कि कौन-सा ऑफ्टर शेव लगाया जाए। मेरे पास दो आफ्टर शेव हैं। दोनों को निकाल लिया। फैसला न कर पाया कि कौन-सा अच्छा है। सोचा, क्यों न दोनों को लगा लूं। फिर अपनी इस बेवकूफी पर हंसी आई। फिर सोचा ‘टॉस’ कर लूं। फिर गुस्सा आया और आंख बंद करके एक ऑफ्टर शेव उठा लिया।
तैयार होने के सिलसिले में सबसे बड़ी दिक्कते आई कपड़े चुनने की। सरकारी अफसर हूं, पर कपड़े मेरे पास ऐसे हैं कि बस इज्जत बच जाती है। कुल मिलाकर छः टाइंया हैं जो रगड़-रगड़कर बदरंग हो गई है। वैसे आमतौर पर मैं वही कपड़े पहन लिया करता था जो सबसे आगे रखे हुए आसानी से मिल जाएं। लेकिन आज मैंने पहनने लायक कमीजें, टाइयां, सूट, कोट और पैंटे निकालकर बेड पर फैला दीं और परेशान-सा खड़ा हो गया।
फिर कोट पर बुरी तरह पिल पड़ा। ब्रुश लेकर मेहनत, उत्साह और लगन से धूल साफ करने लगा। वह धूल चारों तरफ उड़ रही थी। रात को जूते पर पालिश कर ली थी। कपड़े पहने, टाई लगाई, कोट पहना। आइने के सामने खड़ा हुआ तो अचानक ख्याल आया कि इस तरह कब तैयार हुआ करता था याद आया, चालीस से ऊपर के आदमी के लिए बेबाक और हिला देने वाली खुशी का यह अनुभव प्रायः दुर्लभ होता है। लगा, संपूर्ण व्यक्तिगत बज उठा हो...आज से अट्ठारह साल पहले जब मैं नया नौकर हुआ था तब ठीक इसी तरह डर, खुशी और जल्दी में तैयार होकर मिलने जाया करता था। अब भी उसकी याद जब आती है, भरपूर आती है। वह बहुत गंभीर, मासूम, आत्मीय और पूरे व्यक्तिगत में हमेंशा के लिए छिपकर बैठ जाने वाला प्रेम था। वह सचमुच बारह महीने शादाब रहने वाला फलदार पेड़ था। हमने लंबी दोपहरें और उदास शामें खामोश रहकर गुजारी थीं। मैं आज सचमुच उसी तरह हो रहा हूं। वह भी बुड्ढे, खूसट, गंजे, थुलथुल, छोटी-छोटी आंखों वाले खब्ती और सनकी, पेट की दसियों बीमारियों वाले चिड़चिड़े मरीज के लिए मैं तय नहीं कर सका कि अपने ऊपर हंसूं या रोऊं। खैर, फिर मैं रोने ही लगा। इतना रोया, इतना रोया कि सब कपड़े भीग गए। कोट पैंट ही नहीं पलंग की चादर, वार्डरोब में रखे कपड़े और बाहर अलगनी पर टंगे सूखे कपड़े-सब कुछ भीग गया।
बहुत खूब ।
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