श्याम गुप्त के बरवै छंद..... आदि शक्ति पद पंकज, धरि ध्यान, बरवै छंद कहै चहूं, मन सुख मान | जीवन नौका पापमय,पार न जाय, श्याम भजे घनश्याम...
श्याम गुप्त के बरवै छंद.....
आदि शक्ति पद पंकज, धरि ध्यान,
बरवै छंद कहै चहूं, मन सुख मान |
जीवन नौका पापमय,पार न जाय,
श्याम भजे घनश्याम को, पार लगाय |
नश्वर माया लूटिकै, चोर कहायं ,
राम नाम जो लूटिहौ, पाप नसायं|
तेल पाउडर बेचिकें, अति सुखु पायं,
जनता हीरो कहि रही, वे इठ्लायं |
अरथहीन तुकबंदी, हमहि न भाय,
कविता साँची करौ , मन हरखाय |
कत्था चूना पान मुख ,बहुरि सुहाय ,
अरबुद श्याम बने मुख,कछु न सुहाय |
बानी वृथा जो रसना, रस न बहाय ,
जगु जीते बानी सुघर, रस बरसाय |
कन कन में सो बसि रह्यो, ढूंढ न पे,
मंदिर मस्जिद चरच में, ढूंढन जाय |
पर पीरा में नहिं बहे, जे दृग नीर,
कहा श्याम दीदा धरे, जो बे पीर ||
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सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
होता है जब तेरा साथ
कभी हँसाती तो कभी रुलाती है ज़िंदगी
कभी इतराती तो कभी इठलाती है ज़िंदगी ,
कभी टूट के चट्टान माथे पर गिर जाती है जिंदगी
तो कभी फूलों की सेज बन गुदगुदाती है जिंदगी .
कभी अपनों की मार खिलाती है जिंदगी
तो कभी प्यार की लोरी सुनाती है जिंदगी.
रिश्तों की आंधी में सुनामी सा डुबाती है जिंदगी
तो कभी अन्जान परिंदों के घोसलों में चैन की नींद सुलाती है जिंदगी .
'अपनों , के रूप में धोखे का ' तम ' बन जाती है जिंदगी
तो कभी परायों में प्यार की कोपल उगाती है जिंदगी.
' अम्रत ' के नाम पर ' विष ' की बोतल भी होती है जिंदगी
तो कभी' सेवक' की गरिमा में ' गुरुत्व ' का पाठ पढ़ाती है जिंदगी .
'मतलब के मीत ' को ' नरक ' का मार्ग बनाती है जिंदगी
तो कभी बैचेन समुंदर में ' कलम ' ही पतवार बन आती है जिंदगी .
पर होता है जब तेरा दामन मेरे हाथ में
तो बिन सावन के ,सावन बन जाती है जिंदगी .
या होता है जब तेरा साथ, मेरे साथ में
तो ईश्वर की नेमत कहलाती है जिंदगी .
सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
डी - 184 , श्याम पार्क एक्स्टेनशन साहिबाबाद - 201005 ( ऊ . प्र . )
मो.
--
योगेन्द्र जीनगर
1-
जीत उमंग की
आज मन में तनाव की लहर दौड़ पड़ी,
हृदय की धरा पर कम्पन हुआ,
एक अहसास जो व्यक्त न हो पाए,
बस हलचल सी हुई।
तूफान का कहर मंड़राया,
तनाव के बवंड़र ने,
पल में छिन्न- भिन्न कर ड़ाला,
चुने हुए सपनों को।
उमंग टकराकर अपना जलवा दिखाने लगी,
फिर एक नया अहसास,
शायद इस बार भी हार निश्चित थी,
हौसला जैसे बस न्याय चाहता,
लक्ष्य पर अड़िग,
तनाव पर जैसे बाण बरसा रहा,
मन में हलचल तांड़व कर रही।
अंत में उमंग ने अपना दमखम दिखा ड़ाला,
तनाव का जन्म व्यर्थ रहा,
हृदय की धरा पर तूफान लाकर,
सपनों के घर को तहस-नहस कर ड़ाला,
पर उमंग ने तूफान को टक्कर दे दी,
उमंग अपनी बुलन्दी हासिल किये,
जैसे गर्व छलकाता हुआ दिखाई पड़ा।
चेहरे जो बयां करते प्रत्यक्ष परिणाम
रिति-रिति की दुनिया में,
भांति-भांति के लोग,
भाव सबके मुख पर यहां,
पर छिपा नहीं सकते लोग।
भाव मुख से बन बूंद टपकता,
मुख ही परिणाम बताया करता,
मन भाव का पता लगाता,
मुख पर हाल प्रत्यक्ष जो दिखता।
हंसी खुशी के भाव छलकते,
तो कहीं मन दुःख से भरा,
चेहरे जो बयां कर देते,
भाव का प्रत्यक्ष परिणाम खरा।
--
ये करुणामयी नयनवा मेरे
आपत्ति कोई घटती सामने,
ये अश्रु रुकना नहीं चाहते,
हृदय धडकता जोर-जोर से,
बस उसको एक टक देखने लगते,
ये करुणामयी नयनवा मेरे।
दया भाव उत्पन्न हो जाता मुझमें,
करुणा का उदय हो जाता सीने में,
पसीना पानी की भांति बहता रन्द्र से,
ये दृश्य कैसा दिखाते,
ये करुणामयी नयनवा मेरे।
ये भाव मुख पर मेरे कैसा है,
शब्द ज़ुबां तक आ रुकता है,
ये आवाज ओष्ठ के अन्दर ही अटकी है,
जब करुणामयी दृश्य दिखाते,
ये करुणामयी नयनवा मेरे।
कांपने लगते हस्त मेरे,
पादु है वहीं रुक जाते,
आगे बढ़ने को मन नहीं कहता,
दृश्य ऐसा प्रतीत करते है,
ये करुणामयी नयनवा मेरे।
-योगेन्द्र जीनगर,राजसमन्द
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श्रीप्रकाश शुक्ल
क्रिकेट विश्व कप विजय दिवस
आँखों देखा वृतांत है ये, क्रिकेट विश्व कप विजय दिवस का
विश्व विजय के स्वप्न संजोये, कर्मठता से गढ़े सुयश का
दो अप्रैल, भूमि भारत की, नगर मुंबई क्रीड़ा स्थल
दो हज़ार ग्यारह की घटना, कौतुक भरा जहाँ था हर पल
श्रीलंका के क्रिकेट खिलाडी, उत्कृष्ट, विलक्षण कौशल सज्जित
पांच देश की टीमें जिनसे, अब तक रहीं विफल,अविजित
वनखेड़े के खेल प्रसर में, एक वृत्त में खड़े हुए
दे रहे चुनौती थे भारत को, स्वाभिमान से भरे हुए
उपलब्धियां हमारी भी अपूर्व, समतुल्य रहीं प्रतिमानों में
विश्व विजय की प्रवल लालसा, पलती थी अरमानों में
श्रीलंका के कुशल खिलाडी, खेल चुके थे पहली पारी
दो सतक चौहत्तर रन लेकर स्कोर खड़ा था समुचित भारी
धोनी, सहवाग, सचिन, रैना और गौतम गंभीर
युवराज, शांत श्री, नेहरा, भज्जी, मुनाफ पटेल जहीर
ये खेल बाँकुरे भारत भू के,प्रति उत्तर में उतर पड़े
मन में था संदेह न किंचित, यद्यपि लगते आंकड़े बड़े
रण भेरी बजी, पलक झपकी, लसिथ मलिंगा टूट पड़ा
जब तक सहवाग संभल पाते, गहरा संकट हो गया खडा
पहिला विकिट गिर गया था, गौतम आ कर डट गये क्रीज़ पर
संकट गहराया और घना, जब आउट सचिन अठारह पर
गौतम, विराट अब खेल रहे थे, सामंजस्य प्रचुर था दोनों में
रन की बारिश घनघोर हो रही, हौसला प्रखर था दोनों में
पर यह खुशियाँ बिखर गयीं, जब विराट का विकिट गिरा
तिमिर छागया आँखों सन्मुख, पगतल से खिंचती दिखी धरा
धोनी ने सोचा मन में, आ पहुंची घडी समीक्षा की
बढते दवाव के रहते, खेलोचित धैर्य परीक्षा की
बोले, यूवी तुम रुको अभी, मैं ही आगे बढ़ जाता हूँ
इन निर्भय ढीट गेंदबाजों को जम कर मजा चखाता हूँ
कप्तान और गौतम की जोड़ी, भायी थी सब के ही मन
कप्तान दे रहा महज साथ, गौतम बरसाता जाता रन
तीन रनों की दूरी थी, एक शतक बन जाने में
पर थोड़ी सी चूक होगयी, जाने में अनजाने में
द्रुति गति गेंद पिरेरा की, जब मध्य विकिट से आ टकराई
विकिट गिर गया गौतम का परिसर में मायूसी छाई
और अचानक लगा नियति कुछ क्रूर हो गयी
जीती मंजिल कठिन, तनिक सी दूर हो गयी
लक्ष्य रहा जब शेष चार का, और बच रहीं ग्यारह बाल
धोनी, यूवी के चहरों पर, दिखा रक्त लेता उबाल
अगली आती हुयी बाल पर, जड़ दिया एक धोनी ने छक्का
झूम उठे सब भारतवासी, विश्व देखता हक्का बक्का
सुशिष्ट भाव से हम खेले, सम्पूर्ण विश्व के सभी दलों से
खेल भावना रही बलवती, बल अजमाए अन्य बलों से
यह कीर्तिमान था कर्मठता का, लगन और उत्कृष्ट कर्म का
देश प्रेम का, खेल प्रेम का, सहिष्णुता, मानवीय धर्मं का
ये खेल कहानी भारत की एक नयी प्रेरणा लाएगी
विश्व बंधेगा एक सूत्र ,प्रेम ज्योति लहरायेगी
श्रीप्रकाश शुक्ल
रचनाकार परिचय
विंग कमांडर श्रीप्रकाश शुक्ल उत्तरप्रदेश के एक छोटे से गाँव कंधेसी पचार में १७ अक्टोबर १९४ ० को पैदा हए । विक्रम विश्व विद्यालय से १ ९ ६ १ में भौतिक विज्ञानं में स्नातकोत्तर उपाधि, विश्व विद्यालय में प्रथम स्थान एवं स्वर्ण पदक एवं १ ९ ७ ४ में IIT मुम्बई से M TECH ( Comm Engg ) की योग्यता प्राप्त की ।
भारतीय वायु सेना में कमीशंड अधिकारी के रूप में प्रवेश । १ ९ ६ ५ और १ ९ ७ १ में भारत पाकिस्तान युद्ध में सक्रिय भाग । १ ९ ६ ५ के युद्ध में पाकिस्तान के वायुयान पर सर्व प्रथम प्रथ्वी से आकाश में प्रक्षेपण अस्त्र प्रहार का श्रेय प्राप्त ।
हिंदी साहित्य में बचपन से ही विशेष अभिरुचि । १ ५ ० से अधिक रचनाएँ सृजित ।
फरवरी २ ० ० ९ से अमेरिका के स्थायी निवासी ।
0000000000000000000000शशांक मिश्र भारती
चुनावी मौसम की क्षणिकाएं
01
उन्होंने-
फिर अपनी रीति बदली है
इसीलिए-
चल रही दिल्ली से गांव तक
अदला-बदली है।
02-
वे-
नियम-यम से सम हैं ,
इसीलिए
सड़क से संसद तक
उनके मुक्के में दम है।
03-
वे-
आज भी आगे हैं
कुशल संचालन में;
सभा हो या सदन
जूते चलवाने में।
04-
वे-
बदल गए हैं,
पहले थे झोंपड़ी में
अब-
महलों में पहुंच गए हैं।
05-
उन्होंने-
कसम खाई,
तत्काल जाकर बनादी
वायदों की इकाईं।
06-
उन्होंने-
गृह मंत्रालय संभाला,
पर-
ग्रह के धोखे में
निकल गया दिवाला।
07-
वे-
आँखों से देखकर
कानों से सुनकर
नाक से सूँघकर और
बुद्धि से विचार कर भी
सिर्फ-
कुर्सी की सोचते हैं।
08-
वे-
अपने वादों व झूठे
इरादों के साथ आये,
उफनी नीति विस्तृत हुए स्वार्थ
जनता की आशाएं
ढहाते चले गए।
09-
वे-
कल जब आये
झोंपड़ी मे थे
लेकिन-
आज महलों में खड़े हैं।
10-
वे-
नित्य उद्घाटन करते हैं,
जन की खाल उतरवाने को
तंत्र की फैक्टरियों का।
00000000000000000
सविता मिश्रा
गुस्से से गुस्से की तकरार हो गयी
जिह्वा भी गुस्से की ही भेंट चढ़ गयी
एक गुस्से में बोले एक तो दूजा चार बोलता
जिह्वा बेचारी सबके सामने शर्मसार हो गयी |
गुस्से से गुस्से की तकरार हो गयी ............
गालिया बकते एक दूजे को अचानक
आपस में ही मारामार हो गयी
एक ने चलाया हाथ दूजा करे पैर से वार
देखते देखते कुटमकाट हो गयी |
गुस्से से गुस्से की तकरार हो गयी ..........
एक ने सर फोड़ा तो दूजे ने हाथ तोड़ा
आपस में ही काटम काट हो गयी
एक ने लाठी उठाई तो दूजे ने पत्थर चलाये
देखते ही देखते खून की नदिया बह गयी |
गुस्से से गुस्से की तकरार हो गयी ..........
जब तक आपस में लड़ थक कर चूर ना हुए
धुल धरती की चाटने को मजबूर ना हुए
तब तक एक दूजे के खून के प्यासे रहे बने
मानवता यहाँ शर्मसार हो गयी |
गुस्से से गुस्से की तकरार हो गयी ..........
होश आया तो शर्म से आंखे झुक गयी
अपनी करनी पर पश्चाताप बहुत हुआ
गाली गलौज कब हाथापाई पर ख़त्म हुई
गुस्से पर गुस्सा प्रभावी ना जाने कब हुआ
गुस्से से गुस्से की तकरार जब हुई
गुस्से से गुस्से की तकरार हुई
तकरार हुई ....................
+++ +++
00000000000000
कोनिक दोशी
कैसे रुक सकती है तू ?
तुझे तो अभी मीलों चलना है।
इस श्वेत आँगन पर तेरा हर कदम,
एक नई राह बनाएगा।
स्याही से रंगे ये पन्ने,
मिलन है भावों का शब्दों से।
माना कि तू दिया नहीं,
पर विपुल प्रकाश तुझे करना है।
जो सोए है अंधेरे में उन्हें जगाना है।
माना कि तू शमशीर नहीं,
पर युद्ध तुझे लड़ना है।
रक्त नहीं बहाना तुझको ,बस रक्त उबालना है।
माना कि तू निर्जीव है, मैंने तुझे बनाया।
पर तुझे अब जहाँ बनाना है।
क्रांतिदूत,शांतिदूत,प्रेमदूत सब तुझे ही बनना है।
मेरी प्यारी कलम,
कैसे रुक सकती है तू?
तुझे तो अभी मीलों चलना है।
-
000000000000000
शेफाली वर्मा
मेरा कसूर ?
मेरे जन्म पे जिसने ताने मारे
जिस-जिस ने आँखों में आँसू लाए
आज पूछती हूँ मैं उनसे
क्या कसूर था मेरा -----------------
क्या मैं संग अपने लायी थी बालाएं ?
अभी-अभी तो मैं आयी थी
कोई नाम न धारण कर पायी थी
इतनी जल्दी गुम-सुम हुई मैं क्योंकर
मुझसे गलती आखिर हुई कहाँ पर !
मेरे जन्मदिन की वो धूम नही दिखी
जो मेरे भाई को मिली
खैर! इस दो कौड़ी का जन्मदिन
मैं खुद ही मनाऊँगी बड़े धूम से एक दिन
मेरी अनेक सखियाँ तो नहीं
क्या सबकी कहानियां है वही
क्या ये है केवल मेरे ही गाँव की परंपरा ?
क्या दूसरे जगह लक्ष्मी है बेटियाँ ?
मुझे ये बात समझ नहीं आई
बड़ों ने कैसी पहेलियाँ है बुझाई
हम बेटियाँ ही क्यूँ होती है विदा?
बेटों को क्या है खतरा
फिर भी माँ-बाप का साथ रहा
उस अनजान से आँगन में
उन अनजान लोगो में
मेरे विदाई के आंसू अब तक न थमे
क्या गलती कि थी मैंने??
बापू ने भेजा है ; तो घर अच्छा ही होगा
लोग अच्छे होंगे, वर अच्छा ही होगा
सब कुछ अच्छा होगा ;तो मेरा मन बहलेगा
मन बहलेगा तो ; मेरा घर बसेगा
आंसू पीछे, ख़ुशियाँ आगे
फिर भी इस आँगन में मन ना लागे
सास-ससुर का प्यार अपनों सा
फिर भी लगे कभी पराये सा
बस! सिमट गयी मेरी ज़िन्दगी
टूट गयी मेरी सपनों की सीढ़ी
अब वैसा न कोई आता ख़याल
आंसू कि छींटे से भीगती रुमाल !
मेरी सारी सहेलियों का क्या हुआ?
भला ही हुआ होगा रहे मेरी ये दुआ
क्यों हम लड़कियाँ कभी
सुरक्षित अपना आँगन ना पाती?
हमे भी एक मौका तो दो
हम भी साबित कर सके खुद को
क्यों ये असुरक्षा का अभाव?
केवल हमे ही क्यों ये घाव ?
घूमती-फिरती ;जवाब ढूंढती
मैं आज सबसे पूछती -
आखिर क्या कसूर था मेरा ?
मेरा कसूर क्या था?
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शेफाली वर्मा ,वर्ग-x ,डी. ए वी।
कथारा ,बोकारो थर्मल
00000000000
विजय वर्मा
हम नहीं मानते
आप बड़ा परेशान है, ये हम नहीं मानते
आप देश की जान है, हम नहीं मानते।
अजी! बहुत जल्द आप 'आम ' से खाश हुए
आप मलमल की थान है, हम नहीं मानते।
इस हाथ से दिया , उस हाथ से ले लिया
इसे कहते आप दान है, हम नहीं मानते।
ठीक है कि यहाँ सब लोग ईमानदार नहीं
आपको छोड़ सब बेईमान है,हम नहीं मानते।
जेब में प्रमाण है कई महीनों से कहते रहे
आपके पास कोई प्रमाण है,हम नहीं मानते।
दहेज़ की आग में आज भी जल रही बेटियां
फिर भी देश यह महान है,हम नहीं मानते।
पिद्दी-पिद्दी देश गरिया कर चल देते है,और
बरकरार देश की शान है, हम नहीं मानते।
सब आतंकवादियों का वही मुल्क तो बाप है
अपने बेटों से अनजान है ,हम नहीं मानते ।
दो मीठे बोल तो आपके मुख से निकले नहीं
आपकी मिठाई की दूकान है,हम नहीं मानते।
'काश्मीर ' देश का अंग है, उधर आँख मत उठाना
यह तेरे खाला की दालान है ,हम नहीं मानते।
क्या वायदा किया, क्या तज़वीज़ लेकर आये
अगर ये ही समाधान है तो इसे हम नहीं मानते।
दो मीठे बोल तो आपके मुख से निकलते नहीं
आपकी मिठाई की दुकान है,हम नहीं मानते।
आप ही के दिए ग़म को रखा है सम्भाल कर
और आप इससे अनजान है ,हम नहीं मानते।
वादे-वादे-वादे बस सिर्फ झूठे वादे है मतलब के
आपके सच्चे अरमान है,हम नहीं मानते।
बालू -घाट को बस लूटेरों पर छोड़ दिया ,और
कहते नदी की धसान है ,हम नहीं मानते।
राहत -शिविर मौत पर भी कर लेते राजनीति
सब विधि का विधान है ,हम नहीं मानते।
सारे मानवाधिकार है सिर्फ आतंकियों के लिए
फिर भी इंसा पर तेरा ईमान है ,हम नहीं मानते।
संसद में अक्सर लात-जूते चलते है ,फिर भी
यह मंदिर के समान है,हम नहीं मानते।
पहले आतंक बढ़ाते है,फिर भ्रमण को आते है
ये हमारे 'मेहमान ' इसे हम नहीं मानते।
आपसे कुछ कहना था सो आकर कह दिया ,ये भी
कोई गीत ,ग़ज़ल या गान है ,हम नहीं मानते।
v k verma,chem lab,d.v.c.,btps.
kharangajhar,jsr.
vijayvermavijay560@gmail.com
000000000000
विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
लाडलों का कहां गया बचपन
वो रूठना और मचलना, बात-बात अनवन
छत पर सोना छूटा,छूटा आसमान का ज्ञान,
सप्त ॠषि व ध्रुव तारे की,कठिन हुई पहचान,
मिट्टी के घरौंदे छूटे, छूट गया आंगन ।।
लाडलों का.............
जोड़-बाकी का ज्ञान कंचों ,सहज सीख जाता था,
और निशाना संतोलिया से, उसको आ जाता था,
आज सुविधा बेहतर उसको, फिर उदास
क्यूं मन ।।
लाडलों का कहां........
नाव बना कागज की, और पानी में तैराना,
कहां मिला इनको बारिश में, छपक- छपक
के नहाना,
मात-पिता की इच्छाओँ ने,छीना तन और मन ।।
लाडलों का कहां........
नानी-दादी के किस्से ना, जिन्हें मिली हो गोद ,
क्या चिकने कागज की पुस्तक, दे पायेगी
मोद,
तीन साल का बालक भेजा,विद्यालय बनठन ।।
लाडलों का कहां........
गुड्डे-गुड़ियों का खेल सिखाता, उसे सामाजिक ज्ञान,
कागज के हवाई जहाज से,मिले सहज विज्ञान,
मत छीनो बालक से खुशियां, ऐसे करो जतन ।
लाडलों का कहां गया बचपन।।
--
वो नदी सी रात -दिन,अनवरत बहती रही ,
पुरूष अडिग पहाड़ सा,चल न पाया एक डग ।
मोमबत्ती सी जली वो,प्रकाशित घर होता
रहा,
पुरुष जब भी जला, धुआं वातावरण में छा
गया ।
नारी ने जीवन जिया, सदैव ओरों के लिए,
पुरुष जीवन सिर्फ, स्वयं के लिए ही कम
रहा ।
त्याग, प्रेम, सेवा-निधि, लुटाती रही जो सर्वदा,
पुरुष रहा अभ्यस्त केवल, जोड़-तोड़ हिसाब में ।
नारी रही साम्राज्ञी,अन्त: के संसार की,
पुरुष रहा सम्राट, केवल बाहरी परिवेश
का ।
नारी अनुभूति प्रेम की, लयबद्ध कविता सी रही,
अहं के वशीभूत नर, क्लिष्ट रहा है लेख
सा ।।
-
गंगापुर सिटी, स.मा. (राज.) 322201
000000000000000
मनोज 'आजिज़'
मचा चुनाव का शोर है
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पाँच वर्ष बाद फिर वही
मचा चुनाव का शोर है
ऐसा मानो बरसात में
वन में नाचा मोर है
वादे सैकड़ों लिए अब तो
नेताओं की होड़ है
टिकट के लिए कोई लड़ता
कोई पहले रण छोड़ है
देश भर में बदलाव लाने
संकल्प किसी का घोर है
कोई फिर एक मौका चाहता
जनता पर डाला डोर है
लोकतंत्र की यही ख़ासियत
पार्टी लगाती जोर है
पर, जनता जिस पर हाथ फेरती
होता उसी का भोर है
आज फिर दुनिया की दृष्टि
भारत वर्ष की ओर है
आएं सब मिल शाबित करें
आज भी भारत शिरमौर है ।
आदित्यपुर-२, जमशेदपुर-१४
झारखण्ड
00000000000000000000
सीताराम पटेल
जवानी आई
बालि उमरिया मुझसे भागी है पराई।
शरमाई मैं घबराई॥1॥
प्रेम के भंग साजन तुमने है पिलाई।
क्या करूं बोलिए कन्हाई॥2॥
मुस्कुराई मैंने नजरे मिलाई झुकाई।
तुम्हें देख थरथराई॥3॥
निम्बू कहाती फिरती थी संतरा कहाई।
मजा मिला मुझे छुआई॥4॥
नीक लगे देख देख किताब की पढ़ाई।
नाम ले मुझको बुलाई॥5॥
अच्छा लगे मुझे तुमसे बाल संवराई।
गाल छुआ अंग लगाई॥6॥
आंख मिचोली साजन मुझे बहुत भाई।
परस्पर बांहों समाई॥7॥
बैरिन जवानी मुझमें चुपके से आई।
भागी मुझसे चतुराई॥8॥
मैं अकेली कभी रोई कभी खिलखिलाई।
कौन सा रोग पाल आई॥9॥
तुम्हारी याद आए जब करूं मैं पढ़ाई।
मुझे न सुहाए तन्हाई॥10॥
अच्छी लगने लगी तुमसे आंख लड़ाई।
बुरा कैसे बांहों समाई॥11॥
नयनों ने मेरे अनोखे सपने सजाई।
बैरिन निन्दिया न आई॥12॥
छुप छुप कर देखें बालम हरजाई।
जब जब लूं अंगड़ाई॥13॥
आकाश की उंचाई, सागर की गहराई।
इसी उम्र में सब पाई॥14॥
लता की आवाज, बिस्मिला खां की शहनाई।
दोनों साथ साथ है लाई॥15॥
खेलने जाने को बरजती मुझको माई।
अंगना में कैदी बनाई॥16॥
गुलाबी गालों पर मेरे बाल लहराई।
मानस में आग लगाई॥17॥
वसुधा भोली भाली बसंत करे लड़ाई।
सफेदी चुनरी रंगाई॥18॥
जब मैं छाती से अपना आंचल गिराई।
होने लगी जग हंसाई॥19॥
रोज रोज सोचूं कब होगी मेरी सगाई।
काटे न कटे ये तन्हाई॥20॥
मुझे देख देख कर चार आम बौराई।
बहार लाये रूसवाई॥21॥
सहा न जाए मुझको पुरूषों की घुराई।
तन में जलन लगाई॥22॥
डूब जाउं बावली यमुना की गहराई।
दिल की प्यास न बुझाई॥23॥
सुबह शाम रात दिन आवाज सुनाई।
संसार सुहानी सुहाई॥24॥
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जसबीर चावला की पैनी कविताएँ
कबीर की लापता चादर
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'दास कबीर जतन से ओड़ी
ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया'
एक चादर की पूँजी लिये घूमता फक्कड़ जुलाहा
ओड़ता बिछाता
सबको ओड़ाता चादर
खरे विद्रोही विचारों की चादर
कोड़े सी फटकार देता
'सुवर्ण कलश सुरा भरा साधुन निंदा होए'
कभी पुचकार देता
'कर का मनका डार के मन का मनका फेर'
तहा कर रखी मन के अंदर
न फटनें दी जीते जी चादर
अब गुम हुई बरसों से
ढूँढ रहा हूँ वही लापता चादर
हिन्दू सिक्ख मुसलमानों में
काशी क़ाबा अयोध्या में
बाबाओं के अगनित धोबीघाटों में
गंदे कपड़ों के लगे अंबार जहाँ
सब कुछ मिलता है
नफरत अंधविश्वास की दुकानों पर
नहीं मिलता सद्भाव
खोई चादर नहीं मिलती कबीर की
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राष्ट्रीय प्रवक्ता का यू टर्न
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सड़क पर चलनें के अपने नियम हैं
सुरक्षा सुगमता के लिये
राईट लेफ़्ट वन वे
जरुरत पर यू टर्न
घूम कर तीन सौ साठ डिग्री भी
राजनीति के क़ायदे बड़े अजीब हैं
प्रवक्ता को इलहाम हो जाये
टीपू सुल्तान मीर जाफ़र बन जाये
राजनीति की सड़क पर अबाउट टर्न होते हैं
नपुंसक तर्क के जाल में उलझते
दल से दलदल के क़ायदे
करंसी चेस्ट से कुछ लालीपाप बँटे होगें
वरना कोई 'यूँ' ही 'यू' टर्न नहीं लेता
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कुप्पा
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हर बीमारी का इलाज हे मेरे पास
सर्वशक्तिमान
विकास हो या विनाश
समस्या चुटकी में हल
रुठी प्रेमिका मनाना / उठवाना
मुठभेड़ में जीत / मुठकरणी
संतान होने की पक्की गारंटी
अवैध रिश्ते ही रिश्ते
वशिकरण जानता हूँ
कर दूँ चीन के दाँत खट्टे
पाकिस्तान का मुंह तोड़ दूँ
डरे अमेरिका मुझसे
सारी कायनात डरे
एक बार मिल तो लें
बस चुन तो लें मुझे
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अर्थ आवर
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इस साल भी तुमनें बचाई बिजली
कम जलाये बल्ब दो घंटे
मैं तो बरसों से ढिबरी ही जलाता हूँ
और आज तो मेरे घर चूल्हा भी नहीं जला
कितनी बचत हुई ऊर्जा की
ऐसा कई बार होता है
नुक्सान नहीं करता ओज़ोन परत का
पर्यावरण का
कोई मेरे योगदान का नोटिस ही नहीं लेता
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शांत : दलबदल चालू है
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यूँ ही कम थी रीढ़ की हड्डियां
कुछ लग गई
बनना था जिन्हें केंचुआ
तनते कैसे
बिना शर्म हया के रेंग रहे
दल से दल
दलदल में पेल रहे
मानते हैं
संतुष्ट सूअर अच्छा है
असंतुष्ट सुकरात से
लोकतंत्र खेल रहे
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तृष्णा
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सोये हैं
कहते जाग रहे
सीता से नहीं सीखा
स्वर्ण मृग था नहीं
पीछे भाग रहे
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जागो
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चापलूसी
जय जयकार
छुपे भेडिये
भेड़ की खाल
लूट रहे संसाधन
बिक रहा देश
बुरा हाल
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48,Adityanagar
A B Road
Indore-452001
chawla.jasbir@gmail.com
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डॉ. बच्चन पाठक 'सलिल'
मिट्टी का पुत्र
मैं गमले में नहीं उगा हूँ
किसी वाद के
नहीं किसी माली की सेवा मैंने ली है
मैं बबूल हूँ, छोटी पत्ती, काँटों वाला
जीवन क्रम में अपनी राह बनाई मैंने |
मुझे नहीं सौभाग्य मिला कि मेरे आवाहन पर
रजत रश्मियाँ तोड़ कुहासा फूट पड़े
तप्त धरा हो शांत, मरुश्थल शाद्वल हो
शीतल मलय बयार चले |
मैं मिट्टी का पुत्र, सदा साथ दो बाहें अपनी
अपने बल पर अब तक हूँ चलता आया
कुछ हैं ऐसे कलाकार जो सपनों की खेती करते हैं
इस धरती से कटे हुए वे
मुझे न उनसे तनिक द्वेष है
जो अपने से निर्वासित हो
करुणा-पात्र बने फिरते हैं
पर यह मेरी रही मान्यता
जो कुछ है, वह मिट्टी में है
और कल्पना का वह नंदन कानन
चाहे जितना भी सुन्दर हो
पर मुझको यह ऊबड़ खाबड़
धरती ही प्यारी लगती है |
पता- जमशेदपुर
फोन-- ०६५७/२३७0८९२
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सीमा असीम
वसंत मेरे भीतर उतर आया है
कोयल की कूक सा कुहुँकता हुआ वसंत
मेरे मन के भीतर उतर आया है
जबसे तुम्हारे होने के अहसास ने
मेरे आसपास पडाव बना लिया है
शहद सा झडता है मेरी ऑंखों से
कच्चे टेसू के रंग से मेरी हथेलियॉं रंग गयी हैं
पीले फूलों सी तितली तुम्हारी स्मृतियॉं सहेजे मंडरा रही है
सौंधी सी खुशबू मेरे मन की धरा पर बिखर गई है
उमंगों के कचनार खिल उठे हैं
मेरा दिल धडकते हुए मचल उठा है
तुम बदलते मौसम की तरह
चुपचाप मेरे मन की बगिया में आकर ठिठक गये हो
मुझमें ही उलझते हुए से
तुम्हारे आते ही मन में सारे मौसम
रंग बिखेरने लगे हैं
यह पीला वसंत और भी वासंती हो गया है
सपने में भी, पल भर को, तुमसे दूर जाने का अहसास
मेरी पलकों को गीली कर देता है
और ढुलकने लगता है गालों पर
हे बहती हुई पुरवाई! जरा ध्यान से सुन ले
मैं उस नेह की डोर से बंधी मुस्कुरा उठी हूं तो
तुम जरा हौले से चलो
कहीं जमाने की नजर न लग जाये
पीले फूलों सा खिलता वसंत
अब हर मौसम में
मुझ में ही मिल जायेगा
क्योंकि वसंत मेरे मन के भीतर उतर आया है।
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धर्मेन्द्र निर्मल
उम्मीद
अभी अभी
यहां से गुजरा एक जानवर
चालीस साल पहले
मेरे पूछे जाने पर कि
कब तक बदल डालोगे दुनिया
कहा था- यही कोई आधी सदी लगेगी
अब -जब
मैंने जानना चाहा
चालीस साल बाद
उनके आदमी से जानवर में तब्दील होने का कारण
मुरझाते मेरी आशा के बिरवे पर
सींचते विश्वास जल
मुस्कुराकर उसने कहा -
बिरादर ही बिरादर की भाषा समझता है
हो न हो
इस दशक के अंत तक बदल जाए
सिर्फ उम्मीद पर तो कायम है
ये दुनिया।
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अगर पूछा जाए
अगर पूछा जाए
क्या बनना चाहते हो ?
मेरा जवाब होगा -
चोर
कर देना चाहता हॅूं
कंगाल भारतवासियों को
चुराकर उनके मन के भय और दहशत।
अगर पूछा जाए
क्या करना चाहते हो ?
मेरा जवाब होगा -
विद्रोह
खींचकर ला देना चाहता हॅूं
जनता के सामने
मुखौटों में छिपे
मक्कार चेहरों को।
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जागो
जागो तो सही तुम
भले मत दौड़ना डंडा लेकर
तुम्हारे खड़ा होने की आहट पा
हाँक सुनते ही
भाग खड़े होंगे
सारे हिंसक पशु
छोड़कर फसलों को रौंदना
फिर तुममें
नहीं होगी लड़ाई
रोटी को लेकर।
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श्रध्दा
नहीं देता मैं पानी
इस पीपल के पेड़ को
यह सोचकर कि
वास है देवता का
बस एक लालसा
पुरखों की मेरे प्रति
मेरी पीढ़ी के प्रति
कि देता युगों -युगों रहे
प्राण ,दवा ,शान्ति
यह पाषाण -प्रतिमा तो एक बहाना मात्र है
जिंदा रखने के लिए
इस विषाल वृक्ष को।
धर्मेन्द्र निर्मल
ग्राम व पोष्ट - कुरूद , भिलाइर्
जिला - दुर्ग (छ.ग.), 490024
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भाड़ में जाए हमारे.....?
मन्तोष भट्टाचार्य
बिना बताए बिजली बंद कर देते
कब तक रहें हम चुपचाप लेटें।
मैं अकेला नहीं सारा क्षेत्र
परेशान नजर आता है,
शिकायत करने पर भी कमबख्त
कोई फोन नहीं उठाता है।
फिर हम सोचते हैं भाड़ में जाए
हमारे बाप का क्या जाता है?
जहां देखो धूल ही धूल
सारा शहर खुदा पड़ा है,
विकास का पहिया शायद
पंचर होकर रुका खड़ा है।
पूछने पर कोई
कुछ भी नहीं बताता है,
फिर हम सोचते हैं भाड़ में जाए
हमारे बाप का क्या जाता है?
शहर में सार्वजनिक नल से
पानी व्यर्थ बहता देख
दिल बहुत दुःखी हो जाता है,
क्योंकि कई क्षेत्र ऐसे हैं
जहां साईकिल से पानी ढोता हुआ
आम आदमी हर दिन नजर आता है।
''सेव वाटर'' का नारा शायद
सबके समझ में नहीं आता है।
फिर हम सोचते हैं भाड़ में जाए
हमारे बाप का क्या जाता हैं?
बिजली का बिल देखते ही
मानो करंट लग जाता हैं,
पता नहीं कमप्यूटर में कौन
धृतराष्ट्र बैठा गलत सलत
उंगलियां मटकाता है।
जो मात्र एक बल्व जलाने की
सजा चालिस हजार रुपये सुनाता है।
फिर हम सोचते हैं भाड़ में जाए
हमारे बाप का क्या जाता है?
डॉ0 मन्तोष भट्टाचार्य
मदर टेरेसा नगर, जबलपुर
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बाल कविताएँ
वीरेन्द्र सरल
आम और केला
एक दिन एक केले से बोला ,मीठा आम रसीला ।
तुम हो बिल्कुल पतले दुबले मेरा बदन गठीला ।
मेरा रंग रूप देख कर के ,लोग सभी ललचाते ।
अपने भोजन में शामिल कर ,बड़े चाव से खाते ।
तुम दिखने में ही मड़ियल हो ,मैं हूँ हरदम ताजा ।
इस दुनिया के सभी फलों में मैं ही सबका राजा ।
हाथ जोड़कर केला बोला ,आप तो अपनी जानो ।
चाहे किसी को छोटा समझो ,बड़ा किसी को मानो ।
लाख अकड़ लो मगर आपकी ,सब बातें उथली है ।
बाहर से हो भले मुलायम ,अंदर तो गुठली है।
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मेंढक और मछली
मछलियों के झुंड देखकर, टर्र-टर्र मेंढक टर्राया।
सावधान हो जाओ बहनों, नदी किनारे बगुला आया।
कोई बाहर नहीं निकला , बैठा है वह ध्यान लगाकर।
झूठ नहीं मैं सच कहता हूँ, अपने दिल पर हाथ लगाकर।
बाहर से उजला है लेकिन, भीतर उसका मन काला है।
ध्यान लगाये देख रहा है, ज्यों जोगी जपता माला है।
मेंढक ने सबको समझाया, पर एक मछली बात न मानी।
पानी से बाहर आने की जान बूझकर की नादानी।
बगुला उस पर मार झपट्टा, झट से उसको बाहर लाया।
बड़े मजे से नदी किनारे, उस मछली को मार के खाया।
मछली ने ही की नादानी, क्या करता मेंढक बेचारा।
व्यर्थ है मूर्खों को समझाना , समझ गया था मेंढक प्यारा।
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जंगल में होली
एक तोते के पास में आकर, मैना रानी बोली।
चलो मनायें हम सब मिलकर, जंगल में भी होली।
दोनों की सुन बात पास में, बन्दर आकर बोला।
होली में मैं तो पहनूंगा, मोटा एक झिंगोला।
धीरे-धीरे जंगल के सब, प्राणी पास में आये।
सबने मिलकर किया फैसला,होली सभी मनायें।
जंगल में फिर लगा गुंजने, झांझ, मंजीरा, ढोल।
रंग-बिरंगे पक्षी सुन्दर करने लगे किलोल।
काली कोयल मैना से फिर करने लगी ठिठोली।
दुल्हन बनेगी मैना रानी , सजेगी इसकी डोली।
कालू बन्दर हाथ उठाकर सबको किया इशारा।
प्रेम रंग से रंगा हुआ है ,जंगल आज हमारा।
एक रंग से रंग दो सबको, भर-भर कर पिचकारी।
जगह ढूंढने लगी लोमड़ी, छिपने कहीं बेचारी।
झूम-झूम कर लगा नाचने, शेर सभी का राजा।
चश्मा पहन के भालू मामा, लगा बजाने बाजा।
खूब बजाकर ढोल-नगाड़े गाने लगा वह गाना।
होली के रंग से जंगल का मौसम हुआ सुहाना।
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चालाक बिल्ली
जानें कहाँ से बिल्ली आई। चूहों को वह खबर सुनाई।
सुन लो मेहनत करने वालों। भूखे-प्यासे मरने वालों।
जब तुम सब मरते हो भूख। देख के होता है मुझे दुःख।
पास में एक गोदाम बना है। खूब अनाज भरा है।
तुम सब वहाँ क्यों नहीं जाते। छक कर दानें क्यों नहीं खाते।
सुनकर चूहे हुये खुश सब। जाने लगे गोदाम में सभी अब।
जो चूहे गोदाम में जाते लौट कभी ना घर को आते।
बिल्ली पहले उन्हें फंसाती। फिर उनको वह मार के खाती।
बिल्ली रानी बड़ी सयानी। चूहे खाकर पीती पानी।
बिल्ली मौसी बड़ी चालाक। सुनकर चूहे हुये अवकां
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एस. के पाण्डेय
नील गिरि का कौआ
(१)
नील गिरि की चोटी पर एक ऐसा कौआ रहता है ।
चाहे दुनिया मर भी जाये कभी नहीं वह मरता है ।।
पूजा जप तप ध्यान करे अरु राम नाम वह जपता है ।
जाना चाहे जहाँ कहीं भी पहुँचे देर न लगता है ।।
(२)
रोज नियम से वह कौआ श्रीराम कथा भी कहता है ।
काम नहीं है दूजा उसको भक्ति भाव में रमता है ।।
जो भी जाये पास काग के राम कथा वो सुनता है ।
जो पक्षी सुनने आते हैं सबका आदर करता है ।।
(३)
जो भी चाहे वह कौआ बिनु माँगे उसको मिलता है ।
भेष बदलना उसको आये चाहे भेष बदलता है ।।
साधन की न कमी उसे सारी बात जानता है ।
बहुत बड़ा वह ज्ञानी ऐसा राम प्रभू को भजता है ।।
(४)
ज्ञान दृष्टि है उसके पास रहता सदा उजाला है ।
बीती बातें जान रहा जानें जो होनेवाला है ।।
हाथ जोर प्रणाम करो वह राम का भक्त निराला है ।
युगों-युगों से पीता आए रामकथा रस प्याला है ।।
(५)
शंकरजी ने भी सुनी कथा हंस का भेष बनाकर ।
गरुड़ का अज्ञान मिटाया राम रहस्य बताकर ।।
कागभुसुंडि है नाम काग का धन्य राम यश गाकर ।
मूढ़ भजें न राम प्रभू को मानव तन भी पाकर ।।
डॉ. एस. के पाण्डेय,
समशापुर (उ.प्र.) ।
हमारी कविता को स्थान देने के लिए बहुत बहुत शुक्रीया भैया .....सादर नमस्ते ........:)
जवाब देंहटाएंसभी की रचनाये बहुत अच्छी है ....
sabhi chhand bahut sundarta se likha gaya hai
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रवि जी....धर्मेन्द्र निर्मल के अगीत सुन्दर लगे...
जवाब देंहटाएंसलीलजी व श्याम जी की कविताये पढ़ी बहुत पसंद आई .
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