वर्जित फल पशु अधिकार आन्दोलनकारियों ने हजारों लेख लिखे थे, सैकड़ों प्रतिनिधि-मंडल राजनेताओं से मिले थे, बरसों आन्दोलन चला था तब कहीं जा...
वर्जित फल
पशु अधिकार आन्दोलनकारियों ने हजारों लेख लिखे थे, सैकड़ों प्रतिनिधि-मंडल राजनेताओं से मिले थे, बरसों आन्दोलन चला था तब कहीं जाकर पशु अधिकार आन्दोलन कार्यकर्ताओं ने यह अर्जित किया था कि योरोप के चिड़ियाघरों में बंद शेरों को जहां से उनके पूरखे लाये गये थे वहां ले जाकर छोड़ दिया जाये। लेकिन यह भी सरल न था क्योंकि कुछ युवा शेरों की यह
तीसरी चौथी पीढ़ी थी जो चिड़िया घर के रमणीय वातावरण में डिब्बाबंद खाने और टेट्रापैक दूध पर परवान चढ़ी थी। अगर उनकी अचानक किसी सुबह अफ्रीका या एशिया के जंगलों में आंख खुलती तो अवश्य ही डर के मारे बेहोश हो जाते। इसलिए यह सोचा गया कि इन शेरों को उनके मूल स्थान पर ले जाकर छोड़ने से पहले उन्हें उन जंगलों और वहां बचे खुचे शेरों के जीवन के बारे में पर्याप्त जानकारियां दिए जाना जरूरी है संचार युग में यह कठिन काम न था।
पहले दिन जब चिड़ियाघर के शेरों को उनके मूल स्थान के बारे में फिल्में दिखाई गयीं तो उसकी प्रतिक्रिया आशा के विपरीत थी। कुछ शेरों ने तो यह मानने से ही इनकार कर दिया कि वे वहां के मूल निवासी हैं। कुछ ने जब जंगली, बर्बर शेरों को अन्य निरीह पशुओं की हत्याएं करते तथा असभ्य तरीके से मांस खाते और गंदा पानी पीते देखा तो बोले कि ये फिल्में हमारा नैतिक बल समाप्त करने तथा हमें भयावह जंगली में ढकेल दिये जाने की साजिश का एक हिस्सा हैं। लेकिन अफसोस कि पशु अधिकार कार्यकर्त्ता उनकी बात न समझ सके। पर यदि वे शेरों की बात समझ भी जाते तो उनका जबाब यही होता कि वे जो कुछ कर रहे हैं वह अपने विश्वासों और प्रतिबद्धता के अंतर्गत ही कर रहे हैं। वे यह अवश्य करेंगे क्योंकि उनका यह काम हजारों वर्षो में अर्जित संस्कृति का प्रतिफलन है।
शेरों के पिंजड़ों में यह सोचकर पर्याप्त मात्रा में खाना और पानी रख दिया गया उन्हें जंगली पशुओं का शिकार करने तथा गंदे नालों, तालाबों का पानी पीने का अभ्यस्त होने में कुछ समय अवश्य लग जायेगा। इसके अलावा उनकी सुविधा की दूसरी चीजों के अतिरिक्त, यहां तक कि बच्चा शेरों के खिलौना तक रख दिये गये। स्कूली बच्चों को प्रेरित किया गया कि वे शेरों के पिंजड़ों में विदाई कार्ड रखें।
हवाई जहाज की सवारी उनके लिए नयी न थी। वे सामान्य रहे। पर जब मूल स्थान पर हवाई जहाज उतरा तो उनमें कुछ बेचैनी पाई गयी। साथ जो डॉक्टर था उसने इंजेक्शन दिये जिनका तुरंत अच्छा प्रभाव पड़ा। शेर सामान्य हो गये। कुछ युवा शेर तो गुनगुनाने तक लगे। उनके पिंजड़ों को खोल कर जंगलों में रख दिया गया।
कुछ सप्ताह बाद जब पशु अधिकार कार्यकर्त्ता पिजड़ों को इस उद्देश्य से लेने पहुंचे के उनका पुनः इस्तेमाल किया जा सके तो उन्होंने देखा कि शेर तो पिंजड़ों में नहीं हैं लेकिन एक विचित्र प्रकार के जीव पिंजड़ों में खचाखच भरे हैं। वे शेरों से नहीं डरते थे पर इस नये जीव से डर गये क्योंकि इन जीवों की शारीरिक जांच से यह साबित हुआ कि वे मनुष्य हैं। अटपटी अनजान भाषा के अतिरिक्त उनमें से एक दो टूटी-फूटी अंग्रेजी भी बोल लेते थे।
‘‘तुम लोग पिंजड़ों में क्यों घुस गये हो’ उनसे पूछा गया।
‘‘हमें अपने साथ ले चलो’’ वे बोले।
‘‘क्यों’
‘‘इसलिए कि हमारी हालत शेरों से बदतर है।
‘‘लेकिन तुम लोग आदमी हो।’’
‘‘इसमें हमारी कोई गलती नहीं है। हम उसकी तरह आदमी हैं जैसे शेर शेर हैं।’’
‘‘लेकिन यह तुम्हारा देश है तुम लोग यहां रहो।’’
‘‘तुमने यह शेरों से क्यों नहीं कहा था उनका भी तो यही देश था।’’
‘‘देखों शेरों को चिड़ियाघर में रखा गया था।’’
‘‘हम उससे भी खराब जगह रह लेंगे।’’
‘‘नहीं, हम तुम्हें नहीं ले जा सकते।’’
‘‘देखो हम कई मायनों में शेरों से ज्यादा उपयोगी हैं। हम तुम्हारे देश का उत्पादन बढ़ा सकते हैं।’’
‘‘उत्पादन नहीं नहीं...तुम्हें मालूम है कि हम लोग हर साल करोड़ों टन अनाज नष्ट कर देते हैं।’’
‘‘हम अनाज नष्ट करने में तुम्हारी सहायता करेंगे। कोलेस्ट्रोल, प्रोटीन, विटामिन आदि की चिंता किए बिना हम खूब खा सकते हैं।’’
‘‘नहीं नहीं उसकी आवश्यकता नहीं है। हम तो अपने किसानों को फसलें न पैदा करने के लिए पैसा देते हैं।’’
‘‘तुम्हारा देश हमारे जैसे लोगों के रहने के लिए आदर्श हैं। तब तो हमें वहां जरूर ले चलो।’’
‘‘हम मजबूर हैं। तुम्हें नहीं ले जा सकते हां कोई घायल या बीमार जानवर, विशेष रूप से कुत्ता या बिल्ली हो तो बताओ।’’
‘‘कहो तो हम अपने को घायल कर लें। वैसे बीमार हमारा पूरा देश है।’’
‘‘तुम्हारी यही चालाकी है कि हम तुम्हें नहीं ले जाना चाहते।’’
‘‘चालाक तो हम बिलकुल नहीं हैं। हम निरीह हैं। शेरों के मुकाबले तो बिलकुल असहाय हैं। शेरों को खाना नहीं खरीदना पड़ता। शेरों ने देशों की सीमाएं भी नहीं बनायी हैं जो रोज़ बनती बिगड़ती रहती हैं शेर धर्मों को भी नहीं मानते। शेर अलग-अलग भाषाएं भी नहीं बोलते। शेर बारूद के इस्तेमाल से भी नावाक़िफ है। न तो शेर सरकारें बनाते हैं। न चुनाव कराते हैं और न ये कहते हैं कि वे जनतांत्रिक हैं हमारे ऊपर ये सारी जिम्मेदारियां हैं...तुम हमें यहां से ले चलो।’’
पिजड़ों में ठसाठस भरे लोग किसी तरह निकलने पर तैयार न थे। हद यह है कि पशु अधिकारों कार्यकत्ताओं ने हिंसा तक का सहारा भी लिया, क्योंकि इससे उनके विश्वास खण्डित न होते थे, परन्तु फिर भी वे बाहर न निकले तब एक कार्यकर्ता ने कहा, ‘‘अब ये सरलता से बाहर न आयेंगे।’’
‘‘क्यों’
‘‘क्योंकि इन्होंने वह खाना चख लिया है जो हमने पिंजड़ों में शेरों के लिए छोड़ा था।’’
लहर
कोई बीस साल पहले की बात है। उन दिनों मैं पैरिस की अकादमी ऑफ फाइन आर्ट्स में पढ़ता था। लखनऊ आर्ट्स कालिज से डिप्लोमा करने के बाद फ्रेंच सरकार की स्कालरशिप पर मैं अपनी पढ़ाई का तीसरा साल पूरा कर चुका था। तीन साल बाद देश की ऐसी सख्त याद आयी कि छात्रवृत्ति सेबचाये पैसे से टिकट खरीदा और दिल्ली आ गया। दिल्ली में किसी कलाकार मित्र ने बताया कि ‘आईफैक्स’ में नये पेंटर्स की नेशनल एग्जीबीशन हो रही है। योरोप में भारी-भरकम कपड़े पहनने से ऊबा मैं खद्दर के कुर्त्ते पाजामे और कोल्हापुरी चप्पल में आईफैक्स चला गया। सामने ही पहला इनाम पायी पेंटिंग लगी थी। लगा काम देखा हुआ है। दिमाग पर बहुत जोर डालने के बाद भी पता न चला कि किसका काम है। मैं नजदीक आया। नाम पढ़ा-रजनीकर। अरे! रजनीकर तो वही लड़का है जो लखनऊ में मुझसे एक साल जूनियर था। और लखनऊ छोड़ते समय मैं अपनी बहुत सी पेंटिंग्स उसे रखने के लिए दे आया था। मैं कुछ उधेड़-बुन में था कि एक लड़का मेरे पैरों पर झुक गया। पैर पकड़े-पकड़े उसने कहा, ‘‘दादा आप कब आये। मैं तो पहचान भी न पाता अगर कहीं और...’’रजनीकर बोलता रहा लेकिन। मैं कुछ सुन न सका क्योंकि सामने जो चित्र लगा था वह उन्हीं में से एक था जो मैं उसको दे आया था।
वह खड़ा हो गया। ‘दादा’ उसके स्वर में याचना, क्षमा अपराध स्वीकार और पता नहीं क्या-क्या था। उसके बाद मैं उससे यह न कह सका कि यह मेरी पंटिंग है। यह भी न कह सका कि उसने ऐसा क्यों किया। मैं खामोश हो गया। मुस्करा दिया। क्योंकि मेरी नजर में मेरा और उसका वह काम सिर्फ एक अच्छी कोशिश थी। उससे ज्यादा कुछ नहीं।
उस घटना के दस साल के अंदर ही रजनीकर माना-जाना पेंटर हो गया। वह कई अकादमियों का मेंबर है। उसे कई सम्मान मिल चुके हैं। वह कई जूरियों का मेंबर रहा है। वह देश के उच्च कला सर्किल में आ गया है। अभी कुछ साल पहले मिला था तो बोला, ‘‘दादा आपने पेंट करना छोड़ दिया। अबकी ‘त्रिनालय’ में कुछ भेजिये न। मैं जूरी में हूं।’’
मैं उसकी इस बात पर हंस सकता होता तो हंस कर लोट-पोट हो गया होता। मैंने कहा, ‘‘भाई अच्छा काम देखने को बहुत है। मैं तो उसे देखता हूं। और खुश रहता हूं।’’
‘‘आप डिजाइनिंग की तरफ निकल गये।’’ वह बोला।
उन दिनों मैं न्यूयार्क के फैशन डिजाइनर ‘किटी एण्ड कैट’ के साथ काम करता था।यह भी पुरानी ही बात है। यह तो नहीं कह सकता कि मैं फैशन डिजाइनिंग में सफल नहीं हुआ क्योंकि आज तक ‘किटी एण्ड कैट’ का जेम्स किलो कभी-कभी फाने करके कहता है-‘‘आदि ह्वाई डोन्ट यू ज्वाइन मी।’’ मैं अब उसे क्या ज्वाइन करूं। वहां काम करते-करते धीरे-धीरे यह लगा कि यार यह सब क्यों कर रहा हूं कोई उचित जवाब समझ में न आया। पैसा तो खूब था। पर और क्या था
न्यूयॉर्क छोड़ा तो फिर पैरिस आ गया। पेंटिंग करना छोड़ चुका था। फैशन डिजाइनिंग करना न चाहता था। सोचा ‘रेस्टोरेशन ऑफ एंशियन्ट वॉल पेंटिंग्स’ में कुछ करना चाहिए। एक साल का डिप्लोमा किया तो ‘यूनिसेफ’ में काम मिल गया। इंडोनेशिया चला गया। वहां से चीन भी जाना हुआ। इन्हीं दिनों तीसरी दुनिया और ‘यूनेस्को’ की रस्साकशी देखी। राजनैतिक स्वार्थी में आंच ने जलती अमूल्य कला कृतियां देखीं। प्रोग्राम के फ्रेंच डायरेक्ट ने साफ कहा, ‘‘आदि हम राजनैतिक स्थितियों या दवाबों को नजरअंदाज नहीं कर सकते। वैसे भी कला ने हमेशा सत्ताओं के अधीन काम किया है।वह चाहे चर्च की सत्ता हो या पूंजीवादी की सत्ता या समाजवाद की सत्ता।’’
राजनैतिक कारणों से जमाकर्त्ता का काम बंद हुआ तो मैं एक खाली बर्तन जैसा था। पता नहीं कुछ करने की इच्छा ही नहीं थी। अपने बैंक का हिसाब किताब देखा तो पन्द्रह साल में खासी बड़ी रकम जमा हो गयी थी। उसे समेटा और दिल्ली आ गया।
उन दिनों दिल्ली की सबसे बड़ी एजेन्सी ‘डेवलप’ हुआ करती थी। संतोष चटर्जी एम.डी. थे। उन्होंने मुझे डिजाइन डिपार्टमेंट का हेड बनाने का ऑफर दिया। मैंने बेदिली से ‘डेवलप’ ज्वाइन कर ली। सोचा जब किसी न किसी सत्ता के आधीन काम करना है तो क्यों ‘बाजार की सत्ता’ के आधीन करूं।
‘डेवलप’ में मेरा काम इतना पसंद किया गया कि हर साल हजारों रुपये के ‘इंक्रीमेंट’ मिलने लगे। लेकिन मुश्किल ये थी कि मेरे सबसे घटिया काम पसंद किये जाते थे। वह लाखों की संख्या में छपते थे। उस पर एवार्ड मिलता था। और एवार्ड लेने मुझे जाना पड़ता था। धीरे-धीरे वह स्थिति असहनीय हो गयी। मैंने ‘डेवलप’ छोड़ दी। चटर्जी की समझ में यह बिलकुल न आया। न उन्हें समझाना चाहता था कि मैंने यह फैसला क्यों किया है। चटर्जी ने कहा, ‘‘तुम सिर्फ कन्सल्टेंट हो जाओं। हफ्ते में एक बार आओ।’’ पर मन तो मन ही है। उखड़ा तो उखड़ता चला गया।
एजेन्सी का काम छोड़ने के बाद मैंने सफेद कागज और स्केच पेन की तरफ देखना छोड़ दिया। मैं आंखें बंद किये किये उन सुंदर चित्रों को देखा करता था जो मैंने ‘टेट गैलरी’ या ‘लूर्व’ में देखे थे। अजंता की दीवारों से बातें किया करता था। वेनिस की गोलियों में घूमा करता था। विशाल गिरजाघरों की छतों और दीवारों पर भटका करता था। सोचता था वहां कला है। वही कला है। जब तक जिन्दा हूं श्रेष्ठतम् कला और सुन्दरता से अभिभूत रहूं। घटिया काम करना या देखना बेकार है। कला तो एक नजरिया है। कला जिन्दगी गुजारने का एक तरीका है। कला अपनी और अपने परिवेश की सुन्दरता को बनाये रखना है और विकसित करते रहना है। कला का कोई स्थूल अर्थ नहीं है। चित्र बनाना, एक्लप्वर बनाने तक कला को सीमित कर देना या उसी को कला समझना तो मूर्खता है। मैं उस मूर्खता से निकल आया था। मुझे खुशी थी कि मैंने सबसे बड़े कलाकार यानी प्रकृति को पहचान लिया है और मैं खुश हूं। मैं उससे भरपूर आनंद उठाता हूं।
ऐजेन्सी की नौकरी छोड़ने के बाद पता नहीं क्यों, हो सकता है कि शायद लम्बे समय तक फ्लैटों में रहते-रहते तंग आ गया था, यह ख्याल आया कि अपने लिए एक मकान बनाऊं। पच्चीस-छब्बीस साल में मुझे जो भी अनुभव हुए थे। दुनिया घूमकर जो-जो कुछ भी देखा था और रहन-सहन को जो भारतीय आवश्यकताएं या परम्पराएं थीं उन्हें मद्देनजर रखते हुए मैंने अपने लिये घर का नक्शा बनाया। एक विशाल पार्क के बिलकुल सामने जगह खरीदी और चाव से मकान बनवाता रहा। मकान जब बन गया तो मुझे अपने हर काम की शुरुआत लगा। यह बात दूसरी है कि ‘स्कूल ऑफ आकीटैक्चर’ वालों ने उसे पारम्परिक भारतीय भवन निर्माण कला की एक जीवंत शैली माना। उसके बारे में लेख लिखे गये। अब तक आकीटेक्चर के लड़के लड़कियां घर देखने चले आते थे।
बहरहाल अब मैं अपने घर में गनेश के साथ रहता हूं। गनेश को भी मेरे साथ आठ साल हो गये हैं। गाजीपुर के एक गांव का है। वह अब मेरी आदतों से इतना परिचित है जितना कि बहुतेरे अपने आप से भी नहीं होते। सुबह उठकर बेडरूम में चाय। फिर नहाना, फिर सामने वाले पार्क की एक घंटा लम्बी सैर। फिर माली के साथ कम्पाउण्ड के पेड़ पौधों की देखभाल। फिर गाड़ी की सफाई। फिर बाहर जाने कि लिए तैयार होना। फिर आई.आई.सी. की लायब्रेरी में बारह साढ़े बारह तक अखबार पत्रिकाएं देखना। वहां के बार में एक बियर पीना और दिन का हल्का लंच लेकर घर वापस। दोपहर में एक घंटे आराम। फिर क्लब में टेनिस। वापसी पर ह्विस्की...अक्सर दोस्तों का जमावड़ा। रात का खाना और कुछ पढ़ कर सो जाना। वैसे मेरी जिन्दगी को अपनी अलग रफ्तार है। बहुत खुशी होती है कि कई बार शादी से बाल-बाल बच गया। अगर कहीं वह दुर्घटना घट गयी होती तो पता नहीं क्या होता
शादी के सिलसिले में अपने साथ बनाए गए आदर्श को मैंने गनेश के लिए मान्य नहीं माना। उसकी शादी पिछले ही साल लगभग मैंने ही करवाई है।
सुबह का आठ बजा है। दरवाजे और खिड़कियों से धूप सीधे ड्राइंग रूम के मैरून रंगों वाले अफ़गानी कालीन पर एक दिलचस्प पैटर्न बना रही है। हरे रंग की पारदर्शी पत्थर की नीची मेज पर धूप का एक टुकड़ा चमक रहा है। दीवारों पर बने उड़ीसा के लोक चित्र चुपचाप अपनी पैनी आंखों से धूप को इस तरह देख रहे हैं जैसे अनाधिकार ही वहां आ गई हो। कांसे की बनी बड़ी मूर्ति, जो मोहनजोदड़ो की नर्तकी की अनुकृत है, चुपचाप खड़ी है, शायद शताब्दियों से इस इंतजार में कि वह क्षण आए जो आने वाला है। दीवार में बने ताक़ों के बीच लगी कठपुतलियों के कान खड़े हो गए जब सामने वाले दरवाजे से गनेश की पत्नी, जो रंग-बिरंगी गंवारू साड़ी का लंबा घूंघट निकाले थी, अंदर आई। मुझे ड्राइंगरूम में बैठा देखकर एक क्षण लौट कर पिछले दरवाजे से सीधे सर्वेंट रूप में जाने को हुई। फिर मेरे कहने पर कि जाओ, जाओ निकल जाओ। उसने तेजी से पैर बढ़ाए। पैरों के तलवों का लाल रंग सफेद संगमरमर के फर्श पर लगा छाप छोड़ रहा हो। पायलों की मद्धिम आवाज को उसने जान-बूझकर दबा लिया। पैरों की उंगलियों में पड़े बिछुवे और छल्ले चमक गए। बनी-बनाई कलाकृति पर एक ऐसी लाइन जैसी खिंच गई जसके बिना कलाकृति, किसी को पता न था, फिर भी अधूरी थी। घर-बार जोरू-जाते से विमुक्त रहनेवाले मेरे जैसे व्यक्ति के लिए यह एक अनुभव था। यह दृश्य मेरी मनपसंद पेंटटिंग्स में शामिल हो गया। मैं वचारों में इसे कई-कई तरह के कोणों से देखा करता था। कभी इस पेंटिंग में नए रंग लगा देता था, कभी प्रकाश आने की दिशा बदल देता था, कभी गति बढ़ा देता था। हर बार यह पेंटिंग एक नया मजा देती थी।
दस साल से कुछ न करने के बावजूद मैं इन सवालों से नहीं बच सका हूं कि मैं कुछ क्यों नहीं करता। दोस्त, एहबाब जिनकी कमी नहीं है अक्सर पूछते हैं, आश्चर्य इस पर होता है कि अब तक, कि मैं कुछ क्यों नहीं करता पेंट क्यों नहीं करता, रेखांकन कें नहीं करता मैं कभी हंस कर जवाब देता हूं कि यार दुनिया में कूड़े के वैसे ही बड़े-बड़े ढेर लगे हैं, मैं उन्हें बढ़ाना नहीं चाहता। कूड़े के ढेर देखने हों तो अर्ट गैलरीज में चले जाओ। ऐसा-ऐसा पेंटर मिल जाएगा जो लाइन खींचना तक नहीं जानता और मशहूर है। नेशनल पेपर का एक आर्ट क्रीटीक कंपोजीशन की ए बी सी नहीं जानता और कला का बहुत बड़ा पारखी है। सेठ साहूकार आलू-प्याज की तरह थोक में प्रदर्शनी की सभी पेंटिंग्स खरीद लेते हैं। एक भयानक ‘मीडियाक्रिटी’ का माहौल है। सब कुछ मेरे बिना आराम से चल रहा है, चलने दो। दोस्त कहते हैं ठीक है तुम अपने लिए बनाओ। अपने लिए क्यों इसलिए कि तुम कलाकार हो। दुनिया में कला की कमी नहीं है। फिर मास्टर्स को तुम लोग क्यों भूल जाते हो अगर उनसे अच्छा कोई नहीं बना सकता तो क्यों बनाए क्या डॉक्टर ने कहा कि आप बनाएं
काम न करने के पीछे मैंने हो सकता है जो तर्क सोचे हैं वे एक तरह के प्रतिरोध हों या पालयन हो। जो कुछ भी हो, मैं खुश हूं। हां, कभी-कभी इस खुशी के पीछे एक स्वर ऐसा सुनाई पड़ता है जो मुझे पसंद नहीं है। सफेद कागज से मैं डरने नहीं, असुविधा महसूस करने लगा हू। सफेद कागज देखते ही मेरी कल्पना उसमें फार्म और रंगों का संयोजन करने लगती है। मैं सोचता हूं दस साल बाद अगर ब्रुश उठायातो पता नहीं क्या हो अब न तो वह अभ्यास ही रह गया है और न विश्वास जो पहले था। न वह इग्नोरेंस के कारण पैदा होने वाला साहस बचा है और न वह शुरूआती तड़प है जिसके चलते मैं दस-दस घंटे पेंट करता रहता था। कभी लगता वह जुनून ही नहीं बचा। वह पागलपन ही शेष नहीं है जो था। इकी वजह क्या है, बढ़ती हुई उम्र साठ पार कर लिया है मैंने।
शादी के कुछ ही महीने बाद गनेश की पत्नी गर्भवती हो गई थी। मैं उसे गनेश के साथ नर्सिंग होम ले गया। दवाएं, इंजेक्शन, खाना-पीना सबका ध्यान रखने का काम गनेश को सौंप कर भी मैं खुद यह मालूम करता रहता था कि वैसा करती है या नहीं जैसा डॉक्टर ने कहा है। उसके फूले हुए पेट को मैं रहस्य और रोमांच के साथ देखता था। उससे पहले कभी मैंने यह सब कुछ इतने नजदीक से नहीं देख था। उसके हाव-भाव में भी परिवर्तन आ रहा था औरजब वह मां बनी और बच्ची पहली बार सर्वेंट रूम में आई तो गनेश की पत्नी का चेहरा भी एक पेंटंग जैसा लगा। क्या कोई कलाकार उस प्रक्रिया को पेंट कर सकता है जिससे गुजरता उसका चेहरा यहां तक पहुंचा है बच्ची का नाम मैंने लहर रखा। सुंदरता और गति के मेरे आदर्श को समाहित करने वाला नाम।
गनेश लहर से मुझे दादा कहलवाने की कोशिश करता था। अब शाम मैं जब लौटता तो लहर के साथ एक घंटा बिताना अनिवार्य हो गया था। उसका बातें समझना, उसका हंसना, उसका चलना सीखना, उसकी जिद और उसका रोना-सब कुछ मुझे उद्वेलित कर देता था। वह और बड़ी हुई तो मेरे साथ पार्क जाने लगी। मेरे पार्क जाने से पहले गनेश उसे तैयार करके ड्राइंगरूम में ले आता था। वह मेरी छड़ी लेने की जिद करती थी। कभी गोद में आने की जिद करती। धीरे-धीरे उसके अंदर भावनाओं का संचार हो रहा था। वह पहली बार बेाली थी तब मुझे लगा था कि लहर की नई गति है। नई दिशा। पता नहीं वह मेरे साथ बड़ी हो रही थी या मैं उसके साथ छोटा हो रहा था! अगर मैं छोटा भी हो रहा था, बच्चा भी बन रहा था तो यह मुझे पसंद आता था। उसके कहने पर मोर को पकड़ने की कोशिश। उसके कहने पर खरगोश के बच्चों को घास खलाना। हिरन के कान सहलाना। कबूतरों को दाना खिलाना। कुत्ते की बोली बोलना।
पेड़ों के झुरमुट में मोर खड़ा था। मैं धीरे-धीरे लहर को उसके पास ले गया। मोर को देखकर वह खुशी से चीखी और मोर की तरफ दौड़ी। मोर उड़ गया। वह रोने लगी। मैं उसे चुप कराने की कोशश करता रहा लेकिन कामयाब न हुआ। वह पूरे रास्ते रोते-रोते घर आई। अंदर भी रोती रही। उसकी मां ने उसे केला खिलाना चाहा पर वह रोती रही। मैंने चॉकलेट देनी चाही। पर उसने न ली। गनेश ने कुत्ते की बोली बोली जिस पर वह आमतौर पर हंस देती थी, पर वह रोती रही। मोर-मोर की रट लगाए हुए थी।
अचानक मैंने पेस्टल कलर निकाले और तेज़ी से एक सफेद कागज पर मोर बना दिया। कागज पर बने मोर को देखकर उसका रोना कुछ थमा। सिसकियां बाकी रह गईं। फिर वह कागज पर बने मोर को देखने लगी। मैं भी हैरत से उस मोर को देख रहा था। उसके बाद मैं रुका नहीं। लहर की पसंद के सभी जानवर कागज पर उतरते चले गए। उनमें लहर भी थी। कांपते हाथों से स्केचेज के कोने में मैंने एक झटके से ए. और के. लिख दिया और तब पच्चीस सल बाद लिखे इन ‘इनीशियल्स’ की गर्मी में मैंने एक दूसरी दुनिया देखी।
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