डॉ0 रामनिवास ‘मानव’ क्षणिकाएं 1. सीमा पार से निरन्तर घुसपैठ ज़ारी है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ नीति यही तो हमारी है। 2...
डॉ0 रामनिवास ‘मानव’
क्षणिकाएं
1.
सीमा पार से निरन्तर
घुसपैठ ज़ारी है।
‘वसुधैव कुटुम्बकम’
नीति यही तो हमारी है।
2.
दलदल में धंसा है।
आरक्षण और तुष्टिकरण के,
दो पाटों के बीच में
भारत अब फंसा है।
3.
लूट-खसोट प्रतियोगिता
कब से यहां ज़ारी है।
कल तक उन्होंने लूटा था,
अब इनकी बारी है।
4.
देश के संसाधनों को
राजनीति के सांड चर रहे हैं,
और उसका खामियाजा
आमजन भर रहे हैं।
5.
मेरा भारत देश
सचमुच महान है।
यहाँ भ्रष्टाचारियों के हाथ में
सत्ता की कमान है।
6.
जो नेता बाहर से
लगते निपट अनाड़ी हैं,
लूट-खसोट के वे
माहिर खिलाड़ी हैं।
7.
वे कमीशन का कत्था,
चूना रिश्वत का लगाते हैं।
इस प्रकार देश को ही
पान समझकर खाते हैं।
8.
देश को, जनता को,
सबको छल रहे हैं।
नेता नहीं, वे सांप हैं,
आस्तीनों में पल रहे हैं।
9.
नेताजी झूठ में
ऐसे रच गये,
सच को भी झूठ कहकर
साफ़ बच गये।
10.
नेता बाहर रहे
या रहे जेल में,
वह पारंगत है
सत्ता के हर खेल में।
11.
उन्होंने गांधी टोपी पहन
अन्नागिरी क्या दिखाई,
कल तक ‘दादा’ थे,
आज बने हैं ‘भाई’।
12.
जो कई दिनों से था
अस्पताल में पड़ा हुआ,
ख़र्चे का बिल देखते ही
भाग खड़ा हुआ।
13.
क्या छोटे हैं
और क्या बड़े हैं,
सभी यहां बिकने को
तैयार खड़े हैं।
14.
झूठ जाने क्या-क्या
सरेआम कहता रहा
और सिर झुकाकर सच
चुपचाप सहता रहा।
होगा विकास तभी
बच्चों, पढ़ना बहुत ज़रूरी।
पर उतना ही खेल ज़रूरी।
ताल-मेल दोनों में होगा,
होगा व्यक्तित्व-विकास तभी।
देश-देश का ज्ञान ज़रूरी,
और बड़ा विज्ञान ज़रूरी।
ज्ञान और विज्ञान मिलेंगे,
होगा व्यक्तित्व-विकास तभी।
अधिकार-कर्त्तव्य को जानो।
जीवन-मंजिल को पहचानो।
जीवन क्या है ? जब समझोगे,
होगा व्यक्तित्व-विकास तभी।
खेल-कूद को जीवन समझो,
और काम को पूजन समझो।
काम-काज की आदत डालो,
होगा व्यक्तित्व-विकास तभी।
मिलकर सोचें
मिलकर बैठें, मिलकर सोचें,
बातें करें विकास की।
आपस में हो भाईचारा।
मन हो ज्यों मन्दिर-गुरुद्वारा।
रहे भावना भरी मनों में
मस्ती औ’ उल्लास की।
अलग-अलग हों रंग सभी के।
अलग-अलग हों ढंग सभी के।
फिर भी रहे एकता सब में,
डोरी हो विश्वास की।
नापें धरती, उड़ें गगन में।
संकल्पों का बल हो मन में।
स्वर्ग बनाना है धरती को,
आशा करें उजास की।
दादी मां
दादी मां का क्या कहना है !
सोने-चांदी का गहना है।
दया-धर्म की सूरत दादी।
ममता की है मूरत दादी।
अनुभव की गठरी है दादी।
जीवन की पटरी है दादी।
माना इनकी उम्र पकी है,
लेकिन दादी नहीं थकी है।
धीरे-धीरे चलती दादी।
आशीषों में फलती दादी।
पूरे घर का हाथ बंटाती।
जी-भर सब पर प्यार लुटाती।
दादी से घर, है घर दादी।
सबसे बड़ी धरोहर दादी।
प्यार-भरी पिचकारी दादी।
लगती मां से प्यारी दादी।
स्कूल की वैन
वैन स्कूल की जब भी आती,
बच्चों में हलचल मच जाती।
भाग-दौड़ करते हैं बच्चे।
देरी से डरते हैं बच्चे।
लगे रमन को बस्ता भारी।
बस में चढ़ने की लाचारी।
भूला नवल टिफ़िन ही लाना।
जूतों को पॉलिश करवाना।
मोनू की ढीली है टाई।
कैसे काम चलेगा भाई!
निम्मी भूली बैज लगाना।
पर मुश्किल अब घर से लाना।
सुमन का होमवर्क अधूरा।
जाने कैसे होगा पूरा !
गुस्से में हैं मम्मी-पापा।
डांट रहे हैं खोकर आपा।
कंडक्टर ने बस को रोका।
उत्पाती बच्चों को टोका।
ठीक नहीं है मारा-मारी।
सभी चढ़ेंगे बारी-बारी।
जब भी वैन स्कूल की आती,
नुक्कड़ पर महफ़िल लग जाती।
लगते सुभग-सलोने बच्चे।
जैसे सजे खिलौने बच्चे।
बिल्ली भूरी-काली
आधी भूरी, आधी काली।
मोनू जी ने बिल्ली पाली।
सुनकर नाम दौड़कर आती,
बड़े प्यार से पूंछ हिलाती।
‘म्याऊं-म्याऊं’ जब करती है,
लगती सुन्दर भोली-भाली।
हरदम घर में दौड़ लगाती,
चूहों से मिल खेल रचाती।
मम्मी भी अब खुश है उससे,
करे दूध की वह रखवाली।
पापा जी को लगती प्यारी,
करते उसकी ख़ातिरदारी।
बिस्कुट-दूध खिलाते उसको,
स्वयं हाथ में लेकर थाली।
जब भी कभी घूमने जाते,
अपने साथ उसे ले जाते।
देख-देख कर उसकी क्रीड़ा,
सारे खूब बजाते ताली।
दोहे
रिश्तों में है रिक्तता
1.
चाहे घर में दो जने, चाहे हों दस-पांच।
रिश्तों में दिखती नहीं, पहले जैसी आंच।।
2.
रिश्ते सब ‘इन लॉ’ हुए, क्या साला, क्या सास।
पड़ी गांठ-पर-गांठ है, ग़ायब हुई मिठास।।
3.
हर रिश्ते की नींव की, दरकी आज ज़मीन।
पति-पत्नी भी अब लगें, जैसे भारत-चीन।।
4.
न ही युद्ध की घोषणा, और न युद्ध-विराम।
शीत-युद्ध के दौर-से, रिश्ते हुए तमाम।।
5.
रिश्तों में है रिक्तता, सांसों में सन्त्रास।
घर में भी अब भोगते, लोग यहां वनवास।।
6.
‘स्वारथ’ जी जब से हुए, रिश्तों के मधयस्त।
रिश्ते तब से हो गये, घावों के अभ्यस्त।।
7.
अब ऐसे कुछ हो गये, शहरों में परिवार।
बाबूजी चाकर हुए, अम्मा चौकीदार।।
8.
मां मूरत थी नेह की, बापू आशीर्वाद।
बातें ये इतिहास की, नहीं किसी को याद।।
9.
समकालिक सन्दर्भ में, मुख्य हुआ बाज़ार।
स्वार्थपरता बनी तभी, रिश्तों का आधार।।
10.
क्यों रिश्ते पत्थर हुए, गया कहां सब ताप।
पूछ रही संवेदना, आज आप से आप।।
दोहे
: 1 :
इक काना, इक कूबड़ा, मणि-कांचन संयोग।
नये दौर के योग्य हैं, सचमुच ऐसे लोग।।
: 2 :
खंडित-आहत अस्मिता, उखडा़-उखड़ा रंग।
नई सदी का आदमी, कैसे-कैसे ढंग।।
: 3 :
तुमने हमको क्या दिया, अरी सदी बेपीर।
छुरी, मुखौटे, कैंचियां, और विषैले तीर।।
: 4 :
नव-विकास के नाम पर, मिले निम्न उपहार।
बेचैनी, बेचारगी, उलझन और उधार।।
: 5 :
मन गिरवी, तन बंधुआ, सांसें हुई गुलाम।
घुटन भरे इस दौर में, जीयें कैसे राम।।
: 6 :
महानगर-सा आदमी, कितना किया विकास।
बाहर पसरा शोर है, भीतर मौन उदास।।
: 7 :
सूख गई संवेदना, मरी मनों की टीस।
अब कोई रोता नहीं, एक मरे या बीस।।
: 8 :
नेता का पानी मरा, मरी लोक की लाज।
सेवा खाये ठोकरें, ‘स्वारथ’ के सिर ताज।।
: 9 :
घाट-घाट पंडे मिलें, बाट-बाट यजमान।
दान-पुण्य अब तो बना, केवल रस्म-विधान।।
: 10 :
सत्ता की चौसर बिछी, लगी द्रौपदी दांव।
पांडव बैठे सिर झुका, खेल यही हर ठांव।।
: 11 :
अरी व्यवस्था धन्य तू, रचती क्या-क्या रास।
रावण सत्ता भोगते, और राम वनवास।।
: 12 :
अब वह आल्हा की कहां, रही सुरीली तान।
कजरी, ठुमरी, फाग को, तरस गये हैं कान।।
: 13 :
चुप रहती चौपाल अब, सूनी पीपल छांव।
रह-रहकर सब सिसकते, हुक्का, चिलम, अलाव।।
: 14 :
पनघट मरघट-सा लगे, सूनी हर चौपाल।
करी तरक्क़ी गांव ने, हुआ हाल बेहाल।।
: 15 :
बदले सभी विकास ने, जीवन के प्रतिमान।
घूंघट अब करने लगा, बिकनी का सम्मान।।
पहाड़ पर कुछ कविताएं
सच-सच कहना पहाड़,
क्यों बुलाते हो मुझे ?
क्या रिश्ता है
मेरा-तुम्हारा पहाड़ ?
पहाड़ से संवाद
सच-सच कहना पहाड़,
मेरा-तुम्हारा
कब का, क्या रिश्ता है ?
आज तुम्हारे अपने,
किसी बुजुर्ग की भांति
तुम्हें छोड़कर अकेला
और असहाय,
भाग रहे हैं
ृशहरों की ओर,
भरकर आंखों में
रंग-बिरंगे सपने।
ऐसे में तुम
क्यों लगते हो मुझे
अपने-से, आत्मीय ?
और क्यों बुलाते हो मुझे
बार-बार, प्यार से ?
तुम्हारी फैली बाहें
याद दिलाती हैं मुझे
अपने पिता की, अनायास।
जैसे कह रही हों,
चले आओ मेरे बच्चे !
रिश्तों के धागे
सुलझाता रहता है
जंगल
नदी-नालों रूपी
रिश्तों के धागे।
लेकिन आकाश
लांघकर
पहाड़ों की सीढ़ियां,
पल-भर में
बढ़ जाता है आगे।
आदमी और पहाड़
थोड़ी-सी ठंड क्या पड़ी,
सिहर उठा आदमी।
लेकिन
पहाड़ की छाती तो देखो,
हज़ारों वर्षों से ओढ़े लेटा है
बर्फ़ की मोटी चादर,
लेकिन कभी
ऊ़ तक नहीं करता।
मेरे पास,
और लग जाओ
मेरी स्नेहमयी छाती से।
पहाड़ ! मेरे आत्मीय !
मैं सचमुच तुम्हारी बाहों में
खो जाना चाहता हूं,
और दूर तक फैली
घाटियों, वनराजियों का,
मुस्कराती हरियालियों का
हो जाना चाहता हूं ।
घाटी में सूर्योदय
घाटी में हुआ है सूर्योदय।
समाधिस्थ-से खड़े हैं
ऊंचे-नीचे पहाड़,
कर रहे हों जैसे
सूर्य-नमस्कार,
गुरुकुल के स्नातक ऐसे।
खड़े हैं सब-के-सब
ृशान्त, स्थिर, सविनय।
घाटी में हुआ है सूर्योदय।
जंगल में सूर्यास्त
बहुत नीचे उड़ रहा था
कोई सुनहला सारस।
ऊंचे-ऊंचे वृक्षों की
सघन टहनियों में फंस गया,
और देखते-ही-देखते
जैसे
हरियाली के सागर में
दूर कहीं धांस गया।
दयारा बुग्याल
बिछाकर दूधिया चादर
निकाल रही है उसमें
स्वयं प्रकृति
रंग-बिरंगी, सुन्दर,
मनमोहक फुलकारी।
लेकिन इस महंगी
मखमली चादर को
ख़रीदेगा कौन !
यहां सभी तो हैं मौन।
पहाड़ की नियति
जाने क्या लिखा है
पहाड़ के भाग्य में !
एक ओर, दिन-प्रतिदिन,
रोज़ी-रोटी की तलाश में
बढ़ता पलायन,
वहीं दूसरी ओर
बढ़ता पर्यटन,
और उसी अनुपात में
फैलता प्रदूषण।
बढ़ता कटान,
घटता चरान औ’ चुगान।
कटते-छंटते-घटते वन,
सिकुड़ते गांव,
बिखरता जन-जीवन।
घटते-सिमटते हिमनद,
पद-प्रतिपद
बढ़ता अतिक्रमण।
तीर्थाटन बना पर्यटन,
नित क्षीण होती आस्था,
और जर्जर होता
व्यवस्था-विधान।
पहाड़ पर बादल
पहाड़ पर बादल :
पहनी है पहाड़ ने
जैसे मखमली
फर वाली टोपी।
’’’
बादल नहीं, सारस थे,
इधर नहीं आये।
ठंड के मारे
आधे रास्ते से ही
लौट गये सारे।
कत्यूरी घाटी
विशाल कत्यूरी घाटी :
समाये आगोश में
एक भरी-पूरी सभ्यता,
सबल संस्कृति
और जीवन्त परिपाटी।
व्यक्ति और प्रकृति,
दोनों मिलकर
जहां बनते हैं एक,
यही है, यही है
वह सुन्दरता की टेक।
हावी हुआ है स्वार्थ,
सबको पड़ी है अपनी।
ऐसे में सोचे, तो कौन सोचे,
पहाड़ के विषय में !
कौन समझे उसका दर्द,
कैसे मिले उसको त्राण !
पिठू
पहाड़ों के लोग
मिटाने के लिए भूख
बांधकर पेट पर पटी
दिन-भर
कितना बोझ ढोते हैं !
वे जीवन-भर
आदमी नहीं,
सिर्फ़ पिठू होते हैं।
पहाड़ का दर्द
नदी, जंगल, घाटी,
सब-के-सब तो हैं मौन।
पहाड़ का दर्द
पहाड़ से अधिक
जानता है कौन !
दीपक और अंधेरा
ढली सांझ तो मां यू बोली,
‘‘जाओ दीपक बेटा !
हुआ अंधेरा, उसे डराकर
दूर भगाओ बेटा !’’
सुनकर मां की बात दीप ने
बाहर झांका-देखा।
देख अंधेरा उसके मन में
उभरी भय की रेखा।
‘‘मैं तो छोटा, बड़ा अंधेरा,
कैसे लड़ पाऊंगा !
एक वार से ही मैं उसके
झट से बुझ जाऊंगा।’’
बोली मां, ‘‘तुम सूर्य-पुत्र हो,
डरना ठीक नहीं है।
डरकर घर में दुबक बैठना
अच्छी लीक नहीं है।’’
देखो ज़रा सिंह-शावक को,
भय न कभी वह खाता।
झुंड हाथियों का हो चाहे,
निर्भय वह घुस जाता।
और तुम्हारे पिता सूर्य भी
जब अम्बर में आते,
विकट अंधेरा, सभी निशाचर
पल में डर छुप जाते।
अतः डरो मत, हिम्मत रक्खो,
निर्भय हो बढ़ जाओ,
औ‘ डरपोक अंधेरे को तुम
झट से मार भगाओ।
जिनमें हिम्मत, साहस, बल है,
वही जीतते जग में।
जो कायर हैं, डरते सबसे,
रुक जाते हैं मग में।’’
सुनकर मां की बातें नन्हे
दीप में साहस जागा।
आया बाहर, देखा, पल में
दूर अंधेरा भागा।
द्वन्द्व अंधेरे औ’ दीपक का
तब से ही है ज़ारी।
कितना ही हो घना अंधेरा,
दीपक पड़ता भारी।
सोलह सेदोका-कविताएं
जीवन-चक्र
घुमाते रहते हैं
माया-ममता-मोह।
आते हैं तभी
यहां जाने कितने
आरोह-अवरोह।
्
उम्र का पथ
चलता है मनुष्य,
यहां जीवन-भर।
मनुष्य चाहे
जागा रहे या सोया,
रहे ज़ारी सफ़र।
्
न मानचित्र्,
न सीमा-निर्धाारण;
देश को विखंडित
फिर भी किया।
इधर है भारत,
उधर है इंडिया।
्
जात-पांत के,
धर्म-भाषा-क्षेत्र् के
नाम पर आता है
जब भी कभी
खंडित जनादेश,
फल भोगता देश।
्
जिसने खोली
खिड़कियां अपनी,
सदा उसी ने पाया
दिपदिपाते
सूरज को सम्मुख,
सौभाग्य मुस्कराया।
्
जिसने यहां
फिर-फिर अपने
अन्तर्मन में झांका,
कसौटी पर
कसकर स्वयं को,
मूल्य अपना आंका।
्
वही अवस्था,
बदली है देश की
अभी कहां व्यवस्था !
पनपे यहां
जिन्दल या अम्बानी,
शेष वही कहानी।
्
हर शासक
चाहता अनुयायी
अंधे-मूक-बधिर,
ताकि उसका
शासन-सिंहासन
रहे सदैव स्थिर।
्
जीवन-युद्ध
पड़े यहां सबको
सदा स्वयं लड़ना।
किन्तु लड़े जो
युद्ध यह अभीत,
मिले उसी को जीत।
्
युद्ध-भूमि में
श्रीकृष्ण के मुख से
सुनी जिसने गीता,
लड़ा वही था
गांडीव उठाकर,
युद्ध उसी ने जीता।
्
कैसी विकृति!
हावी हुई सर्वत्र्
अब अपसंस्कृति।
टूटे हैं तभी
पुराने मानदंड,
पूजित है पाखंड।
्
पीज़ा-बर्गर,
फ़ैशन-फ़ेसबुक
बने नया कल्चर।
आज की पीढ़ी
इन्हीं के लिए बस
रहती है तत्पर।
्
चिपके पेट
और चेहरे रूखे,
जैसे जन्म से सूखे।
आज भी यहां
नित जाने कितने
लोग सोते हैं भूखे।
्
तरसते हैं
यहां अब भी लाखों
रोटी, पानी, घर को।
मिली आज़ादी
अभागी जनता को
यूं कहने-भर को।
्
नया दौर है;
हंसों पर बगुले
हुए आज प्रभावी।
गूंजता तभी
मानसरोवर में
बगुलों का शोर है।
्
घूम रहे हैं
सरेआम हिंसक
पशु आज वनैले,
दे रहे हैं जो
सकल समाज को
नित दंश विषैले।
्
द्धडॉ0 रामनिवास ‘मानव’, डी0लिट्ऋ
706, सैक्टर-13, हिसार-125005 द्धहरि0ऋ
फोन : 01662-238720
अठारह तांका-कविताएं
चक्र सदैव
चलता रहता है,
दुःख-सुख का।
कभी दुःख का क्रम,
कभी सुख का भ्रम।
्
जाता हेमन्त,
तब आता बसन्त।
जग में यही
दुःख-सुख का क्रम,
कहते सदा सन्त।
्
खिलते फूल,
देख-देख उनको
कुढ़ते शूल।
संग कांटों के फूल,
प्रकृति का उसूल।
्
जितना कहा,
उससे भी अधिक
है अनकहा।
समझे अनकहा,
वही जिसने सहा।
्
किसने बांची
यहां आंसू की कथा,
मन की व्यथा !
मस्त सभी स्वयं में,
लगे जग अन्यथा।
्
भावना-लोक
अनुपम-अनूठा है,
जहां केवल
सुन्दर है सत्य,
शेष सब झूठा है।
्
मात्र व्यापार
शाब्दिक प्रवचन।
सत्य की दीप्ति
मिले अन्तर्मन में,
वहीं सच्ची सन्तृप्ति।
्
कटा-छंटा है,
खंड-खंड में देश
आज बंटा है।
जाति-धर्म के सांचे,
ऊंच-नीच के खांचे।
्
सब बिका है,
भ्रष्टाचार पर ही
तन्त्र टिका है।
हुआ अस्थिर ढांचा
और जर्जर सांचा।
्
देश-देश में,
हैं कौरव-पांडव
वेश-वेश में।
जाती द्रौपदी हारी,
द्यूतक्रीड़ा है ज़ारी।
्
भीतर उत्स,
है बाहर उत्सव।
करती सदा
अभिनय कामना
मंच मन को बना।
्
मात्र व्यापार
शाब्दिक प्रवचन।
सत्य की दीप्ति
मिले अन्तर्मन में,
वहीं सच्ची सन्तृप्ति।
्
विश्व में देश,
फिर देश में गांव,
गांव में घर।
क्या औकात है मेरी
भला इस भू पर !
्
जो कुछ पाया-
सुख, धन-दौलत,
सब गंवाया।
मोह-माया से बंध
मन जान न पाया।
्
बाहर नहीं,
है सर्वस्व अपने
भीतर बाबा !
क्या मन्दिर-मस्जिद,
और क्या काशी-काबा।
्
मन मन्दिर(
दीपक जो नेह का
भीतर जले,
रहे फिर अंधेरा
नहीं उसके तले।
्
हावी है झूठ
अब तो सच पर,
सच यही है।
अब झूठ जो कहे,
बस, वही सही है।
्
कहां है गीता !
नाप रहे सच को
अब तो वही,
है हाथों में जिनके
यहां झूठ का फीता।
्
दस हाइकु
1. सौन्दर्य-तीर्थ
लगे त्रिभुवन का
मुझको धरा।
2. निकला दिन(
दूध-नहाई धूप,
निखरा रूप।
3. गोधूलि वेला,
लगा क्षितिज पर
रंगों का मेला।
4. रंग-कल्पना,
सांधय क्षितिज पर
सजी अल्पना।
5. नभ में इन्दु,
मां के माथे का शुभ
सुन्दर बिन्दु।
6. फागुनी धूप,
ज्यों अभिसारिका का
दिपता रूप।
7. आया बसन्त(
बनी-ठनी-सी कली,
कहां है कन्त !
8. बादल झरा,
आगतपतिका-सी
हर्षित धरा।
9. पूछे तितली
परिभाषा प्रेम की,
फूल-फूल से।
10. लिया-ही-लिया
प्रकृति से हमने,
मां जो ठहरी।
दस हाइकु
1. घर में घर,
आदमी में आदमी,
फिर भी डर।
2. जीवन-भर
जोड़े ईंट-पत्थर,
बना न घर।
3. क़िस्त चुकाते
चुक गया जीवन,
चुके न खाते।
4. दुःख-ही-दुःख
मिलते हैं जग में,
कांटे मग में।
5. हालात ऐसे,
‘सत्यमेव जयते’
कहें तो कैसे !
6. सब व्यापारी(
कोई थोक-विक्रेता,
कोई पंसारी।
7. पाट वक़्त का
पीसे जौ-गेहूं-मक्की,
जीवन चक्की।
8. सुख-ऐषणा
भटकाती मन को,
है मृगतृष्णा।
9. थी हरी-भरी
यौवन की फ़सल,
उम्र ने चरी।
10. घटा-जोड़ में,
बीत गया जीवन
भाग-दौड़ में।
लघुकथाएँ
संवेदनहीनता
हमारी संवेदनाएं किस कदर शून्य हो गई हैं, इसका एक उदारहण आज शहर के व्यस्त प्रताप चौक के पास हुई दुर्घटना के समय देखने को मिला। एक साइकिल-सवार को किसी अज्ञात वाहन-चालक ने टक्कर मार दी थी। लगभग आधे घंटे तक घायल युवक वहीं पड़ा तड़पता रहा, लेकिन किसी ने उसे अस्पताल पहुंचाने की जहमत नहीं उठाई। फोन करने पर भी पुलिस समय पर नहीं पहुंची और जब पहुंची, तब तक युवक, अधिक खून बह जाने के कारण, दम तोड़ चुका था।
इस विषय में और अधिक जानकारी के लिए आइये, अब हम बात करते हैं, अपने संवाददाता उपेन्द्र मोहन से-‘‘उपेन्द्र अपने दर्शकों को इस घटना के सम्बन्ध में थोड़ा विस्तार से बताइये।’’
‘‘जी मनीषा ! यह घटना लगभग एक घंटा पहले की है। दुर्घटना के कुछ ही देर बाद मैं घटना-स्थल पर पहुंच गया था। मैंने देखा, युवक के सिर में चोट लगी थी, खून बह रहा था और वह सहायता के लिए चिल्ला रहा था।’’
‘‘आते-जाते लोगों में से किसी ने उसकी मदद नहीं की ?’’
‘‘जी बेशक, किसी ने मदद नहीं की। यदि समय पर अस्पताल पहुंच जाता, तो घायल युवक की जान बच सकती थी। लेकिन जैसा कि पिछले एक घंटे से हम इस घटना का लाइव टेलीकास्ट कर रहे हैं और अपने दर्शकों को बता रहे हैं कि घायल युवक सड़क पर पड़ा किस प्रकार तड़पता रहा, लेकिन कोई उसकी मदद के लिए रुका तक नहीं।’’
‘‘उपेन्द्र, लोगों की इस बेरुखी पर आप क्या कहेंगे ?’’
‘‘मनीषा, आज लोग पूरी तरह संवेदनहीन हो गये हैं( किसी के घाव या दर्द से उन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं है। ऐसी स्थिति में मुझे कवि डॉ0 रामनिवास ’मानव’ का एक दोहा याद आ रहा है-
आंखों पर परदा पड़ा, जमी हृदय पर गर्द।
फिर कैसे अनुभव करें, किसी और का दर्द।।
इन्हीं शब्दों के साथ, ‘पी’ टीवी के लिए कैमरामैन मनहर त्यागी के साथ, मैं उपेन्द्र मोहन, भिवानी हरि।’’
मुक्ति
बंधुआ मज़दूरों की मुक्ति के लिए, सर्वोदयी नेता, पुलिस की चौकसी में ट्रक लेकर, ईंट-भट्ठे पर पहुंच गये। उनके आह्वान पर, सभी मज़दूर, तत्काल अपना सामान बांधकर, चलने को तैयार हो गये।
ट्रक के पास आकर, मज़दूरों के मुखिया के पैर, एकाएक ठिठक गये। उसने और उसके साथ सभी दूसरे मज़दूरों ने, अपना-अपना सामान, ज़मीन पर रख दिया।
चलिये-चलिये, अपना-अपना सामान जल्दी से ट्रक में रखिये। - सर्वोदयी नेता ने कहा।
सभी मज़दूर मुखिया की ओर देखने लगे। वह चुप रहा।
बुधराम, क्या बात है भई ! ख़ामोश क्यों हो ? अपने साथियों को सामान रखने के लिए कहो न !
मुखिया अब भी चुप था, जैसे कुछ सोच रहा हो। सर्वोदयी नेता ने समझा, ये पुलिस वालों से डर रहे हैं। अतः, उनकी ओर संकेत करते हुए, बोले- सिपाही तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे। ये तो हमारे साथ हैं, तुम्हारी मुक्ति के लिए आये हैं।
सा’ब ! म्हां की किस्मत मैं तो यो ही लिख्यो है। - मुखिया बोला- काल इपैं नाय, तो दूजा ओर भटा पै सही, एई मजूरी करनी पड़ैली।
क....क्यों ?
ऐं भटा ली कैद सैं तो थे मुकत करा द्यो ला, पण भूख सैं मुकत कोण करावैलो सा’ब !
ग़रीब की मां
हुआ वही, जिसका उसे अंदेशा था। घर की देहरी पर पैर रखते ही, बीमार मां का खनखनाता प्रश्न, उल्का पिंड-सा, उसके कानों से टकराया-म्हांकी दबाई ल्यायो बेटा।
उसने मां के चेहरे की झुर्रियों में उभर आई क्षणिक आशा की झलक देखी और फिर उसे अचानक खांसी में तबदील होते हुए भी देखा। मां का चेहरा काला पड़ने लगा। लगा, जैसे उसकी सांस निकली, अब निकली।
मां की हालत देखकर वह घबरा गया। मां दमे की मरीज़ है। रोज़ दवा लाने के लिए कहती है। वह रोज़ ही, कोई-न-कोई बहाना बनाकर, दवाई न लाने की बात कह दिया करता था। लेकिन, मां की हालत देखकर, उसे झूठ बोलना पड़ा-हां, ल्यायो हूं मां ! इबी ल्यायो।
घर के अन्दर घुसते हुए उसे अपनी फैक्ट्री के मालिक पर बड़ा गुस्सा आ रहा था। कितना गिड़गिड़ाया था वह, बीस रुपये ‘एडवान्स’ लेने के लिए, लेकिन उसने एक न दिया। मां की बीमारी की दुहाई से भी उस बेरहम का दिल नहीं पसीजा।
एक आले में रखी, कुछ पुरानी शीशियों को, उसने टटोला। हिलाकर देखने पर पता चला कि एक शीशी में कुछ दवा है। उसने, बिना सोचे-समझे, वह दवा मां के हलक के नीचे उतार दी।
दवा अन्दर जाते ही, मां का खोखला शरीर, झनझना उठा। ज़ोर की खांसी के साथ उसे कै और दस्त भी आने लगे। हिचकियां बंध गईं तथा आंखें बाहर निकल आईं। थोड़ी ही देर में मां का चेहरा पीला पड़ गया।
अरै या किसी दबाई ल्यायो हरिया ? मां का प्रश्न था।
मैं वा डाकदर रो खून पी जाऊं लो मां ! वा कमीना नै गलित दबाई दे दी। स्यात गरीबां री मां, मां नाहीं होवै ली ! पुनः झूठ बोलकर, अपराध
बोध से मुद्नि पाने का प्रयास करते हुए, वह कहता है। च
भगवान
भगवान जी भक्तों के व्यवहार से, उनकी सौदेबाज़ी से तंग आ गये थे। उन्होंने देखा कि भक्तों द्वारा पूजा की थाली में चढ़ाये गये पांच-पांच, दस-दस के सारे नोट मिलाकर भी मुश्किल से सौ-दो सौ रुपये होंगे, लेकिन इस मामूली से चढ़ावे के बदले में भक्त उनसे मांग रहे हैं अच्छी नौकरी, सुन्दर दुलहन, प्यारा-सा बेटा, दीर्घायु, बेटी के लिए अच्छा-सा घर-वर.....और भी न जाने क्या-क्या ! उन्हें लगा कि यह तो उनके साथ अन्याय है और घाटे का सौदा भी। अतः उन्होंने मन्दिर छोड़ने का निर्णय कर लिया।
तब से मन्दिर में भगवान की मूर्ति है, भगवान नहीं।
शो-पीस
मेरा उनसे बचपन से ही लगाव था। उनके बच्चों की तरह, मैं भी उन्हें बाबूजी ही कहता था। उन्होंने भी मुझे कभी ग़ैर नहीं समझा। झूठ क्यों बोलूं, वह वक़्त-बेवक़्त रुपये-पैसे से हमारे परिवार की मदद भी करते रहते थे। मेरी सर्विस लगवाने में भी उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। आज जो बाबूगीरी कर रहा हूं, यह उनकी भाग-दौड़ का ही सफुल है।
बाबूजी का पूरा नाम था- सेठ महेश दत्त। पर अधिकतर लोग उन्हें बाबूजी ही कहते थे। शहर भर में अच्छी इज्जत थी। अपना प्रिंटिंग प्रैस चलाते थे, जवानी में अख़बार भी निकालते थे। अतः थाने-कचहरी तक अच्छी पहुंच थी, लोग मानते भी थे।
उन्हें इस बात का सदा बड़ा दुःख रहा कि उनका इकलौता लड़का आवारा हो गया है। सचमुच एक बाप के लिए इससे बड़ी दुःख की बात हो भी नहीं सकती। सतीश को शिकायत थी कि बाबूजी उसे प्यार नहीं करते। हमेशा दुत्कारते रहते हैं, जैसे वह उनका बेटा न होकर पराया है। जब दो वर्ष का था, सिर में ऐसा डंडा मारा था कि उसका निशान अभी तक पड़ा हुआ है। फिर वह आवेश में आकर उलटा-सीधा बोलने लगता-बाप थोड़े ही है, कसाई है। ऐसे बाप का मैं मुंह न देखूं...। आदि। मैं उसे बहुत समझाता-भई, जो व्यक्ति मेरे जैसे पराये लड़के को इतना प्यार करता है, वह अपने बेटे को प्यार नहीं करेगा भला ! और फिर उनका तुम्हारे सिवाय कौन-सा दूसरा बेटा बैठा है, जिसे प्यारे करेंगे। पर मेरी बातों का सतीश पर कोई असर न होता। वह गुस्से में भरकर घर से निकल जाता और फिर गई रात ही घर लौटता।
मैं जब भी छुट्टी आता, बाबूजी से ज़रूर मिलता था। घंटों बैठा रहता था उनके पास। उनकी बातों में बड़ा मिठास होता था। दुनिया भर के कहानी-किस्से सुनाते, आल्हा-ऊदल से लेकर सूर और कबीर के पद-भजन, सब। नीति और उपदेश की बातें करते। सचमुच बड़ा अनुभव था उनका। कभी-कभी उनकी बातों से लगता, जैसे वह मन-ही-मन सोच रहे हैं, ‘काश ! उनका बेटा भी उन्हें इतना ही सम्मान देता, इसी प्रकार उनके पास आकर बैठता, सुनता।’ बड़ी कचोट थी उनके मन में। ख़ैर, पिछले महीने, सत्तर वर्ष की उम्र में, हार्ट-अटैक से बाबूजी का स्वर्गवास हो गया था।
मैं छुट्टी आया, तो हमेशा की तरह, इस बार भी, उनके घर गया। बैठक में सुनहरी फ्रेम में जड़ा उनका बड़ा-सा चित्र लगा देखकर आश्चर्य हुआ। कदाचित् सतीश ने ही लगाया था। मुझे चित्र की ओर ताकते देखकर सतीश मेरा भाव समझ गया। बोला-अभी पिछले सप्ताह ही बनवाया है। यहां अच्छा लगता है न !
मुझे लगा, सतीश के लिए बाबूजी की तस्वीर का महत्त्व ‘शो-पीस’ से अधिक नहीं है। च
टॉलरेन्स
दिन में देखी ‘शहीद’ फ़िल्म उसकी आंखों के सामने घूम रही है। भगतसिंह के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है... बर्फ़ की शिला पर लिटाया जाता है... चाबुकों से पीटा जाता है... गन्दा खाना दिया जाता है। फिर भी वह अपनी मां को पत्र में लिखता है-तुम किसी प्रकार की चिन्ता मत करना। यहां के लोगों का बर्ताव बहुत अच्छा है। जेलर बड़े मेहरबान हैं।
ग्रेट टॉलरेन्स ! उसके मुख से निकलता है। उसका मन भगतसिंह के प्रति श्रद्धा से भर जाता है। वह धीरे-से करवट बदलता है।
रील फिर चल पड़ी। उसकी पत्नी उसके बराबर सर्विस करती है। सुबह-सांझ घर का काम करती है, वह अलग। बीमार भी रहती है। वह रोज़ शराब पीकर गई रात घर लौटता है। बात-बात पर तुनकता है, डांटता है, पीटता भी है। वह घर पत्र लिखती है-मेरी चिन्ता मन करना मम्मी ! ये बहुत ही अच्छे हैं। सच, इनके साथ रहकर बहुत खुश हूं मैं।
‘ग्रेट टॉलरेन्स !’ उसके मुख से फिर निकलता है। उस का मन अपनी पत्नी के प्रति प्यार से भर आता है। वह फिर करवट बदलता है।
ऐं ! वह अर्द्ध निद्रा में ही चौंकता है। पत्नी अभी तक उसके पैर दबा रही है। वह गुस्से से गुर्राता है-कमबख़्त, अभी तक सोई नहीं !
आधी रात हो गई।
और पत्नी को एक लात जमाकर, वह एक बार फिर, करवट बदल लेता है।
औरत की भूख
वह आदमी है या जीवित पहेली, कहना मुश्किल है। औरों की तो बात छोड़िये, पूरे पांच साल सिर खपाने के बाद, पत्नी भी, उसके स्वभाव को समझ नहीं पाई।
बेचारी पत्नी भी क्या करे ! स्वभाव ही कितना विचित्र है उसका। पानी मंगाया, पर पत्नी के पानी का गिलास लेकर आते-आते प्यास ख़त्म। कभी बिना तड़के की सब्जी देखी अच्छी नहीं लगती, तो कभी तड़के से सख़्त नफ़रत। कभी दो ही चपातियां खाकर उठ जाता, तो कभी थाली से उठने का नाम ही नहीं।
पत्नी हल्के-से मुस्करा भर देती-‘हे भगवान, सभी आदमी ऐसे ही होते हैं क्या !’
वह रात खाने बैठा, तो खाता ही रहा। सब्जी, दाल, सलाद, सब पत्नी के आने से पहले ही साफ़। वह खाने बैठी, तो थाली में दो चपातियां ही बची थीं।
इतने से काम चल जायेगा ?
हां।
क्यों, भूख नहीं लगी है क्या ?
लगी है ना।
फिर ?
आज कम हैं, तो कल मैंने दो चपातियां अधिक खा ली थीं।
लेकिन तुम्हारी भूख...?
औरत की भूख का क्या ! अधिक चपातियां बच जायें, तो भूख
अधिक( और कम बचें, तो कम । च
पत्नी का भविष्य
पति ने नववर्ष पर ‘हिन्दुस्तान’ में अपना वार्षिक भविष्य-फल देखने के बाद पत्नी से पूछा-तुम्हारी राशि क्या है ?
तुला, क्यों ?
तुम्हारा वार्षिक भविष्य देखना है।
मुझे बिना देखे ही पता है।
कैसे ?
इस में कैसे की क्या बात है ! शादी के बाद पिछले दस वर्ष जैसे बीते हैं, वैसे ही बीतेगा यह वर्ष भी।
क्...कैसे ?
वर्ष भर कानों में चिखचिख, दिमाग़ में खटखट और मन में खिन्नता रहेगी...चारदीवारी की उमस में जी घुटता रहेगा...पति के साथ सम्बन्ध पूर्ववत् रहेंगे...सप्ताह-दस दिन में एक बार प्यार करेंगे पति, सिर्फ़ दस मिनट के लिए...और...और...इससे भिन्न क्या हो सकता है एक पत्नी का भविष्य !
---------------------
डॉ0 रामनिवास ‘मानव' ः संक्षिप्त परिचय
जन्म ः 2 जुलाई, सन् 1954 को तिगरा, जिला-महेन्द्रगढ़ (हरि0) में।
शिक्षा ः एम0ए0(हिन्दी), पी-एच0डी0, डी0लिट् तक।
सम्प्राप्ति 1. विभिन्न विधाओं की चालीस महत्त्वपूर्ण कृतियां प्रकाशित।
2. देश-विदेश की अड़सठ प्रमुख बोलियों-भाषाओं में विविध रचनाओं का अनुवाद। दस अनूदित कृतियां प्रकाशित।
3. व्यक्तित्व और कृतित्व पर एम0फिल् हेतु अड़तालीस बार तथा पी-एच0डी0 हेतु चौदह बार शोधकार्य सम्पन्न। एक दर्जन अन्य शोधार्थी पी-एच0डी0 एवं डी0लिट् हेतु पंजीकृत।
4. चार कविताएं तथा दो शोध-प्रबन्ध कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र (हरि0) की एम0ए0 (हिन्दी)-द्वितीय वर्ष के पाठ्यक्रम में सम्मिलित। कई अन्य विद्यालयी, महाविद्यालयी तथा विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों में भी विविध रचनाएं शामिल।
5. देश के एक दर्जन विश्वविद्यालयों द्वारा शोध-निर्देशक के रूप में अनुमोदित। एम0फिल् तथा पी-एच0डी0 के सौ शोधछात्रों का कुशल निर्देशन। दो दर्जन अन्य शोधछात्र पी-एच0डी0 हेतु पंजीकृत।
6. अनेक प्रतिष्ठित सम्मान, पुरस्कार तथा मानद उपाधियां प्राप्त। देश-विदेश की डेढ़ सौ संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
7. स्नातक तथा स्नातकोत्तर कक्षाओं को पढ़ाने का तीन दशक से अधिक का अनुभव।
सम्पर्क ः ‘अनुकृति', 706, सैक्टर-13, हिसार-125005 (हरि0)।
रामनिवास जी सभी कविताएँ उच्चकोटि की लगी ।अच्छी कविताएँ परोसने के लिये साधुवाद।
जवाब देंहटाएंसुन्दर कथा सुन्दर पंक्तिया
जवाब देंहटाएं