एक दिन यूं ही बैठे-ठाले बोर हो रहा था तो मन किया कि कहीं शहर से बाहर आसपास के गाँवों की ओर घूमा जाए. सुबह से ही मौसम के तेवर बदले थे..बदल...
एक दिन यूं ही बैठे-ठाले बोर हो रहा था तो मन किया कि कहीं शहर से बाहर आसपास के गाँवों की ओर घूमा जाए. सुबह से ही मौसम के तेवर बदले थे..बदली-बदली सी छाई थी.. सब कुछ बड़ा ही सुहावना लग रहा था.. पिछले पंद्रह-बीस दिनों की गर्मी ने झुलसा ही दिया था..एकाएक इस अप्रत्याशित ठंडक से मूड बन गया. अपनी स्कूटर निकाल हवा चेक कराया और निकल पड़ा- बघेरा-कोटनी की ओर..वीरान कोलतार की सड़क के दोनों तरफ खड़े बड़े-बड़े पेड़ हवा के झोंकों से झूम-झाम रहे थे..कब शहर से बाहर बीस किलोमीटर दूर निकल आया, मालुम ही नहीं पड़ा...शहर की गर्मी- बाप रे बाप..ऊपर से चुनाव की गर्मी ..पर इधर गाँवों की तरफ आकर लगा जैसे बरसों से यहाँ ठंडक पसरा हो ..न सूरज देवता की तपिश न ही कोई चुनावी जलजला..सब कुछ इतना शांत और खुशनुमा कि मन झूम-झूम गया ..
चाय पीने की तलब लगी तो एक गाँव के टप्परनुमा होटल में रुक गया. कडाही में गरम-गरम त्तैरते पकौड़े देख मन ललचा गया..एक प्लेट का आर्डर दे एक प्राचीनकालीन कुर्सी को रुमाल से साफ़ कर बैठ गया. सोचा कि चाय आते तक इसे झड़क लूँ..वैसे तो शहर में सब कुछ मिल जाता है और स्वादिष्ट भी पर गाँव के पकौड़े की बात ही निराली..एक अजीब और सोंधी सी खुशबू होती है उसमें..और पकौड़े के साथ जो चटनी परोसते हैं,उसका तो कोई जवाब ही नहीं..बहुत “यमी-यमी” होता है..फिर चाहे कितने भी बार ले लो..एकदम मुफ्त..बल्कि हरी मिर्च या प्याज की फरमाईश करो तो वह भी मिनटों में हाजिर..दरअसल घूमना-फिरना तो मात्र बहाना होता है..दो-तीन महीने में एक बार इन पकौड़ों के लालच में ही गाँवों की रुख करता हूँ...
उस दिन चाय पी वहीँ से वापस लौटने लगा तो कुछ ही दूरी पर बाईं दिशा में एक भग्न और दयनीय-दशा से ओत-प्रोत मिडिल स्कूल को देख ठिठक गया.. सारे बच्चे बाहर धमाचौकड़ी करते उछल-कूद में व्यस्त थे . चुनाव के चलते इस बार प्रशासन ने मार्च में ही प्रायमरी और मिडिल के एक्जाम संपन्न करा नतीजे भी घोषित कर दिए..पर नियमानुसार पूरे अप्रैल भर क्लास लगने हैं इसलिए बच्चे भरी गर्मी में भी जाने विवश हैं ..पूरे अप्रैल भर तो चुनावी घमासान होने हैं.. फिर इन्हें छुट्टी दे देने में क्या हर्ज था ? मुझे समझ नहीं आया..वैसे भी सारे टीचर्स तो बेचारे बलि के बकरे की तरह हर बार चुनाव की भेंट चढ़ते ही हैं.. “ शिक्षक-दिवस” पर एक दिन इन्हें चने के झाड में चढ़ा कहते हैं कि शिक्षक ही राष्ट्र-निर्माता है..बच्चों का भाग्य-विधाता है..और फिर झोंक देते है मतदान-पेटी धराकर चुनावी मैदान में..अब भला थोक के भाव में इतने सारे बनिहार सरकार को और मिलेंगे भी कहाँ ? पर जब टीचर्स ही चुनावी ड्यूटी में होंगे तो इन्हें पढ़ायेगा कौन ?
गेट पर स्कूल के नाम के साथ गाँव का नाम पढ़ याद आया कि गिरधर पांडे तो इसी स्कूल में है..मैं स्कूटर स्टैंड करने लगा तो सारे बच्चे भीतर भाग गए..बुलंद दरवाजानुमा गेट को पार कर अन्दर गया तो बच्चे चूहों की तरह अपने-अपने क्लास में घुस गए..अचानक शोरगुल थम सा गया..मैंने एक नजर इधर-उधर डाली तो एक कमरे के बाहर “ प्रधानाध्यापक” का बोर्ड लटकते पाया..वहां अन्दर झाँका तो कमरा खाली..कोई न था..बाजु के कमरे में “ क्लास-सेवंथ “ लिखा था..मैं सीधे अन्दर घुस गया..सारे बच्चे खड़े हो एक स्वर में “ खड़े हो..गुरूजी को प्रणाम करो..जयहिन्द..” जैसे नारेनुमा सस्वर गीत से मुझे इक्कीस तोपों की सलामी दी..मैंने ‘ जयहिन्द’ कर उनसे पूछा कि गिरधरजी कहाँ मिलेंगे ? तो वे सकपका कर एक दूसरे को ताकने लगे..
‘ अरे जो शहर से आते है..’ मैंने क्लू दिया.
‘ अच्छा..पांडे सर.?.’ एक विद्यार्थी ने बुदबुदाया.
‘ हाँ-हाँ..वही..’
‘ वे तो सप्ताह भर से चुनाव ड्यूटी में है सर..’ उसने जानकारी दी.
‘ और बाकी टीचर ? ‘ मैंने पूछा.
उसने प्रतिप्रश्न जैसे उत्तर दिया- ‘ बाकी से क्या मतलब सर ? दो ही तो हैं यहाँ.. एक पांडेजी और दूसरा हेडमास्टरजी..हेड सर तो हप्ते में एक बार ही आते हैं.. और गुरुंग सर तो पी.टी.वाले हैं..’
‘ तो फिर यहाँ पढ़ाता कौन है ? कितने क्लास हैं स्कूल में ? मैंने पूछा.
‘ तीन क्लास है सर..और पांडे सर ही ज्यादातर पढ़ाते हैं..वे आते हैं तो बाकी के दो क्लास में बारी -बारी से गुरुंग सर बैठते हैं..पर वे पहले ही साफ कह देते हैं कि पढ़ाना उनका काम नहीं..वे केवल अपना और हमारा “ टाईमपास “ करेंगे..’ एक विद्यार्थी ने गोपनीय बात बताई.
मैं इस अजीबो-गरीब स्कूल के विषय में सोच चकित हो रहा था कि एक विद्यार्थी ने पूछा -
‘ आप यहाँ नए सर बनकर आये हैं क्या सर ? ‘
‘ नहीं..पर आ भी सकता हूँ..’ मैंने मजाक किया.
‘ क्या पढ़ाते हैं सर आप ? ‘ एक और ने कौतुहलवश पूछा. ‘
‘ राजनीति ‘ मैंने जवाब दिया.
‘ ये कौन सा विषय है सर ? हम तो केवल हिंदी-अंग्रेजी, गणित,विज्ञानं और सामाजिक अध्ययन ही पढ़ते हैं..’ एक छात्र ने खुलासा किया.
‘ बच्चों..बहुत ही सरल विषय है- राजनीति..एक बार इसमे इंटरेस्ट लिए तो जिंदगी भर बिना “मूल” के “इंटरेस्ट” पाते रहोगे ..’
‘ समझ नहीं आया सर..थोडा विस्तार से बताईये न ..’ एक छात्र ने आग्रह किया.
‘ जिस तरह फिल्मों में हीरो का रोल अहम् होता है वैसे ही राजनीति में नेताओं का...नेता तो जानते हो न ? कोई बताओ –नेता किसे कहते हैं?
एक ने हाथ उठा कहा- ‘ उसे जो टोपी पहनते और पहनाते हैं..और चुनाव के दिनों भिखमंगों की तरह मतदाताओं से “ दे दे राम,दिला दे राम” की रट लगाते हैं. ’
‘ गुड..वेरी गुड..अब कोई बताये कि चुनाव क्या होता है..? ‘
‘ महा पर्व सर..अखबार में पढ़ा था..जैसे- होली-दिवाली..’ एक विद्यार्थी ने अपने अखबारी ज्ञान का बखान किया.
‘ शाबास..अंतर सिर्फ इतना है कि होली-दिवाली में आम आदमी का दिवाला निकलता है जबकि इसमे पार्टी और सरकार का...जो खड़े होते हैं ,उनका कुछ नहीं बिगड़ता..अब भला नंगा क्या नहाए और क्या निचोड़े ? अच्छा बताओ..चुनाव में होता क्या है ? ‘
एक ने जोर से कहा- ‘ लूटमार सर..पिछले चुनाव में हमारे मोहल्ले में कुछ नेता कम्बल बांटने आये तो विरोधियों ने सारे कम्बल लूट लिए..बोले- इतनी गर्मी में इसे ओढेगा कौन..और सबको पांच-पांच सौ का नोट दे बोले “ पंखे” में वोट देना..जीते तो सबके घर पंखा लगा देंगे ..पर वे हार गए..’
‘ ठीक कहा तुमने...लूटमार ही चुनाव का पर्याय है..अब कौन बतायेगा कि चुनाव में खड़े होने वाले को “ उम्मीदवार” क्यों कहते हैं ?
‘ क्योकि हम इन्हें बड़ी उम्मीदों से वार कर,संवार कर भेजते हैं ताकि क्षेत्र का भला करे लेकिन जीतकर वह अपना ही भला करते हैं.. अब तो इन्हें “ नाउम्मीदवार” या “ पलटवार” कहें तो उचित होगा..’ एक बड़े विद्यार्थी ने समझदारी की बातें की.’
‘ बढ़िया कहा तुमने..क्या कोई बता सकता है कि अब के नेता राजनीति के नाम पर क्या करते हैं ?
एक ने पीछे से आवाज लगाईं - ‘ जनता को ठगते हैं..’
‘ एक सवाल और..अभी के हमारे प्रधान मंत्री और चुनाव के बाद जो आगामी प्रधान मंत्री होने का दावा (दंभ) करते हैं-उनमे क्या अंतर है ? ‘
‘ एक “चुप-चुप के “ है तो दूसरा “बक-बक के” एक लड़के ने हंसते हुए जवाब दिया.
‘ अच्छा..एक “ फिल-अप द ब्लेंक ” पूरा करो..’
और मैंने ब्लैकबोर्ड पर लिख दिया— “राजनीति-नेता-चुनाव-पैसा-----“ अंतिम शब्द भरने कहा तो एक बौना सा विद्यार्थी आया और चाक-स्टिक ले फिल-उप किया - “ घोटाला”
मैंने तुरंत उसकी पीठ ठोंकी और बच्चो की ओर मुखातिब हो कहा- ‘ जिसने भी यह कर लिया , समझो उसे राजनीती आ गयी... बिना घोटाले के राजनीती नहीं होती..तुम सब तो इस विषय में काफी होशियार लगते हो..उम्मीद करता हूँ, तुममे से काफी बच्चे आगे चलकर अच्छी राजनीती कर लेंगे ( और अच्छे खासे घोटाले भी ).तुम सबको.मेरी अनेकानेक शुभ-कामनाएं.. ’
फिर मैंने सबके लिए ताली बजाई तो जवाब में छात्रों ने भी ताली बजानी शुरू कर दी..और तभी घंटी बज गयी..सारे बच्चे उछलते-कूदते बाहर भाग गए..मैं मन ही मन हंसा कि कहीं मेरे अन्दर कोई गुरुंग तो नहीं घुस गया....मैं स्कूटर स्टार्ट कर सड़क पर आ गया..अब मूड पहले से ज्यादा फ्रेश था .. और मौसम भी पहले से ज्यादा बेईमान ..
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प्रमोद यादव
गया नगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़
बढिया लिखा है बधाई
जवाब देंहटाएंधन्यवाद...सुशील...प्रमोद यादव
हटाएंप्रमोदजी सरकारी शिक्षा और उसकी जर्जर अवस्था पर व्यंग के माध्यमसे आपने एक भयानक सत्य को उजागर किया है किअच्छी शिक्षा पर केवल पैसेवालोंका ही हक है
जवाब देंहटाएंगरीबों के बच्चे भगवान भरोसे ही है और यह सब एक
साजिश के तहत ही हो रहा है कि गरीब हमेशा गरीब और
पिछड़ा ही रहे
श्री अखिलेशजी, सरकारी शिक्षा पिछले साठ-पैंसठ सालों से अमूमन वही है..चाहे शहर हो या गाँव.. शहर में तो दबाव व जागरूकता के चलते थोडा सुधार है पर गाँवों की सुध कोई नहीं लेता..गंवारों की तरह ही सरकार भी सुध नहीं लेती...और अब तो पब्लिक स्कूल में बच्चे पढ़ाने की होड़ है जो एक आम आदमी के लिए मुश्किल ही है..जैसे राजनीति अब केवल पैसे वालों की हो गयी है..वैसा ही कुछ हाल है शिक्षा का.. आपने ठीक कहा- यह एक सोची-समझी साजिश के तहत ही क्रियान्वित है.. आपका-प्रमोद यादव
हटाएंनेताओ के कई गुणों को सफलतापूर्वक बताया गया .
जवाब देंहटाएंगुण कहें या अवगुण ?...प्रमोद यादव
हटाएंव्यंग्य में गुण या सामान्यतः अवगुण .
हटाएंव्यंग्य में गुण या सामान्यतः अवगुण .
हटाएंबेहतर विषय चुना आपने और उसी तर्ज पर व्यंग्य तीर भी छोड़े हैं जो ज्यादातर निशाने पर लगे हैं !
जवाब देंहटाएंटिपण्णी के लिए शुक्रिया योगीजी..तीर निशाने पर लगे तभी बात है..प्रमोद यादव
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