असगर वजाहत की कहानी - दो पहियों वाले रिक्शे

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दो पहियों वाले रिक्शे (1) मैं दिन भर रिक्शे पर चढ़ा इधर-उधर आता-जाता रहता हूं, लेकिन रात में रिक्शेवाला मेरे ऊपर चढ़ जाता है और उसे उठाए-उठ...

दो पहियों वाले रिक्शे

(1)

मैं दिन भर रिक्शे पर चढ़ा इधर-उधर आता-जाता रहता हूं, लेकिन रात में रिक्शेवाला मेरे ऊपर चढ़ जाता है और उसे उठाए-उठाए मैं संसद, सर्वोच्च न्यायालय, प्रधानमंत्री सचिवालय के चक्कर लगाता रहता हूं।

रिक्शा मेरी प्यारी सवारी है, क्योंकि संसार में वही एक अकेली सवारी है जिससे आप बातचीत कर सकते हैं। वैसी कि जैसी कार, बस या घोड़ागाड़ी से नहीं कर सकते कि रिक्शा रिक्शेवाले के बिना अधूरा है और दोनों एक-दूसरे के इतने पूरक हैं कि रिक्शेवाला रिक्शा बन गया है और रिक्शा रिक्शेवाला। यही वजह है कि हम सब रिक्शेवाले को भी ‘ऐ रिक्शा’ कहकर बुलाते हैं और रिक्शेवाला मय रिक्शे के आ जाता है।

मैं सुबह रिक्शा पर बैठकर अपने छोट-मोटे काम कर लेता हूं। रिक्शा से गप्प-शप्प भी हो जाती है। हंस-बोल लेता हूं नहीं तो इस चढ़ती उम्र में मुझसे हमजोली ही बोलते बात करते हैं, जवान लोग कन्नी काट जाते हैं, पर रिक्शा यह सब नहीं करता।

मैं रिक्शा को हंसाने की कोशश भी करता है वह हसंता है। रिक्शा मुझे हंसाने की कोशिश करता है, तो मैं रोता हूं। और हम दोनों हंसते-रोते दिन काट देते हैं। रिक्शा मेरे सामने अपने हाथों के गट्टों पर सरसों का तेल मलता है। उसके हाथों में वैसे गट्टे पड़े हैं जैसे नंगे पैर चलने वालों के पैरों में पड़ जाते हैं।

मुझे बराबर लगता रहा है कि कितना अच्छा है कि मैं रिक्शा नहीं हूं।रिक्शा को शायद मेरे मन की यह बात पता नहीं है। मैंने उससे कभी पूछा भी नहीं है, क्योंकि रिक्शा अगर बता दे कि वह रिक्शा होने से खुश नहीं है तो मैं रिक्शा से गिर पडूंगा और चोट खा जाऊंगा। खाने की सब चीजें मैं खा सकता हूं, लेकिन चोट को मैं खाने की चीज नहीं मानता।

(2)

रात का वक्त पूरी कालोनी सो रही है। मैं रिक्शा बन गया हूं। रिक्शा मेरे ऊपर बैठा हुआ है। मेरी पीठ गद्दी बन गई। सिर हैंडिल बन गया है। पैर पहिए बन गए हैं। रिक्शा मेरे ऊपर चढ़ा बैठा है और मैं प्यार से गुनगुनाता चला जा रहा हूं। कभी-कभी जरूरत पड़ने पर रिक्शा मेरा कान उमेठकर घंटी भी बजा देता है।

मैं रिक्शा को अपनी पीठ पर बिछाए बड़ी-बड़ी इमारतों के दरवाजों तक जाता हूं। इमारतों के दरवाजें तो हैं लेकिन हमें हमेशा बन्द मिलते हैं। पहले हम बन्द दरवाजों के बिलकुल सामने तक पहुंच जाते थे, लेकिन ईश्वर नाश करे आतंकवादियों क; जब से ये आए हैं हम दरवाजों तक भी नहीं पहुंच पाते क्योंकि पुलिस का पहरा दूर से ही शुरू हो जाता है।

रिक्शा मुझे अपने गांव-घर के बारे में बताता है। बीवी-बच्चों के बारे में बताता है। मैं जानता हूं, वह झूठ बोल रहा है क्योंकि जहां इतनी बाढ़ आती हो, इतना सूखा पड़ता हो, इतनी बीमारियां फैलती हों, इतने अपराध होते हों वहां न गांव होंगे, न बीवी होगी, न बच्चे होंगे, वहां केवल सांसद होंगे और विधेयक होंगे। पर मेरे बैठा रिक्शा पता नहीं क्या सोच रहा है।

(3)

एक दिन रिक्शा लेकर मैं घर पहुंचा। पत्नी ने कहा, ‘‘तुम इसे यहां क्यों ले आए’

‘‘मैं इसके लिए कुछ करना चाहता हूं।’’

‘‘इसे बाहर ही पैसे दे देते।’’

‘‘नहीं, उससे क्या होता’

‘‘तो कपड़े दे दो।’’

‘‘नहीं...उससे भी क्या होगा।’’

‘‘फिर तुम क्या करना चाहते हो’

‘‘मैं इसे यहां अपनी बैठक में बैठाना चाहता हूं।’’

पत्नी ने फुर्ती से कुर्सी पर चादर डाल दी। मैंने रिक्शे को कुर्सी पर बैठाना चाहा, लेकिन रिक्शा एक तरल पदार्थ की तरह पूरे कमरे में फैल गया।

पत्नी बाली, ‘‘मैं इसी से तो डरती थी।’’

(4)

पचास हजार रिक्शों का जुलूस निकल रहा है। हर रिक्शे पर पोस्टर लगे हैं।जिन पर तरह-तरह के नारे लगे हैं। जैसे लिखा है, ‘‘नहीं रुकेंगे, नहीं रुकेंगे,रिक्शा चलाना नहीं रुकेंगे।’’ या ‘‘रिक्शे का भी पेट है’’ या ‘‘रिक्शे को भी रोजी-रोटी का अधिकार है’’।

मैं बहुत खुश सबसे आगे-आगे हूं। मेरे सिर पर यानी रिक्शा के हैंडिल पर पोस्टर लगा है, ‘‘जब तक सूरज चांद चलेंगे। तब तक रिक्शे खूब चलेंगे।’’

मेरे ऊपर आन्दोलन के नेता बैठे हैं। लाउडस्पीकर लगा है। भाषण हो रहे हैं। मेरी तस्वीरें खिंच रही हैं।

दिन भर प्रर्दशन के बाद रिक्शे अड्डे पर पहुंचे तो मेरे भी हाथ पचास का नोट रख दिया गया।

‘‘ये क्या है’

‘‘अरे पगले आज दिन भर तुने रिक्शा चलाया है...पचास जो तू किराए के देता है...वो तो लेंगे नहीं...ये हमारी तरफ से ले लो।’’

मैने पैसे ले लिए।

‘‘बस देख आन्दोलन तगड़ा चलना है...चाहे दस पांच शहीद ही क्यों न हो जाएं।’’

‘‘हां जी।’’

‘‘रिक्शा चलता रहना चाहिए...बताओ एक लाख रिक्शा खड़ा हो गया तो क्या होगा’

(5)

‘‘क्यों रिक्शा, तुम रिक्शा न चला पाओगे तो क्या करोगे’

‘‘बाबूजी जो रिक्शा चला सकता है वह सब कर सकता है।’’

‘‘पेट पालना है तो कुछ भी कर लेंगे।’’

‘‘लेकिन तुम तो बस रिक्शा ही चलाना जानते हो।’’

‘‘बाबूजी, रिक्शा चलाते-चलाते हम रिक्शा हो गए हैं...अगर तीन पहियों वाला रिक्शा बन्द हो जाएगा। दो पहियों वाला रिक्शा तो चलता ही रहेगा।

(6)

‘‘देश पर गर्व करने वाले लोगों, तुम्हें रिक्शा को देखकर शर्म नहीं आती’

‘‘शर्म...शर्म क्यों आएगी’

‘‘इसके हाथ दरअसल पैर हो गए हैं। इसकी खांसी टी.वी की पहचान बन गई है। इसका शरीर बीमारियों का घर है। वह रिक्शा पर ही पैदा होता है, और वहीं जवान होता है, वहीं बूढ़ा होता है और वहीं मर जाता है...जुम्हें शर्म नहीं आती’

‘‘इसलिए तो पूछ रहा हूं।’’

‘‘सवाल पूछने से पहले अपनी हैसियत तो देख ली होती है।’’

‘‘मेरी हैसियत’

‘‘हां। हम तुम्हें जानते हैं...दिन में आदमी नजर आते हो और रात में रिक्शा बन जाते हो...रिक्शे सवाल नहीं पूछते...सिर्फ चलते हैं।’’

(7)

‘‘हे देश के धर्मगुरुओ, तुम्हें रिक्शा देखकर दया नहीं आती तुम तो दान और दया के प्रतीक हो...तुम सबके भगवान दयालु हो।’’।

‘‘हे प्रश्न पूछने वाले, हम नहीं जानते कि रिक्शा कैसा होता है। इस कारण दया करने या न करने का सवाल ही नहीं पैदा होता है।’’

‘‘महान धर्मगुरुओ, रिक्शा हमारे आपके जैसा मनुष्य ही है। पर उसका जीवन जानवर से बदतर है। कांस्क्ट्रेशन कैंप मे रहे बिना वह हड्डियों का ढांचा है...उन्हें जानवरों से कम मजदूरी मिलती है...रिक्शा पांच पहियों से जीवन की गाड़ी खींचता है, पर फिर भी वह आगे नहीं खिसकती...अब उत्तर दो, धर्मगुरुओ!’’

‘‘हे प्रश्न पूछने वाले, हम ऐसे प्रश्नों का उत्तर नहीं देते।’’

‘‘क्यों दया की मूर्तियो...ऐसा क्यों करते हो’

‘‘हम केवल आध्यात्मिक सवालों के ही उत्तर देते हैं।’’

‘‘रिक्शा की भी तो आत्मा है। उसे भी तो भगवान ने बनाया है।’’

‘‘आत्मा तो कीड़े-मकोड़े में होती है।’’

‘‘तो आप रिक्शा को कीड़ा-मकौड़ा समझते हैं।’’

‘‘अरे जब भगवान ने बना ही दिया है, तो हम क्या करें...दया ही कर सकते हैं।’’

‘‘धन्य हैं धर्मगुरुओ कि आपको रिक्शा पर दया तो आती है...भगवान ने तो उन्हें इस लायक भी नहीं समझा है।’’

(8)

रात काली और अंधेरी है। कड़ाके की सर्दी पड़ रही है। तेज हवा चल रही है। पानी भी रह-रहकर बरस रहा है। मैं और रिक्शा जामा मस्जिद के सामने मौलाना आजाद की कब्र से मिले पार्क में पॉलीथिन की चादर लपेटे खुले आसमान के नीचे सो रहे हैं। हमारे शरीर पत्ते की तरह कांप जाते हैं। रिक्शा ने रात में तरह-तरह की गालियां खा ली हैं यह शायद नशे में है। मैं नशे में नहीं हूं। पर अब लगता है नशे में होता तो कितना अच्छा होता। नशे में मरता तो कितना अच्छा होता।

‘‘सो गए रिक्शा।’’ मैंने पूछा।

‘‘न सोया हूं न जाग रहा हूं।’’

‘‘रिक्शा, देखो रात में मर न जाना।’’

‘‘एक ही बात है।’’ वह बोलकर चुप हो गया।

‘‘रिक्शा मैं सर्दी से कांप रहा हूं।’’

‘‘मैं भी कांप रहा हूं।’’

हम दोनों कांपने लगे। फिर हमारे शरीर अकड़ने लगे फिर लगा, हमें सर्दी नहीं लग रही है। फिर लगा इस मौसम में हम उड़ रहे हैं। फिर दूर से आवाजें आने लगीं। मैंने मुंह खोलना चाहा, पर खोल न सका। दिखाई दिया कि रिक्शा अकड़ गया है। उसकी आंखें पलट गई हैं। फिर मेरी भी आंखें पलट गई।

शमशान में हमें आग दी गई तो हम दोनों उठ गए। मेरी आंख, खुली तो पत्नी चाय दे रही थी। इधर-उधर देखा तो रिक्शा कहीं नहीं था।

(9)

देश में रिक्शा चालकों के पचास लाख पद हैं पदों पर नियुक्तियों को लेकर पूरे देश में बहुत तनाव है। राजधानी में लगातार प्रदर्शन हो रहे हैं। पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच कई बार हिंसक मुठभेड़ें हुई हैं। संसद के ग्रीष्मकालीन अधिवेशन में रिक्शा चालकों के पदों पर आरक्षण के सवाल पर विपक्ष और सत्ता पक्ष में सीधे टकराव की स्थिति पैदा हे गई। विपक्ष का आरोप है कि रिक्शा चालक पदों पर आरक्षण की नीति नहीं लागू होनी चाहिए। कुछ अन्य राजनैतिक दल मांग कर रहे हैं कि रिक्शा चालकों के पदों पर योग्याता के आधार पर ही नियुक्तियां होनी चाहिए।

दिल्ली में शान्ति पथ के पास एक युवक ने रिक्शा चालकों के पदों पर आरक्षण नीति लागू करने के विरोध में आत्मदाह का प्रयास किया है। इस युवक की अस्सी प्रतिशत जली हालत में सफदरजंग अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां के डॉक्टर और छात्र रिक्शा चालकों के पदों के लिए नई आरक्षण नीति का कड़ा विराध कर रहे हैं। सत्ता पक्ष के एक वरिष्ठ मंत्री ने संसद में बयान दिया कि सरकार रिक्शा चालक पदों के लिए 45 प्रतिशत दलितों के लिए आरक्षण नीति लागू करने के लिए प्रतिबद्ध है क्योकि अब तक ऊंची जाति के लोग इन पदों पर जमे बैठे हैं और कुछ तबकों को इसका लाभ नहीं मिल रहा है।

(10)

‘‘हे मीडिया गुरुओ ! तुम्हें रिक्शा पर दया नहीं आती’

‘‘आज प्रधानमंत्री शौचालय में बीस सेकंड अधिक बैठे।’’

‘‘मेरे सवाल का जवाब दो मीडिया गुरुओं।’’

‘‘योग्यता के आधार पर ही नौकरियां मिलनी चाहिए। विशेष रूप से पत्रकारिता के क्षेत्र में तो आरक्षण चल ही नहीं सकता...हम सब योग्य हैं जिन्हें नौकरियां मिल गई हैं...जिन्हें मिली हैं सब अयोग्य हैं।’’

‘‘मैं रिक्शा के बारे में पूछ रहा था।’’

‘‘सेक्स और अपराध से टी.आर.पी. बढ़ती है तो अधिक विज्ञापन मिलते हैं तो अधिक पैसा मिलता है तो अधिक पैसा आता है...कंपनी हमें भी अधिक पैसा देती है। हम अधिक एशोआराम करते हैं...

‘‘आप किसी और के बारे में कुछ नहीं सोचते’

‘‘खूब बेचो, खूब खरीदो, खूब खाओ, खूब उड़ओ...दरवाजे खोलो, खिड़की तोड़ों...अपराध करो...सेक्स करो...कंडोम साथ लेकर चलो...सुरक्षा ही सुरक्षा।

‘‘कृपया मेरे सवाल का जवाब दें।’’

‘‘रात पानी बरसने के कारण पिच खराब हो गई है। अब बचे हुए ओवर कल खेले जाएंगे।’’

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रचनाकार: असगर वजाहत की कहानी - दो पहियों वाले रिक्शे
असगर वजाहत की कहानी - दो पहियों वाले रिक्शे
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