छप्पर फाड़ के../ प्रमोद यादव कहते हैं – “ऊपर वाला देता है तो छप्पर फाड़ के देता है “ मैंने कभी इस मुहावरे पर यकीन नहीं किया क्योंकि पच्चीस-त...
छप्पर फाड़ के../ प्रमोद यादव
कहते हैं – “ऊपर वाला देता है तो छप्पर फाड़ के देता है “ मैंने कभी इस मुहावरे पर यकीन नहीं किया क्योंकि पच्चीस-तीस साल छप्पर वाले घर में रहा पर कभी छप्पर नहीं फटा..अलबत्ता कभी बाबूजी की धोती तो कभी माँ की साडी या अपनी ही पेंट को फटते देखा..उन दिनों कपड़े बड़ी जल्दी फट जाया करते..अब के कपडे ( जींस ) तो जानवर की खाल जैसे होते हैं..आदमी फट जाए पर कपडा नहीं फटता..एक चीज और उन दिनों खूब फटा करता – दूध और स्टोव्ह..दूध तो फ्रिज के अभाव में फटता पर स्टोव्ह नई-नवेली दुल्हन के कारण ज्यादातर फटता..जरुरत से ज्यादा फुग्गे में हवा भरो तो फूटना तय ही है...और जब कुछ भी नहीं फटता तो एकाएक बाबूजी बात-बात पर फट पड़ते ..कभी माँ पर तो कभी भाई पर..लेकिन उन दिनों दो चीज कभी नहीं फटते- एक- “नोट” और दूजा- “वोट”..
बचपन में कभी नहीं सुना कि कोई बैंक कभी फटे नोटों को जमा करने का आग्रह कर रहा हो..आजकल तो बैंक बार-बार चेतावनी देते हैं कि नोट पर हिसाब-किताब किये को उस नोट का हिसाब हमेशा के लिए ख़त्म..और तो और यहाँ तक भी कहते हैं कि दो हजार पांच के पहले के नोटों का चलन अमुक तारीख से ख़त्म..जल्द से जल्द उन नोटों को जमा कर राहत पायें..वर्ना उन नोटों के साथ भाड़ में जाएँ.. उस जमाने में गिनती के नोट (असली) ही हुआ करते.. लोग बड़े संभाल – संभाल कर रखते..इसलिए नोट फटने से रह जाते..
अब बातें करें- “वोट” की.. तब हर छोटा-बड़ा घर वोट-बैंक हुआ करता..छोटे-छोटे घरों में भी बड़ी संख्या में लोग रहते..कहीं सोलह तो कहीं बीस..मेरे शहर में एक परिवार तो ऐसा था जहां अठत्तर लोग एक साथ रहते..उस परिवार का एक सदस्य मेरा मित्र हुआ करता ..वो जब भी मिलता, मेरा बढ़िया टाईम पास हो जाता..उससे मिलते ही जेहन में एक से एक सवाल तैरने लगते..कभी पूछता कि तुम सब सोते कैसे हो..कितनी खटिया है घर में ? तो कभी जानकारी लेता कि एक दिन में कितनी सब्जी लगती है ? इतने लोगों का खाना कैसे बनता है? कौन बनाता है? कई बार तो बाजार में उसे ही सब्जी खरीदते देखा....वह मोलभाव करता और पीछे एक नौकरनुमा लम्बा आदमी बोरी लिए खड़ा होता..जब भाव पट जाता तो सब्जियों को बोरी में डलवाता..हर मुलाक़ात में उससे कोई न कोई नई जानकारी हासिल कर अपना नालेज अप-डेट करता ..
तो बातें हो रही थी- वोट की..तब के जमाने में किसी भी परिवार का वोट न कभी फटता था ना ही बंटता था..घर के मुखिया ने जिस पार्टी को ठप्पा लगाया, सारे के सारे भी उसी पर ठप्पा मारते ( तब ठप्पा का ज़माना था )..किसी की क्या मजाल कि “ हल छाप” की जगह “बन्दूक छाप” में ठप्पा ठोंक दे ..और यह पवित्र कार्यक्रम पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहता..वो तो आज का दिन है कि हर घर के वोट फटने लगे हैं..बंटने लगे हैं..अब एक ही परिवार में चार-पांच पार्टी के लोग निवास करते हैं..कोई-कोई सदस्य निर्दलीय भी होते हैं तो वहीँ कुछ “नोटा” किस्म के लोग भी जिन्हें कोई भी नहीं सुहाता....देखते ही देखते सब कुछ बदला पर कुछ नहीं बदला तो मेरी तकदीर... एक कहावत है- “ भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं “ इस पर भी मुझे कभी यकीन न था पर जिस दिन सत्तारूढ़ पार्टी का पत्र मिला, इस पर यकीन होने लगा . और शायद कुछ दिनों बाद ऊपर वाले मुहावरे पर भी यकीन करने लगूँ कि ऊपरवाला जब भी देता –देता छप्पर फाड़ के...
तो किस्सा यूं है कि छुटपन से नेताओं को झक सफ़ेद लिबास में देख मुझे भी “ नेता-नेता” खेलने का मन करता पर बाबूजी इतने सख्त थे कि वे इस धंधे को “अधमों का धंधा” मानते..पांच साल में एक बार वे चुपचाप प्रेमपूर्वक वोट डालते और ऐसा निश्चिन्त हो जाते जैसे कोई भारी काम को अंजाम दिया हो..कोई जीते-कोई हारे-उन्हें कोई मतलब नहीं होता..तब के जमाने में भिखमंगों की तरह वोट मांगने का रिवाज न था..प्रत्याशी मतदाता के विवेक पर छोड़ देते- वे जिसे चाहे वोट करे.. वे शालीनतापूर्वक एक बार हाथ जोड़ अभ्यर्थी होने का धर्म निबाहते.. आज की तरह एकदम पीछे नहीं पड़ते कि मुझे ही वोट करना ( वर्ना देख लूँगा ) तब के प्रत्याशी केवल छः आने खर्च कर चुनाव जीत लेते..केवल गेरू खरीदते और खुद ही दीवारों को रंग आते.. पैदल चल घर-घर जाकर चुनाव प्रचार करते..तब आज के जैसे स्मार्ट फोन नहीं थे कि फेसबुक,वाट्सएप, ट्विटर, विडिओ कालिंग, वीचेट के जरिये सीधे एक सेकण्ड में जनता से जुड़ जाए..
अब तो इतना सब होते भी करोड़ों खर्च कर चापर और विमानों से प्रचार-प्रसार करते हैं फिर भी डरते हैं कि कहीं हार न जाएँ इसलिए दो-दो , तीन-तीन ठिकानों से दाखिला भरते हैं..उसमें भी डरते हैं कि कहीं रद्द न हो जाए इसलिए चार बार, पांच बार भरते हैं..पहले के जमाने में चुवाव संपन्न होने के बाद आखिरी समय तक ” कौन बनेगा करोड़पति ?” की तरह ही सस्पेंस बना रहता कि कौन बनेगा पी.एम.? अब तो सब उल्टा-पुल्टा है..पार्टी पहले ही पी.एम. तय कर देता है फिर वो शख्श पी.एम.बनने की जुगत में धुंआधार दौरा करता है, मतदाताओं को भरमाता है, विरोधियों की पोल खोलता है,”एकला चलो” की तर्ज पर ऐरे-गैरे नत्थू खैरों को पार्टी में मिलाता है, वोट तोड़ने की कोशिश करता है, भाषण पे भाषण पिलाता है, लोगों के कान खा जाता है..सोचता हूँ कि बाई द वे ऐसे भावी पी.एम.किन्हीं कारणवश पी.एम.न बन सके तो क्या हो ? उनकी जगह खुद को रखता हूँ तो विचार आता है कि ऐसी स्थिति में फांसी ही लगा लूं..पर मैं जानता हूँ ये बेशर्मी के साथ पार्टी के पीछे वाली कुर्सी में ऊंघते बैठ जायेंगे..पहले के भी भावी ऊंघते बैठे ही हैं..
माफ़ कीजियेगा...विषयांतर हो रहा हूँ....तो बात कर रहा था पार्टी के पत्र की..एक साथ दो पत्र मिले - दोनों प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों से..एक मेरे नाम से और एक भाई के नाम से..मुझे सत्ता पार्टी से तो भाई को विपक्ष से. मैं रामलाल हूँ और श्यामलाल मेरा बड़ा भाई है..पत्र पा हम आश्चर्यचकित हो फूले नहीं समाये ..मेरी तो जैसे किस्मत ही जाग गई..जिंदगी के सोये अरमान को पत्र ने झिंझोड़ ही दिया.. हमें नामांकन भरने के लिए बुलावा था..पत्र के निर्देशानुसार हम अविलम्ब दो अलग-अलग गाड़ियों से पार्टी कार्यालय रवाना हो गए .. पार्टी प्रमुख से थोड़ी देर की बातचीत में ही मेरा सारा उत्साह काफूर हो गया..माजरा समझ में आ गया.. दरअसल वे मेरे नाम का उपयोग(दुरूपयोग) करना चाहते थे..विरोधी पार्टी ने जिस व्यक्ति को उतारा था, उसका नाम रामलाल था..सत्ताधारी पार्टी चाहती थी कि आठ-दस और रामलाल मैदान में हो तो आपस में वोट कट-पिट जाए और सत्ताधारी पार्टी का प्रत्याशी जीत जाए..सात रामलालों को उन्होंने निर्दलीय की हैसियत से नामांकन भरवाया था, मैं आठवां था. प्रायोजित उम्मीदवार की हैसियत से मुझे भी निर्दलीय उतारा गया...नामांकन शुल्क पार्टी भर रही थी.. मुझे सोचने के लिए एक घंटे का समय दिया..
.मैंने भाई को फोन लगाया तो उसने भी लगभग यही बातें बताई..बताया कि वह निर्दलीय नामांकन भरनेवाला नौवां श्यामलाल होगा.. उसे विरोधी पार्टी ने दुरूपयोग के लिए बुलाया था ..हम दोनों के क्षेत्र अलग-अलग थे पर मिशन एक था..राजनीती का कीड़ा तो बचपन से कुलबुला ही रहा था , मैंने हाँ कर दी और भाई को भी राजी कर लिया ..नामांकन दाखिले के बाद जब पार्टी से प्रचार-प्रसार करने पैसे मांगे तो दोनों पार्टियों ने ठेंगा दिखाते कहा- इसकी क्या जरुरत ? डुप्लीकेट हो..डुप्लीकेट की तरह रहो..हाँ..अगर खुद अपनी अनटी से कुछ करना चाहो तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं..
अब कोई चुनाव में खड़ा हो और चुनाव प्रचार न करे तो इससे भद्दी बात और क्या हो सकती है..पत्नी-बच्चों के साथ चुनाव प्रचार का अलग ही मजा है.. सो अनटी से पचास हजार निकाल मैं अपने क्षेत्र को निकल गया..भाई भी भाभी व भतीजों के साथ पैसे ले अपने क्षेत्र को रवाना हो गया..दो दिन के प्रचार -प्रसार में ही मैं पागल हो गया..जिस चौक-चौराहे पर जाता वहा रामलाल का भाषण चलता रहता..लोगों से वोट मांगने घर जाता तो पूछते-कौन सा वाला रामलाल ? सीधी वाला कि शहडोल वाला...गुरूजी कि महराज जी, घाट वाले कि वात वाले ?आधा घंटा तो परिचय देने में ही लग जाता..जैसे-जैसे मतदान का दिन निकट आया .सब कुछ इतना गड-मड हो गया कि मैं खुद भुलने लगा कि कौन सा वाला रामलाल हूँ.. वो तो अच्छा हुआ कि नतीजे आये तो सारे रामलाल हार गए..कोई एक भी जीत जाता तो मैं अब तक वहीँ भूल-भुलईये में होता.. एक अच्छी खबर ये है कि भाई भी सारे हमनामों को हराकर और हारकर लौट आया है..पैसे डूबे तो डूबे, इतने हमनामों के बीच से उबर आये..यही क्या कम है..जीत-हार तो चुनाव में चलते रहता है..ऊपवाले ने छप्पर फाड़कर दिया तो नहीं बल्कि ले लिया..समझ नहीं आता..वक्त के साथ सब कुछ बदलता है तो ये मुहावरे क्यों नहीं बदलते ?
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प्रमोद यादव
गया नगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़
समय सापेक्ष सटीक व्यंग है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद....प्रमोद यादव
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